गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

अजन्मा का जन्म-महोत्सव


रोम में एक सम्राट बीमार पड़ा हुआ था. वह इतना बीमार था कि चिकित्सकों ने अंतत: इंकार कर दिया कि वह नहीं बच सकेगा. सम्राट और उसके प्रियजन बहुत चिंतित हो आए और अब एक-एक घड़ी उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा ही करनी थी और तभी रोम में यह ख़बर आई कि एक फकीर आया है जो मुर्दों को भी जिला सकता है. सम्राट की आँखों में आशा वापस लौट आई. उसने अपने वज़ीरों को भेजा उस फ़कीर को लाने को.

वह फ़कीर आया और फ़कीर ने आकर उस सम्राट को कहा कि कौन कहता है कि तुम मर जाओगे... तुम्हें तो कोई बड़ी बीमारी भी नहीं है. तुम उठ कर बैठ जाओ, तुम ठीक हो सकोगे. एक छोटा सा ईलाज कर लो.

सम्राट जो महीनों से लेटा हुआ था, उठा नहीं था, उठकर बैठ गया. उसने कहा – कौन सा ईलाज, जल्दी बताओ, उसके पहले कि समाप्त न हो जाऊँ. क्योंकि चिकित्सक कहते हैं कि मेरा बचना मुश्किल है. वह फकीर बोला कि क्या तुम्हारी इस राजधानी में एकाध ऐसा आदमी नहीं मिल सकेगा जो सुखी भी हो और समृद्ध भी. अगर मिल सके तो उसके कपड़े ले आओ और उसके कपड़े तुम पहन लो. तुम बच जाओगे. तुम्हारी मौत पास नहीं.

वज़ीर बोले – यह तो बहुत आसान सी बात है. इतनी बड़ी राजधानी है, इतने सुखी, इतने समृद्ध लोग हैं.. महलों से आकाश छू रहे हैं महल. आपको दिखाई नहीं पड़ता. यह वस्त्र हम अभी ले आते हैं. फ़कीर हँसने लगा. उसने कहा – अगर तुम वस्त्र ले आओ तो सम्राट बच जाएगा.

वे वज़ीर भागे. वह उस फकीर की हँसी को कोई भी न समझ सका. वे गए नगर के सबसे बड़े धनपति के पास और उन्होंने जाकर कहा कि सम्राट मरण शय्या पर है और किसी फ़कीर ने कहा है कि वह बच जाएगा... किसी सुखी और समृद्ध आदमी के वस्त्र चाहिये. आप अपने वस्त्र दे दें. नगरसेठ की आँखों में आँसू आ गये. उसने कहा – मैं अपने वस्त्र ही नहीं अपने प्राण भी दे सकता हूँ, अगर सम्राट बचते हों. लेकिन मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे. मैं समृद्ध तो हूँ लेकिन सुखी मैं नहीं हूँ. सुख की खोज में मैंने समृद्धि इकट्ठी कर ली, लेकिन सुख से अब तक नहीं मिलन हो सका. और अब तो मेरी आशा भी टूटती जाती है. क्योंकि जितनी समृद्धि सम्भव थी, मेरे पास आ गयी है और अब तक सुख के कोई दर्शन नहीं हुए. मेरे वस्त्र काम नहीं आ सकेंगे. मैं दुखी हूँ... मैं क्षमा चाहता हूँ.

वज़ीर तो बहुत हैरान हुये. उन्हें फ़कीर की हँसी याद आई. लेकिन और लोगों के पास जाकर पूछ लेना उचित था. वे नगर के और धनपतियों के पास गये. और साँझ होने लगी. और जिसके पास गये उसी ने कहा कि समृद्धि तो बहुत है, लेकिन सुख से हमारी कोई पहचान नहीं. वस्त्र हमारे... काम नहीं आ सकेंगे. फिर तो वे बहुत घबराए कि सम्राट को क्या मुँह दिखाएँगे. सम्राट खुश हो गया और यह ईलाज हमने समझा था कि सस्ता है. यह तो बहुत मँहगा मालूम पड़ता है... बहुत कठिन.

तभी उनके पीछे दौड़ता हुआ सम्राट का बूढा नौकर हँसने लगा और उसने कहा कि जब फकीर हँसा था तभी मैं समझ गया था. और जब तुम सम्राट के सबसे बड़े वज़ीर भी अपने वस्त्र देने का ख़्याल तुम्हारे मन में न उठा और दूसरों के वस्त्र माँगने चले, तभी मैं समझ गया था कि यह ईलाज मुश्किल है.

फिर जब सूरज ढल गया तो वे सम्राट के महल के पास पहुँचे. महल के पीछे ही गाँव की नदी बहती थी. अन्धेरे में नदी के उस पार से किसी की बाँसुरी की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी. वह संगीत बड़ा मधुर था. वह संगीत बड़ी शांति की ख़बर लिये हुये था. उस संगीत की लहरों के साथ आनन्द की भी कोई धुन थी. उसके संगीत में ही ऐसी कुछ बात थी कि उनके प्राण भी जो निराशा और उदासी से भरे थे वे भी पुलक उठे. वे भी नाचने लगे. वे उस आदमी के पास पहुँचे और उन्होंने कहा कि मित्र हम बहुत संकट में हैं, हमें बचाओ. सम्राट मरण शय्या पर पड़ा है. हम तुमसे यह पूछने आए हैं कि तुम्हें जीवन में आनन्द मिला है? वह आदमी कहने लगा – आनन्द मैंने पा लिया है. कहो मैं क्या कर सकता हूँ. वे खुशी से भर गये और उन्होंने कहा कि तुम्हारे वस्त्रों की ज़रूरत है. वह आदमी हँसने लगा. उसने कहा - मैं अपने प्राण दे दूँ अगर सम्राट को बचाना हो. लेकिन वस्त्र मेरे पास नहीं है. मैं नंगा बैठा हुआ हूँ. अन्धेरे में आपको दिखाई नहीं पड़ रहा.

उस रात वह सम्राट मर गया. क्योंकि समृद्ध लोग मिले जिनका सुख से कोई परिचय न था. एक सुखी आदमी मिला जिसके वस्त्र भी न थे. अधूरे आदमी मिले, एक भी पूरा आदमी न मिला, जिसके पास वस्त्र भी हो और जिसके पास आत्मा भी हो... ऐसा कोई आदमी न मिला. इसलिये सम्राट मर गया.

पता नहीं यह कहानी कहाँ तक सच है. लेकिन आज तो पूरी मनुष्यता मरणशय्या पर पड़ी है और आज भी यही सवाल है कि क्या हम ऐसा मनुष्य पैदा कर सकेंगे जो समृद्ध भी हो और शांत भी? जिसके पास वस्त्र भी हो और आत्मा भी? जिसके पास सम्पदा हो बाहर की और भीतर की भी? जिसके पास शरीर के सुख भी हों और आत्मा के आनंद भी?

(प्रिय ओशो के जन्म-दिवस पर उन्हीं के एक प्रवचन से उद्दृत )

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

इक धुंध से आना है, इक धुंध में जाना है

20 नवम्बर 2014 सुबह पाँच बजे:
सिरहाने रखे हुए हमरे मोबाइल का रिंग बजा त हम घबरा गए. हमरे सभी जान-पहचान अऊर रिस्तेदार लोग में से कोई भी हमको रात में भले एक बजे तक फोन कर ले, मगर सुबह-सुबह कोई फोन नहीं करता है. अऊर ई त भोरे-भोरे फोन बज रहा था. बन्द आँख से फोन उठाये अऊर टटोलकर चस्मा खोजे. नाम फ्लैस कर रहा था चैतन्य.

घबराहट में फ़ोन उठाये तो उधर से हमसे जादा घबराहट भरा आवाज सुनाई दिया, “सर जी! नेट पर फ्लाइट चेक करो आप! अभी निकलना है घर से फोन आया है!”
”फोन रखो. मैं चेक करके फोन करता हूँ.”

एक रोज़ पहले ही ऊ घर से लौटे थे अऊर अभी त कल का थकान भी नहीं उतरा था.
हम लैपटॉप लेकर बइठ गये अऊर फ्लाइट चेक करने लगे.
“सर जी! एक फ्लाइट नौ बजे है और दूसरी ग्यारह चालीस पर.”
”नौ बजे वाली नहीं मिलेगी! आप ग्यारह चालीस वाली बुक कर दो.”
”ठीक है. आपको मेसेज आएगा, फिर भी मैं टिकट मेल करता हूँ!”

इसके अलावा न हम दुनो में कोई बात हुआ न हमलोग कुछ पूछे एक दूसरा से. डर अऊर अनिस्ट का आसंका अऊर आभास होने पर भी कुछ बात अपना कान से सुनने अऊर आँख से देखने का हिम्मत नहीं होता है.

साल 2006-07
चैतन्य जी के साथ हमरा दोस्ती का सुरुआती दौर था. कोनो काम से उनके घर गये त देखे एगो बुजुर्ग बेक्ति दीवान पर बैठे हुये हैं. पैर छुए त ऊ हाथ उठाकर आसीर्बाद दिये. बहुत कम बोलना चालना. चैतन्य जी के पिता जी के साथ ऊ हमरा पहिला मुलाकात था. हम औपचारिकता में कुछ पूछते रहे त ऊ माथा हिलाकर जवाब देते रहे. दोबारा चण्डीगढ़ में उनसे मिले, मगर ऊ भी बहुत थोड़ा देर के लिये.

साल 2008-09
चैतन्य जी नया नया हैण्डीकैम खरीदे थे अऊर सोनी टीवी के सी.आई.डी. के तर्ज पर घर के सबलोग को एकट्ठा करके एगो सिनेमा बना दिये. ऊ सिनेमा में उनका बचिया, सिरीमती जी, छोटा भाई, भाई के पत्नी के साथ-साथ उनके माँ अऊर बाबूजी भी जमकर ऐक्टिंग किये थे. सूटिंग जाड़ा के टाइम में हुआ था इसलिये सम्बाद बोलते बोलते उनकी अम्मा का ई डायलॉग सुनकर हँसते हँसते हाल बेहाल हो गया था कि कोई दरवाज़ा तो बन्द कर दो भाई! खैर, घर के सबलोग का बराबर का सहजोग अऊर बड़ा से बच्चा तक का काम देखकर मजा आ गया.

साल 2010-14
पिताजी के बारे में हमलोग के बीच बहुत सा बात होता था. जैसे उनका अस्थानीय अखबार में आलेख लिखना, आसपास के लोग का कानूनी मदद करना, सरकार को उसका काम याद दिलाना अऊर चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रचार करना. घर पर खुलकर राजनैतिक बहस करना अऊर दोसरा पक्ष का बात सुनना. कोनो तरह का नाजायज काम एकदम बर्दास्त नहीं करना. बच्चा लोग लाख कहे कि जाने दीजिये चलता है, लेकिन उनका कहाँ चलता है. जबतक नाक में दम करके काम नहीं करवा लेंगे तब तक चैन कहाँ. लिखा पढी में त परधान मंत्री तक को अप्लीकेसन लिखने में हिचक नहीं!

आज के जमाना में भी ट्रांजिस्टर पर समाचार सुनने में उनको जो आनन्द मिलता था ऊ टीवी में नहीं. एही नहीं आकासबानी रामपुर द्वारा आयोजित परिचर्चा में त ऊ नियमित रूप से आमंत्रित किये जाते थे. अफसोस का बात है कि उनका परिचर्चा का कोनो रेकॉर्डिंग नहीं है.

अगस्त 2014
अचानक उनका तबियत खराब हुआ... खून का रिपोर्ट में गड़बड़ी निकला... आगे जाँच हुआ त पता चला गुर्दा का कैंसर है ऐडभांस इस्टेज का... ऑपरेसन करके गुर्दा हटा दिया गया... हस्पताल से डिस्चार्ज हुए... कमजोर मगर ठीकठाक.

नवम्बर 2014
दोबारा तबियत बिगड़ा.. पता चला कि फेफड़ा में पानी भर गया है... फिर से भर्ती... साढे सात सौ ग्राम पानी निकला... दस दिन तक पाइप लगा रहा... 17 तारीख को फिर से डिस्चार्ज हुये अऊर घर पहुँच गये... 19 नवम्बर को चैतन्य के सिर पर हाथ फेरकर आसीर्बाद देते हुये बोले कि तुम जाओ, केतना दिन नौकरी छोड़कर बैठोगे. चैतन्य चले गये..

तारीख 20 नवम्बर 2014
साम को चैतन्य का मेसेज आया... पिताजी नहीं रहे! अचानक लोड-सेडिंग होने से जइसे अन्धारा हो जाता है मन में चल रहा भोरे से जो उम्मीद का दिया टिमटिमा रहा था, ऊ बुझ गया.

कल चैतन्य से बात हुआ त पता चला कि नाता रिस्तेदार के अलावा पता नहीं केतना अनजान लोग उनको सर्धांजलि देने आया, जिसमें हिन्दू मुसलमान, अमीर गरीब सब तरह के लोग थे. कल त हद हो गया जब मुम्बई से सीधा एगो बेक्ति उनको सर्धांजलि देने आये अऊर एक घण्टा रुककर लौट गये... ई हो बता गये उनकी बहिन उज्जैन से कल-परसों आने वाली है.

बचपन में हमरे दादा जी गुलाब का कलम लगाते थे. जिसमें बहुत सुन्दर गुलाब का पौधा खिलता था. लेकिन एक बार उसमें कोनो पौधा नहीं निकला, उलटे कलम सूख गया. बाद में पड़ताल करने पर पता चला कि हमरा भाई ऊ कलम को जमीन में रोज घुमा देता था.

हम दुनो दोस्त – हम अऊर चैतन्य एही बतिया रहे थे आपस में कि ई नौकरी हमलोग को अपना जमीन से केतना दूर जाकर कलम के तरह रोप दिया है अऊर हर तीन साल में कोई आता है अऊर उसको घुमाकर दोसरा जगह रोप देता है. जब हमलोग वापस अपना मिट्टी में लौटकर जाएँगे त ऊ मट्टी भी सायद हमलोग को नहीं पहचानेगा, लोगबाग का त बाते अलग है.

पिताजी जाते-जाते अपना नेत्रदान कर गये. उनके आँख से कोई जरूरतमन्द नया दुनिया देख पाएगा. आसमान के तरफ देखते हुये सायद कभी उसको एगो तारा देखाई दे जिसको ऊ धन्यवाद देते हुये कहेगा – कौन कहता है कि आप नहीं हैं. आसमान के तारों से लेकर धरती की मिट्टी तक और आसमान के देवताओं से लेकर धरती के न जाने कितने जरूरतमन्दों के दिल में आप जीवित हैं!

पिता जी के इस्मृति को हमरा सादर नमन!!