हमलोग जब छोटा थे तब का समय अऊर आज का समय
मेँ जमीन-आसमान का फरक हो गया है. पढाई-लिखाई का सिस्टम भी बदल गया है. जहाँ एक
तरफ हिन्दी के किताब मेँ नज़ीर अकबराबादी का मस्नवी पढाया जा रहा है, ओहीँ दोसरा
तरफ कबीर अऊर कबीर का दोहा भी. अज्ञेय का कबिता भी अऊर कैफी आज़मी का गीत भी. देखकर
बहुत खुसी भी होता है कि आज के बच्चा लोग को साहित्त माने साहित्त पढा रहे हैँ, अब
ऊ चाहे हिन्दी भासा का साहित्त हो चाहे उर्दू/हिन्दुस्तानी भासा मेँ लिखा जाने
वाला साहित्त. मगर दु:ख भी होता है, जब देखते हैँ कि अपना बच्चा लोग को न सायरी मेँ
दिलचस्पी है, न दोहा मेँ; न कबिता मेँ, न ग़ज़ल मेँ.
एक रोज बेटी हिन्दी का किताब लेकर आई कि कबीर
का दोहा समझा दीजिये. हम बोले कि पढो जोर से कौन सा दोहा है. ऊ पढना सुरू की:
निन्दक नियरे राखिए,
आँगन कुटी छवाये,
बिन साबुन पानी
बिना, निरमल करे सुभाये!
हम उसको अर्थ बताये – जो व्यक्ति तुम्हारी
आलोचना या बुराई करता है उसको हमेशा अपने पास रखना चाहिये. हो सके तो उसे अपने घर के आँगन
मेँ एक कुटिया बनाकर रहने की जगह दे दो. क्योँकि ऐसे व्यक्ति तुम्हेँ तुम्हारे
दोषोँ से परिचित कराते हैँ और इसी बहाने तुम्हेँ उसे सुधारने का अवसर प्रदान करते
हैँ. वास्तव मेँ वे लोग बिना साबुन और पानी के ही तुम्हेँ निर्मल करते हैँ.
क्योँकि साबुन और पानी से तो केवल शरीर की गन्दगी को साफ होती है, ये आलोचक
तुम्हारे अंतर्मन को निर्मल करते हैँ.
बेटी बहुत गौर से हमारा बात सुनती रही.
बोली, “डैडी! जब आप हिन्दी मेँ कविता या दोहे का अर्थ बताते हैँ तो मुझे
सुनने मेँ बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी धार्मिक सीरियल का डायलॉग
बोल रहे हैँ!” हम अकबका गये कि बेटी के इस बात को “कॉम्प्लिमेण्ट” समझेँ कि का समझेँ. मगर जब ऊ अपना तरफ से दोहा का ‘एक्स्प्लेनेशन’
दी, तब हमको कुच्छो कहते नहीँ बना. ऊ बोली, “ये तो गलत बात है डैडी! अगर उसको अप्ने आँगन मेँ कुटिया बनाकर रहने
देंगे, तब तो वो आलसी हो जायेगा और इसको आपका एहसान मानेगा. एहसान से दबने के बाद
तो वो खुद ही निन्दा करना भूल जायेगा.”
जेतना तर्कजुक्त तरीका से अऊर सीरियसली ऊ
हमसे कही ई बात, हम एकदम अबाक रह गये अऊर तत्काल कोनो जवाब हमको नहीँ सूझा. बस
एतने कहे कि ई सब बात इम्तिहान मेँ मत लिख देना, नहीँ त जीरो मिलेगा. जेतना समझाये
हैँ, ओतने लिखो.
चैतन्य बाबू को फोन पर बताए ई बात. पहिले
त ऊ हंसे, ई बात सुनकर, बाद मेँ राजनैतिक बिसय पर अपना एक्स्पर्ट कमेण्ट देने के
इस्टाइल मेँ बोले, “आप नहीँ समझते हैँ
सलिल भाई, मगर बेटी ने बहुत मार्के की बात की है. सच पूछिये तो यही बात मैँ कब से
कह्ता आ रहा हूँ. ये प्रिण्ट और एलेक्ट्रॉनिक मीडिया, व्यवस्था के साथ मिलकर यही
तो कर रहे हैँ. हमने तो इस विषय पर कितनी पोस्ट लिखी है.”
हम बोले. “ आप तो हर बात का पॉलिटिकल मतलब निकालने लगते हैँ.”
“नहीँ सर! ये बात तो
बिटिया ने कह दी, जो आप नहीँ मानना चाहते. एक ज़माना था जब कहावत मशहूर थी कि जब
तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो. तब ये मीडिया निन्दक का काम किया करते थे. लोग
घबराते थे. आज हालात बदल गये हैँ. व्यवस्था ने तमाम निन्दकोँ यानि मीडिया घरोँ को
घर दे दिये, अपने आंगन मेँ कुटिया छवाकर बिठा लिया. अब जैसा बिटिया ने कहा, सारे
निन्दक आलसी हो गये हैँ, उन्हेँ व्यवस्था के दोष दिखाई ही नहीँ देते और धीरे-धीरे
वे निन्दक से चाटुकारोँ की श्रेणी मेँ आ गये हैँ. रोटियोँ और बोटियोँ के एवज़ मेँ सच्ची
निन्दा के स्थान पर, झूठी प्रशंसा के पुल बनवा लो उनसे.”
“चैतन्य भाई! आज इस
मुद्दे पर दूसरी बार निरुत्तर हुआ हूँ. पहले बेटी ने किया और अब आपने. लगता है
पुराने सन्दर्भोँ को दुबारा देखने परखने की ज़रूरत है.”
”सर जी! सिर्फ मीडिया
ही नहीं समाज में हर तरफ यही दिखाई दे रहा है. वे बातेँ और मर्यादाएँ कब की खण्डित
हो चुकी हैँ. और मैँ तो डायलॉग नहीँ बोलता आपकी तरह, फिर भी कहता हूँ कि खण्डित
प्रतिमाएँ म्यूज़ियम मेँ तो रखी जा सकती हैँ, ड्राइंग रूम मेँ नहीँ सजायी जा सकती.”
कबीर
के दोहा का ऐसा भावार्थ सुनकर हमरा त माथा घूम गया. याद आ गया एगो अऊर कहानीकार का
बात. का मालूम का नाम था उसका, लोग कह्ता था कि ऊ खेत का मेँड पर बइठकर कहानी
लिखता था. जहाँ बइठकर दतवन किया जाता है वहाँ बइठकर कहानी लिखने से एही खराबी होता
है. सुनिये ऊ कहानीकार का बात, अब त हमको भी फिजूल का बात लगता है. कहीँ पढे थे कि
बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे.
हम
होते त जवाब देते कि ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान
का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!!
बिटिया ने अपने मौलिक अर्थ के बहाने बडी ही प्रासंगिक बात कहदी है । सचमुच आश्रयदाता के अहसान तले तो पत्रकार व मीडिया तक निष्पक्ष नही रहा । फिर आम आदमी की तो बात ही क्या है ।
जवाब देंहटाएंकई बार असल अर्थ ऐसे भी खुलते हैं ।
जवाब देंहटाएंएल्लेव। आज यही बात हम भी लिखे अपनी पोस्ट में-क्या बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे!
जवाब देंहटाएंइससे क्या समझा जाये- ग्रेट ब्लॉगर ब्लॉग अलाइक। लेकिन ई न लिखा जाये वर्ना भाई लोग कहेंगे अपनी हांकता है। आपकी बिटिया का सवाल बाजिब है -लगता है निंदक लोग आलसी हो गये हैं।
अनूप जी, यही बात आपने भी कही लेकिन अभिव्यक्ति ने अपने डैने दूसरी-दूसरी दिशा में फैलाये हैं।:)
हटाएंbitiya ne apne tark se hamen bhi chounka diya.....aur sochne par mazboor kar diya....
जवाब देंहटाएंनिंदक बंधक राखिए, मुँह में टुकड़ घुसाय……… :)
जवाब देंहटाएंलो जी कौन निंदा करेगा मीडिया ? वही मीडिया जो कुछ दिन पहले एक नेता जी को मंत्री बनाने का खेल खेल रहा था और सारी दुनिया ने देखा , कभी सरकारों की नब्ज पत्रकारों के पास होती थी आज पत्रकारों की नब्ज सरकारों के पास है , अब सभी मीडिया ग्रुप के इस धंधे के साथ साथ कई दूसरे धंधे पानी भी है जिसको चलाने के लिए सरकार का सहयोग जरुरी है , उन्हें क्या अपने यहाँ दुनिया जहान के तमाम विभागों की रेड डलवानी है जो निंदा करे , आप को क्या लगता है की सभी सोशल साईट पर तमाम तरह का बैन नियंत्रण आदि आदि लगाने का ख्याल ऐसे ही आ गया उन्हें लगा जो इस मीडिया को काबू कर सकते है तो आम जानता की अपनी नीजि मीडिया को भी काबू कर लेंगे , पर तोप के मुकाबिल आज अख़बार निकालने की जरुरत नहीं है आज तो हर हाथ में कलम ( किबोर्ड ) रूपी तलवार है किस किस की तलवार को गिराएंगे और बकरे की अम्मा कब तक खैर मनायेगी |
जवाब देंहटाएंसमय कुछ और है .... बिटिया के शब्द तार्किक नहीं , आज के सन्दर्भ में स्पष्ट कथन है . भाई ... वो ज़माना गया जब साई से इतने की माँग थी कि मैं भी भूखा ना रहूँ साधू ना भूखा जाये ..... अब तो साधू को मांगने की ज़रूरत ही नहीं रही . अर्थ बताएँगे तो बच्चे भी दंग ही होंगे . और जो भाव हममें जगे थे , वे बच्चों में आएँ तो कैसे !
जवाब देंहटाएंआखिरवाली बात ही रंग में है
बिहारी जी लिखने वाला यदि अर्थ बता कर जाये तो वह सही है अन्यथा बालिका ने जो अर्थ बतलाया आपने कैसे गलत करार दिया आप जैसे प्रबुद्ध से ऐसी अपेक्षा न थी .
जवाब देंहटाएंजो भी हो सलिल भाई, बिटिया का अर्थ वर्तमान सन्दर्भ में भा गया। अभी मनोज कुमार जी की पोस्ट पर कबीर के इसी दोहे से अपनी टिप्पणी का समापन करके आ रहा हूँ। इधर भी वही राग। पर बड़ा ही प्यारा राग, एक नयी दिशा के साथ। मन मुग्ध हो गया। बहुत-बहुत आभार इस प्रकार के दिशा-निर्देश के लिए।
जवाब देंहटाएं"तख़्त की ख़्वाहिश , लूट की लालच , कमज़ोरों पर जुल्म का शौक ;
जवाब देंहटाएंलेकिन उनका यह फ़रमाना है मैं इनको जज़्बात लिखूँ !!
जाने ये कैसा दौर है जिसमें ये जुरअत भी मुश्किल है ;
दिन हो अगर तो उसको लिखूँ दिन , रात अगर हो रात लिखूँ !!
किन लफ़्ज़ों मे इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ ;
शे'र की मैं तहजीब निबहूँ या अपने हालात लिखूँ !!"
- जावेद अख़्तर
बाकी आप सब जानते ही है !
Aajke mahaul me na jane kitnee kahavaton ke arth badal jate hain!
जवाब देंहटाएंAapka lekhan bade chavse padhtee hun!
”सर जी! सिर्फ मीडिया ही नहीं समाज में हर तरफ यही दिखाई दे रहा है. वे बातेँ और मर्यादाएँ कब की खण्डित हो चुकी हैँ. और मैँ तो डायलॉग नहीँ बोलता आपकी तरह, फिर भी कहता हूँ कि खण्डित प्रतिमाएँ म्यूज़ियम मेँ तो रखी जा सकती हैँ, ड्राइंग रूम मेँ नहीँ सजायी जा सकती.”
जवाब देंहटाएं...इतनी बड़ी बात कितनी सहजता से सिद्ध कर दिये! इस संवाद शैली ने अभिव्यक्ति के जिस बुलंदी को छू लिया उसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे....ई वाला लाईन जब पढ़े त याद आया आझे कहीं पढ़े हैं इसको...अभी अनूप जी के कमेन्ट से याद आ गया कहाँ पढ़े थे :P
जवाब देंहटाएंबाई द वे चचा...ई तो एकदम सच बात है.....आप हिन्दी मेँ कविता या दोहे का अर्थ बताते हैँ तो मुझे सुनने मेँ बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी धार्मिक सीरियल का डायलॉग बोल रहे हैँ! :)
निन्दक तो देखते ही भाग जाते हैं..
जवाब देंहटाएं... हम तनी डेफ़र करते हैं।
जवाब देंहटाएं... तब जब ऊ अप्पन चरित्तर बदल लेगा त ऊ निंदक थोड़े रह जाएगा। जब ऊ ऊ नहीं रहेगा तब उस कुटिया में थोड़े उसको रखने के लिए कबीर दास जी कहिन थे।
जो दूसरा अर्थ बताया गया उसमें त कुटिया नहीं हवेली छबाया गया चमचा सब को रखने के लिए। ऐसन चम्मच से त ऊ कहानीकार ही बढ़िया है जो दतौवन करके साफ़ मुंह से कहता था - बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे.
:)
हटाएं:)यह भी खूब कही।
हटाएंआज भी लोग निंदक को नियरे ही रखने की कोशिश करते हैं कि उसे झट मलाई चटा प्रशंसक में बदल सकें.
जवाब देंहटाएंआज के बच्चे रटे-रटाये जुमले ना सोच कर मौलिक रूप से सोचते हैं तो अच्छा लगता है.
मौलिक सोच तो शायद हर युग में रही होगी...पर यूँ कहने की हिम्मत पहले नहीं होती थी...आज के बच्चे झट से मन में आई बात कह देते हैं...जो अच्छी बात है.
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 30-08 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....देख रहा था व्यग्र प्रवाह .
जब हम भी बिटिया के बराबर थे तो ऐसा ही सोचते थे ...मुला कल्पना भी करते थे कि एक अच्छे खासे पक्के मकान ( हम पक्के मकान में ही आँखे खोले थे .... ) के आँगन में अगर कुटी छ्वा दी गयी तो कैसी लगेगी गंदी सी और एक आलसी गंदा आदमी उसमें बैठा बैठा गालियाँ भी देता रहेगा -पिता जी मैं ऐसा नहीं होने दूंगा -खुद से बुदबुदाता ......
जवाब देंहटाएंतब समझ छोटी थी तो कुछ विचार उठते थे आज थोड़ी बड़ी हुयी तो विचार उठने बंद हो गए ....क्या दिन थे वे भी ....
बिटिया बिहारी बाबू का नाम रोशन करेगी -ऐसा ही आशीष ह्रदय से निकलता है !
आपकी पोस्ट 30/8/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा - 987 :चर्चाकार-दिलबाग विर्क
परतदार सत्य.
जवाब देंहटाएंआपकी और बच्चे की मौलिक सोच अच्छी लगी किसी भी बदलाव के लिए ज़रूरी है इस प्रकार की सोच.मुझे अच्छा लगा आपकी पोस्ट पढ़ कर.
जवाब देंहटाएंबड़ी सुलझी और उलझी हुई पोस्ट है। मज़ा आया..
जवाब देंहटाएंबिटिया के मासूम से शब्द बहुत बड़ी बात कह गए ..... आज निंदक को करीब लाते ही वो निंदक से चाटुकार बन जाता है .... बड़ी यथार्थवादी सोच है बिटिया की ....
जवाब देंहटाएंमैं इस आलेख के दो अंश उद्धृत कर रहा हूँ,
जवाब देंहटाएं१. "पुराने सन्दर्भोँ को दुबारा देखने परखने की ज़रूरत है.”
२. "ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!"
सादर नमन !
सलिल जी की बात से सहमत हं ...
जवाब देंहटाएंवैसे मौलिक सोच हो तो ठीक है पर आज ऐसी बातें ... अर्थ को अनर्थ करने वाली बातों का भी प्रचलन बड गया है ... हर पुरातन दोहे ... छंद ... पुराण या काव्य का गलत अर्थ निकालने का प्रचलन हो रहा है जो की एक खतरनाक शुरुआत है ...
@ सारे निन्दक आलसी हो गये हैँ, उन्हेँ व्यवस्था के दोष दिखाई ही नहीँ देते और धीरे-धीरे वे निन्दक से चाटुकारोँ की श्रेणी मेँ आ गये हैँ. रोटियोँ और बोटियोँ के एवज़ मेँ सच्ची निन्दा के स्थान पर, झूठी प्रशंसा के पुल बनवा लो उनसे.”
जवाब देंहटाएंबिटिया ने बिलकुल ठीक ही कहा.
कबीर के दोहे की सच्चाई वर्तमान परिपेक्ष्य में सटीक लगी !
जवाब देंहटाएंबिटिया ने तो जो देखा वही कहा... चैतन्य जी ने भी सही ही कहा, चौथा खम्बा भी अब सरकारों के आँगन में पहुँच गया है... आज बिगड़ के डर से ईमान की बात कहने वाले बहुत ही कम बचे हैं.
जवाब देंहटाएंसीधे सरल शब्दों में कितनी सहज़ता से आपने सच कहा है वह काबिले तारीफ़ है .. आभार इस प्रस्तुति के लिए
जवाब देंहटाएंआंख खोलने वाली पोस्ट
जवाब देंहटाएंकाश लोग समझ सकें..
बढिया
इस बात पर के. पी. सक्सेना साहब का दो डायलॉग कहना काफी होगा. पहला- "आइना सामने से चाहे जितना चमके पीछे से काला ही होता है." दूसरा- "कोयला चाहे कितना भी काला हो रोटी सफ़ेद ही निकलती है." दुनिया में सिर्फ इन्हीं दोनों श्रेणियों में फिट बैठनेवाले लोग होते हैं...
जवाब देंहटाएंसलील भाई,
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे पोस्ट पर आकर मेरा कमेंट पढ़ें। धन्यवाद ।
समय बदल गया है...कबीर जी ने यह बात तब कही थी जब लोगों में शर्म नाम की चीज़ होती थी। व्यक्ति खुद अपने को निर्मल रखना चाहता था और दूसरों से कुछ सिखना भी चाहता था। लेकिन अब समय ऐसा आ गया है कि निर्मल जैसी कोई चीज़ होती है...इस पर ही लोगों का विश्वास नहीं रहा...हां,निर्मल बाबाओं पर जरुर विश्वास बढ़ा है,ताकि वे बिना कुछ किए जल्दी से जल्दी अमीर बन सकें। अन्य पक्ष तो चैतन्य जी ने स्पष्ट कर ही दिए हैं।
जवाब देंहटाएंहमारी भतीजी ने बिलकुल सही शंका जाहिर की है, बेटी भी तो आपकी है|
जवाब देंहटाएंलास्ट की बोल्ड पंक्ति ने क्लीन बोल्ड कर दिया है, कोई अपील की भी गुंजाईश नहीं| खेत की मेंढ़ पर बैठकर दातुन करते कहानीकार की बात हम उंगली पर पेस्ट लगाकर करने वाले क्या समझेंगे सलिल भाई, वो लोग और थे तभी न हद से गुजर गए|
देरी के लिए पेनल्टी भरने को तैयार हैं:)
ye lo barke ke penalty chotke ke taraf se......
हटाएंbitiya rani ko dheron subhkamnayen....
aapko
pranam.
व्यस्तता के चलते आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ लेकिन आ कर मन प्रसन्न हो गया...आपकी लेखनी और विचारों का तो मैं शुरू से कायल हूँ...भाव विभोर हो जाता हूँ पढ़ कर...वाह...ढेरों बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंनीरज
सबकी अपनी -अपनी सुविधा है , किससे बिगाड़ना है , किससे जोड़ना है ...आम जीवन से अछूता कहाँ रह पायेगा मीडिया , राजनीति या साहित्य भी !
जवाब देंहटाएंजब इतना कुछ बदल रहा है तो निंदक भी अपने कर्त्तव्य से विमुख हों इसमें आश्चर्यचकित क्यों.
जवाब देंहटाएंबिटिया किसकी है ??
जवाब देंहटाएंAjkal ke bachche soch me sulajhe hue hain ...bitiya ne bade pate kii baat kii ....
जवाब देंहटाएंsarthak aur rochak alekh ...
shubhkamnayen Salil ji ...
वाह वाह! आपकी जो हो सो हो, आपकी बिटिया की जै हो!
जवाब देंहटाएं' ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!!'
जवाब देंहटाएंइ बात पते की कही.
घुघूतीबासूती
सरलता से सच बोलना काबिले तारीफ़ है,,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
समय के साथ शायद शब्द भी चोला बदल लेते हैं।
जवाब देंहटाएंबदलते समय के साथ निंदक भी बदल गए हैं... हर बार आपकी पोस्ट का अंत शुरू में पढने की कोशिश करता हूं लेकिन सफल नहीं हो पाता और पोस्ट को अंत से पढ़ नहीं पाता.... काफी देर से पंहुचा ...
जवाब देंहटाएंबात सही है, दुखद है पर है तो सही ही।
जवाब देंहटाएंऔर उस कहानीकार की बात, खेत की मेड़ और दातून - आस लगाये हैं कि अंत तक बच जाए।
देखते हैं...
बच्चों के साथ बतियाते रहिए, बहुत ज्ञान की और मौलिक बाते मिलती हैं। बहुत ही सशक्त तर्क है।
जवाब देंहटाएंkhari bat...
जवाब देंहटाएंSIR BACHCHA JANKER CHHOTA NA SAMJHE..... BAT TO MARKE KI HAI.
जवाब देंहटाएंsamay samay ki bat hai ...
जवाब देंहटाएंआज के परिप्रेक्ष्यमें एक सार्थक तर्क,बहुत खूब |
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार |
छोड़ो कल की बाते ,कल की बात पुरानी
जवाब देंहटाएंनये दौर में लिखेगे हम मिलकर नै कहानी|
बेटी का तर्कसंगत तर्क सुनकर ये पंक्तिया याद हो आई |
ओह...बात बात में का बात निकल आया.....ई पच्छ तो देखबे नै किये थे ...केतना सही ,केतना मार्के का बात...
जवाब देंहटाएंका कहें आगे...मुग्ध हुए पड़े हैं...
नई पोस्ट के इन्तजार में,,,,
जवाब देंहटाएंपोस्ट पर आने के लिये आपका आभार,,,,
RECENT P0ST फिर मिलने का
हम होते त जवाब देते कि ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!!
जवाब देंहटाएं..हम्म भी यही कहते ...
बस एतने कहे कि ई सब बात इम्तिहान मेँ मत लिख देना, नहीँ त जीरो मिलेगा. जेतना समझाये हैँ, ओतने लिखो.
जवाब देंहटाएंआपका भी कोनो जवाब नाही प्रभु ,बहुते जोरदार लिखलबा।
बहुत ही बढ़िया । मेरे नए पोस्ट समय सरगम पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंहमहूँ बचपन मा सोचा करते थे कि उई निन्दकवा का अपने ही घर मा ठहराए की का जरुरत , ऊ अप्नेहू घर से बइठ के भी तो हमार निंदा कर सकता है |
जवाब देंहटाएंलेकिन कबहूँ इत्ता लाजिकल तरीके से नहीं कह पाए , सल्लूट है झूमा को |
सादर