सोमवार, 19 सितंबर 2016

अ ट्रेन फ्रॉम मुम्बई


मुम्बई: 26 नवम्बर 2008

गरीबी से परेसान अऊर परिवार-समाज से निकाली हुई एगो औरत अपना बीस साल की बच्ची को लेकर मुम्बई पहुँची. ई सोचकर कि ओहाँ से कोनो दोसरा गाँव-सहर में जाकर खेत में मजूरी करके अपना अऊर बेटी का पेट पाल लेगी. अपना गाँव में जब कोनो सहारा नहीं रहा त सबै भूमि गोपाल की. रात को छत्रपति सिवाजी टर्मिनस इस्टेसन पर आकर कोनो ट्रेन से आगे जाने का बिचार था. अचानक रात में साढे नौ बजे के आस-पास तीन चार गो जवान बन्दूकधारी, फौजी वर्दी में ओहाँ आया अऊर दनादन फायरिंग सुरू कर दिया. देखते देखते ओहाँ लास का अम्बार लग गया. कुछ लोग गोली से मरा अऊर बहुत लोग भगदड़ में चँपा गया. एही भागदौड़ में ऊ औरत का हाथ अपना बेटी के हाथ से छूट गया अऊर फिर अदमी का समुन्दर में ऊ कहाँ बह कर बिला गई, पते नहीं चला. बेटी सदमा में, न कुछ बोलने के हालत में, न बताने के हालत में. कुछ चोट भी लगा अऊर खून भी निकल रहा था. बाद में पुलिस अऊर स्वयम सेवक लोग मिलकर उसकी माए को खोजने का कोसिस किया, मगर सब बेकार. अंत में दू दिन बाद, उसको लोग बान्द्रा इस्टेसन पहुँचा दिया जहाँ अऊर भी बहुत सा लोग झुण्ड में था. 

भावनगर: गुजरात

जइसे पटना का पहचान तीन ठो “ग” से है – गंगा जी, गाँधी मैदान अऊर गोलघर, ओइसहिं भावनगर में भी तीन ठो “ग” बहुत मसहूर है. मगर सम्भलकर... कोनो भावनगर वाला अदमी को ई बात बोल दिये त बमक जाएगा. ऊ तीन “ग” है – गाय, गाँठिया अऊर गाण्डा! इसमें बमकने वाला बात “गाण्डा” है – माने पागल. हम जब खोज किये त पता चला कि एहाँ सच्चो में बहुत सा मानसिक रोगी पाया जाता है. अब त बहुत सा मानसिक रुग्नालय हो गया है, नहीं त एक टाइम था कि ऊ लोग सड़क पर घूमता रहता था, जइसे गाय. लोग नियम से गाय को चारा खिलाते हैं, बाकी गाय रोड पर बइठल है त कोनो नहीं उठाता है. बचा गाँठिया, त ई नमकीन ब्यंजन एहाँ के घर घर का पहचान है.
हाँ त ई मानसिक रोगी लोग के बारे जब पड़ताल किये तब पता चला कि पच्छिम रेलवे का भावनगर इस्टेसन अंतिम इस्टेसन है, उसके बाद समुन्दर. इसलिये एहाँ आने वाला गाड़ी में ई रोगी लोग को बइठाकर अलग अलग जगह से रवाना कर दिया जाता था. बाद में ई सहर का दयालु सोभाव ऊ लोग को अपना लेता था. बहुत तादाद में एहाँ पागल लोग का खेप आता रहता था.

मुम्बई: बान्द्रा टर्मिनस:

अपना घाव पर पट्टी बाँधे, ऊ लड़की बेचारी अपना माए को नहीं खोज पाई. हारकर कोनो से माँगकर आधा पेट कुछ खाई. कम उमर के लड़की को, का करे कुछ नहीं बुझा रहा था. एही परेसानी में सबेरे से साँझ हो गया अऊर साँझ से रात. जब कुच्छो समझ में नहीं आया त रात को प्लेट्फारम पर जऊन गाड़ी सामने देखाई दिया, ओही गाड़ी में चढ़ गई अऊर एगो कोना देखकर बइठ गई.

भावनगर टर्मिनस:

पच्छिम रेलवे का मण्डल होने के बावजूद भी एकदम उपेच्छित इस्टेसन है - भावनगर टर्मिनस. मगर मेहनतकस लोग के लिये, बस मेहनत का महत्व है, का आदर – का उपेच्छा. ई इस्टेसन पर अस्सी परसेण्ट कुली बूढी औरत सब हैं. बाकायदा बर्दी पहने अऊर बाँह में ताबीज के जइसा बिल्ला बाँधे. कोनो बुजुर्ग औरत ई नहीं देखती कि उसका बिल्ला नम्बर 786 त नहीं, काहे कि उसको पता है कि ईमानदारी अऊर मेहनत करने वाले का बिल्ला नम्बर 786 होइये जाता है. एगो बात अच्छा है कि ई लोग समान अपना माथा पर नहीं उठाती हैं, बल्कि पोर्टर लोग का गाड़ी में खींचकर ले जाती है. एही इस्टेसन पर बहुत सा हौकर लोग एगो झोला में तरह तरह का फरसाण (नमकीन नास्ता) बेचते हुये भी देखाई दे जाता है.

भावनगर : हमारा ऑफिस

छोटा जगह होने के कारन लोग के साथ बेक्तिगत पहचान बन जाना सोभाविक है, खासकर तब जब लोग बहुत मिलनसार हो. एक रोज अपना केबिन के सीसा से देखे कि कोनो कुछ बेचने वाला आया है अऊर सब इस्टाफ लोग उससे कुछ न कुछ खरीद रहा है. हम बोलाए अऊर पूछे कि ई सब का हो रहा है त पता चला कि ऊ बेचने वाला आदमी गूँगा-बहिरा है. मगर बहुत दिन से आता है अऊर सब लोग उससे नमकीन, बिस्कुट खरीद लेता है. दिन भर मेहनत करता है बेचारा अपना परिबार के लिये. ऊ हमरे पास भी आया अऊर का मालूम का बात था उसमें कि बस हमारा दोस्ती हो गया उसके साथ. कुछ गुजराती में लिखकर, कुछ इसारा में अऊर कुछ अजीब सा आवाज निकालकर जो बताया उससे एही समझ में आया कि ऊ कोनो सेठ के एहाँ से ई सब सामान लेता है अऊर दू-चार रुपिया के मुनाफा पर बेचता है. दिन में इस्टेसन पर, दुपहर में ऑफिस सब में अऊर साँझ को साइकिल पर झोला बाँधकर गाँव में बेचते हुये घर लौट जाता है.

बान्द्रा एक्स्प्रेस: अंतिम स्टेशन

जब सबेरे करीब दस-साढे दस बजे ऊ लड़की का गाड़ी आकर इस्टेसन पर लगा त पूरा गाड़ी खाली हो गया, माने ई गाड़ी आगे नहीं जाने वाला था. ऊ गाड़ी से उतरी अऊर डरी-सहमी सामने लगा हुआ नलका में पानी से मुँह-धोकर आगे का करे एही सोच रही थी, तब तक उसके सामने एगो झोला लिये हुये भेण्डर आकर खड़ा हो गया. उसको एगो गाँठिया का पैकेट निकालकर दिया. लड़की के पास पइसा त था नहीं, इसलिये ऊ मना कर दी. मगर ऊ बेचने वाला जबर्दस्ती उसको हाथ में धरा दिया अऊर इसारा से बताया कि पइसा देने का जरूरत नहीं है. ई हालत में जब ‘दुख ने दुख से बात की’ तब ऊ लड़की को समझ में आया कि ऊ फरसाण बेचने वाला गूँगा है. ऊ लगभग रोते हुये उसको इसारा से बताई कि उसका ई दुनिया में कोई नहीं है. एक मिनट सोचने के बाद ऊ गूँगा उसको अपने साथ अपना घरे ले गया अऊर अपना माँ को सब बात बताया. ऊ लड़की रोते हुये अपना पूरा कहानी बताई. बूढ़ी माँ उसको अपना गले से लगा ली.

भावनगर: कुछ समय बाद

बूढी औरत के काम में वो लड़की हाथ बँटाने लगी अऊर धीरे धीरे भासा अऊर बेगानगी का दीवार मिट गया. ऊ लड़की को जइसे उसकी माँ मिल गई. मगर बूढ़ी औरत दुनिया देख चुकी थी. एक रोज रात को खाने के टाइम पर तीनों जब एक साथ बइठ कर खाना खा रहे थे, तब बूढ़ी ऊ लड़की से बोली, “देखो, यहाँ रहते हुये तुम्हें दो तीन हफ्ते हो चुके हैं. तुम दोनों जवान हो और समाज में लोगों को जवाब भी देना पड़ता है! मैं तुमपर किसी तरह का ज़ोर नहीं दे रही. लेकिन मेरा बेटा घर चलाने भर कमा लेता है और मैं भी काम करती हूँ. तुम भी मेरे काम में हाथ बँटाती हो. बस मेरे बेटे के साथ भगवान ने यही अन्याय किया है कि उसकी ज़ुबान छीन ली है. फिर भी मैं तुमसे पूछ रही हूँ कि क्या तुम मेरे बेटे से शादी करोगी?” बिना सुने ऊ लड़का सब समझ गया अऊर लड़की के तरफ देखने लगा. ऊ लड़की चुपचाप अपना सिर झुका ली अऊर माँ के गले से लग गई. बूढ़ी भी दुनो बच्चा को अपना छाती से लगा ली.


स्वीकारोक्ति:
यह घटना एक मूक वधिर व्यक्ति के इशारों और कुछ लिखकर बताए गए वर्णन के आधार पर प्रस्तुत की गयी है. इसलिए इसमें कुछ स्वतंत्रता मेरे द्वारा ली गयी है, लेकिन उतनी ही मात्रा में, जिसमें घटना की मूल भावना प्रभावित न हो. इसमें पात्रों के नाम लड़का और लड़की ही बताए गए हैं, जबकि मैं चाहता तो पंकज भाई और चन्दन बेन भी लिख सकता था. लेकिन नाम में क्या रखा है और इंसानियत का कोई नाम हो भी नहीं सकता. और अंत में, चूँकि यह एक घटना का सिलसिलेवार बयान है, कोई कहानी नहीं, इसलिए इसमें संवादों का कोई स्थान नहीं. 

रविवार, 11 सितंबर 2016

बधाई दो कि दो से तीन अब हम हो गए हैं

बहुत्ते अच्छा लगता है, जब कोई आपके बारे में चिंता करता है. बाकी ई चिंता करना कभी-कभी बहुत इरिटेटिंग हो जाता है. आपका बच्चा दसवाँ पास किया नहीं कि आस पड़ोस में चिंता सुरू कि आगे का करेगा. बारवाँ पास करने के बाद त ई चिंता एकदम्मे से आसमान छूने लगता है... कहाँ कहाँ अप्लाई किया, कोन कोन इंजीनियरिंग में केतना नम्बर आया, कट-ऑफ केतना था, रैंकिंग का है वगैरह वगैरह. इंजीनियरिंग में चला गया त कुछ साल त ठीक ठाक निकला, लेकिन फिर बेतलवा पेड़ पर. कैम्पस सेलेक्सन में का हुआ. अच्छा प्लेसमेण्ट मिला कि नहीं.

कुल मिलाकर आपके लिये आपसे जादा पड़ोस में चिंता फिकिर होता है लोग को. नौकरी लग गया त सादी-बियाह का चिंता अऊर बिआह सादी हो गया त – का भाई, कब तक दू से तीन हो रहे हो. माने जिन्नगी में ई चिंता का फेरा चलते रहता है. आप इरिटेट होइये, चाहे खुस होइये... पूछने वाला को कोई फरक नहीं पड़ता है.

बेटी के होस्टल चल जाने के बाद हम लोग तीन से दू रह गये. मगर तब कोनो चिंता जताने नहीं आया. दिल्ली आने के बाद भी बेटी होस्टले में है. मगर खुसी का बात ई है कि लगभग एक साल बेटी के बिना काटने के बाद हमलोग दू से तीन हो गये हैं. अब ई उमर में दू से तीन होना अजीब महसूस होता है. आदत जो छूट गया है. धीरे-धीरे अब आदत हो गया है आदत नहीं रूटीन कहिये.

सबेरे जब नींद से उसको उठाने जाइये, त बोलती है – अभी थोड़ा और सोने दो. तब समझाना पड़ता है कि हमको ऑफिस जाना है. फिर सम्भालकर उठाना, धीरे से माथा अऊर कंधा पकड़कर बैठाना पड़ता है. गोदी में उठाकर टॉयलेट ले जाना. फिर ब्रस करवाना, नहलाना, कपड़ा बदलना अऊर बाल में कंघी करके चोटी बनाने का काम सिरीमती जी का.

हम त कभी-कभी बहुत प्यार से गाल चूम लेते हैं अऊर कभी-कभी परेसान होकर गोसियाइयो जाते हैं. लेकिन बाद में अफसोस होता है. आजकल त मजेदार ट्यूनिंग हो गया है. ऑफिस से आने के बाद मजाक करना अऊर मिलकर हँसना. हर पाँच मिनट के बाद लेटा दो अऊर पाँच मिनट में बइठा दो. कभी पाँच मिनट से जादा हो गया त हमहीं पूछ लेते हैं कि बइठा दें. त हँसते हुये मूड़ी डोला देती है. हम भी कम नहीं हैं. बोलना पड़ता है – “ई छटाँक भर का जुबान नहीं हिलता है, पसेरी भर का मूड़ी हिल जाता है!” त कहती है – “हमको चिढा रहे हो? बैठा दो!”

खाना का फरमाइस एक से एक. “आज समोसा चाट खाने का मन है”... “आज दोसा बना दो”... कल नूडल्स बना देना... “मकई का रोटी अऊर बैगन का चोखा खाने का मन है”! अब सिरीमती जी का परिच्छा होता है कि ऊ फूड-फ़ूड चैनेल से केतना खाना बनाना सीखी हैं. मगर एक बात है कि उनको हमेसा पूरा नम्बर मिल जाता है.

दू से तीन होना हमेसा खुसी का बात होता है. बहुत लम्बा समय अकेलेपन में बीता है हमारा, अइसे में बहुत डर के साथ जो मधुर अनुभव हो रहा है, उसको बस नया सिरा से जी लेने का मन करता है. सुरू-सुरू में डर ई बात का था कि कइसे सम्भाल पाएँगे. मगर सब सम्भल गया.


रीढ के हड्डी में लगा चोट, पटना में डॉक्टर के लापरवाही से रिपोर्ट में बताया हुआ खराबी को नहीं देख पाना, इसलिये सही ईलाज नहीं होना अऊर एक पाँव से लाचार होकर बिछावन पर लाचार होकर पड़ जाना अऊर व्हील चेयर पर बैठ जाने को मजबूर... हमरी अम्मा.

अब अम्मा कहें कि बच्चा. आज छिहत्तर साल की हो गई. मगर जब गाल चूम लेते हैं त मुस्कुराने लगती हैं. निदा साहब का ऊ दोहा जो हमरी बहिन का पसंदीदा दोहा है आज ओही याद आ रहा है:

जादूगर माँ बाप हैं, हरदम रहें जवान|
जब बूढ़े होने लगें, बन जाएँ संतान ||

शनिवार, 3 सितंबर 2016

आशीष शुभ-आशीष

हिन्दी से हटकर अंगरेजी के अलावा जब हम कोनो दोसरा भासा के बारे में सोचते हैं, त हमको दुइये गो भासा समझ में आता है; पहिला पूरब का बंगला अऊर दोसरा दक्खिन का मलयाळ्म. एक तरफ शरत चन्द्र, रबि ठाकुर, बिमल मित्र, शंकर अऊर सिनेमा के तरफ जाइये त मृणाल सेन, सत्यजीत राय का नाम अपने आप में सम्पूर्न है. दोसरा ओर मलयाळ्म में तकषि शिव शंकर पिळ्ळै, एम. टी. वासुदेवन नायर अऊर सिनेमा में अडूर गोपालकृष्णन, मामूटी, मोहन लाल अऊर भुला गए गोपी. दुनो राज्य में एगो कला अऊर साहित्य का समानता त हइये है.

अब जऊन कलाकार का नाम हम लेने जा रहे हैं उनके अन्दर ई दुनो राज्य का माटी का मेल है. माँ बंगाली (कथक नृत्यांगना) अऊर पिता केरल से (एक थियेटर कलाकार)... जब ई दुनो प्रदेस का कला अऊर संस्कृति एक्के अदमी में समा जाए, त कलाकार के पर्तिभा का अन्दाजा लगाया जा सकता है, खासकर तब, जब उसका बड़ा होने का समय (बांगला में मानुष होबार शोमय) दिल्ली में गुजरा हो अऊर अभिनय का सिच्छा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से मिला हो. ऊ कलाकार हैं – आशीष चेट्टा. चेट्टा (बड़े भाई के लिये मलयाळी सम्बोधन) नहीं कहेंगे, हमसे साल भर छोटा हैं उमर में आशीष विद्यार्थी.

आशीष जी के ऐक्टिंग का झलक हम दूरदर्सन के जमाना में टीवी पर देख चुके थे, सई परांजपे के सिरियल में- “हम पंछी एक चॉल के” अऊर जब सई कोनो कलाकार को चुन लें, त उसके पर्तिभा में कमी होइये नहीं सकता है. उसके काफी टाइम के बाद गोबिन्द निहलाणी का “द्रोहकाल” में देखे. गोबिन्द जी का चुनाव अऊर आशीष का उनके चुनाव के प्रति न्याय देखकर दंग रह गये. पूरा तरह से चरित्र में समा जाना अऊर आवाज के उतार चढाव के साथ चेहरा का बदलता हुआ भाव से ऐक्टिंग करना एतना पर्भावित किया कि का बताएँ. ओम पुरी अऊर नसीर के बीच आशीष को इग्नोर नहीं किया जा सकता था. 


“इस रात की सुबह नहीं” त हम कभी भूलबे नहीं किये. बिना ओभरऐक्टिंग के एगो डॉन का फ्रस्ट्रेसन जो एक मामूली आदमी से पब्लिकली थप्पड़ खाने की बाद होता है, देखने लायक था. एकदम जीवंत... बोले तो असली!


आशीष का चेहरा में मलयाळी झलक है अऊर हिन्दी सिनेमा के पैमाना से उनको इस्मार्ट के कैटेगरी में नहीं रखा जा सकता है. लेकिन इनके आवाज का क्वालिटी अऊर आँख से एक्टिंग करना का कमाल का है. बाकी जो हाल है हमारा हिन्दी सिनेमा का, टैलेण्ट के साथ किस्मत का फैक्टर अइसा है कि का बताया जाए. आशीष जी का बहुत सा सिनेमा आया, मगर उनको जबर्दस्ती कॉमिक भिलेन बनाकर, कभी बिहारी बोलवाकर उनका दुरुपयोग हुआ अऊर धीरे-धीरे हमको लगा कि ई कलाकार चुक गया.

पिछला साल, जब हम गुजरात में थे, तब एगो सिनेमा देखने को मिला – “रहस्य”. ई सिनेमा आरुषि-हेमराज हत्याकाण्ड पर आधारित था. इसमें बहुत दिन के बाद देखाई दिये आशीष विद्यार्थी. सिनेमा देखने के बाद लगा कि ई कलाकार में आज भी बहुत दम है. गुस्सा, फ्रस्ट्रेसन, मजबूरी को अपने ऐक्टिंग से एतना बढिया एक्स्प्रेस किये थे कि हमको अपना फेसबुक पर एगो इस्टेटस लिखना पड़ा. संजोग से ऊ भी हमरे पोस्ट पर आकर अपना कमेण्ट किये अऊर हमको धन्यबाद बोल गये.


अऊर ई साल आया हमरा सबसे पसन्दीदा सिरियल – “24”. ई सिरियल जेतना हमको स्क्रिप्ट के कसाव के लिये अऊर सब कलाकार का अदाकारी के लिये पसन्द आ रहा है, उससे कहीं जादा हमको आशीष विद्यार्थी के अभिनय के लिये भी पसन्द आ रहा है. खतरनाक अऊर सातिर आतंकवादी के रोल में उनका सधा हुआ ऐक्टिंग से जान आ गया है.

डायलाग से जादा त उनका आँख बोलता है अऊर उनका पूरा चेहरा डायलाग का साथ देता है. जब ऊ कमीनापन पर उतरता है त आपको उससे नफरत होने लगता है. आपको बिस्वासे नहीं होता होगा कि ऊ जो पर्दा पर देखाई दे रहा है ऊ रोशन शेरचन नाम का किरदार है कि आशीष विद्यार्थी... अइसे कैरेक्टर में समा जाना कि लिखने वाले को भी दुनो में अंतर करना मोस्किल हो जाए, एही  ऐक्टर का सबसे बड़ा कामयाबी है.


ऐक्टिंग अऊर आवाज के मामला में पर्दा पर बहुत सा दोस छिप जाता है, काहे कि सामने का द्रिस्य अऊर दोसरा कलाकार भी होता है, त कोनो ऐक्टर का दोस पता नहीं चलता. लेकिन रेडियो पर बोलते समय त सब कुछ आवाजे से बताना पड़ता है. मोबाइल ऐप्प “गाना” पर खाली गाने नहीं सुनाई देता है. आपको “कहानीबाज़ आशीष” के आवाज़ में कहानी का स्रिंखला मिलेगा. अऊर उनके आवाज के जादू से कोई नहीं बच सकता है.



आशीष जी, आपको हम अपना इस  पोस्ट के माध्यम से सुभकामना भेजते हैं कि आप भले कम काम कीजिये, लेकिन अपना ऐक्टिंग के ईमानदारी अऊर आवाज के जादू को ई फिलिम इण्डस्ट्री के टाइपकास्ट करने वाला रोग से अक्छुण्ण रखिये. हमको एही खुसी है कि आपसे जो हम उम्मीद लगाए थे, ऊ अभी तक बरकरार है! “24” के लिये सुभकामना अऊर कहानीबाज़ चलाते रहिये. ऑल द बेस्ट!!