अ-कबिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अ-कबिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

अ-कबिता

ई कबिता लिखकर हमको कोई बहुत खुसी नहीं हुआ था. अऊर सच पूछिए त इसको हम कबिता मानबो नहीं करते हैं. बहुत पहिले ई लिखकर हम कहीं कोना में दबा दिए थे.घटना सच्चा है, काहे कि इसके बाद हमरी बिटिया एतना हँसी थी कि पूछिए मत. लेकिन हमरा मन बहुत उदास था. आज भी जब पढ़ाई करने का उमर में छोटा छोटा बच्चा को तरकारी बजार में धनिया मिर्चाई बेचते हुए, चौराहा पर भाग भाग कर कलम, पेंसिल अऊर किताब बेचते हुए, कोलोनी के अंदर कचरा बीनते हुए देखते हैं, त लगता है कि केतना बड़ा झूठ सिखाया गया है बचपन से हमको कि बच्चा देस का भबिस्स होता है. अगर एही भबिस्स है, त अईसा भबिस्स देखने से पहिले आँख बंद हो जाए!


रास्ते भर मैं बहाने सोचता बैठा रहा
कि क्या कहूँगा
जब मेरी बिटिया, पहुँचने पर मेरे, मुझसे कहेगी
“लाए क्या मेरे लिए ऑफिस से
डैडी, आज तुम?”

ये कहूँगा, वो कहूँगा
ये कहा तो मान जाएगी,
कहा वो तो, बहुत चिल्लाएगी
ऐसा कहूँगा, और फिर वैसा कहूँगा
क्या कहूँगा, सोचकर धुनता रहा सिर.

जैसे ही गाड़ी से बाहर पैर रखा
एक छोटी सी बड़ी प्यारी सी बच्ची
बस मेरी बिटिया के जैसी
पर वो लिपटी थी फटे गंदे से कपड़ों में
पकड़ कर हाथ मेरा
प्यार से, करुणा से, और कुछ दर्द से
बोली वो मुझसे,

“पाँच नींबू ले लो अंकल जी
हैं बस ये पाँच रुपये के
बचे हैं पाँच केवल
ले लो अंकल जी, न मुझसे!”
हाथ मेरा ख़ुद ब ख़ुद सरका फिर अपनी जेब में
और पाँच रुपये के ख़रीदे पाँच नींबू.

घर पे बिटिया थी खड़ी दरवाज़े पे
बस देखते ही शोर करने लग पड़ी
“क्या लाए डैडी!
बोलो ना क्या लाए डैडी!”

मुस्कुराते मुस्कुराते सारे नींबू
दे दिए फिर हाथ में बिटिया के मैंने
ख़ूब ज़ोरों से हँसी फिर खिलखिला के
“ये भी कोई चीज़ है लाने की”
और उसकी हँसी रुकती नहीं थी.

पाँच नींबू ने मेरी बिटिया को जब इतना हँसाया
कितना ख़ुश होगी वो प्यारी नन्हीं बच्ची
पाँच रुपये में मुझे वो सारे नींबू बेचकर!