बुधवार, 21 मार्च 2012

सम्बोधि के क्षण

(ओशो सम्बोधि दिवस: २१ मार्च, पर विशेष)

एक गाँव से गुज़रता था, एक छोटा सा बच्चा दिया लेकर जा रहा था.
पूछा उससे, “कहाँ जाते हो दिया लेकर?”
उसने कहा, “मंदिर जाना है.”
तो मैंने उससे कहा, “तुमने जलाया है दिया?”
तो उसने कहा, “मैंने ही जलाया है.”
मैंने पूछा, “जब तुमने ही जलाया है, तो तुम्हें पता होगा कि रोशनी कहाँ से आयी है? बता सकते हो?”

तब उस बच्चे ने नीचे से ऊपर तक मुझे देखा. फूंक मारकर रोशनी बुझा दी और कहा, “अभी आपके सामने चली गयी. बता सकते हैं कहाँ चली गयी? तो मैं भी बता दूंगा कि कहाँ से आयी थी. तो मैं सोचता हूँ, वहीं चली गयी होगी जहां से आयी थी.” उस बच्चे कहा, “कहाँ चली गयी होगी?”


तो, उस बच्चे के पैर छूने पड़े. और कोई उपाय न था. नमस्कार करना पड़ा कि तू अच्छा मिल गया. हमने तो मजाक किया था, लेकिन मजाक उलटा पड़ गया. बहुत भारी पड़ गया. अज्ञान इस बुरी तरह से दिखाई पड़ा, लेकिन ज्योति का पता नहीं चला कि कहाँ से आती है और कहाँ जाती है! और हम बड़े ज्ञान की बातें किये जा रहे हैं. उस दिन से मैंने ज्ञान की बातें करना बंद कर दिया.
क्या फायदा? जब एक ज्योति का पता नहीं तो भीतर की ज्योति की बातें करने में मैं चुप रहने लगा. उस बच्चे ने चुप करवाया.

हज़ारों किताबें पढीं, जिनमें लिखा था कि मौन रहो. नहीं रहा, लेकिन उस बच्चे ने ऐसा चुप करवा दिया कि कई वर्ष बीत गए, मैं नहीं बोला. लोग पूछते थे, बोलो. तो मैं लिख देता था कि दिए की ज्योति कहाँ जाती है, बताओ? मतलब क्या है बोलने का? कुछ पता नहीं है तो बोलूं क्या?

तो इसको मैं कहता हूँ ‘एटीट्यूड ऑफ लर्निंग और डिसाईपलशिप’, शिष्यत्व. गुरू को बिलकुल नहीं होना चाहिए दुनिया में, सब शिष्य होने चाहिए. और अभी हालत ये है कि गुरू सब हैं, शिष्य खोजना बहुत मुश्किल है!

(प्रवचन - सम्बोधि के क्षण
मुम्बई, १४.०९.१९६९)

बुधवार, 7 मार्च 2012

होली - एक कबित्त

ई हमारा पहिला कबित्त है, जो हम 'संवेदना के स्वर' पर आज से दू साल पहिले पर्कासित किये थे... आज इहाँ दोहरा रहे हैं... होली के सुबह कामना के साथ:

होली का त्यौहार, मची धूम चारों ओर है जी, देख-देख रंग की बौछार मन डरता है.
देश पर  भ्रष्ट  नेताओं  का   है  काला   रंग,  आतंक  की आग में ये देश देखो जरता है.
रंग  सतरंगी,  इन्द्रधनुष  सरीखे  थे  कल,  आज  भगवा  तो  हरा  शोर  कोई  करता  है.
महंगाई ने जो तोड़ रखी है कमर सब की, जनता का पेट आधा चौथाई ही भरता है.

गोरी की कलाई सूनी, चूड़ियाँ नहीं हैं सजी, श्याम भी सहम के कलाई आज धरता है.
फटी हुयी चूनर से झांकता यौवन और रीत गयी गागर से जल भूमि परता है.
माल तो समाप्त हुआ, पूआ बेसवाद हुआ, बालूशाही में से बालू-सा-ही कुछ झरता है
होलिका दहन प्रतिदिन हो रहा है आज, जीवन की चिता में मनुज नित जरता है.