सुक्रबार के रोज मुसलमान लोग नमाज पढ़ने
मस्जिद में जाता है. लेकिन ओही रोज हमलोग पूरा परिबार के साथ मंदिर जाते थे. जुमा
के रोज नमाज पढ़ने का त एक ज़माना से परम्परा चला आ रहा है, बाक़ी सुक्रबार को हमरा
मंदिर जाना संजोग का बात नहीं था. असल पूरा सहर सुक्रबार को मंदिर जाता था. मंदिर
में दरसन करने के लिए एक किलोमीटर लंबा लाइन लगा रहता था अउर दरसन करने में टाइम
भी लगता था. जइसे मंगल को बजरंगबली के मंदिर में होता है एकदम ओइसने. मगर ई मंदिर
भी संतोषी माता का नहीं था. राधाकिसन, दुर्गा जी, महादेव बाबा अऊर गुरुद्वारा में
गुरुग्रंथ साहिब भी थे. समुंदर के किनारे ऊ मंदिर अऊर मंदिर के सामने एगो मस्जिद.
सुक्रबार का दिन त हम बताइये दिए हैं. सो बस मेला का दिरिस रहता था.
ओह सौरी!! ई बताना त हम भुलाइये गए कि ई
मंदिर दुबई के बर-दुबई इलाका में था अऊर सुक्रबार के दिन साप्ताहिक छुट्टी रहता था
ओहाँ, एही से ओही दिन लोग मंदिर जाता था. हमलोग शारजाह में रहते थे. सिरीमती जी के
आदेस के अनुसार, भोरे-भोरे उठकर नहाधोकर सबलोग तैयार हो जाते थे. नास्ता-पानी कुछ
नहीं, जबतक मंदिर में पूजा नहीं कर लें, तब-तक हमलोग का उपवास. पूजा के बाद,
परसादी खाकर पानी पीना, उसके बाड़े कोनो रेस्त्राँ में जाकर नास्ता पानी.
घर से टैक्सी में जाना होता था अऊर जाने
में भी करीब पौना घंटा का टाइम लगिये जाता था. ओहाँ जादातर टैक्सी चलाने वाला
अफगानिस्तान का पठान सब है. भर रास्ता टैक्सी में चाहे कोनो पख्तूनी गाना बजाते
रहता था, नहीं त कोनो कुरआन सरीफ का पाठ चलता रहता था. पख्तूनी गाना समझ में भले
नहीं आता था, लेकिन संगीत सुनकर मन खुस हो जाता था, लगता जइसे अपने देस का संगीत
सुन रहे हैं. ओहाँ सिनेमा हॉल में भी हिन्दी सिनेमा देखने बहुत सा अरबी लोग आता
था. हमरा एगो साथी बताया कि सिनेमा त ऊ लोग ‘सब-टाईटिल’ देखकर समझता है, मगर असली
मजा ऊ लोग को हिन्दुस्तानी गाना अऊर संगीत में आता है. बाद में एक रोज सिनेमा हॉल
में बहुत भीड़ नहीं था, त हमलोग देखे एगो अरबी अपने हाथ में पारंपरिक अरबी छाता
नुमा छड़ी (जो गडरिया लोग लिए रहता है और ईसा मसीह के हाथ में देखाई देता है) लिए
हुए सीट के बीच वाला रास्ता में नाच रहा है, पूरा लय अऊर ताल के साथ.
खैर, हम बता रहे थे मंदिर जाने के बारे
में. ऊ दिन भी सुक्रबार था अऊर सबेरे ठीक सात बजे हमलोग टैक्सी में बैठकर बर-दुबई
जाने के लिए निकले. टैक्सी ड्राइवर एगो दाढी वाला पठान था. सलवार कमीज पहने हुए,
आँख में सुरमा लगाए हुए, आधा मेंहदी वाला लाल अऊर आधा काला लंबा दाढी, माथा पर गोल
जालीदार उजाला टोपी पहने हुए. टैक्सी जैसहीं अल-जज़ीरा पार्क से आगे निकला, दुनो
तरफ समंदर के रेत वाला इलाका चालू हो गया.
ऊ पठान अपना इस्टीरियो पर गाना बदला. गाना
बदलते ही टैक्सी के अंदर दिलरुबा का सुर फैल गया अऊर हमको लगा कि एतना मधुर संगीत
हम सच्चो कभी नहीं सुने थे. गाना का लाइन बुझा नहीं रहा था, मगर लगा कि कोई बहुत
दर्द भरा गाना है या कोनो आदमी किसी को याद कर रहा है. खाली संगीत से हम एतना अंदाजा
लगा लिए, इसी से आप समझिए कि ऊ संगीत में केतना गजब का अभिब्यक्ति रहा होगा.
हम देखे कि ऊ टैक्सी का आइना एडजस्ट किया
अऊर अचानके पीछे घूम कर देखा. फिर गाड़ी चलाने लगा. मगर ऊ रह-रहकर पीछे देखता जा
रहा था. अंत में हमको लगा कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाए त हम बोले, “आप सामने देखकर
गाड़ी क्यों नहीं चला रहे हैं! बार-बार पीछे क्यों देख रहे हैं? कुछ बात है क्या,
तो हम दूसरी टैक्सी ले लेते हैं!”
ऊ पठान गाड़ी किनारे खडा कर दिया अऊर जब
पीछे घूमा त हम देखे कि उसका आँख से आंसू बह रहा है. हम त एकदम अचकचा गए कि ई का
हुआ. हमरे बोलने के पहिलहीं ऊ बोलने लगा, “भाई जान! आपकी बच्ची को देख रहा था
बार-बार. हमारी बच्ची भी इतना बड़ा होती, जब उसको मुलुक में छोडकर हम आया. दस साल
हो गया भाई जान, उसका शकल तक नहीं देखा. आज आपका बच्ची को देखकर अपना बच्ची याद आ
गया.”
एतना कहकर अपना सीट के पीछे से ऊ एगो छोटा
सा बच्ची का फोटो निकाल कर देखाया. “ये देखो भाई जान, मेरा बच्ची, जब हम उसको
छोडकर आया. है ना आपका बच्ची का जैसा हू-ब-हू. पहला बार देखा है अपना बच्ची का शकल
आपका बच्ची में!”
पता नहीं ऊ फोटो वाली बच्ची हमरी बेटी के
जैसा थी कि नहीं, मगर बेटी त थी. उसके टैक्सी में बैठने वाली हमरी बेटी पहिला
बच्ची त नहिंये होगी, मगर उसको का मालूम काहे अइसा लगा.
उसके बाद ऊ टैक्सी चलाता रहा, मगर हमरे
आँख के सामने गुरुदेव रबिन्द्र नाथ ठाकुर का कहानी “काबुलीवाला”, बलराज साहनी का
चेहरा, सलिल चौधुरी का संगीत और प्रेम धवन साहब का गीत.. सब एक साथ गुज़र गया.
टैक्सी में काबुली धुन बज रहा था और गाना का बोल जो हमरे कान में गूँज रहा था, ऊ
सायद अलग था उससे
माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता
है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता
है तू
जितना याद आता है मुझको
उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल क़ुरबान!!
सलिल बाबू,अइसन होत है तब्बै महसूस होत है कि ई पइसा की खातिर आपन मुलुक,लरिका-बच्चा सब छूटि गे ।
जवाब देंहटाएंमन भर आया.
विरह की सम्वेदनाएँ सभी में समान होती है। कोमल मन तो साधारण माहोल में भी संगीत से भीग उठता है, भुक्त भावनाएं तो भावनाओं की बाढ़ बन जाती है।
जवाब देंहटाएंभावनाओं से ओत-प्रोत एक सशक्त संस्मरण जिसमें देशों की सीमाओं से परे सार्वदेशिक और सार्वकालिक मानवीय जीवन की उन भावनाओं का बड़े सुंदर ढंग से ब्यान हुआ है जो सही में मनुष्य को मनुष्य बनाती हैं। आभार सलिल जी!!!
जवाब देंहटाएंमन को भिगा दिया आपकी पोस्ट ने....
जवाब देंहटाएंऔलाद के प्रति ममता हर दिल में एक सी होती है शायद...
सादर
अनु
ऊ का कहते हैं कि जो भी ब्लॉग पढ़ता है न सलिल भैया, ऊ थोड़ा भाउक होता है। अइसे बतियायेंगे न, तS ऊ का कहते हैं धड़कन रूक सकती है।
जवाब देंहटाएंबेहद भावुक कर देने वाली पोस्ट ! महत्वपूर्ण यह कि उसे बेटी याद आई !
जवाब देंहटाएंशायद रोजी रोटी के लिए परदेस रहो तो अंदर का इंसान जागता है वर्ना वही आदमजाद अगर अपने देस में रहता तो उसकी टैक्सी में बजती दिलरुबा , आंखों में मुहब्बत के आंसुओं के बजाये , हाथों में क्लानिश्काव और आंखों में अंगार भरे होते !
प्यारे सलिल जी हम सब आदमजाद कमोबेश ऐसे ही होते हैं ! खास हालात में गर्राने और बुक्का फाड़ कर रोने वाले ! बेपनाह मुहब्बतों और हद दर्ज़े की नफरतों से लबरेज ! ये हमारा व्यक्तित्व है ! मगर अफ़सोस...हम एक ही वक़्त में अपनी दोनों खुसूसियात याद नहीं रखते ! दूसरों से डीलिंग के वक़्त अपने ही तजुर्बात का एहतराम नहीं करते !
अली सा,
हटाएंबजा फरमाया आपने.. इंसानी फितरत ही ऐसी है.. हम वहाँ हिन्दुस्तानी ही कहलाते थे, जबकि यहाँ आते ही कोई सिख कोई जाट, मराठा.. कोई गुरखा, कोई मद्रासी!!
फिर भी उसकी आँखों की पाकीज़गी आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है!!
सत्य वचन अली सा।
हटाएंदेश में निकला होगा चाँद ...
जवाब देंहटाएंकाबुलीवाला की कहानी सत्य हो गयी !
जवाब देंहटाएंइंसानियत में विश्वास इसी प्रकार बनता रहा है बार -बार !
कुछ भावनाएं देश, धर्म, जाति की मोहताज नहीं होती| रोजी के लिए अपनी जमीन, अपने परिवार से बरसों-बरस दूर रहना आसान नहीं है| आज तो फिर तकनीक ने बहुत कुछ आसान कर दिया है,वरना पहले तो..|
जवाब देंहटाएंतुझपे दिल कुर्बान ..
पोस्ट पढ़ने के साथ हमें भी काबुलीवाला , उसका गाना और बलराज साहनी ही याद आ रहे थे बाद में आप ने भी उसी का जिक्र कर दिया | सही है भावनाओ, प्रेम और संगीत की कोई भाषा नहीं होती है |
जवाब देंहटाएंवंदे मातरम !
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग ने पूरे किए 13 साल - ब्लॉग बुलेटिन – यही जानकारी देते हुये आज की ब्लॉग बुलेटिन तैयार की है जिस मे शामिल है आपकी यह पोस्ट भी ... पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
हटाएंभावमय करती यह पोस्ट मन को छू गई ... इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए
जवाब देंहटाएंआभार
एक बार फिर आपका यह संस्मरण चकित कर रहा है... काबुलीवाला के विस्थापन का दर्द हर युग में एक सा है.. मानवीय भावनाएं बदली नहीं हैं समय और भूगोल के साथ...
जवाब देंहटाएंआँखें भर आईं .... ऐसी आँखें , ऐसा मन आज भी है --- सच्ची , ऐसे जज्बों पे दिल कुर्बान
जवाब देंहटाएंसच में काबुलीवाला की याद आ गई...
जवाब देंहटाएंपता नहीं कितने काबुलीवाले परदेस में यूँ अपनी बेटी का चेहरा दूसरी बच्चियों में ढूँढते फिर रहे होंगे.
जवाब देंहटाएंइस गीत का जिक्र कर तो आपने दुखती रग छेड़ दी...मेरा भी पसंदीदा गीत है...पर समय पर याद ही नहीं आया.
हुआ यूँ कि अचानक कल विविध भारती से एक कॉल आया...कि 'समाज निर्माण में महिलाओं के योगदान' पर कुछ बोलिए और अपना पसंदीदा गीत बताइए.
ऑन द स्पॉट बोलना था..टॉपिक पर तो जैसे तैसे बोल गयी...पर ये गीत बाद में याद आया...बहुत अफ़सोस हुआ...:(
बचपन में एक बार स्कूल में काबुलीवाला नाटक किया था, आज फिर से सच में काबुली वाला और उसकी आँखों का पानी याद आ गया।
जवाब देंहटाएंये मंदिर अब भी वहीं है ... सब कुछ वैसा ही है दुबई में ... काश आप भी होते तो अब तो मिल बैठ के पूजा भी करते और रमजान भी मनाते ...
जवाब देंहटाएंआपके गीत ने आँखें नम कर दी ...
ए भाई, लेख पढिके त मजै आ गईल
जवाब देंहटाएंबहुते नीक लागल जी
हम कहीं भी जाएँ, वतन की याद साथ रहती है...
जवाब देंहटाएंजरा स्पैम चेक कीजियेगा !
जवाब देंहटाएंभैया, मुझे एक बात याद आ गई ...जब आपने बताया था कि, नेहा के पिता से मिलने पर उन्हें लगा होगा कि -आप सीधे इन्दौर से ही आ रहे हैं...
जवाब देंहटाएंचाचा काबुलीवाला देखकर जो महसूस हुआ था कुछ कुछ वैसा ही अभी महसूस हो रहा है...आपके इस पोस्ट को मैंने दोपहर में ही पढ़ लिया था लेकिन समझ ही नहीं आ रहा था की लिखूं क्या...
जवाब देंहटाएंवैसे चचा अरुण जी ने ठीक कहा है...आपकी पोस्ट अंत में एकदम चकित कर जाती है...बिलकुल गुलज़ार साहब के रावी पार जैसा....
जवाब देंहटाएंएक और बात चचा...मेरी एक दोस्त ने एक बार लन्दन से फोन कर के यही गाना गा कर सुनाया था...अगस्त २०१० में और इन पंक्तियों पर(जिसे आपने लिखा है यहाँ) उसकी आवाज़ थोड़ी भींग गयीं थी....वो याद आ गया...
जवाब देंहटाएंaaj to bhawon ka khazana hi khol diye.....
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी के दौर-दौरा में बहुत से क़ाबुलीवाले मिल जाते हैं जिनके चेहरे पर मुस्कान और दिल में लाखों जख़्म होते हैं।
जवाब देंहटाएंरोचक शैली में आपने एक संस्कृति और समाज का बेहतरीन चित्र खींच दिया। लगा आपके साथ हर उन इलाकों में हम भी हैं जहां का आप वर्णन कर रहे थे।
आपकी पोस्ट पढ़कर सोच रहा हूं कि हमें अपने वतन में ही अपने वतन की याद क्यों नहीं आती। सही कहा आपने वतन के अंदर तो हम मध्यप्रदेश,बिहारी,बंगाली,पंजाबी,महाराष्ट्रीयन,गुजराती और जाने क्या क्या होते हैं। इसी के चलते दो दिनों से पूर्वोत्तर के लोग बंगलौर से अपने तथाकथित वतन को लौट रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमाँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
जवाब देंहटाएंऔर कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझको
उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल क़ुरबान!!
पोस्ट पढकर काबुली वाला, बलराज साहनी जी की याद आ गई ,,,,,,
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,,
RECENT POST...: शहीदों की याद में,,
Wah! Ye geet to meree aankhon me hamesha aansoo le aata hai!
जवाब देंहटाएंSwatantrata diwas kee dheron shubh kamnayen!
जवाब देंहटाएंकाश कि आप और टैक्सी वाले जैसे लोगों से ही पूरी दुनिया भर जाए । इसके आगे अब और शब्द ही नही हैं ,...।
जवाब देंहटाएंइंसानियत ला कअनो सीमा ,धरम आदि के जरूरत ना पड़ेला |
जवाब देंहटाएंदिल को छु गईल ई पोस्ट...बहुते सुन्दर..
"मन के कोने से..."
"एक और स्वतंत्रता दिवस...!"
हर सच्चे इंसान का दिल एक जैसा ही होता है न?
जवाब देंहटाएंअपनों के लिए एक जैसी ही तड़प...
आपकी प्रस्तुति विश्लेषण और उसका प्रवाह मन को मोह लेता है....
सादर आभार।
हंसी मजाक में मार्मिकता परोसने का आपका अंदाज निराला है . बहुत शानदार बा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन !
जवाब देंहटाएंइंसानियत है और रहेगी
उसे सुलाने की कोशिश
भी साथ साथ जारी रहेगी
देश में सुला भी लेंगे
विदेश चली जायेगी
पर जाग रही होगी
यहाँ नहीं भी दिखेगी
कहीं ना कहीं दिख जायेगी !
आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ ..पोस्ट बहुत अच्छी लगी ...भाषा जानी पहचानी है इसी कारण मिठास की मात्रा बढ़ गयी :))
जवाब देंहटाएंसुन्दर संस्मरण!
जवाब देंहटाएंपोस्ट मन को छू गई....याद आ गया काबुलीवाला....very nice
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक और सार्थक संस्मरणप्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंअहा, तुझपे दिल कुर्बान...
जवाब देंहटाएंapne bacche se bhagwan kisee ko door na rakhein itne samay tak :(
जवाब देंहटाएंकाश यही प्रेम और ममता धर्म का आधार बन जाए।
जवाब देंहटाएंइतनी सुन्दर पोस्ट की जरुरत है आज ..मानवीय संवेदना हर जगह हर कौम की एक ही है !
जवाब देंहटाएंवो आदमी ही क्या जिसे वतन और बेटियों की पीर का अहसास न हो।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी प्रसंग।
बड़ा ही सजीव वर्णन है। पढ़ते-पढ़ते दिल भावुक हो गया। जज्बात की दुनिया सबकी समान होती है। लेकिन उत्साही जी के विचार बड़े मार्मिक लगे। सीधे लोग अधिक भावुक होते हैं, इसमें सन्देह नहीं। इसे पढ़ने के बाद अपनी भी भूली बिसरी यादें ताजी हो गईँ। आभार।
जवाब देंहटाएंऐ मेरे प्यारे वतन
जवाब देंहटाएंतुझ पे दिल कुर्बान....
बहुत सुंदर प्रस्तुति....
सलील भाई,नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपका नया जगह एवं कार्यस्थल ठीक है यानि जैसा आप चाहते हैं वैसा है कि नही। परिवार सहित हैं या अकेले। कुछ बताईएगा। आपके पोस्ट के बारे में क्या कहा जाए,इसके लिए मुझे बहुत मानसिक परिश्रम करना पड़ता है। यहां आकर मैं कुछ खो सा जाता हूं। बहुत सुंदर प्रस्तुति।
बहुत ही भावुक कर देने वाला प्रसंग है....
जवाब देंहटाएंजिया हो बिहार के लाला। एकदम्मे गर्दा है। हम तो टैक्सी में पहुंचिए गए जइसे। लगा का करें कि पठान भाई को उनकी बिटिया से मिलवा दें...पवनसुत बन जाएं और उनको कंधा में बइठा के उड़ा ले जाएं और फिर ज उ कहें तो टैक्सी में वापस छोड़ दें। परिवार को देखते हैं तो अचानक लगता है कि कितना कुछ तो है जो हम देखते ही नहीं...अपने आजूबाजू।
जवाब देंहटाएंहर किसी के लिए पठान होना भी आसान नहीं है। वे अपनी भावनाएं जिस भोलेपन से व्यक्त कर देते हैं, वैसा हर कोई नहीं कर सकता।
जवाब देंहटाएंहमारे भीतर भी कई बार ऐसी भावनाएं होती हैं, लेकिन हम जब्त कर जाते हैं...
भावुक प्रस्तुति ,
जवाब देंहटाएंऔर शायद इससे बेहतर अंत हो ही नहीं सकता था इसका -
जितना यद् आता है मुझको , उतना तड़पाता है तू ....
सादर