शनिवार, 31 जुलाई 2010

हमरा ब्लॉग परिवारः भाग दो

परिवार परिचय का पिछलका एपिसोड में जो प्रतिक्रिया मिला,उसमें कुछ सुधार भी था,कुछ अपनापन भी था, कुछ मन को छूने वाला बात भी था, कुछ नया जानकारी भी था. ई हमरे मन का बात है जिसको हम जईसा महसूस किए,लिख दिए.जिसके बारे में लिखे ऊ भी ओतना ही आत्मीयता से महसूस करेगा, अईसा हमरा सोचना है.

श्री मनोज भारती. हमपेसा हैं, फरक एतना है कि हम पैसा का हिसाब करते हैं, मनोज बाबू राजभासा का. हमसे पहले से ई दुनिया में रह रहे हैं अऊर समय समय पर अच्छा अच्छा ब्लॉग से परिचय भी करवाते रहे हैं.हमरे साथ राजनीति सिनेमा का समीक्षा भी किए थे. हमरा पोस्ट जरूर पढते हैं. उनका टिप्पनी बहुत महत्वपूर्ण होता है. मन से कबि, ओशो गंगा में आकण्ठ डूबे हुए, ब्लॉग साहित्य के यायावर हैं. हमरे इस ब्लॉग को सँवारने में उनका भी बहुत बड़ा हाथ है. एगो रहस्य का बत त रहिए गया. ई जो फोटो देख रहे हैं इनका, ई एक्सक्लूसिभ है हमरे ब्लॉग पर, इनकाअपना ब्लॉग पर भी नहीं मिलेगा.

इनसे मिलिए. ई हैं मैनपुरी के श्री शिवम् मिश्र. जनता के ऊपर बीमा का छतरी लगाए हैं. बहुत आत्मीय आदमी हैं, बहुत पढाकू, बहुत सम्बेदनसील, सच्चा देसभक्त. कहते हैं सम्बेदनसीलता को छिपाने के लिए भेस बदल लेते हैं (मतलब दाढी, करिया चस्मा). तनी मनी ऊँचनीच कह दीजिए त तुरते बाँह चढाकर तैयार (अब ई बात पर मत गुसिआइएगा, पहिलहीं बोल देते हैं). एक बार हम कुछ कहे, त तुरते अपना नम्बर देकर बोलिन की बतिया लीजिए हमसे. हम त एतना डरा गए कि पटना जाते जाते नई दिल्ली टेसन से गाड़ी का हल्ला में बतियाकर बात किलियर किए. जानकारी का भंडार है इनके ब्लॉग पर. इनसे सुरू से जुड़े हैं. आजकल ई चर्चा भी करते हैं अऊर हमको भी कभी कभी स्थान मिल जाता है इनका चर्चा पर. जेतना अच्छा लिखते हैं, ओतना अच्छा इंसान हैं.

हमरे बाबा भारती, राजेश उत्साही जी. अपना जाति लेखक अऊर गोत्र सम्पादक बताते हैं. टिप्पणी के साहंसाह हैं. जितने गुनी इंसान हैं, ओतने गुनग्राही भी हैं. नारी का सम्मान एतना कि अपनी अर्द्धांगिनी (हमको तो पूर्णांगिनी लगती हैं) के छिपा हुआ ब्यक्तित्व को दुनिया के सामने परकट किए अऊर मन का मलाल भी दुनिया से बाँटे. हमरे जईसा साधारन छमता वाले आदमी को एतना सम्मान दिए कि हम सचमुच उसके जोग्य नहीं हैं. लोग पेटी में खजाना रखता है, ई गुल्लक में खजाना रखते हैं. देखिए! बिना देखे बिस्वास करना मोस्किल है.

नीरज गोस्वामी जी. मुम्बई नगरिया के गजलकार. इनके दूगो पोस्ट के बीच का अंतराल का कारन, इनका ग़ज़ल पढने के बाद चलता है. पढेंगे तब बुझाएगा कि ई अंतराल, गजल को दिल में उतारने का साधना के कारन है. लोग सब्द बैठाकर गजल लिख देते हैं, लेकिन गोस्वामी जी, गजल को जीते हैं. सेर पढने के बाद आप ‘बाह’ कहने पर मजबूर नहीं होंगे, अबाक् रह जाएंगे. अऊर जेतना प्यारा इनका गजल होता है,ओतना अच्छा गजल का किताब का समीक्षा लिखते हैं.

संगीता स्वरूप जीः दीदी कहते हैं इनको हम.ई जो परिवार वाला बात हम लिखे हैं,ऊ तो हमसे भी पहिले से बनाए बैठी हैं.स्वप्निल इनको 'ममा' कहता है अऊर ई उसको 'बेटू'. बाकी सारी महिलागन इनको दीदी बोलती हैं. कोलकाता से इनका भी सम्बंध रहा है, इसलिए हमहूँ संगीता दी बोलने लगे, सहज भाव से. इनका कबिता, सब्द के किफायत अऊर अर्थ के बहुतायत का संगम है. एक बार इनका कबिता का गलत भूल बताने पर इनसे डाँट (मज़ाक) सुन चुके थे, लेकिन दोबारा जब दोसरा कबिता में गलती बोले त मानते हुए तुरत पूरा लाइन बदल दीं. हर पोस्ट को पढना, बिचार पर्गट करना, चर्चा करना, इनका समर्पित ब्यक्तित्व बताता है. एक बात इनसे सीखे हैं हम कि यह जगत अच्छा है, लेकिन हमरा बास्तविक जगत का भी हक है हमरे ऊपर. उसको नहीं भूलना चाहिए.

बिना समीर लाल जी के उड़न तश्तरी का बात किए त हमरा चर्चा अधूरा रहेगा. हमरा नासमझी के दिन में, बिचार का उड़ान के दौरान, हम समीर बाबू के उड़न तश्तरी से टकरा गए. लेकिन ऊ टक्कर बहुत कुछ सिखा गया हमको अऊर उनका मुरीद बना गया. ई कवि हैं, लेखक हैं, संसमरनकार हैं. लेकिन हमको लगता है कि ई बास्तव में ऐक्टर भी हैं (छमा याचना सहित). बम्बई (अब मुम्बई) में सी.ए. का पढाई करने के बाद यह भी लगता है कि ऐक्टिंग बस गया है इनके अंदर. इनके ब्लॉग पर लगा हुआ इनका फोटो देखने अऊर इनके गीत का तरन्नुम में भिडियो सुनने के बाद आपको लगेगा कि ई सनदी लेखाकार कहाँ ओशो की नगरी से सात समुंदर पार चला गया.'मुझको पहचान लो' कहने पर भी मुम्बई नगरिया पहचान नहीं पाया इनको. ई उड़न तश्तरी कम, छतरी जादा हैं, जिसके अंदर न जाने केतना ब्लॉगर को समेट रखे हैं अऊर इनसे हिंदी ब्लॉगर को असीम प्रेरना मिलता है.

प्रान जईसा महान कलाकार का आत्मकथा का सीर्सक है “And Pran”. सिनेमा का पर्दा पर सब हीरो लोग का नाम देखाने के बाद इनका नाम देखाया जाता था “ऐण्ड प्राण” लिखकर, इसलिए ऊ अपना आत्म-कथा का नाम भी ओही रखे. इसलिए हमरा आज का एपिसोड खतम करने से पहिले कहत हैं “ऐण्ड अनूप शुक्ल”. सब पढते हैं अऊर गुनते हैं, तौल के टिपियाते हैं. हमरा पहलौठी का कबिता पर ऊ जो कमेंट दिये थे ऊ हम भुलाईये नहीं सकते हैं. सत्यनारायण के कथा के जईसा साधु वनिक के नाव में का है बिना बताए भाँप जाने वाले अकेला आदमी.ओही समझ पाए थे ऊ कबिता का ब्याख्या. जमीन से जुड़े हुए मानुस. पिछला पोस्ट पर भोरे भोरे फोन करके बधाई दिए. भीष्मपितामह हैं ब्लॉग जगत के. हमको जेतना महीना लिखते हुआ है, ओतना महीना त पंडित जी ब्लॉगिंग में मौन रहे होंगे. अपने आप में संस्थान हैं. कहते हैं किसी के लेखन को जानना हो तो उसका अंतिम वाला पोस्ट नहीं, पहिला से अंतिम तक का पोस्ट पढो. इनका लेखन के बारे में एही बोल सकते हैं कि जिन डूबा तिन पाइयाँ.

अब का बताएँ,एतना बड़ा परिवार है अऊर जगह कम. चलिए, जईसे एतना बर्दास्त किए हैं, एक एपिसोड अऊर बर्दास्त कीजिए. अंतिम भाग सोमवार को.

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

हमरा ब्लॉग परिवारः भाग एक

छः महीना से ब्लॉग के गली में भटक रहे हैं, अऊर आज तीन महीना हो गया ई ब्लॉग लिखते हुए. एक बार पीछे घुर के देखते हैं, त लगता है कि का मिला ई तीन महीना में हमको. हम दिए 32 पोस्ट अऊर हमको मिला 558 कमेंट अऊर 53 फॉलोवर. एही उपलब्धि है का! गलत. ई सब तो छलावा है! अऊर फॉलोवर का होता है... हम न त कोनो साधु हैं, धर्म गुरू हैं अऊर न नेता हैं कि हमरा कोई फॉलोवर होगा. सच पूछिए, त फॉलो तो हम कर रहे थे एतना दिन से अपना पुराना याद, बचपन का घटना, बिछड़ा हुआ लोग अऊर दीमक लगता हुआ कबिता सब को.
एगो अऊर बहुत खास बात है. अपना परिबार के बाहर भी हमको एगो परिवार मिला, जिसको हम ई तीन महीना का सबसे बड़ा पूँजी अऊर खजाना मानते हैं. आइए आपको मिलवाएँ, अपना एगो अऊर परिबार से, जो हमको भगवान से नहीं मिला है, हम खुद से बनाए हैं.
सबसे पहिले, अपनत्व, सरिता अग्रवाल जी. समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर. डिग्री माने खाली पढाई करना नहीं. अपने ब्लॉग से जो अपनापन ई बिखेरी हैं, ऊ जीबन का पढाई करने से ही मिलता है. हम इनको सुरुए से पढते थे, लेकिन ऊ कभी हमरे ब्लॉग पर नहीं आईं, हमरे कहने के बावजूद भी. कारन कभी पूछे नहीं उनसे. लेकिन हमरा कमेंट ऊ हमेसा पढते रह्ती थीं, बस ओही से प्रभावित होकर आ गईं, अऊर बस तब से जुड़ी हैं. सायद ई अपना तरह का पहिला जुड़ाव है, एगो अनजान ब्यक्ति से. इनका हैसियत हमेसा एगो बुजुर्ग का रहा हमरे ब्लॉग परिवार में, कभी बड़की दीदी, कभी माँ. पति, प्रतिष्ठित संस्थान I.I.T. खड़गपुर में पढते हुए भी हॉस्टल के महौल से अनजान. अपसब्द के नाम पर 'फनी चैप' से जादा नहीं बोलते हैं. घर में ठेठ अंगरेजी माहौल बातचीत में, लेकिन हिंदी में सरिता जी का लेखन बच्चों को प्रेरित करने के लिए. तीन बच्चियाँ, सभी अपने अपने घर में, सुख अऊर समृद्धि के साथ. अभी फिलहाल, लंदन में नानी बनने का इंतजार कर रही हैं,एगो प्यारी सी बच्ची का.

अगिला नाम जो हमरे सामने आता है ऊ है श्री सतीस सक्सेना का. हम त गुरुदेव कहते हैं उनको, अऊर मानते हैं बड़ा भाई जईसा. पेट के लिए, सरकारी महकमा में इंजीनियर हैं, लेकिन पेट से जादा दिल से परेसान है. दिल है कि मानता नहीं, इसलिए किसी का दर्द देख नहीं पाते, चाहे आदमी हो या अनबोलता जानवर. मासूम एतना हैं कि गर्मी से बेहाल होकर कार का ए.सी. चलाकर अपना दुनो बच्चा के साथ सो गए. आँख तब खुला जब बचिया बेहोस हो गई अऊर सब का दम घुटने लगा. भगवान (जिसको ऊ नहीं मानते हैं हमरे तरह) का दया था कि बच गए. हमसे लड़ाई बहुत करते हैं, सॉरी उलटा हो गया, हम लड़ाइयो बहुत करते हैं इनसे, लेकिन बड़का भाई हैं त इनका सलाहो मान लेते हैं. बगले में रहते हैं हमरे. त बिना बोलाए धमक गए इनके घर, तब पता चला कि हम ऊ पहिला आदमी हैं (अगर ब्लॉगर को आदमी मान लीजिए तब) जो इस दुनिया से उनका घर में दाखिल हुआ है. एगो बेटा अऊर, एगो बेटी के साथ आप अपनी सिरीमति जी के सुर में सुर मिलाते हैं. एक सच्चा इंसान, सादा चरित्र आदमी हैं हमरे बड़का भईया.

हमरे छोटका भाई श्री मनोज कुमार, छोटा इसलिए कि हमसे उमर में एक साल छोटा हैं. कोलकाता में भारतीय आयुध निर्माण संस्थान में हैं, लेकिन असली आयुध त इनका कलम है, चाहे कहिए त कुंजी पटल. एकदम सहित्यिक आदमी, संस्थान के नाम से बिपरीत. शांत सोभाव वाले मनोज जी के मन में एगो मलाल है, जिसका जिकिर ऊ हमसे किए थे एक बार, सायद हमरे साथ कॉमन मलाल था इसीलिए. एकदम ठेठ देसी आदमी हैं मन से. सब लोगों का पोस्ट पढते हैं, टिप्पनी देते हैं, अऊर साप्ताहिक चर्चा भी करते हैं. बातचीत में एतना कोमल कि लगबे नहीं करता है कि एतना बड़ा सरकारी साहेब हैं. वादा किए हैं कि आतिथ्य का मौका देंगे. देखें कब पधारते हैं.

हमरा परिवार का अगिला सदस्य है सोनी गर्ग हैं. ब्लॉग का नाम तीखा बोल. लेकिन ई तीखापन ऊ लोग के खिलाफ है जो गलत आचरन करते हैं. व्यावसायिक परिवार से आने के बाबजूद भी लिखने का रुचि, जागरण जंक्शन का टॉप 20 ब्लॉगर्स में से एक. मगर थोड़ा सा पागल है. जब पता चला कि सम्वेदना के स्वर वाला सलिल हम ही हैं, त गुसिया गई कि हमको बताए काहे नहीं. बाबू जी कहती है हमको, अऊर हमरी त बिटिया है, बंगाल के हिसाब से माँ. कोई भी कमेंट कीजिए इसके पोस्ट पर, तुरत जवाब देगी, गलती करेगी त बेहिचक माफी माँग लेती है. कहती है बंधन पसंद नहीं, इसलिए नौकरी, ना-करी. अपने मन की मालकिन है, बात करने का अंदाज भी ओईसने है, जइसा लिखने का, डायरेक्ट दिल से!

सबसे सैतान है, स्तुति पाण्डे. अमेरिका में बसी है, लेकिन फिर भी दिल है हिंदुस्तानी को सच करने पर तुली है…फोन पर डेढ घंटा बतिया गई...ठेठ हमरे भासा में.बात सुनियेगा त बुझएबे नहीं करेगा कि एतना पढी लिखी, आई.बी.एम. में काम करने वाली लड़की है. ऊ त माने बदल दी है आई.बी.एम. का – इण्टर्नेशनल बिहारी मंच. अब बताईए है कोनो मुकाबला. इण्डिया में अपना दोस्त सब से लगातार जुड़ी है. ओहाँ अंगरेज लोग को भोजपुरी सिखाती है, लेकिन कुलदीप बाबू (हमरे मेहमान, उसके दुल्हा) को ठीक से हिंदीओ बोलना नहीं सिखा पाई. खैर, ई मजाक था. नाटक अऊर अभिनय उसके रग रग में बसा है. बहुत सम्बेदनसील है, हमरे जईसा. तुरते रोने लगती है. लेकिन कबिता से ओतने दूर है जेतना भारत से अमेरिका. भारत लौटकर आने का तमन्ना है. दोनों माँ बाप के लिए बहुत प्यार है मन में. हमको कभी पापा, कभी बाबूजी कहती है, हमारी (बि)देसी बेटी.

ई एपिसोड के लास्ट में अपने सम्वेदना के स्वर  चैतन्य जी को कईसे भुला सकते हैं. ई ब्लॉगवा का नाम उनका दिया हुआ है.आज तीन महीना से उनका दिया नाम का कर्जा चुका रहे हैं धीरे धीरे. लेकिन ऊ भी हमरे जईसा बिजनेसमैन नहीं हैं, इसलिए न उनको कर्जा बसूलने का जल्दी है, न हमको चुकाने का.



पुनश्चः ई पोस्ट अल्पबिराम है. एतना लोग के प्यार का कर्जा है कि चुकाने के लिए एगो अऊर जनम, मतलब अऊर पोस्ट लिखना पड़ेगा. त बस इंतजार कीजिए. तनी सुस्ता कर हम फिर चालू हो जाते हैं.

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

वो जब याद आएँ,बहुत याद आएँ!!

बहुत साल पहिले मनोज कुमार का एगो सिनेमा आया था “शोर”.बहुत मार्मिक सिनेमा.एगो आदमी का बच्चा दुर्घटना में अपना आवाज खो देता है अऊर गूँगा हो जाता है. ऊ आदमी को दुनिया में चारो तरफ सोर सुनाई देता है, लेकिन उसके अंदर उसको अपना बच्चा का आवाज नहीं सुनाई देता है. नफरत हो जाता है उसको सोर से. बच्चा का ऑपरेसन होता है,अऊर जिस दिन बच्चा पहिला बार अपने पापा को पापा कहकर पुकारने वाला होता है,ऊ आदमी का दुर्घटना में कान ख़राब हो जाता है, ऊ बहरा हो जाता है.
भगवान का एतना क्रूर मजाक!

दूसरा कहानी असली जिन्नगी से. एक आदमी को बच्चा से बहुत प्यार था. लेकिन उनके घर में कोई बच्चा नहीं था. उनके दूगो बेटा का सादी होकर काफी दिन हो गया था, लेकिन पोता-पोती का सुख उनको नहीं मिला था. बेचारे बच्चा को गोद में खेलाने का सुख नहीं पा सके. एक दिन उनके यहाँ दू महीने के बीच में दूनो बेटा को एक बेटा अऊर एक बेटी पैदा हुई. पूरा घर खुसी से भर गया. उनको भी एक के जगह दूगो बच्चा गोद में खेलाने का सुख मिला. दू तीन महीना के अंदर ही उनका जोड़ का दर्द का बीमारी एतना बढा कि बच्चा लोग को गोद में उठाने का ताक़त भी जाता रहा.
भगवान का एतना क्रूर मजाक!!

ऊ आदमी हमरे पिताजी थे. हमलोग के सबसे अच्छा दोस्त. अऊर जिन्नगी का पाठसाला में हमलोग का पहिला अऊर एकलौता गुरू. अपना जिन्नगी का पूरा टाइम इलाहाबाद में रहे. लेकिन पटना से लेकर दिल्ली तक के बीच का सारा बोली पानी के जईसा बोल लेते थे. उनका बोली सुनकर कोई नहीं कह सकता था कि ऊ कहाँ के रहने वाले थे. मगही, भोजपुरी, बनारासी, इलाहाबादी, खड़ी बोली… सब एकदम परफेक्ट. आज जब हम हिंदी, उर्दू, मगही, भोजपुरी, बंगला अऊर अंगरेजी फर्राटे से बोलते हैं, त लगता है कि उनका आत्मा हमरे अंदर परवेस कर गया है. सुनने वाला कभी हमको बंगाली अऊर कभी मुसलमान समझता है.

मुसलमान से याद आया, इलाहाबाद में उनके तीन ठो दोस्त थे – अंसार अहमद, फख्रे आलम अऊर ज़ुल्फ़िक़ार अली सिद्दीक़ी. सायदे कोनो ईद होगा जो ई तीनों लोग हमरे पिताजी के बिना मनाए होंगे. हमलोग को कभी ई नहीं सिखाए कि हिंदू मुस्लिम का होता है. भाईचारा का सिक्षा उनसे मिला हमलोग को. ऊँच नीच, जाति धरम का कभी कोई भेद नहीं किए.

साहित्त से एतना लगाव कि कॉमिक्स पढने के उमर में मण्टो, राही मासूम पढने को दिए, फिल्म संगीत से एतना लगाव कि हर गाना का बरीकी अऊर हर संगीतकार का खूबी समझाते थे. शंकर जयकिशन उनके फेभरेट संगीतकार थे, अऊर हमरे भी. गाना गाने का भी सौक था उनको. हमरी एगो चाची थीं (उनकी भाभी), उनके साथ बहुत गाना गाते थे अऊर लोग मुग्ध होकर सुनता था. सिनेमा का बारीकी ओही सिखाए हमलोग को. बचपने में हमलोग को बुझाता था कि एडिटिंग का होता है, स्क्रिप्ट राईटिंग किसको बोलते हैं अऊर स्क्रीनप्ले का होता है.

एगो आदत बहुत खराब था. सिगरेत बहुत पीते थे. खुद से बनाकर विल्स का नेभी कट तम्बाकू के साथ. पटना का मसहूर दुकान जे.जी. कार एण्ड संस से लाते थे. उस तम्बाकू का मिठास, आज भी ताजा है हमरे मन में. हमलोग को कहते थे कि सिगरेट पीना हो त हमको बताकर पीना, ताकि दूसरा कोई जब हमको बताए त हमको सदमा नहीं लगे अऊर हम कहें कि हमको पता है. अब एतना हिम्मत कहाँ था हमलोग में, त बोलने से अच्छा है कि सिगरेटे नहीं पिएँ. आजतक कोई नहीं पीता है सिगरेट, हमरे भाई लोग में.

अब उनका अच्छा आदत भी सुन लीजिए. ब्लड प्रेसर के कारन आँख में हेमरेज हो गया था उनको. डॉक्टर साहब बोले कि सिगरेट छोड़ दीजिए, आपके लिए आत्महत्या के समान है. हाथ में बनाया हुआ सिगरेट लेकर सोचते रहे, फिर सिगरेट अऊर नया तम्बाकू का पाऊच फेंक दिए. मरते दम तक दोबारा हाथ भी नहीं लगाए कभी. जो लोग कहते हैं कि ई आदत नहीं छूटता है कभी, ऊ लोग के लिए उदाहरन है ई घटना कि मोस्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए.

बहुत ऐक्टिभ अदमी थे, कसरत करते थे अऊर सरीर ऐसा था कि हमरे बड़े भाई लगते थे. रिटायर होने के बाद कहते थे कि कलकत्ता हमरे पास रहेंगे कुछ दिन. बहुत सारा बात सोच रखे थे कि यहाँ जाएँगे, उससे मिलेंगे, उसके पास रहेंगे कुछ दिन. लेकिन अचानक जोड़ का दर्द, गलत दवा अऊर ब्लड प्रेसर मिलकर हार्ट अटैक में बदल गया. ब्लड प्लैटेलेट दिया जा रहा था उनको, स्कूटर पर बैठकर चले गए भाई के साथ. सब ठीक था, बोले बेचैनी लग रहा है. नर्स कही कि ब्लड प्रेसर देख लेते हैं. देखकर चौंक गई कि बहुत बढ गया है, अऊर सुनते ही उनका हार्ट फ़ेल. सब का सब प्लानिंग बस प्लानिंग रह गया. नहीं आ सके कलकत्ता रहने हमरे साथ,हमरी बेटी के साथ.
भगवान का एतना क्रूर मज़ाक!

आज उनका पुण्य तिथि है. भगवान उनके आत्मा को शांति दे!!

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

चार दिन का जिनगानी में साढ़े तीन दिन त दुनिया भर के लिए चला जाता है, बस ससुरा आधा दिन हाथ में आता है, हमरे अपने लिए. आधा दिन जबर्दस्त गम और दुःख, बाकी का साढ़े तीन दिन जबर्दस्ती का हँसी. हर आदमी एही जुगत में लगा हुआ है कि कईसे ऊ चार दिन का खेला में आधा दिन का दुःख भुलाकर, उसको साढे तीन का खुसी के साथ मिला दे. अब चाहे ऊ खुसी खरीदने से मिले, भीख में मिले, उधार मिले, चाहे चोरी से मिले. एही जुगाड़ में दिन रात एक किए रहता है आदमी.

दिन रात नहीं, खाली दिन, काहे कि रात में त सोना भी जरुरिए है. अब सब आदमी हमरे जईसा निसाचर त नहीं है ना. का करें एतना उमर हो गया, लेकिन अपने लिए कभी टाईम नहीं मिला. सारा दिन ऑफिस, परिवार, बच्चा, पढाई, इम्तिहान, आना जाना, एही में निकल जाता है, अपने लिए कभी टाईमे नहीं मिला.

तब हम चोरी सुरु किए, अपने घर में अपना समय चोराना. जब सब लोग सो जाता, तब हम पढाई करते. जो भी तनी मनी हम पढ़े हैं, रात में पढे हैं, सब के सो जाने के बाद, इत्मिनान से. इसी कारन हमको भोरे जल्दी उठने का बीमारी कभी नहीं लगा. आप लोग भी देखे होंगे कि हमरा सारा टीका टिप्पनी देर रात में होता है. इसी पर एक बार सरिता जी (अपनत्व) हमको समझाईं भी थीं कि एतना देर तक जागना ठीक नहीं है. दू दिन ठीक रहे, बाद में फिर चालू. का करें, अपने आप से मिले बिना रहिओ त नहीं पाते हैं.

अब देरी से सोने के कारन जल्दी उठने का त सवाले पैदा नहीं होता है. सच पूछिए त एही हमरा चिर युवा इमेज का राज है. बच्चे से एगो कहावत सुने थे कि जल्दी सोवो, जल्दी जागो, उठकर माखन मिस्री मांगो. न हम जल्दी सोए, न जल्दी जागे, न हमको माखन मिस्री मिला. न माखन मिस्री मिला, न कॉलेस्ट्रोल अऊर डायबिटीज का समस्या हुआ.

धीरे धीरे ई भेद हमरा सारा दोस्त लोग को पता चल गया. हम भी तब एलानिया डिक्लेयर कर दिए कि हमको रात में दू बजे तक कोई भी आराम से फोन कर सकता है, मिल सकता है, बतिया सकता है, लेकिन सुबह एकदम नहीं. इसीलिए जादातर लोग हमसे राते को मिलता, बतियाता है. एगो बात अऊर, एतवार को एगारह बजे से पहले कोई स्कोप नहीं. एक रोज सिवम मिश्र जी का फोन आ गया, एतवार को भोरे भोरे, हमरा कोनो पोस्ट पर इंस्टेंट ऑडियो टिप्पणी देने के लिए. तकिया से फोन तोप कर सो गए हम. बाद में एगारह बजे फोन किए अऊर छमा मांगकर बतियाए.

ई चक्कर में बहुत नोकसान हुआ है नींद का. लेकिन माँ बाप का आसिर्बाद रहा कि बीमार कहिओ नहीं पड़े, अऊर ऑफिस में कभी नहीं ऊँघे ( ऊ का कहती है हमरी बेटी टच वुड). हमरे एगो सीनियर कहते थे कि ऊ आदमी सुखी है जिसको नींद आ जाता है, ऊ आदमी उससे भी सुखी है जिसको जब चाहे तब नींद आ जाता है, लेकिन दुनिया में सबसे सुखी ऊ आदमी है, जिसको जहाँ चाहे, जब चाहे तब नींद आ जाता है. हम ई सुख से बंचित रहे. का मालूम केतना नींद का बलि चढाए हैं हम.

सोचते हैं, जाते समय डॉ. बच्चन जो बात कहे थे, ऊ सबको बोल जाएंगे कि मरने के बाद हमरा सरीर को 10 – 15 दिन अईसहीं छोड़ देना. ईहो कहेंगे कि कोनो हल्ला गुल्ला, रोना धोना, सोर सराबा मत करना. आराम से सोने देना, ताकि जो नींद हम अपना जिन्नगी में पूरा नहीं कर सके ऊ पूरा हो जाए. उसके बाद हमको धरती माँ के गोदी में सोला देना, काहे कि माँ के गोद से बढिया नींद त कहीं आइए नहीं सकता है. अऊर ई अनिद्रा का रोग भी त माँ का गोदी छोड़ने के बादे लगा है. एगो अऊर बात, भूल से भी आग में मत जलाना. हमको आग से बहुत डर लगता है. गरम रोटियो से हाथ जर जाता है, त बेचैन हो जाते हैं हम.

नाम ऊम का त कोनो चाह है नहीं हमको, न अईसन कोई नामवर आदमी हैं हम, इसलिए जहाँ हमको सो जाएँ, ओहीं एगो पत्थर पर लिखवा देनाः

सिरहाने सलिल के आहिस्ता बोलो
ई बकबक करके, अबके सो गया है.

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

अ-कबिता

ई कबिता लिखकर हमको कोई बहुत खुसी नहीं हुआ था. अऊर सच पूछिए त इसको हम कबिता मानबो नहीं करते हैं. बहुत पहिले ई लिखकर हम कहीं कोना में दबा दिए थे.घटना सच्चा है, काहे कि इसके बाद हमरी बिटिया एतना हँसी थी कि पूछिए मत. लेकिन हमरा मन बहुत उदास था. आज भी जब पढ़ाई करने का उमर में छोटा छोटा बच्चा को तरकारी बजार में धनिया मिर्चाई बेचते हुए, चौराहा पर भाग भाग कर कलम, पेंसिल अऊर किताब बेचते हुए, कोलोनी के अंदर कचरा बीनते हुए देखते हैं, त लगता है कि केतना बड़ा झूठ सिखाया गया है बचपन से हमको कि बच्चा देस का भबिस्स होता है. अगर एही भबिस्स है, त अईसा भबिस्स देखने से पहिले आँख बंद हो जाए!


रास्ते भर मैं बहाने सोचता बैठा रहा
कि क्या कहूँगा
जब मेरी बिटिया, पहुँचने पर मेरे, मुझसे कहेगी
“लाए क्या मेरे लिए ऑफिस से
डैडी, आज तुम?”

ये कहूँगा, वो कहूँगा
ये कहा तो मान जाएगी,
कहा वो तो, बहुत चिल्लाएगी
ऐसा कहूँगा, और फिर वैसा कहूँगा
क्या कहूँगा, सोचकर धुनता रहा सिर.

जैसे ही गाड़ी से बाहर पैर रखा
एक छोटी सी बड़ी प्यारी सी बच्ची
बस मेरी बिटिया के जैसी
पर वो लिपटी थी फटे गंदे से कपड़ों में
पकड़ कर हाथ मेरा
प्यार से, करुणा से, और कुछ दर्द से
बोली वो मुझसे,

“पाँच नींबू ले लो अंकल जी
हैं बस ये पाँच रुपये के
बचे हैं पाँच केवल
ले लो अंकल जी, न मुझसे!”
हाथ मेरा ख़ुद ब ख़ुद सरका फिर अपनी जेब में
और पाँच रुपये के ख़रीदे पाँच नींबू.

घर पे बिटिया थी खड़ी दरवाज़े पे
बस देखते ही शोर करने लग पड़ी
“क्या लाए डैडी!
बोलो ना क्या लाए डैडी!”

मुस्कुराते मुस्कुराते सारे नींबू
दे दिए फिर हाथ में बिटिया के मैंने
ख़ूब ज़ोरों से हँसी फिर खिलखिला के
“ये भी कोई चीज़ है लाने की”
और उसकी हँसी रुकती नहीं थी.

पाँच नींबू ने मेरी बिटिया को जब इतना हँसाया
कितना ख़ुश होगी वो प्यारी नन्हीं बच्ची
पाँच रुपये में मुझे वो सारे नींबू बेचकर!

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

छोटा छोटा सीख !

जिन्नगी से बड़ा कोई मास्टर नहीं है, लेकिन जिन्नगी त कोनो देखाई देने वाला चीज नहीं है, इसीलिए आस पास जेतना आदमी, जानवर, पंछी, पेड़-पौधा अऊर जीव-जंतु है, सब को ध्यान से देखने का जरुरत है. जइसे किसी भी भेस में नारायण मिल जाते हैं, उसी तरह सिखाने वाला गुरू भी मिल जाता है. जो भी मिलता है, जाते-जाते कुछ न कुछ सिखा के जाता है. नहीं कुछ, त अनुभव त देइये जाता है.

एक बार का बात है. हम लोग ट्रेन से कलकत्ता से पटना जा रहे थे. गाड़ी में एगो सज्जन चिनिया बादाम (मूँगफली) खा रहे थे, अऊर छिलका ओहीं जमीन पर गिराते जा रहे थे. हम लोग का आदत है कि सब छिलका एगो अखबार में लपेट कर बाहर फेंक देते हैं. ऊ भाई जी मान के बईठे थे कि रेलवे उनका सम्पत्ति है (ई भुला गए थे कि उसमें हमनियो का सेयर है). दू चार बार उनके तरफ देखने से भी उनको बुझा नहीं रहा था. हमरी बिटिया बहुत छोटी थी उस समय. अचानके बोली, “डैडी! छिलका जमीन पर गिराना गंदी बात होती है ना!” एतना सुनने के बाद ऊ भाई जी को समझाने का जरूरत नहीं पड़ा. ऊ चुपचाप सब छिलका जमीन पर से उठाए अऊर बाहर फेंक कर आए. अब बताइए ऊ सज्जन सोचबो नहीं किए होंगे कि एगो बच्चा मास्टर बन जाएगा उनका.

परिवार में पहिला गुरू माँ बाप होता है. लेकिन हमरे स्वर्गीय पिता जी हमलोग से पढाई लिखाई का बात बहुते कम किया करते थे. बाकि सिनेमा, कहानी, उपन्यास, कबिता, संगीत का बात त जहाँ बईठे ओहीं सुरू. “मैं पिया तोरी, तू माने या न माने” – ई गाना में जो बाँसुरी सुनाई दे रहा है, ऊ पन्ना लाल घोष का बजाया हुआ है, “नाचे मन मोरा मगन” – इसमें गोदई महाराज तबला बजाए हैं, ऐसहीं न मालूम केतना जानकारी ऊ खेल खेल में दे देते थे. फिलिम के बारे में उनका जानकारी एतना जबर्दस्त था कि ग्रुप डांस में तीसरा लाईन में डांस करने वाली लड़की को देखकर बता देते थे कि ई मास्टर सत्यनारायण की असिस्टेंट है. फिलिम तकनीक का बहुत सा बारीकी उनसे सीखे हैं हम, आज से केतना साल पहिले.

आप कभी सोचे हैं कि जऊन कागज में मूँगफली लपेट कर रोड के किनारे बेचता है, ऊ भी देता है ज्ञान हमको. हमरे एगो अंगरेजी के मास्टर थे, ओही बताए थे एक बार. बोले कि मूँगफली खाने के बाद कागज को फेंकना नहीं चाहिए. कागज अगर अंगरेजी के अखबार का है, त एक बार उसको पढो. हो सकता है कि उसमें लिखा हुआ सब सब्द तुमको मालूम होगा. इससे कोनो नोकसान नहीं है, दोबारा पढने से तुमरा जानकारी दोहरा जाएगा. ईहो हो सकता है कि कुछ सब्द का नया प्रयोग भी तुमको पता चले. लेकिन अगर सब्द नया हुआ त उसको नोट करो, घरे जाकर डिक्सनरी में देखो अऊर ऊ मूँगफली वाला को धन्यवाद दो कि ऊ अनपढ आदमी, अनजाने में तुमको नया सब्द सिखा गया.

अंत में एक बार फिर अपने पिताजी का एगो सीख बता दें. ई त अईसा सीख है कि हम बुढ़ापा तक उसका पालन कर रहे हैं. पिताजी बताते थे कि अगर कोई तुमसे पूछे कि कैट माने का होता है अऊर तुमको नहीं मालूम है, त बिना सोचे तुरत बोल दो कि नहीं मालूम. ई बोलने से तुमरा एक नम्बर कटेगा, लेकिन कभी गलतियो से कैट माने कुत्ता मत बोलना, नहीं त तुमरा चार नम्बर कट जाएगा. जानते हो कईसे... कैट माने कुत्ता बोलने का मतलब है कि तुमको, कैट का हिंदी, बिल्ली का अंगरेजी, कुत्ता का अंगरेजी अऊर डॉग का हिंदी भी नहीं मालूम. एगो गलत जवाब दिए अऊर चार नम्बर साफ.

सुनने में ई चुटकुला लगता है, लेकिन जिन्नगी का बहुत बड़ा सीख है. हमलोग हमेसा झिझकते हैं ई बोलने में कि हम नहीं जानते हैं, खासकर अपना बच्चा, चाहे अपने से छोटा से. उसका छोटा होने का नाजायज फायदा उठाकर, हम उसको गलत जवाब देकर, अपना अज्ञानता छिपाते हैं. लेकिन ई सीख मिलने के बाद महसूस हुआ कि एगो गलत जवाब देकर, हम ऊ बच्चा के नजर में गिरें चाहे नहीं गिरें, अपना नजर में चार गुना नीचे गिर जाते हैं.

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

छोटकी


छोटकी अठारह साल के उमर में बिआहकर बनारस से पटना आई. ससुराल में बहुत जमीन जायदाद, खेत, अनाज मिला, अऊर साथ ही मिला जिम्मेवारी, दू गो ननद के बिआह का, घर का बड़की दुलहिन जो ठहरी. बोली का अंतर, बनारसी बोली से ठेठ मगही परिवार. घर में खड़ी हिंदी बोलने से लोग बाग कहता था कि दुलहिन अंगरेजी बोलती है. नैहर में अमीरी के बाद पैदा हुआ गरीबी के कारन पढ़ाई मिडिल के बाद होबे नहीं किया.

दू साल बाद पति को अच्छा नौकरी टूण्डला में मिल गया, त ऊ ओहीं चली गई. इस बीच सास चेचक में माता का भेंट चढ़ गईं. तीन साल बाद जब टूण्डला से इलाहाबाद बदली हुआ, त पटना में ससुर का तबियत बहुत सीरियस हो गया.तीन बच्चा को लेकर ससुर का देखभाल करने के लिए छोटकी पटना आ गई, अऊर पटना का होकर रह गई. पति रेलवे के नौकरी में थे, इसलिए आते जाते रहते थे.

पटना आने के बाद पता चला कि खेती बाड़ी बहुत है, केतना है अऊर कहाँ है इससे घर में किसी को मतलब नहीं था. खाने भर अनाज आ जाता था बस. छोटकी अपने देवर को लेकर गाँव में घूमी, लोग से मिली. सारा हिसाब किताब, खेत कऊन आदमी जोतेगा, केतना अनाज मिलेगा, सब कुछ ठीक ठाक करके पटना वापस आ गई. उस साल हर साल के तुलना में सबसे जादा अनाज घर में आया, अऊर फिर एही सिलसिला चलता रहा. ससुर का तबियत ठीक होने लगा था.

ननद का सादी हो गया, देवर का नौकरी हो गया अऊर बच्चा लोग बड़ा होने लगा. अच्छा इस्कूल में एडमिशन करवा दिया गया. बच्चा लोगों से छोटकी ने खाली दू बात कहा, “हम कम पढ़े लिखे हैं, अऊर तुम लोग का पढ़ाई में मदद भी नहीं कर सकते हैं. इसलिए सही गलत जो भी है, तुम लोग के ऊपर छोड़ देते हैं. बस हमको धोखा मत देना. दोसरा बात कि तुमरे पापा एहाँ नहीं रहते हैं, इसलिए अईसा कोई काम मत करना जिससे हमको ई सुनने का मौका मिले कि माँ को सम्भालने नहीं आया इसलिए बच्चा बिगड़ गया.”

बच्चों का फीस देने छोटकी खुद इस्कूल जाती थी. इसी बहने क्लास टीचर से मुलाक़ात होकर बच्चों का पढ़ाई का बारे में पता चल जाता था, गौर करने वाला बात ई है कि उस समय पी.टी.एम. का रिवाज नहीं था. इससे एगो अऊर फायदा हुआ. छोटकी आस पास का कुछ गरीब लोग का हमेसा मदद करती थी. छोटकी के इस्कूल में पहचान के कारन ऊ गरीब लोग का बच्चा का दाखिला में दिक्कत नहीं हुआ.

बच्चा लोग पढ़ता गया, रिजल्ट अच्छा करता रहा. छोटकी का समाज सेवा छोटा स्तर पर जारी रहा. किसी का बच्चा बीमार हुआ त हस्पताल ले जाना, डॉक्टर को देखाना, किसी का घर में सादी है त उसके साथ जाकर समान खरीदवाना, घर का अनाज से, पईसा से मदद करना. देखते देखते छोटकी, आस पास की बड़की दुल्हिन बन गई. सारा ससुराल में लोग बोला कि लगता है, सास का आत्मा उसमें समा गया है.

बहुत सा परेसानी भी आया, बहुत लोग का ताना भी सुनने को मिला. लेकिन उसके ऊपर कोनो असर नहीं होता था. अईसा लगता था कि ऊ अपना मंजिल जानती है अऊर ओहाँ तक कईसे जाना है ई भी फैसला ऊ कर चुकी है.

बच्चा लोग ठीक से पढता था त ऊ सिनेमा देखाने भी ले जाती थी. अनुसासन अईसा कि साम सात बजे सब लोग खेल कर घर में, कभी कोर्स का किताब में लुका कर कोनो बच्चा कहानी का किताब नहीं पढ़ा. देवर को सिगरेट पीने का आदत था, लेकिन मजाल नहीं कि कोई बच्चा को बोलें कि सामने वाला दोकान से सिगरेट ला दो. एक बार बोले थे त छोटकी पईसा लेकर अपने चली गई अऊर सिगरेट लाकर दे दी. देवर को काटो त खून नहीं. छोटकी बोली, बऊआ! सिगरेट लाने के लिए हमको बोल दीजिए, लेकिन बच्चा लोग नहीं जाएगा. ऐसहीं आदत लगता है.

पति जब जब इलाहाबाद से आते, बच्चा लोग के साथ कहानी,कबिता अऊर सिनेमा का बात बतियाते. छोटकी बहुत गोस्साती, त बोलते, तुम पढा‌ई के लिए बोलिए रही हो न, त हमको मनोरंजन करने दो बच्चा लोग का.

ऊ घर में घर का काम, अऊर बाहर में समाज का काम करती रही. सब का सादी बिआह, नौकरी हो गया. कायस्थ परिवार में, खास कर बिहार में, जहाँ लोग सब खेत बेचकर सहर में मकान बना लिए, छोटकी खेत को बढाई, अऊर आज भी सब खेत सुरक्षित है. बच्चा लोग अपना अपना मकान बनवा लिया, लेकिन सब साथे रहता है.

पति के गुजर जाने के बाद भी छोटकी का अनुसासन बना है, जो बच्चा बाहर नौकरी करता है, ऊ लोग भी छ्ठ में घर आता है. छ्ठ पूजा में सब मेहमान का स्वागत करना, पड़ोस के लोगों को न्यौता देना, बगल का अनपढ लोगों को बैंकिंग सिखाना, आज भी चलता है. कभी कोई बच्चा,जो अब बच्चा का बाप हो चुका है, मजाक में छोटकी का गलती निकाल दे, तो एक्के जवाब होता है कि पढा लिखा के काबिल बना दिए हैं , त माँ का गलती निकालते हो.

लेकिन सब को पता है कि ई मजाक है. देह साथ नहीं देता है , मगर आज भी कोई आकर बोले कि ई काम आप ही करवा सकती हैं, त उठ कर तैयार हो जाती है. रिटायरमेंट का उमर त कहिए निकल गया. लेकिन छोटकी कहाँ रिटायर होना चाहती है.
बहुत पागल है हमरी माँ, रेलवे का पास होते हुए भी टिकट कटाकर हमसे मिलने के लिए दिल्ली चली आती है. हमरी सिरीमतीजी को ठण्डा में कपड़ा धोते देखकर, पेंसन के पईसा से वासिंग मसीन खरीद देती है.
माँ कभी रिटायर नहीं होती!!

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

गाली का आनंद!!

लगता है, अभी तक जो इज्जत आप लोग के बीच हम कमाएँ हैं, ऊ ई पोस्ट का सीर्सक देखकर मट्टी में मिल जाने वाला है. लेकिन हम भी त अपना दिमाग से मजबूर हैं. हमरे नजदीकी दोस्त लोग को मालूम है कि हमरे दिमाग में जब प्रसव पीड़ा होता है, त जब तक प्रसव न हो जाए, तब तक हम परेसान रहते हैं. अऊर प्रसव के बाद त बच्चा जईसा हो, हमरा है… परवाह भी नहीं करते कि बच्चा सुंदर है कि बदसूरत, काहे कि बच्चा त बच्चा होता है, अपना सरीर का हिस्सा. बदसूरत होगा त काट के फेंक त नहिंए देगा कोई. इसीलिए ई बचवा का नाम देखकर मत भाग जाइएगा, तनी रुककर मुँहो देख लीजिएगा.

गाली सभ्य समाज में बर्जित माना जाता है. लेकिन जगह अऊर लोग के हिसाब से गाली भी हमलोग का जिन्नगी में अईसा घुल मिल गया है कि आम बात चीत का हिस्सा लगने लगने लगता है. कलकत्ता में साला सब्द बहुत धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है. दिल्ली का लोग त घरवो में ऊ गाली बोल कर बतियाता है, जो हम लोग बाहरो बोलें त जीभ कट जाए. कमीना त आजकल लोग प्यार से भी बोलता है.

लेकिन कभी सुने हैं कि घर पर न्यौता देकर लोग बाग को बोलाइए, आदर सत्कार कीजिए, उनको प्रेम से बईठाइए, खाना परसिए अऊर जब खाना सुरू करें त जम के गारिआइए. अरे! झूठ नहीं बोल रहे हैं हम, पूरा घर भर मिलकर गाली बकता है, चुन चुन कर, एक एक आदमी को, उसका नाम ले लेकर. अगर सचो अईसा होता है, त आप सोचिएगा कि मारा पीटी हो जाता होगा. लोग खाना छोड़कर भाग जाता होगा.

लेकिन अईसा नहीं होता है. लोग बहुत प्यार से खाता है, अऊर गाली का आनंद भी लेता है… ऐसे काहे देख रहे हैं हमको, पगलाए नहीं हैं हम. ई बिहार अऊर उत्तर परदेस का घर घर में होता है. अऊर गाली का ई परम्परा, बड़ा छोटा, ऊँच नीच, अमीर गरीब का भेद भाव के बिना पालन किया जाता है. बिहार के हर सादी में लड़का वाला लोग जब बरात लेकर लड़की के दरवाजा पर जाता है, त दुल्हा को छोड़कर, सब को गाली सुनने को मिलता है, लड़की वाला के तरफ से. जहाँ एक तरफ बूढ़ पुरनियाँ लोग मसगूल रहती हैं गीत गाने में कि
                  पुरबा पछिमवा से अईलें सुंदर दुल्हा
                  जुड़ावे लगिलन हे! सासू अपने नयनवा!!
वहीं जवान लड़की लोग छोटा-छोटा बच्चा को फुसलाकर उनके चाचा, फूफा, मौसा, मामा, भाई लोग का नाम पूछने में बिजी रहती हैं. नाम पता लगाकर, सब नाम औरत लोग के हवाले. गाली देने वाला लोग का नेट्वर्क एतना तगड़ा है कि पूछिए मत. दू मिनट में लड़का वाला का पूरा कुटुम पुरान लड़की वाला के पास पहुँच जाता है.

अब जब खाने का टाईम आया, तब फायरिंग सुरू. औरत लोग अईसा अईसा गाली का गोली दागती हैं कि पूछिए मत. सब लोग का नाम त पते रहता है, बस फलनवा की बहिनी भाग गई फलनवा के साथ. कोई भी नहीं बचता है ई गाली से. जिस जिस आदमी का नाम आता है, उसका हँसते हँसते बुरा हाल हो जाता है, लेकिन कोई बुरा नहीं मानता.

केतना बार लड़का वाला लोग चलाकी से अपना सही नाम नहीं बताकर लड़कीए वाला पार्टी का नाम बता देता है. बस गाली चालू होते ही सब लोग ठठाकर हँस देता है, तब पता चलता है कि अपने अदमिया को गाली दिया जा रहा था.

ई गाली में एतना प्यार छिपा होता है कि पूछिए मत. गाली से संबंध मधुर होने का ई एकमात्र उदाहरन है. ई गाली का सबसे मधुर उदाहरन एगो रामलीला का है,जो हमरी माता जी सुनाती थीं.रामचंद्र जी जब सादी के लिए जनकपुर गए, त ओहाँ सीता जी के घर की औरत लोग राम जी से बोलीं, “ कमाल है आप के अजोध्या में. जनकपुर में त बहुत सा कुमारा लोग है, अऊर आपके पिताजी को तीन तीन रानी हैं. एगो इधरो भेजवा दीजिए. कुमारा का कल्यान हो जाएगा.”

इसी बात को हिंदी फिलिम के बिबाह इस्पेस्लिस्ट राजश्री फिलिम्स वाला लोग एगो सिनेमा में गाना में कहा था, "बता द बबुनी, लोगवा देत काहे गारी". आवाज सारदा सिन्हा का जिसमें बिहार के माटी का महँक है, जहाँ गाली बकने से ज्यादा, गाली सुनने वाला आनंद लेता है.

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

काला कागा

एगो बुझऊवल बुझाएँ. कऊन सा अईसन भासा है जो पूरा दुनिया में बोला जाता है?  ई भासा अदमी, जानवर अऊर पंछी तक बोलता अऊर समझता है. ई भासा पढने के लिए, समझने के लिए कोनो इस्कूल जाने का जरूरत नहीं है, न कोनो किताब कॉपी, कलम दवात, बही खाता का जरूरत है.
सब अदमी हमरा जईसा बेकूफ थोड़े है कि नहीं समझेगा. हमको मालूम है कि आप सब लोग बूझ गए होंगे, एही से हम ईनाम नहीं रखे थे. ई भासा है प्यार का भासा, ममता का भासा, दुलार का भासा. अपना एगो दोस्त नबीन जी के घर गए हुए थे चंडीगढ. सबेरे उठ के देखते हैं कि साह्ब किचन से निकल रहे हैं. हम चुटकिया दिए कि का बात है भाई जी सबेरे सबेरे किचन में डिऊटी दे रहे हैं. तब तक पीछे से शशि भाभी आ गईं (नबीन जी की सिरीमती जी). हम बोले कि एतना बड़ा गेस्ट त नहिंए हैं हम कि आप दुनो अदमी किचन में लगे हैं. तब शशि भाभी बताईं, “अरे भाई साहब! किचन के खिड़की में रोज एक कौआ आ जाता है, बेचारे की एक ही टाँग है. और जब तक रोटी न दो काँव काँव चिल्लाता रहता है. इनका नाश्ता भले न पैक हो पर कागा जी का नागा नहीं होना चाहिए.”

हम ठहरे सेंटीमेंटल अदमी, बस ई प्यार का भासा टच कर गया हमको. अऊर चट से एगो तुकबंदी कर दिए. देखिए शशि भाभी का पंछी प्रेम, हमरे नजर से...


काला कागा
एक टाँग पर
रोज़ रसोई घर की खिड़की पर आ जाता
और सुबह की रोटी पाने को कस कर आवाज़ लगाता.

शशि ने भी
हर रोज़ उसे
उसके आवाज़ लगाने से पहले ही जाकर
रोटी उसकी चोंच में देने का एक नियम बना रखा है.

फिर एक दिन वो
कागा आया
साथ में दो साथी भी आए
लगता है कि सालगिरह थी कागा की और पार्टी दी थी.

कल थोड़ी सी
देर से जागी
जगते ही वो दौड़के भागी
चला गया था काला कागा काँ काँ करके बिन रोटी के.

साधु कहीं भी
एक बार ही
हैं पुकारते और बढ़ जाते
शशि सोचती काला कागा भूखा आज रहेगा दिन भर.
 
(पुनश्च: बहुत कोसिस किए, लेकिन कागा बाबू फोटो खिंचाने के लिए तैयार नहीं हुए.)
 

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

भगवान ने चाहा - इंशा अल्लाह!!

हम त कभी सोचबो नहीं किए थे कि देस छोड़कर बिदेस में नौकरी करने का मौका मिलेगा. अऊर जब मौका मिला त हमरे घर में मातम छा गया. कुछ चुना हुआ लोग को हर साल हमरा ऑफिस बिदेस में पोस्टिंग करता है. गलती से हमको भी चुन लिया गया अऊर शारजाह भेजने का खबर आ गया. पटना फोन करके खुसखबरी दिए त मातम छा गया घर में. एक त एतना दिन के लिए बाहर अऊर दोसरा इस्लामी देस में रहना, ऊ भी हमरा जईसा ठेठ साकाहारी आदमी के लिए. हमरी सिरीमती जी त सिया सुकुमारी, राम के साथ बनवास जाने के लिए भी तैयार, बचिया ई सब समझ बूझ से बाहर थी, उसके लिए का कलकत्ता अऊर का शारजाह.
खैर, ओहाँ पहुँचे त काम का रूटीने अलग था. सबेरे आठ बजे से दोपहर बारह बजे तक ऑफिस, फिर साम को चार बजे से नौ बजे रात तक. बीच में आराम से चार घंटा का नींद. साल का 362 दिन काम. लेकिन ई रूटीन में सबसे बड़ा नोकसान हुआ हमरी सिरीमती जी का. सोसल लाईफ त एकदमे खतम. अनजान जगह, अनजान लोग, अनजान भासा (मलयालम हमरी सिरीमती जी को नहीं आता है, अऊर पास पड़ोस में खाली मलयाली लोग रहता था). हमरा भासा सुनने के लिए उनको सारा दिन इंतजार करना पड़ता था. बेटी भी इस्कूल से आधा दिन बादे आती थी.
लेकिन पानी अपना सतह खुदे खोज लेता है. हमरी सिरीमती जी को ई दोस्ती के पानी का सतह तीन घर हिंदुस्तानी छोड़कर, एगो पाकिस्तानी परिवार में मिला. बीच का तीन घर दक्षिन भारतीय मलयाली का था, अऊर ऊ लोग कोई बतियाता भी नहीं था, काहे कि हिंदी नहीं समझता था. पाकिस्तानी परिवार में हमरी सिरीमती जी को उर्दू बोलने वाली सहेली मिल गई. उर्दू त एकदम हिंदिए जईसा भासा है, कोनो दिक्कत नहीं होता है समझने में, हमरी सिरीमती जी का कहना था.
औरत लोग का दोस्ती, फिर बच्चा लोग का दोस्ती, फिर मर्द लोग का दोस्ती. बातचीत, फिर घर आना जाना, फिर बर्थ डे, मैरेज डे, फिर साथ घूमना फिरना. दोस्ती एतना बढ गया कि उनके घर पर पाकिस्तान से आने वाला उनका रिस्तेदार लोग भी हमरे घर आने जाने लगा. बाकी साल भर बाद जो घटना हुआ, ऊ हमरा दिल को छू गया. हमलोग पटना जाने वाले थे. जाने के एक रोज पहिले रात में शह्जादी भाभी हमरे घर आईं, हाथ में एगो झोला था. ऊ झोला में पटना में हमरे माँ के लिए साड़ी, अऊर छोटा भाई की दुलहिन के लिए सूट का कपड़ा था, अऊर बेटा के लिए ड्रेस. साथ में काजू बादाम. हमरे मुँह से त आवाजे नहीं निकला, लेकिन ऊ बोलीं, “भाई जान, पहली बार जा रहे हैं आप लोग. हमारा ज़िक्र किया है आपने घर पर. हमारी तरफ से कुछ सौग़ात नहीं ले गए तो लोग क्या सोचेंगे”. हम कुछ कहिए नहीं पाए, मगर दिल भर गया हम लोगों का. दोसरा दिन जब निकलने लगे घर से तो शहज़ादी भाभी हाथ में क़ुरान पाक लेकर आईं अऊर बोलीं कि क़ुरान पाक के साए में घर से बाहर निकलिए, अल्लाह की हिफ़ाज़त में.
दीवाली के रोज साम को ऑफिस से लौटे त अपना घरे पहिचान में नहीं आ रहा था. हमरे घर का पूरा पर्दा अऊर सोफा का कभर एकदम नया हो गया था. पता चला कि दिन भर बईठ कर शहज़ादी भाभी हमरे घर का पर्दा अऊर कभर सिलाई कर दीं, बोलीं इतना ख़ूबसूरत त्यौहार है और पुराने पर्दे. उनका बच्चा लोग आकर बोला कि आण्टी हम लोगों ने दीवाली सिर्फ हिंदी फिल्मों में देखी है. आपके साथ दीवाली मना सकते हैं हम. अब ई त कोनो मना करने वाला बाते नहीं था. अपने फ्लैट के अंदर में मोमबत्ती जलाकर सबके साथ दीवाली मनाए.
हम त ऑफिसे में ओझराए रहते थे, लेकिन ऊ लोग कहीं भी घूमने जाता था त हमरा परिवार के लोग को साथ ले जाता था. पाकिस्तान से उनका कोई रिस्तेदार आया त हमए घर के लिए सौगात लेकर आता था. दुबई, अबू धबी में उनका जेतना परिवार था सब हम लोग का परिवार जईसा था, हमरी सिरीमती जी के कारन.
आज भी हमरी सिरीमती जी के गला में एक लॉकेट है जिसपर अंगरेजी का अक्षर S बना हुआ है. लोग समझता है कि ऊ हमरा नाम है, लेकिन S का माने है शहज़ादी, उनका सबसे अच्छा दोस्त, लेकिन पाकिस्तानी. अईसने एगो लॉकेट उनके गला में भी है,जिसमें हमरी सिरीमती जी का नाम है.
जब हम लोग लौट कर भारत आए, त अईसा लगा कि हम अपना पूरा परिवार छोड़कर आ रहे हैं. जावेद भाई और शह्ज़ादी भाभी, आज भी फोन करते हैं. लेकिन पाँच मिनट के कॉल में आज भी दू मिनट त ऊ दुनो औरत लोग के रोने में निकल जाता है.
आज भी ऊ लोग एक्के बात बोलता हैं, “भाई जान! अगर हालात सुधर जाएँ, तो एक बार हमारे यहाँ आप ज़रूर तशरीफ़ लाना." हमरा जवाब होता है, " इंशा अल्लाह!” मगर जब तक ऐसा नहीं होता तब तक तो बस अमन का आसा लिए बैठे हैं,  अऊर मुनव्वर राना साहब का सेर पर बिचार कर रहे हैं:
              सियासत नफ़रतों का ज़ख़्म भरने ही नहीं देती
              जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है.