दिल्ली कभी हमरे सपना का सहर नहीं था. नौकरी के सिलसिला में दू-एक बार हमसे पूछा भी गया दिल्ली जाने के लिए, त हम मना कर दिए. मगर जब २००५ में हम दिल्ली आये, तब सोचे कि चलो मन मारकर रह लेते हैं. ओही टाइम में जब हम नोएडा में रहते थे, तब निठारी कांड सामने आया. तब हम एगो लंबा नज़्म लिखे थे. आज जब दिल्ली में एतना बड़ा कांड हुआ है त अचानके हमारा नज़्म सामयिक हो गया.कभी इसको हम ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं किये, लेकिन आज रोक नहीं पा रहे हैं!
तुम मुझे दो एक अच्छी माँ, तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.
बात तो जिसने कही थी सच कही थी
पर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता हो, नहीं इतिहास कहता.
माँ कहा करते थे नदियों को,
और उनको पूजते थे
तब कहीं जाकर जने थे सभ्यता के पूत ऐसे
आज भी है साक्षी इतिहास जिनका.
पुस्तकों में था पढा हमने कि
दुनिया की पुरानी सभ्यताएँ
थीं फली फूली बढीं नदियों के तट पर.
याद कर लें हम
वो चाहे नील की हो सभ्यता या सिंधु घाटी की
गवाह उनके अभी भी हैं चुनौती आज की तकनीक को
चाहे पिरमिड मिस्र के हों
या हड़प्पा की वो गलियाँ, नालियाँ, हम्माम सारे.
माँ तो हम सब आज भी कहते हैं नदियों को
बड़े ही गर्व से जय बोलते हैं गंगा मईया की,
औ’ श्रद्धा से झुकाते सिर हैं अपना
जब गुज़रते हैं कभी जमुना के पुल से.
वक़्त किसके पास होता है मगर
कुछ पल ठहरकर झाँक ले जमुना के पानी में
था जिसको देखकर बिटिया ने मेरी पूछा मुझसे,
“डैड! ये इतना बड़ा नाला यहाँ पर कैसे आया?
कितना गंदा है चलो जल्दी यहाँ से!”
कितना गंदा है चलो जल्दी यहाँ से!”
कैसे मैं उसको ये बतलाऊँ कि इस नाले का पानी,
हम रखा करते थे पूजा में
छिडककर सिर पे, धोते पाप अपने,
काँप उट्ठा दिल उसी दिन
दुर्दशा को देखकर गंगा की, जमुना की.
आज की इस नस्ल को क्या ये नहीं मालूम,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!
मित्रों,
आपको मालूम हो उस शख्स का कोई पता
तो इस नगर का भी पता उसको बताना,
और कहना
आके बस इक बार ये ऐलान कर दे,
तुम मुझे दो एक अच्छी माँ
तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूंगा!
...बहुत कठिन समय है !
जवाब देंहटाएंक्या कहें ... :(
जवाब देंहटाएंकवियों के मन में यह कुलबुलाहट रहती है कि समीक्षक खुद कोई नज़्म नहीं लिखता बस दूसरों की कमियाँ गिनाता रहता है। एकाध खुद लिखे तब हम इनको बतायें कि कमियाँ कहाँ-कहाँ हैं! लेकिन आज आपने तो सबकी बोलती बंद कर दी।
जवाब देंहटाएंसभ्यता को कुसभ्यता में बदलते हुए अपनी आँखों से देखने का दर्द मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त हुआ है। दिल्ली का संदर्भ पढ़कर तो ..उफ्फ! जो राष्ट्र गंगा को माँ कहने के बावजूद उनकी इतनी घोर उपेक्षा कर सकता है, उस राष्ट्र में दिल्ली जैसी घटनाएँ घटें तो इसमें हैरानी क्या! सबको अपने गिरेहबान में झांकने के लिए मजबूर करती है यह नज़्म।
मन दुखी हुआ है बहुत ...लग रहा है खोखले हो गए हैं हम ... :-(
जवाब देंहटाएंसत्ता पत्ता खेल रही है।
जवाब देंहटाएंमाँ ने कब कहा - रौंद दो मेरा आँचल
जवाब देंहटाएंहर पर्व त्यौहार की गरिमा मिटटी में मिला दो
अपनी हवस के आगे
माँ की गरिमा बहन की गरिमा बेटी की मासूमियत भूल जाओ ....
इतिहास ने दिया था हमें गौरव
माता को बहिष्कृत करते कपूतों ने वर्तमान को ख़त्म कर दिया
क्या अब भी इंतज़ार है संसार के खत्म होने की भविष्यवाणी की सत्यता का !!!
माँ ने कब कहा - रौंद दो मेरा आँचल
जवाब देंहटाएंहर पर्व त्यौहार की गरिमा मिटटी में मिला दो
अपनी हवस के आगे
माँ की गरिमा बहन की गरिमा बेटी की मासूमियत भूल जाओ ....
इतिहास ने दिया था हमें गौरव
माता को बहिष्कृत करते कपूतों ने वर्तमान को ख़त्म कर दिया
क्या अब भी इंतज़ार है संसार के खत्म होने की भविष्यवाणी की सत्यता का !!!
बेहद दुखद और शर्मनाक बात है..टी वी और पेपर खोलने का जी नहीं करता....आपकी नज़्म भी बड़ी अनिच्छा से पढ़ी...जी भर आया.
जवाब देंहटाएंसादर
अनु
मन बहुत ही क्षुब्ध और व्यथित है।
जवाब देंहटाएंऐसे कपूत होंगें तो कुसभ्य्ता ही तो पनपेगी
सामयिक कविता।
क्या कह सकता हूं.
जवाब देंहटाएंये तस्वीर देखते नहीं बनता..
आक्रोश जायज़ है ....
जवाब देंहटाएंन जाने कितनी वीभत्स घटनाएँ देखने सुनने के हम गवाह बनेंगे ...
यह तस्वीर आपके सामने है महेन्द्र जी । कैसे अनदेखा कर सकते हैं । अब कहाँ गई आपकी लेखनी की धार ।
जवाब देंहटाएंकुछ नही तो रो तो सकते हैं इस कविता के रूप में ।
जब एसे कपूत पैदा होगें, तो माँ क्या कर सकती है,,,
जवाब देंहटाएंमन को व्यथित करती रचना,,,,
recent post: वजूद,
व्यथित मन ....
जवाब देंहटाएंक्या कहा जाये ....??
भरोसा बचा के रखना है ......
.
जवाब देंहटाएंनदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जवाब देंहटाएंजन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!
हृदय-विदीर्ण करती है ये घटनाएं और यह मार्मिक नज्म!!
कुछ नहीं है कहने को :(:(.
जवाब देंहटाएं:(
जवाब देंहटाएंबहुत कड़वी और सच्ची बात ....
जवाब देंहटाएंआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 20 -12 -2012 को यहाँ भी है
जवाब देंहटाएं....
मेरे भीतर का मर्द मार दिया जाये ... पुरुष होने का दंभ ...आज की हलचल में .... संगीता स्वरूप
. .
कुछ नहीं है कहने को !
जवाब देंहटाएंdastane dard
जवाब देंहटाएंमन बहुत दुखी, बहुत क्षुब्ध है... :((
जवाब देंहटाएंHmmmm...jo kahna tha,apne blog pe kah diya...nazm behad sundar hai..
जवाब देंहटाएं:(
बात तो जिसने कही थी सच कही थी
जवाब देंहटाएंपर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता हो, नहीं इतिहास कहता.
प्रस्तुति अच्छी लगी । धन्यवाद।
पश्चिम की तर्ज पर परिवार में जब माँ के स्थान पर पत्नी को आसीन करा दिया गया है तब अच्छी माँ कहाँ से अवतरित होगी। माँ तो आज परिवार में ही उपेक्षित बना दी गयी है। सभी पुरुषों को अपनी ओर देखना चाहिए कि क्या वे माँ को सम्मान देते हैं?
जवाब देंहटाएं..समय के साथ कितना कुछ बदल रहा है यह बेहद चिंतन का विषय बनता जा रहा है ..माँ.बाप की जिम्मेदारी बहुत बढ़ी है साथ ही इसे सही ढंग से न निभाने का मलाल भी कम नहीं है...और आजकल की औलादें बस में रहे बहुत मुस्किल होता जा रहा है/..
जवाब देंहटाएं..क्या कहें ....सामयिक प्रस्तुति के लिए आभार...
दिल्ली की घटना ने सभी को स्तब्ध कर रखा है..उम्दा प्रस्तुति।।।
जवाब देंहटाएंसभ्यता को (कु)सभ्यता बनाने में पूरे समाज का हाथ है।
जवाब देंहटाएंमाँ ... आज समाज में माँ ओर उसके हर स्वरुप की जितनी दुर्दशा हो रही है वैसी कभी भी नहीं हुई ... कभी कभी तो शर्म से सिर झुक जाता है ... अपने पुरुष होने पे लजा आती है ... चाहे नारी हो, नदी या देश ... या अपनी माता ... अपना फ़र्ज़ कहाँ निभा पा रहे हैं हम ...
जवाब देंहटाएंकुछ कहते ही नहीं बनता !
जवाब देंहटाएंकिस मुंह से गर्व करे अपने देश प् र, संस्कृति पर !
पत्रकारिता की पढाई के अंतिम दिन चल रहे थे.. पढाई ख़त्म कर नोकरी तलाशनी थी, बहुत से दोस्त अपने कर्म क्षेत्र और पसंदीदा जगह का चुनाव कर रहे थे, शिक्षक ने बारी बारी से सबसे पूछा अधिकतर लोगों ने दिल्ली का नाम लिया, दिल्ली है भी तरक्की की सीढ़ी, खासकर मीडिया की फील्ड में... सब राजनीतिक पार्टियाँ वहां है, मीडिया मुगलों के दरबार भी दिल्ली में है... लेकिन मैंने एक-दो छोटे शहरों के नाम बताये, शिक्षक में पूछा तुम्हारी जगह तो दिल्ली में है यहाँ वहां जाकर आपका करियर क्यों चौपट करना चाहते हो...?
जवाब देंहटाएंदिल्ली में मेरा दम घुट जायेगा, वहां की फिजा मेरे लिए अनकूल नहीं... इसलिए दिल्ली नहीं जाना चाहता... यह मेरा जवाब था. तब से अब तक तो मैंने दिल्ली जाने की कोशिश नहीं की है...
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'Delhi 6' में एक लाइन थी "अब यहाँ मरने को भी दिल नहीं करता |" , दिल्ली सचमुच इतनी खराब नहीं है , खराब है वहाँ का माहौल जिसे खराब करता है वहाँ का निवासी और जिसका सबसे बड़ा कारण है कि आधुनिकता और प्रगति के लिए दौड़ते इंसान की संवेदनाएं मर चुकी हैं | एक नदी में चाहे कितना भी साफ़ पानी हो अगर उसमे खराब पानी के ५० नाले आकार गिरेंगे तो वो नदी भी प्रदूषित हो ही जायेगी |
जवाब देंहटाएंदिल्ली ही नहीं पूरे देश में संवेदनाएं धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं |
दामिनी प्रकरण पर मैंने भी कुछ लिखा था , ब्लॉग पर डालने का मन नहीं हुआ , लेकिन यहाँ लिखना चाहता हूँ -
मेरी माँ को मुझ पर फक्र है ,
मेरी बहन भी नाज करती है मुझ पर ,
वो भी तो किसी का बेटा था ,
शायद किसी का भाई भी रहा होगा ,
कोई होगा , जो उस पर भी फक्र करता होगा ,
अब खुद पर शर्म आती है ,
नजरें नहीं मिलाता खुद से ,
आईना देखता हूँ ,
तो कहीं उसका भी अक्स दिख जाता है |
.
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behah bhawpoorn......samyik rachna.
जवाब देंहटाएंस्त्रीवाची शब्दों के अर्थों से जबतक हमारी श्रद्धा और भक्ति का नाता रहा हम सभ्य बने रहे। यह नाता जबसे टूटा है तभी से सभ्यता भी हमें छोड़कर चली गयी। हम उसे याद ज़रूर करते हैं पर अभी तक उसे मनाने का कोई सच्चा प्रयास नहीं कर पाये। त्रेता में रावण ने अपहरण किया, द्वापर में दुःशासन ने चीरहरण किया ...अब कलियुग में स्त्री अपमान की सारी सीमायें टूटकर उसकी देह में समा गयी हैं। आगे और क्या होगा ...पता नहीं।
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