शनिवार, 29 दिसंबर 2012

काला शनिवार


आज इस साल ने जाते जाते,
मुँह पे कालिख सी पोत डाली है.
सर झुकाए हैं, शर्मसार हैं हम!!
  

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

(कु)सभ्यता

दिल्ली कभी हमरे सपना का सहर नहीं था. नौकरी के सिलसिला में दू-एक बार हमसे पूछा भी गया दिल्ली जाने के लिए, त हम मना कर दिए. मगर जब २००५ में हम दिल्ली आये, तब सोचे कि चलो मन मारकर रह लेते हैं. ओही टाइम में जब हम नोएडा में रहते थे, तब निठारी कांड सामने आया. तब हम एगो लंबा नज़्म लिखे थे. आज जब दिल्ली में एतना बड़ा कांड हुआ है त अचानके हमारा नज़्म सामयिक हो गया.
कभी इसको हम ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं किये, लेकिन आज रोक नहीं पा रहे हैं!

तुम मुझे दो एक अच्छी माँ, तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.

बात तो जिसने कही थी सच कही थी
पर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता हो, नहीं इतिहास कहता.

माँ कहा करते थे नदियों को,
और उनको पूजते थे
तब कहीं जाकर जने थे सभ्यता के पूत ऐसे
आज भी है साक्षी इतिहास जिनका.

पुस्तकों में था पढा हमने कि
दुनिया की पुरानी सभ्यताएँ
थीं फली फूली बढीं नदियों के तट पर.
याद कर लें हम
वो चाहे नील की हो सभ्यता या सिंधु घाटी की
गवाह उनके अभी भी हैं चुनौती आज की तकनीक को
चाहे पिरमिड मिस्र के हों
या हड़प्पा की वो गलियाँ, नालियाँ, हम्माम सारे.

माँ तो हम सब आज भी कहते हैं नदियों को
बड़े ही गर्व से जय बोलते हैं गंगा मईया की,
औ’ श्रद्धा से झुकाते सिर हैं अपना
जब गुज़रते हैं कभी जमुना के पुल से.

वक़्त किसके पास होता है मगर
कुछ पल ठहरकर झाँक ले जमुना के पानी में
था जिसको देखकर बिटिया ने मेरी पूछा मुझसे,
“डैड! ये इतना बड़ा नाला यहाँ पर कैसे आया?
कितना गंदा है चलो
 जल्दी यहाँ से!”

कैसे मैं उसको ये बतलाऊँ कि इस नाले का पानी,
हम रखा करते थे पूजा में
छिडककर सिर पे, धोते पाप अपने,

काँप उट्ठा दिल उसी दिन
दुर्दशा को देखकर गंगा की, जमुना की.
आज की इस नस्ल को क्या ये नहीं मालूम,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!

मित्रों,
आपको मालूम हो उस शख्स का कोई पता
तो इस नगर का भी पता उसको बताना,
और कहना
आके बस इक बार ये ऐलान कर दे,

तुम मुझे दो एक अच्छी माँ
तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूंगा! 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

उलझे धागे



न कभी जन्मे - न कभी विदा हुए 
जो सिर्फ अतिथि रहे इस पृथ्वी-गृह पर 
११ दिसंबर १९३१ एवं १९ जनवरी १९९० के मध्य 

ओशो को पढते हुए अचानक उनके प्रवचन "अथातो भक्ति जिज्ञासा" के अंतर्गत देखा कि गुलज़ार साहब की कुछ नज्में उद्धृत की हैं उन्होंने. प्रेम के भाव से ओत-प्रोत नज्मों का आध्यात्मिक विश्लेषण देखकर चकित रह गया.
आज प्रिय ओशो के जन्म-दिवस पर उनकी उसी प्रवचनमाला का एक मोती प्रस्तुत है:
***


क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ 
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा 
अगरचे एहसास कह रहा है 
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं 
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है 
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा 
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ 
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले 
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 


स्नेह हो या प्रेम या श्रद्धा या भक्ति – प्रीति का कोई भी रूप, प्रीति की कोई भी तरंग – बाधा एक है – अहंकार. क्षुद्रतम प्रेम से विराटतम प्रेम तक बाधाएं अलग-अलग नहीं हैं. एक ही बाधा है सदा – अस्मिता! मैं यदि बहुत मजबूत हो तो प्रेम नहीं फल सकेगा. मैं का अर्थ है, परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना! प्रेमी की तरफ पीठ करके खड़े होना! मैं का अर्थ है – अकड.

परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किये खड़े हो. परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, हाथ बढ़ाओ तो मिल जाए. ज़रा गुनगुनाओ, तो आवाज़ उस तक पहुँच जाए. ज़रा मुडकर देखो, तो दिखाई पड़ जाए. मगर अहंकार कहता है - मुडकर देखना मत. अहंकार कहता है - पुकारना मत. अहंकार अटकाता है और अहंकार के जाल बड़े सूक्ष्म हैं. मनुष्य और परमात्मा के बीच इसके अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं है.

एक आदमी ने ईश्वर की बहुत-बहुत प्रार्थना की. ईश्वर प्रसन्न हुआ और ईश्वर ने उसे एक शंख भेंट कर दिया और कहा, इससे जो तू माँगेगा, मिल जाएगा. वह आदमी क्षण भर में धनी हो गया. जो माँगा, मिलने लगा. जब माँगा, तब मिलने लगा. लाख रुपये कहे तो तत्क्षण छप्पर खुला और बरस गये.
अचानक उसके भाग्य में परिवर्तन देखकर दूर-दूर तक खबरें पहुँच गयीं कि चमत्कार हो रहा है. न वह घर से बाहर जाता है, न कोई व्यवसाय करता है और खज़ाने खुल गये हैं.
एक सन्यासी उसके घर में आकर मेहमान हुआ. सन्यासी सुबह पूजा कर रहा था. गृहस्थ ने उस सन्यासी को पूजा करते देखा. उस सन्यासी के पास एक बड़ा शंख था. सन्यासी ने उस शंख से कहा कि मुझे लाख रुपये चाहिये. वह गृहस्थ पीछे खड़ा होकर सुन रहा था. उसने सोचा अरे! इसके पास भी वैसा ही शंख है और मुझसे भी बड़ा है.
शंख बोला लाख से क्या होगा, दो लाख ले लो!
गृहस्थ के मन में बड़ी लोभ की वृत्ति उठी कि शंख हो तो ऐसा हो. मेरे पास है, लाख माँगता हूँ, लाख दे देता है, जितना माँगो उतना दे देता है यह भी कोई बात हुई! यह है शंख! लाख कहो, दो लाख कह रहा है! माँगने वाला कहता है – लाख, शंख कहता है – दो लाख ले लो! पैरों पर गिर पड़ा सन्यासी के. कहा, “आप सन्यासी हैं! आपके लिए ऐसे शंख की क्या ज़रूरत? मैं गृहस्थ हूँ, फिर मेरे पास भी शंख है, वह आप ले लें! वह उतना ही देता है जितना मांगो. आपको वैसे ही ज़रूरत नहीं है.”
सन्यासी राजी हो गया. शंख बदल लिए गए. सन्यासी उसी सुबह विदा भी हो गया. साँझ पूजा के बाद गृहस्थ ने शंख को कहा, “लाख रुपया.”
शंख ने कहा, “लाख में क्या होगा! दो लाख ले लो!”
गृहस्थ बड़ा प्रसन्न हुआ, कहा, “धन्यवाद! तो दो ही लाख सही!”
शंख ने कहा, “दो में क्या होगा, चार ले लो!”
बस, शंख ऐसे ही कहता चला गया. चार कहा तो कहा- आठ ले लो, और आठ कहा तो कहा-सोलह ले लो!
थोड़ी देर में गृहस्थ की तो छाती काँप गयी. देने लेने की तो कोई बात ही नहीं थी, सिर्फ संख्या दुगुनी हो जाती थी.

अहंकार महाशंख है. तुम मांगो, उससे कई गुना देने को तैयार है - देता कभी नहीं. हाथ कभी कुछ नहीं आता. अहंकार से बड़ा झूठ इस संसार में दूसरा नहीं है. सारी भ्रांतियों का स्रोत है. उससे ही उठती है सारी माया. उससे ही उठाता है सारा संसार. संसार को छोड़कर मत भागना – क्योंकि कहाँ भागोगे, अहंकार तुम्हारे साथ रहेगा. जहाँ अहंकार रहेगा, वहाँ संसार रहेगा. छोड़ना हो कुछ तो अहंकार छोड़ दो. और मज़ा यह है कि छोड़ना कुछ भी नहीं पड़ता.

अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है. सिर्फ मन में पड़ गयी एक गाँठ है. धागे उलझ गए हैं और गाँठ हो गयी है. धागे सुलझा लो और गाँठ खो जायेगी. ऐसा नहीं है कि धागे सुलझने पर गाँठ भी बचेगी, कि जब धागे सुलझ जायेंगे, तब गाँठ भी हाथ आयेगी. गाँठ कुछ है ही नहीं.

तुम्हारे विचार के धागे ही उलझ गए हैं. जितने ज़्यादा उलझ गए हैं, उतनी बड़ी गाँठ हो गयी है. उलझते ही चले जा रहे हैं, सुलझाव का कोई उपाय नहीं दिखता है. यही गाँठ बाधा है. धागे चित्त के सुलझ जाएँ, परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं था.