शनिवार, 8 मार्च 2014

नारी


आज “सम्वेदना के स्वर” का कुछ पुरनका पोस्ट सब पढ रहे थे, तब अचानक नजर पड़ा हमारे अभिन्न चैतन्य आलोक जी के कबिता पर. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिबस पर जब 2011 में ई कबिता अपने ब्लॉग पर पर्कासित किए, त रचना जी इसको अपने ब्लॉग पर सेयर कीं. कोनो महिला बिसय पर लिखा जाना अऊर उसको रचना जी के द्वारा सेयर किया जाना, अपने आप में एगो बहुत बड़ा उपलब्धि है.

आज ई कबिता पढते हुए, फिर से आँख भीज गया. लगा आज इसको हम भी सेयर कर लेते हैं.  


वो मेरी तुमसे पहली पहचान थी
जब मैं जन्मा भी न था
मैं गर्भ में था तुम्हारे
और तुम सहेजे थीं मुझे.

फिर मृत्यु सी पीड़ा सहकर भी
जन्म दिया तुमने मुझे
सासें दीं, दूध दिया, रक्त दिया तुमने मुझे.

और जैसे तुम्हारे नेह की पतवार
लहर लहर ले आयी जीवन में

तुम्हारी उंगली को छूकर
तुमसे भी ऊँचा होकर
एक दिन अचानक
तुमसे अलग हो गया मैं.

और जिस तरह नदी पार हो जाने पर
नाव साथ नहीं चलती
मुझे भी तुम्हारा साथ अच्छा नहीं लगता था
तुम्हारे साथ मैं खुद को दुनिया को बच्चा दिखता था.

बचपन के साथ तुम्हें भी खत्म समझ लिया मैने
और तब तुम मेरे साथ बराबर की होकर आयीं थीं..

बादलों पर चलते
ख्याब हसीं बुनते
हम कितना बतियाते थे चोरी के उन लम्हों में
दुनिया भर की बातें कर जाते थे

मै तुम पर कविता लिखता था
खुद को पुरूरवा
तुम्हें उर्वशीकहता था.

और जैसा अक्सर होता है
फिर एक रोज़
तुम्हारे पुरूरवाको भी ज्ञान प्राप्त हो गया
वो उर्वशीका नहीं लक्ष्मी का दास हो गया

तुम फिर आयीं मेरे जीवन में
मैने फिर तुम्हारा साथ पाया

वह तुम्हारा समर्पण ही था
जिसने चारदीवारी को घर बना दिया
पर व्यवहार कुशल मैं
सब जान कर भी खामोश रह गया

और उन्मादी रातों में
तुम जब नज़दीक होती
यह पुरूरवा”, “वात्सायनबन जाता
खेलता तुम्हारे शरीर से और रह जाता था अछूत
तुम्हारी कोरी भावनाऑ से

सोचता हूं ?
इस पूरी यात्रा में
तुम्हें क्या मिला
क्या मिला

एक लाल
और फिर यही सब .....

और जब तुमने लाली को जना था
तो क्यों रोयीं थीं तुम
क्यों रोयीं थीं???

                     -    चैतन्य आलोक 

शनिवार, 1 मार्च 2014

मेरी आवाज़ ही पहचान है


एगो बहुत पुराना कहावत है कि जब आप किसी को इज्जत देते हैं, त आपको भी इज्जत मिलता है. ई बात जेतना सजीव लोग पर लागू होता है ओतने निर्जीव पर भी लागू होता है. सजीव माने आदमी, जानवर अऊर पेड़-पौधा अऊर निर्जीव माने...? तनी सोचिये कि निर्जीब चीज को का इज्जत देंगे हम अऊर ऊ हमको का इज्जत देगा. बाकी अइसा बात नहीं है.

चलिए एगो बात बताइये. आप लोग के साथ केतना बार अइसा हुआ होगा कि कोनो समान, चाहे जरूरी कागज, कोनो किताब कहीं रखा गया अऊर जब आप उसको खोजना सुरू किए त ऊ मिलबे नहीं किया. हर सम्भब जगह पर खोजने के बाद भी ऊ आपको देखाई नहीं दिया. आखिर में हारकर आप मने-मन पछताते हैं कि ठीक से रखे होते त एतना परेसानी नहीं होता. ओही घड़ी आपका बच्चा चाहे घर का कोनो आदमी आकर आपसे पूछता है, यही ढूँढ रहे थे न आप? ये रहा... आलमारी के निचले ख़ाने में रखा था!आप हैरान होते हैं कि तनी देर पहिले त आप पूरा आलमारी देख गये थे, निचलका खाना भी देखे थे. ओ घड़ी त ओहाँ नहीं था, अभी कइसे आ गया!!

तनी सोचिए कि ऊ कागज, चाहे समान जब एतना जरूरी था त उसको सम्भालकर, हिफाजत से रखना चाहिए था ताकि जरूरत के बखत आसानी से मिल जाए. मगर आप उसको इज्जत नहीं दिए अऊर जहाँ-तहाँ रख दिए. अब बताइये, जब आप इज्जत नहीं दीजियेगा, त आपको कहाँ से इज्जत मिलेगा. ऊ समान आपसे अपना बेज्जती का बदला लिया. एही नहीं, जब आप बाद में पछतावा किए, त आसानी से मिल गया, ओही जगह जहाँ आप केतना बार खोज चुके थे. कोई बाहरी अदमी ओहाँ नहीं धर गया, आप ही रखे थे अऊर आपको मिल गया. ऊ का कहते हैं - ऐज़ सिम्पल ऐज़ दैट!!

चलिए एगो अऊर बात बताते हैं. बताते का हैं बस अपना मन का फीलिंग है ओही कहते हैं. कोनो ज्ञानी त हैं नहीं कि हम जो बोलेंगे ऊ पत्थर का लकीर हो जाएगा. गुलजार साहब का सायरी/नज्म का एक खासियत है जिसके कारन हर कोई उनका दीवाना हो जाता है. रोमाण्टिक से रोमाण्टिक बात कहने के लिये ऊ अइसा-अइसा प्रतीक खोजकर लाते हैं अऊर अइसा-अइसा सब्द का प्रयोग करते हैं कि पढने-सुनने वाला बस मोहित हो जाता है. उनका एही खासियत के कारन हम अपना जवानी का दिन से उनका दीवाना हैं अऊर ऊ समय से लेकर आज का नौजवान पीढी तक का फेवरिट हैं ऊ. जो सब्द हमारा रोजाना का बोलचाल से गायब हो चुका था उसको फिर से जिन्दा करने का काम ऊ किये अऊर जो लोग का वाकफियत था ऊ सब्द से उनको अपना भुलाया हुआ माटी का महँक याद दिलाते गए.

असल में ई शब्द भी इज्जत देने से आपको बदला में सम्मान दिलाता है. अऊर जब आप सब्द को सम्मान देते हैं त सब्द आपके साथ एतना परेम से खेलता है कि आपका पहचान बन जाता है. दिनकर जी का रस्मिरथी हो, निराला का सरोज-स्मृति, बच्चन जी का मधुसाला, गुलजार साहब का नज्म हो, के.पी.सक्सेना साहब का कोई आलेख, अपना पहचान अलग से बना लेता है. सलीम-जावेद अऊर फिलिम ‘सोले’ का सम्बाद आज 39 साल बाद भी अपना असर बनाए हुए है, खाली इसलिये कि का कहना है, कोन सब्द को कइसे प्रयोग करना है, यानि हर शब्द को इज्जत दिया ऊ लोग अऊर आज ओही सब्द उनको इज्जत दिला रहा है, मान-सम्मान दिला रहा है.

बास्तव में हर सब्द का बहुत सा मतलब होता है अऊर बहुत सा सब्द को बहुत तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन कब, कहाँ, कोन अर्थ में, किस तरह कोई बात को कहना है, ऊ कमाल का बात है. हमारे पंजाब में शब्द के साथ खेलना एकदम लोक परम्परा के जइसा है. लोग का बातचीत, मजाक करने का ढंग, उनके खुसमिजाजी को चार चाँद लगा देता है. अपने संजय अनेजा (मो सम कौन...) जी के ब्लॉग पर कभी कमेण्ट देखिए अऊर उनका जवाब देखिए. इनसे हाथ मिलाने के बाद उँगली भले गिनकर मत देखिए, लेकिन अपने कमेण्ट में कोनो सब्द का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर कीजिये. आपके हर बात का जवाब देने का तरीका एतना खास है कि पोस्ट के बाद इनका कमेण्ट बोनस का काम करता है.

लोग अस्लील, फूहड़, घटिया चाहे जो मर्जी कह ले (उसपर अलग से बहस), लेकिन स्टैण्ड-अप कॉमेडी में जो पंजाबी लोग कमाल दिखाया है, ऊ कोई नहीं. चाहे सुदेस हो, भारती हो, सिद्धू जी हो या अपना कपिल सर्मा. यसराज फिल्म्स के एगो सिनेमा में काम करने के कारन कपिल का सो हफ्ता में दू दिन के जगह पर खाली एक्के दिन देखाया जाएगा. कपिल बताया कि सूटिंग में बेस्त रहने के कारन समय नहीं मिल पाएगा एही से एक दिन बन्द करना पड़ा. सत्तर मिनट के प्रोग्राम में हर दस सेकण्ड में मजाक गढना कोई आसान काम नहीं है अऊर हफ्ता में दू दिन एही काम करना त अऊर मोस्किल है.

सब्द साधना हो चाहे हर बात को इज्जत देना हो जब सध जाता है तब्बे हम कहते हैं कि अदमी हाजिरजवाब है. सिद्धू जी का तात्कालिक तुकबन्दी हो या कपिल का दस सेकण्ड में बनने वाला तात्कालिक मजाक या (आतममुग्ध होते हुये) फेसबुक पर हमरा कमेण्ट सब्द को इज्जत से दिमाग में रखने से आता है, जिसके भुलाने का त सवाले पैदा नहीं होता है अऊर भुलाइयो जाए त खोजने का जरूरत नहीं पड़ता है!