श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ का परिचय उनकी
कवितायें, लघुकथायें, संस्मरण, उपन्यास और कहानियाँ हैं. उनकी रचनायें चाहे जिस भी विधा में हों,
अपनी एक अलग ही पहचान रखती हैं. उनकी समस्त रचनाओं में सामाजिक सरोकार को इतनी
कोमलता से दर्शाया गया है कि वे कहीं से भी चीखती-चिल्लाती हुई ध्यानाकर्षण की
मांग नहीं करतीं. बल्कि पाठक के हृदय को आन्दोलित करती हैं. उनकी रचनाओं में
सम्वेदनाओं का पुट इतना संतुलित होता है कि बस आपके मन को छूता है, सहलाता है और
धीरे से आपके मस्तिष्क को चिंतन के लिये व्यथित करता है, विवश नहीं.
इनसे भी परे गिरिजा जी का एक और
साहित्य-संसार है. जहाँ वे कहानियों, कविताओं और चित्र-कथाओं का सृजन करती हैं एक
वर्ग-विशेष के लिये; वह पाठक वर्ग है बच्चे और शिक्षा से दूर प्रौढ. प्रौढ शिक्षा
के क्षेत्र में इनकी लिखी कहानियाँ कार्यशालाओं में पठन-सामग्री के रूप में उपयोग
में लाई जाती रही हैं. बच्चों के लिये इनका साहित्यिक योगदान अद्भुत है. बच्चों और
बड़ों के लिये समान रूप से जो काम इन्होंने किया है वह गुलज़ार साहब के काम में
देखने में आता है, जहाँ एक ओर वो बच्चों के लिये बच्चे बनकर कवितायें लिखते हैं, वहीं बड़ों के लिये
बड़े होकर नज़्में. यह विस्तार ही किसी भी साहित्यकार की रचनाओं को विस्तार प्रदान
करता है. गिरिजा जी की रचनाओं में यह विस्तार सहज ही देखने को मिलता है.
“ध्रुव-गाथा” बालक ध्रुव की कहानी है, जो अपनी माता के साथ पिता द्वारा निर्वासन का दुःख भोग रहा था, एक अन्य स्त्री के कारण. राजमहल के सुख से वंचित ध्रुव, एक दिवस अपने पिता के
महल में पहुँचकर पिता की गोद में बैठ अद्भुत आनन्द की अनुभूति पाता है. किंतु तभी
विमाता द्वारा अपमानित कर उसे महल से निकाल दिया जाता है. बालक ध्रुव अपनी माता से
इस व्यथा का वर्णन करते हैं. माता उन्हें फुसलाने के लिये कहती हैं कि तुम्हारा तो
भगवान हरि की गोद में स्थान है जो सम्पूर्ण जगत के पिता हैं. और ऐसे में बालक
ध्रुव एक रात्रि हरि मिलन के लिये निकल पड़ते हैं तथा अनेक कष्टों का सामना करते
हुये प्रभु से मिलते हैं. प्रभु के आशीर्वाद से उन्हें ब्रह्माण्ड में एक अटल स्थान
प्राप्त होता है और उन्हें दृढता का प्रतीक माना जाता है.
जैसा कि परिचय से ही स्पष्ट है, ध्रुव-गाथा
एक खंड काव्य है और इसकी रचना उन्होंने बाल-पाठकों को ध्यान में रखकर की है अतः
इसे उन्होंने बाल खंड-काव्य की संज्ञा दी है. इस काव्य का रचना काल 1982-86 के
मध्य का है और यदि गिरिजा जी के शब्दों में कहें तो उन्हें यह रचना भारतेन्दु-काल
की लगी, अत: उनके मन में स्वयम एक सकुचाहट थी कि यह काव्य प्राचीन शैली में लिखा
गया है, आज के पाठक वर्ग को पसंद आएगा या नहीं. और यह रचना संदूक में दबी रही.
२००१ में इसे किसी “पाठक” को सुनाया गया और प्रकाशन के बाद, यह २०१२ में हमारे
सामने है. सृजन की इतनी लंबी यात्रा और कवयित्री द्वारा स्वयं अपनी रचना का आकलन (पिताश्री की शाबाशी से भी संतुष्ट न हो पाना), इस बात का प्रमाण है कि इनकी
रचनाधर्मिता में कितनी ईमानदारी है.
खंड काव्य चूँकि एक पात्र के चारों ओर
बुना जाता है अतः यहाँ केन्द्रीय चरित्र बालक ध्रुव हैं. घटनाक्रम, जिसे फिल्म की
भाषा में पटकथा कहते हैं, इतना चुस्त कि अगली कड़ी की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती है
और वहाँ पहुंचकर आगे की. घटनाओं के वर्णन में सभी सह-चरित्रों के साथ न्याय किया
गया है और उन्हें उनके स्वाभाविक रूप में दर्शाया गया है. प्रत्येक घटना के साथ
बालक ध्रुव के मन में उठते विचारों और मनोभावों का चित्रण इतना सहज है मानो
बाल-मनोविज्ञान की गहन समझ रखने वाला कोई व्यक्ति उनका वर्णन कर रहा है. माता,
पिता, विमाता, मित्रों और प्रभु के संवाद इतने स्वतः अभिव्यक्त हैं कि लगता है एक
एक शब्द अपनी पूरी प्रतिष्ठा के साथ उनकी जिह्वा पर सुशोभित हो रहा है. एक बानगी-
ध्रुव को अपने समक्ष पाकर महाराज:
कैसी हैं महारानी,
वह धरती की अरुणा,
पीड़ित के प्रति
न्यौछावर है जिसकी करुणा.
तेरी माँ तो वत्स
भुवन की दिव्य प्रभा है,
अंधियारे में भटके
को ज्यों दीपशिखा है!
ध्रुव अपने पिता से:
गोद आपकी कितनी
अच्छी-कितनी प्यारी,
लेकिन माँ की बात
निराली प्यारी-प्यारी,
आप यहाँ हैं लीन सुखों
में, वहाँ विपिन में,
वनवासी ऋषि मुनियों
के शुचि-आराधन में.
विमाता ध्रुव से:
राजकुंवर तो सिर्फ
एक, जो मेरा सुत है,
दुस्साहस मत कर बालक
यह मेरा मत है,
जहाँ जमा है तू,
उसका उत्तम अधिकारी,
राजपुत्र जिसका सुत,
केवल मैं वह नारी!
इसी प्रकार, जहाँ भी कवयित्री ने स्वयं को
सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत किया है, वहाँ भी उनका शब्द-कौशल अपने चरमोत्कर्ष पर
दिखाई देता है. शब्द-कौशल को आप शब्द-साधन भी कह सकते हैं.
नयनों में था
अहंकार, पद की गरिमा थी,
सुन्दर भी थी, पर
जैसे प्रस्तर प्रतिमा थी.
एक खंड काव्य में चूँकि एक चरित्र विशेष
के जीवन क्रम को चित्रित किया जाता है, अतः पाठक का आकर्षण बनाए रखने के लिए यह
आवश्यक है कि शब्दों का चयन घटनाक्रम के अनुरूप हों, क्योंकि काव्य की लयात्मकता
लगभग सुनिश्चित होती है. अतः घटनाक्रम के उतार चढ़ाव, चरित्रों के कथोपकथन और
पृष्ठभूमि के सृजन में उचित शब्द-समूह का चुनाव, काव्य में उनको बुना जाना और
नाटकीयता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है. इस कसौटी पर देखें तो गिरिजा
जी कहीं भी पिछडती नहीं प्रतीत होती हैं.
स्वयं महिला होने के नाते और ध्रुव की
माता तथा विमाता जैसे दो सशक्त चरित्रों का निर्वाह करने में जहाँ भी उन्हें सुयोग
प्राप्त हुआ है, उन्होंने नारी को व्याख्यायित करने का अवसर नहीं गंवाया है:
नारी को नर यूं ही
अब तक छलता आया,
नेह मान के झूठे
जालों में उलझाया,
स्वयं प्रकृति ने ही
नारी का भाग्य रचाया,
प्रणय और वात्सल्य
जाल में यों उलझाया.
इनमें पुलक किलक कर
निज संसार बसाती
इन पर तन-मन –धन वह
दोनों हाथ लुटाती.
काव्य की प्रांजलता सर्वाधिक प्रभावित
करती है. पढते हुए लगता है जैसे आप इसे पढ़ नहीं रहे “पाठ कर रहे” हैं. लगभग यही
अनुभव मुझे दिनकर जी की “रश्मिरथी” का पाठ करते हुए आता था. सम्पूर्ण खंड-काव्य को
पढ़ने का एकमात्र तरीका इसका सस्वर पाठ करना ही है. प्रांजलता इतनी तरलता से अनुभूत
है कि शब्दों के उतार चढ़ाव भावनाओं के साथ प्रवाहित होते प्रतीत होते हैं.
श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी के परिचय
में मैंने कहा था कि उनके अंदर एक बच्चा आज भी बचा है, जो उनसे इन रचनाओं का सृजन
करवाता है. इसका प्रमाण स्वयं उन्होंने इस पुस्तक के विमोचन समारोह में दिया.
पुस्तक के अनावरण के लिए जब सारा इंतज़ाम हो गया तब इन्हें किसी ने बताया कि पुस्तक
की सारी प्रतियां तो पहले से ही अनावृत रखी हैं. ऐसे में उन्होंने मासूमियत से कहा
कि क्या ऐसा होता है और तब पुस्तकों को पैक किया गया.
पुस्तक हार्ड-बाउंड में है और मूल्य है
मात्र १५०.०० रुपये. प्रकाशक का नाम मैं जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि प्रकाशक
ने पुस्तक के आवरण को अपना विज्ञापन-पट्ट बना रखा है. छपाई बहुत अच्छी नहीं है और
बहुत सारी त्रुटियाँ हैं मुद्रण की. मुझे जो प्रति प्राप्त हुई उसमें हाथ से काटकर
शब्दों को शुद्ध किया गया है. इस प्रकार की भूल पाठन में व्यवधान उत्पन्न करती है.
पुस्तक के परिचय में डॉ. अन्नपूर्णा भदौरिया,
विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर; डॉ. पूनम चंद
तिवारी, पूर्व विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर तथा
कवि प्रकाश मिश्र ने अपनी बात कही है, जो इस खंड-काव्य को प्रामाणिकता की मुहर
लगाता है.
अंत में यही कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक,
स्वयं कवयित्री को भारतेंदु काल की रचना लगती हो, और ऐसा लगता हो कि इसे पढने वाले
विरले ही मिलते हैं, वास्तव में अपनी प्रासंगिकता के स्तर पर कभी भी पुरातन नहीं
होने वाली. यह पुस्तक भले ही बाल मनोविज्ञान की आधारशिला पर रचित है, किन्तु इसमें
नारी, पर्यावरण, सामाजिक विसंगतियों आदि का इतना सजीव चित्रण है कि पाठक मुग्ध हो
जाता है.
यदि मुक्तछंद की कविताओं को पढते हुए एक
सलिल प्रवाह से खंड काव्य को पढ़ने का शीतल अनुभव प्राप्त करना चाहें तो यह काव्य-पाठ एक सुखद अनुभूति है.
सलिल जी ,आपने न केवल ध्रुव-गाथा को बहुत ही ध्यान व मान के साथ पढा है वरन् गहन समीक्षा लिख कर रचना को विशिष्ट भी बना दिया है । इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नही कि लिखते समय रचनाकार उतना नही सोचता जितना एक प्रबुद्ध पाठक व समीक्षक सोचता है और यह भी कि आप जैसे संवेदनशील व प्रबुद्ध लेखक ,पाठक व समीक्षकों मिलना बेशक रचनाकार की उपलब्धि होती है जो मुझे तो अनायास ही मिली है । आपने इतना कुछ कह दिया है कि मेरे पास प्रतिक्रिया के लिये शब्द ही नही हैं । यहाँ मैं एक बात और कहना चाहती हूँ कि मेरे मन में यह सवाल बचपन से ही था कि जब ध्रुव को भगवान मिल ही गए थे तो फिर वह लौटा कैसे क्योंकि उसका अभीष्ट तो ईश्वर को पाना ही था जबकि उसने बाद में लम्बे समय तक शासन भी किया था । ध्रुवगाथा में इसका समाधान देने का भी प्रयास किया गया है । और यह भी कि इसमें ,जैसा कि कथाओं में ध्रुव का वर्षों तक तपस्या करना और विष्णु भगवान प्रकट होना सुना गया है ,नही है ।
जवाब देंहटाएंतय है समीक्षा पढने वालों में पढने की उत्सुकता जागेगी ही । एक रचनाकार के लिये इससे बडा प्रतिफल और क्या होसकता है ।
ब्लॉगिंग का सच्चा सुख यही है। इसी से मुझे ब्लॉगिंग का आनंद आता है। सुंदर खण्डकाव्य की रचना हुई, प्रकाशन हुआ, आप जैसी पारखी कलम ने इसकी समीक्षा लिखी और तो और समीक्षा पर लेखक के विचार भी तत्काल पढ़ने को मिल गये।
जवाब देंहटाएंखण्ड-काव्य को गा कर पढ़ने में ही आनंद आता है। इसे तो बच्चों के साथ बैठकर सुनाने में और भी आनंद आयेगा लगता है। बात खण्डकाव्य की चली है तो बताऊँ कि कर्ण के अलावा एक भोजपुरी खण्ड-काव्य है जिसका मैं दीवाना था।..स्व0 पं0चंद्रशेखर मिश्र रचित द्रौपदी। गज़ब का खण्ड-काव्य है।
आपने इतना अच्छी समीक्षा लिखी है कि इसे भी पढ़ने और गाने का मन हो रहा है।
देवेन्द्र जी!
हटाएंउपलब्ध कराएं भोजपुरी का खंड काव्य! संभवतः वह आंचलिक भाषा का एकमात्र (?) खंड-काव्य होगा!!
ब्लॉगिंग के सच्चे सुख पर देवेन्द्र जी की बात से सौ फ़ीसदी सहमत।
हटाएंसमीक्षा ने इस पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ा दी है...गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी को बधाई और शुभकामनाएँ!!!
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी की ध्रुव गाथा के बारे में आपकी समीक्षा पढकर,पढ़ने की इच्छा जागी है ! कुछ पंक्तियाँ पढकर ही लगता है कि पुस्तक पठनीय तथा रोचक साबित होगी !
गिरिजा जी संकोची ब्लोगर हैं अतः इस शक्तिशाली कलम के बारे में ब्लोगर समुदाय कम ही जानते हैं ! आपने यह समीक्षा लाकर हम पाठकों पर उपकार किया है जो ब्लॉग जगत में अच्छे लेखकों को खोजते रहते हैं !
गिरिजा जी के ब्लॉग को मेरे गीत के साइड बार में लगा रहा हूँ ताकि भविष्य में उन्हें पढ़ने से वंचित न रहूँ !
गिरिजा कुलश्रेष्ठ को बधाई !
आपका पुनः आभार...
गिरिजा जी की लेखनी का तो जवाब है ही नहीं.. सरल शब्दों में अपनी बात पाठकों तक पहुंचाना उन्हें खूब आता है और आज के बच्चों को साहित्य के प्रति आकर्षित करने के लिए ऐसी और भी पुस्तकों और रचनाकारों की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंआदरणीय गिरिजा जी को जब भी पढ़ा है हमेशा मन को खूब भाया है .. उसी तरह आपकी यह समीक्षा हर पक्ष को निष्पक्ष भाव से सबके सामने लाने का एक श्रेष्ठ प्रयास साबित हो रही है ... आभार सहित
जवाब देंहटाएंसादर
गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी तो खुद तराशा हुआ नगीना है .... उनकी पुस्तक आप जैसे जौहरी की कलम से सही अर्थों को जी गई .
जवाब देंहटाएंपुस्तक पढना चाहूंगी - गिरिजा जी को ढेर सारी बधाई
बहुत अच्छी समीक्षा, पुस्तक पढ़ने का आनन्द अलग ही होगा..
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी को नियम से पढ़ती हूँ.....
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा इस पुस्तक को पढ़ने का खुला लालच भी दे रही है.....
सुन्दर और बेबाक समीक्षा...
शुक्रिया भाई..
बधाई गिरिजा जी को...
सादर
अनु
यही ब्लोगिंग की खासियत है यहाँ कितनी आसानी से कितना अच्छा और सार्थक पढ़ने को मिल जाता है.समीक्षा इतनी सुन्दर है तो यकीनन पुस्तक भी उत्कृष्ट होगी.
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी को पढ़ता रहा हूं, और आपकी समीक्षाएं भी। इस समीक्षा में आपने अपने पुराने प्रतिमानों के स्तर को और भी ऊंचा उठा दिया है। ब्लॉग जगत में ऐसी समीक्षाएं कम ही मिलती हैं।
जवाब देंहटाएंसमीक्षक की सफलता मैं तभी मानता हूं जब वह किसी पाठक में आलोच्य कृति को पढ़ने की बेकरारी जगा दे। पर इस बेकरारी को शांति नहीं मिली क्योंकि न तो अपने प्रकाशक का नाम दिया और न ही कोई अन्य प्राप्ति-स्थल के बारे में बताया। आपकी पोस्टों में होता है कि रहस्योद्घाटन अंतिम पंक्तियों में होता है, तो ऊपर दिए गए तस्वीर को बड़ा कर देखा कि शायद नाम पता वहां हो, लेकिन वहां भी नहीं कुछ मिला। कृपया इस पर भी ध्यान दें।
गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी को बहुत२ बधाई और शुभकामनाएँ,,,
जवाब देंहटाएंबेबाक समीक्षा के लिये सलिल भाई आपको आभार,,,,,
विजयादशमी की हादिक शुभकामनाये,,,
RECENT POST...: विजयादशमी,,,
गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी को बधाई और शुभकामना, और समीक्षा के लिये सलिल भाई आपको
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार दादा ... गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी से परिचय करवाने के लिए !
जवाब देंहटाएंBahut kuchh likhne ka man hai,lekin mere liye baith pana mumkin nahee...haan! Aapkee sameekshane Girija ji kee any rachnayen padhne kee zabardast ichha jagrut kee hai!
जवाब देंहटाएंवास्तव में बाल-साहित्य का सर्जन कठिनतम कार्य है। गिरिजा जी को इस प्रतिभा और सर्जन के लिए हार्दिक बधाई। हाँ,लेकिन जो उद्धरण सामने रखे गए हैं, उस आधार पर बाल-साहित्य के अन्दर रखना उचित नहीं जान पड़ता। क्योंकि शब्दावलि और नारी आदि के स्वरूप को जिस अर्थ-चेतना पर प्रस्तुत किया गया है, वह बाल-बोधग्म्य नहीं है। वैसे उनके प्रयास को नमन।
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी की कृति ‘ध्रुव-गाथा‘ की उत्कृष्ट समीक्षा, पठन-पिपासा जागृत करने में सक्षम।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएं।
उत्कृष्ट समीक्षा ने पुस्तक पढने की उत्कंठा बढ़ा दी है।
जवाब देंहटाएंबच्चों के लिए ऐसी किताबें बहुत ही जरूरी है। गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी को साधुवाद इतने सुन्दर लेखन के लिए
चचा मुझे कुछ दिन पहले ही मिली है ये किताब लेकिन अभी तक पढ़ नहीं पाया...जल्दी ही पढता हूँ...!!
जवाब देंहटाएंसलिल जी की कलम ने ध्रुवगाथा को सचमुच विस्तार दिया है । मैं उनकी व सभी सम्माननीय पाठकों की आभारी हूँ । मुझे पता है कि सलिल जी को ऐसे शब्दों से परहेज है फिर भी...। मनोज जी का प्रश्न उचित है । दोनों पुस्तक--ध्रुवगाथा व अपनी खिडकी से ,किताबघर जिन्सीपुल ग्वालियर एवं रेलवे बुक-स्टाल ग्वालियर पर उपलब्ध हैं । वैसे पता मिलने पर मैं भी भेज सकती हूँ ।
जवाब देंहटाएं'dhruv-gatha'ki achchi jankari......dhanybad.
जवाब देंहटाएंsalil ji aabhar jo aapne hamare beech rahti ek aisi pratibhashali bloggar se parichay karavaya. aapki sameeksha ne nihsandeh pustak ko padhne k liye lalayit kar diya hai. n jane ye pathan kshudha kaise poorn hogi.
जवाब देंहटाएंअब तो सच में जितनी जल्दी ये पुस्तक हाथ में होनी चाहिए..
जवाब देंहटाएंदेखता हूं
इस परिचयात्मक समीक्षा के लिए आभार और श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी को बधाई!
जवाब देंहटाएंजिस रचनकार का विषय चयन ही इतना सूझभरा और उदात्त भाव से हो उसकी रचना धर्मिता भी श्लाघ्य क्यों न हो !
गिरिजा जी को बधाई .... बहुत सुंदर समीक्षा ....
जवाब देंहटाएंसर आदरणीया गिरिजा जी को बहुत-2 बधाई सुन्दर परिचय दिया है आपने।
जवाब देंहटाएंआपको यहाँ http://mostfamous-bloggers.blogspot.in/ भी शामिल किया गया है, कृप्या पधारें।
सादर अभिवादन!
जवाब देंहटाएं--
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (27-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
यह सब जान कर रचना पढ़ने उत्कंठा जाग उठी है !
जवाब देंहटाएंआपकी अभी तक की पोस्ट से एकदम अलग ,
जवाब देंहटाएंईमानदार विवेचना |
सदर
बहुत ही अच्छी समीक्षा आपने लिखी है .कुछ सन्दर्भ में दी गयी पंक्तियों से ये काव्य अति उत्तम प्रतीत होता है . गिरिजा जी को इसे संदूक से निकालने के लिए बधाई. .....
जवाब देंहटाएंवाह, बचपन में पढ़ी ’सुमति’ व ’सुरुचि’ रानियों की कथा याद दिला दी आपने और गिरिजाजी ने।
जवाब देंहटाएंगिरिजा जी ने जब बताया था कि ये खंडकाव्य उन्होंने इंटर कॉलेज की शुरूआत में ही लिखा था.. यानी करीब २५ साल पहले... मैं चौंक गया कि इतनी अच्छी कृति को उन्होंने समाज से इतने वर्ष दूर क्यों रखा.. उनका एक कहानी संग्रह भी अभी आया है.. दोनों पुस्तकों का साथ ही विमोचन हुआ. कहानी संग्रह "अपनी खिड़की से" के सम्बन्ध में मैंने अपने ब्लॉग पर लिखा है...
जवाब देंहटाएंhttp://apnapanchoo.blogspot.in/2012/09/blog-post_24.html
भाई लोकेन्द्र ने मेरी सृजनशीलता को कुछ ज्यादा बढा कर बता दिया है । मैंने हायरसेकेण्ड्री ( 1975 में इन्टर नही होता था )से लिखना अवश्य शुरु कर दिया था कुछ कविताएं ,कहानियाँ व एक बाल-उपन्यास लिखा भी था पर मुझे नही मालूम कि वह साहित्य था या यों ही बस....। यह सच है कि मुझे कुछ रचने का शौक शुरु से ही था चाहे वह किसी कला में हो लेकिन सही दिशा न मिलने के कारण में इन सैंतीस वर्षों में वह कुछ भी नही कर पाई हूँ जो बेशक कर सकती थी । ध्रुवगाथा का प्रारम्भ , जैसा कि मैंने पुस्तक में अपने शब्दों में लिखा भी है 1982 में प्रारम्भ किया था और तब मैंने स्वाध्याय से बी.ए.प्रथम वर्ष पास किया था । मैं जानती हूँ कि भाई लोकेन्द्र भी मुझे बहुत मानते हैं पर उन्हें व आप सबको सही बताना भी सही है न ।
जवाब देंहटाएंआपकी यह समीक्षा बहुत ही अच्छी लगी। पूर्व में प्रस्तुत अन्य पोस्टों से काफी भिन्न लगा। बहुत दिन हो गए, शायद नए परिवेश एवं नए दोस्तों के सामीप्य के कारण कहीं ऐसा तो नही कि इस भाई को भूल गए। स्पष्टीकरण चाहता हूं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।