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मंगलवार, 16 नवंबर 2010

बोलती उँगलियाँ - ख़ामोश ज़ुबान

दस दिन पटना रहने के बाद बुझाया है कि परिवार का होता है अऊर त्यौहार का केतना महत्व है. छठ पूजा वैसे भी एगो अनुष्ठान के जईसा होता है. चार दिन घर में भीड़ भाड़, सब परिवार एक्के जगह. फिर आने जाने वाला लोग. खासकर हमलोग का परिवार एतना  बड़ा है कि त्यौहार के बहाने केतना भुलायल लोग मिल जाता है. एगो अऊर बात,  हमलोग भी सब भाई बहन एक साथ पहिले का जैसा अपना बचपन जी लेते हैं.
त्यौहार में लोग से मिलने का मतलब नहीं कि खाली खुसी का आदान प्रदान होता है. बहुत सा दुःखद समाचार भी सुनने को मिलता है. हालाँकि सब समाचार फोन पर मिल जाता है, लेकिन जब सब लोग साथ में बईठते हैं,तो उन लोग को भी याद कर लेते हैं, जो लोग अब हमलोगों के बीच नहीं हैं, मगर जिनका नहीं होना हमलोग को खालीपन का एहसास कराता है.
होली के त्यौहार में साम के समय सब लोग अबीर से होली खेलते हैं अऊर बड़ा का आसीर्बाद लेते हैं. एक दोसरा के घर मिलने जाना अऊर सब बड़ों को पैर छूकर आसीर्बाद लेना, परम्परा के जईसा है . होली में जो हमलोग के घर पहिला ब्यक्ति मिलने आते थे, थे गूँगा चाचा. हमरे लिए सरम का बात है कि उनका नाम हमको याद नहीं, पिताजी के दूर के रिस्ता में भाई थे. मगर दोस हमरा भी नहीं है, उनको सब लोग गूँगा भईया के नाम से बोलाते थे. इसलिए बच्चा लोग भी गूँगा चाचा कहते थे.
कब अऊर कऊन उमर में मूक बधिर हो गए पता भी नहीं अऊर पता रहा भी  होगा अब याद नहीं. सायद जनम से थे. खैर होली में हमलोग को भी उनका इंतजार रहता था. एकदम झक्क सफेद कुर्ता पाजामा पहने, माथे पर अबीर लगाए, हमारे घर के ओसारा (घर का बाहरी बरामदा) पर दादा जी अऊर हमरे पिताजी के साथ बईठकर बतियाते थे अऊर हमलोग दरवाजा के पीछे उनका आवाज सुनकर हँसते थे.
उनके बतियाते समय मुँह से एगो अजीब तरह का आवाज निकलता था. कमाल कि आवाज का उतार चढाव उनके भाव के हिसाब से बदलता रहता था. दादा जी अऊर पिताजी उनका सब बात समझ जाते थे अऊर इसारा में उनसे बातचीत करते रहते थे. गूँगा चाचा के परिबार में कोई था भी नहीं. अपने चाचा के बच्चा लोग के साथ रहते थे अऊर ओही उनका परिबार था. अपने परिबार के लोग का हाल चाल, खैर खबर सब इसारा में बता जाते थे. गजब का समझ था उनका भी. अगर कोई बात सामने वाला नहीं समझ पाए तो तुरत भाँप लेते थे अऊर उसी समय पाकिट से एगो नोटबुक निकालकर छोटा सा पेंसिल से लिखकर तुरत बात समझा देते थे.
परिबार के कोनो सदस्य के बारे में पूछने पर, उनके आँख का चमक देखकर आसानी से समझा जा सकता था कि बहुत तरक्की कर रहे हैं, या उनका प्रोमोसन हो गया है, या इम्तिहान पास हो गया अच्छा नम्बर से. मगर उनक माथा का सिकन देखकर भी पता चलता था कि छोटू घर से अलग हो गए हैं. एक्स्प्रेसन के मामले में उनसे बेहतर इंसान आजतक हमको कोई नहीं मिला. उनका अजीब सा सम्बाद आप नहीं भी समझ पाइए तो भी उनका चेहरा का भाव देखकर  आपको कोई दिक्कत  नहीं  होगा समझने में कि चेहरा  दिल का  आईना होता है.
गूँगा चाचा का सादी नहीं हो पाया. आम तौर पर इस तरह का आदमी लाचार हो जाता है या लोग उसको बोझ समझने लगता है. लेकिन उनका आवाज छीनकर ऊपर वाला ने  उनका हाथ में जो हुनर दिया था, उसका कोई जवाब  नहीं. सिलाई का काम बहुत अच्छा जानते थे. सारा दिन घर पर बईठकर सिलाई मसीन पर पैर जमाए कपड़ा सिलते थे. कभी किसी पर बोझ नहीं रहे, कभी किसी से कुछ नहीं लिए. जो कमाते थे सिलाई से सब घर में खर्च कर देते थे.
हम लोग जब उनके घर जाते थे, तो हमलोग को बुलाकर हमरे पिताजी के बारे में पूछते, दादा जी के बारे में पूछते, बहुत खातिरदारी करते. अब अईसे आदमी को कोई किस हिसाब से बिकलांग कह सकता है. आम तौर पर किसी का बिकलांगता देखकर हमलोग सहानुभूति देखाने लगते हैं, उसको सबसे अलग समझने लगते हैं. उसके कमी के प्रति एतना सचेत हो जाते हैं कि उसको हर समय अपना कमी का एहसास होता रहता है, उसके साथ बेचारा जैसा सब्द जोड़कर हमलोग उसको अऊर बिकलांग बना देते हैं. मगर गूँगा चाचा सबके अपबाद  थे.
जब हम नौवाँ क्लास में थे, तब मास्टर साहब हमको हमरा दोस्त से अलग बईठाते थे ताकि हम क्लास में गप्प नहीं कर सकें. अब हम मुँह पर ताला लगाकर रहने वाले थे नहीं. ओही मास्टर साहब हमको पढ़ाए थे कि जरूरत ईजाद की अम्मा होती है. हमको चुप रखने का एक्के उपाय था कि हमरा जीभ काट दिया जाए. हुआ भी ओही. हम कोना में अऊर हमरा दोस्त दोसरा कोना में. हमरे दोस्त को इसारा का भासा आता था, मतलब उँगली से , बी, सी, डी लिखना. बस हमको सिखा दिया. बस क्लास में का बदमासी करना है, फैसला करने के लिये हमको जुबान से बोलने का जरूरत नहीं पड़ा, बस उँगलिये से बतिया लेते थे.
जुबान पर ताला लग सकता है, मगर हाथ में हथकड़ी लगाना आज भी कोनो इस्कूल का उसूल नहीं है.