तनी मनी
अन्धबिस्वासी हर अदमी होता है. अब ऊ चाहे निपट गँवार हो, चाहे पढ़ा-लिखा समझदार.
कोनो न कोनो अन्धबिस्वास मन में जरूर बइठाए रहता है. छींक देने से
काम गड़बड़ हो जाना, मगर दू बार छींक देने से पहिलका का असर ख्तम हो जाना, सामने
में छींकने अऊर पीठ के पीछे छींक सुनाई देने के असर में बहुत फरक होता
है. ओइसहिं बिलाई रस्ता काट जाए त काम बिगड़ जाना, अऊर करिया बिलाई
हो त बस काम खतमे समझिए. कोनो जरूरी काम से निकलिए अऊर कोनो पीछे से पुकार ले
त बस बंटाढार. अब लौटकर घर के अन्दर आइए अऊर एक गिलास पानी पी लीजिए, तब निकलिए.
नहीं त दही खा लेने से ऊ सब खराब असर खतम हो जाता है.
एगो कहावत था हमलोग
के लड़िकाई में – भुसकोल बिद्यार्थी का बस्ता भारी! माने पढ़ना लिखना साढ़े
बाईस, टिकिया घोस में नाम लिखाइस ( साढ़े बाईस यानि 30% से कम नम्बर लाने वाला
और टिकिया घोष यानि टी.के. घोष एकैडमी – पटना का एक स्कूल जिसमें कोई पढ़ना नहीं
चाहता जबकि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री बिधान चन्द्र रॉय और मेरे स्वर्गीय पिता जी
इसी स्कूल के छात्र रह चुके हैं). ऊहो बिद्यार्थी परिच्छा देने जाएगा त भर
कटोरा दही खाकर, एकदम आजमाया हुआ नोस्खा है. साढ़े बाईस वाला बिद्यार्थी भी
पचीस परसेण्ट ले आता है.
हमरे चैतन्य जी, भद्रा
देखिए के सब जरूरी काम करते हैं. कोनो दिन काम गड़बड़ा जाता है त फोन करके बताते
हैं, “क्या बोलूँ सर जी!
सब चौपट हो गया! पता नहीं कैसे मेरे दिमाग से निकल गया कि आज दो बजकर अट्ठाईस मिनट
तक भद्रा है!” बिजली वाले
इंजीनियर हैं, मगर ई सब मामला में ज्योतिस इंजीनियर पर भारी पड़ जाता है.
हम सब भाई लोग बिलाई
के रस्ता काटने वाला अन्धबिस्वास नहीं मानते हैं. अगर रास्ता काटते हुए देखाइयो दे
जाता है त रोड पर हम लोग दौड़कर काटा हुआ रस्ता को पार करने का कोसिस करते हैं. असल
में ट्रैफिक रुक जाता है रोड पर – पहिले आप, पहिले आप के चक्कर में. बाकी हमलोग त
ठहरे बुड़बक, ऊ एगो मसहूर लाइन है ना ई. एम. फोर्स्टर साहब का - Fools rush in, where Angels fear
to tread!
मगर अइसा नहीं है कि
हम बहुत परगतिसील हैं. हमहूँ अन्धबिस्वास पर बहुत बिस्वास करते हैं. सनीचर के दिन
कोनो अदमी को पइसा नहीं देते हैं, मतलब बजटेड पइसा से बाहर. जो हिसाब किया हुआ खर्चा
है उसके अलावा. किसी का कर्जा भी लौटाना है त सोमबार को लौटाएंगे बाकी रहते हुए
सनीचर को नहीं. का मालूम कहाँ से ई बात दिमाग में बइठ गया है कि सनीचर को बैंक आधा
होता है अऊर एतवार को बन्द. कहीं किसी को दे दिया अऊर कोनो इमर्जेंसी हो गया त
किससे माँगने जाएंगे! आज जमाना चौबीस घण्टा नगदी वाला हो गया है अऊर आधा दर्जन
क्रेडिट कार्ड रहता है पर्स में, मगर अन्धबिस्वास बैकवर्ड होता है ना, उसको थोड़े
ना पता है कि ए.टी.एम का होता है!
कहीं भी बाहर जाने
के नाम पर रेल/हवाई जहाज का टिकट कनफर्म होने पर भी दू दिन पहिले से खाना बन्द अऊर
टॉयलेट चालू. पूरा जात्रा के बीच में फिर से कोनो बजेटेड खर्चा से बाहर खर्चा करने
में डर लगता है. हजार रुपया का खाना खा लेंगे, मगर पाँच सौ रुपया कोई चीज खरीदना
हो त सिरीमती जी अपना फण्ड से खरीद लें, हम अपना जेब ढीला नहीं करते हैं. का मालूम
काहे एगो अजीब सा डर मालूम होता है.
“आ रहे हैं! अब इस उमर में कहाँ जाएँगे छोडकर!”
”कोई मिलेगी भी नहीं अब आपको! लौटकर यहीं आना
होगा!”
एही सब बतियाते हुए,
हम वेटिंग लाउंज के तरफ सिरीमती जी को कम्पनी देने बढ़ गए!
“झूमा? आपही के साथ थी न?”
”ओफ्फोह कोनो बच्चा है जो भुला जाएगी!” एक्साइटमेण्ट में
एही बोली निकलता है मुँह से! “वो देखो, आ रही हैं मेम साब!”
“खाली फालतू पैसा बरबाद
करती है. देखिए नॉवेल लेकर आ रही है. कोर्स का किताब कभी देखे हैं इतना मन लगाकर
पढते हुए!”
”खोल के देखो डैडी!”
”सो स्वीट!”
”मेरा रिटर्न गिफ्ट दो!”
तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाए,
कि तुमको हमारी उमर लग जाए!