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रविवार, 22 दिसंबर 2013

तुम मुझमें ज़िन्दा हो

फिलिम दीवार का एगो सीन हमेसा इयाद आता है. पुरनका पुल के नीचे अमिताभ बच्चन अऊर ससि कपूर दुनो खड़ा होकर बतिया रहे हैं.

“तुम जानते हो, मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है?”
”तुम्हारे यहाँ जाना मेरे उसूल के ख़िलाफ है और मेरे यहाँ आना तुम्हारी शान के ख़िलाफ.  तो हमलोग कहीं और ही मिल सकते थे!”
”हमलोग कहीं और नहीं सिर्फ यहीं मिल सकते थे. हमारे रास्ते चाहे कितने भी अलग क्यों न हो जाएँ, हमारे बचपन एक दूसरे से कभी अलग नहीं हो सकते!”

बहुत गहिरा बात है. लोग एक दोसरा से केतनो दूर हो जाए, ऊ लोग का बचपन कहियो अलग नहीं होता है. सच कहें त कोनो अदमी का बचपन ख़ुद ऊ अदमियो से कभी अलग नहीं हो पाता है. जब अकेले में होता है त अपने मने गुनगुनाने लगता है – “आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम, गुज़रा ज़माना बचपन का.”

हम जब नजर फेरकर अपना बचपन को दोहराकर देखने का कोसिस करते हैं त हमको बस एक्के गो मुस्कुराता हुआ चेहरा देखाई देता है. सपाट माथा जिसके बारे में ऊ अपने कहते थे कि कोनो मक्खी अगर गलती से बैठ जाए त मीलों तक फिसलते हुए चला जाए. दुन्नो साइड पर झूलता हुआ सफेद बाल, आँख पर मोटा चस्मा, मगर सरारत वाला चमक, नाक अऊर उपरका ओठ के बीच में दुनो तरफ घना मोंछ. ई पूरा असेसरीज़ एगो छोटा सा, मगर नूरानी चेहरा के ऊपर लगाया हुआ था अऊर ऊ चेहरा रखा हुआ था एगो साधारन कद-काठी वाला दुबला पतला बुजुर्ग के कन्धा के ऊपर.


ऊ बुजुर्ग के मुँह में जऊन जुबान था, बस ओही बहुत बड़ा कातिल था. अऊर अइसा नाजुक कातिल कि आसानी से दिल में छुरी जइसा पैबस्त हो जाए अऊर सुनने वाला के मुँह से आह तक नहीं निकले. सायद जुबान का एही मिठास बतीसों दाँत के बीच ऊ जुबान को हिफाजत से रखता होगा. आवाज का लेवेल अइसा कि हमको लगता है कि कहियो बच्चा लोग पर गुसिया के बोलते भी होंगे त घण्टा भर त ई समझने में लगता होगा कि दुलार कर रहे हैं कि नाराज हो रहे हैं. कुल मिलाकर एगो साधारन टाइप के असाधारन बेक्ति.

अपने बारे में बताते थे कि उनका जनम 1934 में उस जगह हुआ जहाँ कभी झुमका गिरा था. एही नहीं ऐसन केतना मोहावरा अऊर सब्द का कॉपीराइट अगर होता त उनके नाम होता. एक जमाना में झुका हुआ मोंछ का बड़ा फैसन था, उसके बारे में उनका कहना था कि चेहरा पर सात बजकर पच्चीस मिनट हो रहे हैं; पड़ोस के छत पर दू गो जवान प्रेमी-प्रेमिका का चुपके से एक दोसरा को देखना उनके नजर में “मोहब्बत के पिच पर धीमा-धीमा डबल स्पिन अटैक था, हाफ सुइटर को 50% स्वेटर बताना अऊर गुजर जाने को ख़र्च हो जाना. बात कइसनो हो, उनका एगो नया सब्द तड़ से हाजिर रहता था. फिलिम ‘कमीने’ में साहिद कपूर का ‘स’ को ‘फ’ बोलना आज का जेनरेसन के लिये नया होगा, मगर हमनी के जमाना में ऊ ई सब कह चुके थे. कब ऊ एही सब कहते हुए हँसाते-हँसाते आँख से आँसू निकाल देते थे, ई आपको तब पता चलता था जब पूरा खिस्सा पढ़ने के बाद आपका आँख का कोर भींग जाता था.  

अपना बचपन के बहाने उनको इयाद करना एकतरफा नहीं था. उनके लिये भी बचपन अऊर बच्चा लोग कोनो खजाना से कम नहीं था. एगो पार्क में से बच्चा लोग को ऊँट से उतारकर एगो सरकारी अफसर के कहने पर उनका बच्ची को अकेले बइठा दिया गया त ऊ का कहते हैं – “मैं देश के मामले में टाँग अड़ाना नहीं चाहता. जिनका देश है वो देश को जिधर चाहें मोड़ ले जाएँ. मगर बच्चों के मामले में मुझे बोलने का हक़ है. मैं बच्चों का लेखक हूँ... ख़ुद बच्चा रह चुका हूँ. बच्चों के अधबुने सपनों की एक पूरी दुनिया देखी है मैंने. इनके अरमानों से खेलता है कोई तो मन कसक उठता है. चन्द बच्चों के चेहरों से हँसी छीनकर अफसरशाही सुर्ख़रू नहीं होती... स्याह और बदनाम हो जाती है. बच्चों के भोले मन तो यों भी सब कुछ बहुत जल्द भूल जाते हैं. बच्चे जो ठहरे.” एहीं आप गड़बड़ा गये चचा जी. बच्चा लोग भोला जरूर होता है मगर भूला नहीं होता है. अगर भूलिये जाना रहता, त का आज हम बइठकर ई पोस्ट लिख रहे होते!

ई बचपन, भुलाने वाला बाते नहीं है. अबकि पटना गए, त अलमारी से इन्हीं का एगो किताब निकाले – “तलाश फिर एक कोलम्बस की”. अख़बार का ख़बर से बना हुआ उनका लेख सब है ई किताब में. मगर ओही हास्य अऊर ब्यंग का संगम. खोजकर एगो लेख निकाले “आत्महत्या की पहली किताब”. बेटा के साथ एक सिटिंग में पटकथा लिखे अऊर सम्बाद में उनसे मेल करना पड़ा (कान को हाथ लगा रहे हैं). बन गया एगो स्क्रिप्ट. फिर हम सब मिलकर उसको सूट किये, बेटी फिर से कैमरा उठा ली, बेटा एडिटिंग किया, फिलिम तैयार. हमको जल्दी में लौटना था एही से हम कच्चा प्रिंट लेकर गुजरात लौट आए.

सोचे थे ई फिलिम हम डेडिकेट करेंगे अपने गुरू जी को. मगर भगवानी लीला को कऊन समझा  है आज तक. दू दिन बाद खबर मिला कि ऊ हम सबको हमनी के बचपन के साथ छोड़कर चले गए. ऊ दिन खाली उनका निधन नहीं हुआ. उनके चिता के बगल में मिर्ज़ा का कब्र पर भी मट्टी पड़ गया. मिर्ज़ा का पूरा नाम त मालूम नहीं मगर गुरुदेव कालिका प्रसाद सक्सेना, अमाँ छोड़ो हम के. पी. सक्सेना चाहे के. पी. ही ठीक हैं, के साथ ये मिर्ज़ा इस तरह समाए हुए हैं कि उनके बिना मिर्ज़ा का होना ही नामुमकिन है. एतना अफसोस में रहे हम सारा दिन कि उन्हीं के सब्द में कहें त आँख सारा दिन बादल बनी रहीं. हम चुपचाप बइठे हुए थे कि कान में उनका आवाज सुनाई दिया –
“हर आँसू मोती नहीं होते. जिनके आँसू मोती होते हैं वे उसकी पाई-पाई वसूलना भी ख़ूब जानते हैं. हमदर्दी कोई सड़क पर पड़ा सिक्का नहीं है कि किसी के भी हाथ लग जाए. जिनकी हमदर्दी का महत्व है वे उसे रिज़र्व रखते हैं और सही मौक़े पर कैश करा लेते हैं. आँसुओं का फिक्स्ड डिपॉज़िट, अभिनय कौशल और नन्ही सी लिप सिम्पथी, कुर्सी और इनको बरकरार रखती है और नक़ली आँसू धीरे-धीरे विदेशी बैंकों में डालर की शक्ल में बदल जाता है. अब वे आँसू कहाँ रहे जो सीने की तहों से निकलकर आँखों तक आते थे.”


फिर गलत. अब आपको चैलेंज त नहिंये कर सकते हैं, मगर एतना बता देते हैं कि कभी मौका मिले त आकर तनी देख जाइयेगा. न हमरा आँसुये झूठ है, न एहसास नकली है अऊर न बचपन का खिस्सा गलत है. काहे कि हम भी आपहिं के तरह बच्चा रह चुके हैं.


मंगलवार, 29 जून 2010

द्रोणाचार्य अऊर एकलव्य

जब से लिखना सुरू किए हैं, तब से केतना लोग हमको बोला कि आप का लिखने का ढंग बहुत बढिया है, एक बार सुरू करने पर एक साँस में पूरा पढ़ जाते हैं. आप सोचते होंगे कि ई सुनकर हमको बहुत खुसी होता होगा, लेकिन अईसा बात नहीं है. सच पूछिए त इसका पूरा क्रेडिट हमरे तीन गुरू को जाता है, जिनके बारे में हम कभी आप लोग से सीरियसली नहीं बतिआए हैं. लेकिन ई तीन लोगों का एतना असर हुआ है हमरे लिखने पर कि अगर लिखने का ढंग कॉपीराईट कानून के अंदर आता, त हम कबका अंदर हो गए होते. ई तीन लोग हैं डॉ. राही मासूम रज़ा, गुलज़ार साहब अऊर श्री के. पी. सक्सेना.

राही मासूम साहब का सायद ही कोनो उपन्यास होगा जो हम नहीं पढे हों. ऊ अपना एक उपन्यास के पहिला पन्ना पर लिखे थे कि इस उपन्यास में जेतना लोग चलता, फिरता, बोलता देखाई दे रहा है ऊ हमरा बनाया हुआ है अऊर अल्ला मियाँ का बनाया हुआ किसी आदमी से अगर ई मेल खाता है, त ई संजोग हो सकता है, इसमें हमरा कोई गलती नहीं है. एतना सहजता से कहा जाने वाले डिस्क्लेमर कभी सुने हैं आप लोग.. नहीं न! एही खासियत है रज़ा साहब का. नॉवेल का एक एक आदमी आपको आस पास घूमता देखाई देगा, अईसा लगेगा कि आप मिले हैं उससे. उसका पहनावा, उसका बोली. पूरा नॉवेल आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ता है. इसलिए भासा के बारे में सोचने का कोनो जरूरत नहीं, उनका कहना है कि हमरा किरदार अगर अश्लोक बोलेगा त हम अश्लोक लिखेंगे अऊर गाली बोलेगा त गाली. उपन्यास का भासा, वास्तव में हिंदीओ नहीं है, न उर्दूए है, न भोजपुरिए. ई बस बोली है. हमरे पिताजी के एगो दोस्त उनके रिस्तेदार थे. कहे थे कि उनके घर इलाहाबाद जब ऊ आएंगे त हमसे भेंट करा देंगे, लेकिन हमारा किस्मत में नहीं बदा था मिलना. ऊ दोबारा इलाहाबाद आइए नहीं पाए.

गुलज़ार साहब, त सम्वेदना के धनी आदमी हैं. इनका भी डायलॉग एतना सहज होता है कि कहना मुस्किल है. फिलिम ‘अंगूर’ का मजाकिया सम्बाद हो चाहे ‘गृह प्रवेश’ का साहित्यिक. ई फिल्म का डायलॉग नोट करने के लिए, हम अंधेरा में डायरी लेकर देखने गए थे सिनेमा, अऊर एक हफ्ता में तीन बार देखे थे. उम्मीद नहीं था कि चलेगा, लेकिन चल गया तीन महीना. गुलज़ार साहब का कविता अईसा अईसा प्रतीक लेकर आता है कि कहना नहीं. आम आदमी के सोच से बाहर, लेकिन सुनने के बाद लगता है कि मन का बात बोल दिए हैं. इनका त सबसे बड़ा खासियत एही है कि ई एगो अलगे डिक्सनरिए बना दिए हैं. सब्द नया लगता है लेकिन वास्तव में भुलाया हुआ सब्द होता है. हर कबिता, हर फिल्मी डायलॉग आपसे बतियाता हुआ मालूम पड़ेगा. भासा उनके हिसाब से उर्दू भी है अऊर हिंदुस्तानी भी. मुम्बई में एक बार उनका फोन नम्बर मिला दिए थे, जब ओन्ने से उनका आवाज सुनाई दिया त डरे हाथ से फोन छूट गया. तनी मनी बतिआए, मन तृप्त हो गया.

के. पी. सक्सेना जी हमरे दिल के बहुत करीब हैं, काहे कि इनके साथ हमरा बचपन जुड़ा हुआ है. इस्कूल में पढ़ते थे तब ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के पत्रिका ‘पराग’ में उनका धारावहिक कहानी छपता था “बहत्तर साल का बच्चा”. पहिला बार ओही गढ़े थे एगो अईसा करेक्टर जो “स” को “फ” बोलता था (आज ‘कमीने’ सिनेमा में लोग को ई बात नया लगता है, जो ऊ आज से तीस साल पहिले लिख दिए). देसी मुहावरा का जेतना बेहतर इस्तेमाल ऊ किए हैं, सायदे कहीं देखने को मिलेगा. भासा ठेठ लखनऊ के गुड़ में पका हुआ. एकदम नया भासा, जिसमें उर्दू का मिठास था और अवधी का अपनापन. कवि सम्मेलन में गद्य पढने वाले ऊ पहिला अऊर सायद एकलौता साहित्यकार रहे होंगे (सरद जोसीजी भी बाद में पढ़ते थे). फिलिम ‘लगान’ अऊर ‘स्वदेस’ में किसान का बोली भी ओही लिखे थे, ‘जोधा अकबर’ में जिल्ले इलाही का उर्दू भी उन्हीं का कलम से निकला था अऊर ‘हलचल’ फिलिम का कॉमेडी भी. जब हम पहिला बार लखनऊ गए त भूलभूलईया देखने बाद में गए, सबसे पहिले उनका दर्शन करके, उनका चरन छूकर आसिर्बाद लिए.
ई तीनों महान लेखक लोग में एक्के समानता है कि ई लोग लिखते नहीं हैं, बतियाते हैं. इनका किरदार डायलॉग नहीं बोलता है, बतियाता है. बस हम भी कोसिस करते हैं कि आप लोग से बतिया सकें. नहीं त लिखना हमको कहाँ आता है, न साहित्य से कोनो नाता है. बस ई तीनों द्रोणाचार्य का मूरत, अपना मन में बनाकर एकलव्य बनने का कोसिस कर रहे हैं.