‘भयमुक्त समाज’ सुनने में बहुते अच्छा लगता है, लेकिन होता है कि नहीं, का मालूम. कम से कम हमको त एही अनुभव हुआ है कि ई सब मन बहलाने का झुनझुना है, सब आदमी के हाथ में थमा दिया गया है. बस एही देखकर खुस रहो कि सुरच्छित हो तुमलोग, एगो भयमुक्त समाज में. हमलोग भी मने मन सब जानते हुए तनी खुस हो लेते हैं कि कोनो है ऊपर बईठल जो कह रहा है कि ‘योगक्षेमं वहाम्यहम.’
जीते जी कहाँ मिलता है भय से मुक्ति. घर में रहिये त पत्नी का भय (पत्नी नहीं रहें त घर काटने को दौडता है अऊर रहें त ऊ अपने काटने को दौडती हैं), रोड पर एक्सीडेंट का भय, अपना गाड़ी में घूमिये त पेट्रोल के दाम का भय अऊर ऑफिस में हेड ऑफिस का भय! अरे ई भय से आतंकित होकर हमरे बड़े भाई श्री रविन्द्र कुमार शर्मा ‘रवि’ जी (हमपेसा हैं अऊर बहुत कोमल हिरदय वाले सायर हैं) कल एस.एम्.एस. में बैंक में काम करने वाला कर्मचारी के लिए कुछ हॉरर सिनेमा का नाम घोषित कर दिए. एतना कोमल सायर अऊर ऐसन हॉरर सिनेमा का नाम सुनकर लगा कि केतना भयग्रस्त होंगे बेचारे:
१. तडपता क्लर्क २. ऑफिसर की मौत ३. कातिल मैनेजर ४. खौफनाक मीटिंग ५. टारगेट का सदमा ६. क्लोजिंग की आहट ७. खून का प्यासा कस्टमर
अब जउन समाज में ऐसा-ऐसा भयानक बिचार आता होगा ऊ भयमुक्त कइसे हो सकता है भगवान जाने!
एक रोज हमरे बैंक में भी एगो चिट्ठी आ गया ऊपरवाले के तरफ से... अरे ओतना ऊपर वाला के तरफ से नहीं, उससे तनी नीचे वाला के तरफ से. चिठ्ठी का था, फरमान था कि फलाना तारीख को तीन बजे दिल्ली का पूरा ब्रांच से हर लेवल का सब ऑफिसर को एगो मीटिंग में उपस्थित रहना है. अब ई कहे का त कोनो जरूरत नहिंये है कि मीटिंग में हमरे माई-बाप का भासन होना था. जगह दिल्ली सहर के बाहरी छोर पर.
अब सब के अंदर भय ब्याप्त गया. नहीं गए तो...! अब ई सवाल का जवाब खोजने से अच्छा था कि चले चलो. टैक्सी, कार, अपना चाहे किराया का, सबमें भर-भर कर गया लोग-बाग. कोनो राजनैतिक रैली टाइप का दिरिस देखाई दे रहा था. एक-एक गाड़ी में जेतना आदमी समा सकता था, समा गया अऊर अपना हाजिरी लगा आया.
लौटने के टाइम में हमरे साथी अभय के गाड़ी में हमरे अलावा तीन महिला थीं. हम अभय के साथ सामने बैठे अऊर तीनों महिलायें पिछलका सीट पर. उनमें से एगो थी ज्योति जो ६-७ महीने की गर्भवती थी. मगर मजबूरी जो न कराये इस भयमुक्त समाज में. अभय बाबू बहुत साबधानी से गाड़ी चला रहे थे. मगर सामने एगो गाड़ी वाला पास भी नहीं दे रहा था अऊर बीचोबीच गाड़ी चला रहा था अपना मस्त चाल में. होरन का आवाज का भी कोनो असर नहीं हो रहा था. अभय बाबू को वैसे भी ई सब हरकत अनबर्दास्तेबुल (नाकाबिले बर्दाश्त या असहनीय) लगता है. जगह देखकर ऊ धीरे से इस्पीड बढाए अऊर साइड से ओभरटेक करके निकल गए. ई चक्कर में बीच वाला पीला लाइन से उनका दाहिना चक्का बाहर हो गया. तनिके आगे बढे होंगे कि पीछे से पुलिस का सायरन सुनाई देने लगा. कनखिया कर देखे त एगो मोटर साइकिल पर सिपाही हनहनाये हुए आ रहा था अऊर रुकने का इशारा कर रहा था.
हम बोले कि गाड़ी साइड में खडा करिये. मामला समझने के साथ, ओही समय हमरे माथा में गुलज़ार साहब का एगो नज्म सुनाई देने लगा:
एक दफा वो याद है तुमको,
बिन बत्ती जब साइकिल का चालान हुआ था
हमने कैसे, भूखे-प्यासे बेचारों सी एक्टिंग की थी
हवलदार ने उलटा एक अठन्नी देकर भेज दिया था
एक चवन्नी मेरी थी वो भिजवा दो!
हम ज्योति को बोले कि तुम सीट पर माथा पीछे करके आँख बंद कर लो. तब-तक हवलदार भी आ गया था. गोस्सा में बोला, “ओवरटेक करते हो और लेन क्रोस करते हो. कागज़ निकालो!”
तब तक हम सामने आ गए और बोले, “देखिये सर! इमरजेंसी है!! हमारे साथ ये प्रेग्नेंट लेडी हैं और हम इनको लेकर हस्पताल जा रहे हैं. सामने वाला पास नहीं दे रहा था और बीचोबीच चला रहा था. हारकर ओवरटेक करना पडा!”
हवलदार गाड़ी में झांक कर देखिस. ज्योति आँख बंद करके पीछे के तरफ आधा लेटी थी और बाकी दूनो महिलायें उसको दूनो साइड से संभाले हुए थीं. बेचारा हवलदार आदमी निकला, पुलिस नहीं. बोला, “अब रोका है तो चालान तो करना ही होगा. रैश ड्राइविंग के लिए कम-से-कम एक हज़ार रुपया फाइन होता. मगर गलत पार्किंग के लिए सिर्फ सौ रुपये का चालान करता हूँ. आप लोग जल्दी जाओ!”
बेचारा जल्दी-जल्दी चालान काटा अऊर हमलोग चल दिए. ज्योति का हंसी नहीं रुक रहा था. हम सब लोग हंस रहे थे. देखते-देखते गाड़ी के अंदर एकदम भयमुक्त समाज अस्थापित हो गया था.
हमारे साथ ये प्रेग्नेंट लेडी हैं और हम इनको लेकर हस्पताल जा रहे हैं. सामने वाला पास नहीं दे रहा था --
जवाब देंहटाएंदेखते-देखते गाड़ी के अंदर एकदम भयमुक्त समाज
"स्थापित"
हो गया था ||
बढ़िया प्रस्तुति ||
बहुत-बहुत बधाई ||
achchi lagi aapki soojh-boojh.......
जवाब देंहटाएंवाह बड़े भाई। सौ रुपया में लाख रुपया का काम कर गये।
जवाब देंहटाएंपुलिस को आदमी होने का सबूत ... कम है क्या, लाख रुपया, बढ़ा देवें ,...?
हम भी भयमुक्त होकर राशि बढ़ा सकते हैं, कौन जेबी से जाएगा।
मस्त.. आजका पोस्ट पढ़ कर एक दम मस्त हो गए.
जवाब देंहटाएंई घटना से एगो सबक तो हमहूं सीख लिया कि दुःख से भी सुख की खेती की जा सकती है।
जवाब देंहटाएंवाह वाह, सौ रूपया मे भयमुक्त समाज का निर्माण कर लिये आप तो. बहुते जबरदस्त प्रेजेंस आफ़ माईंडवा है आपका तो.:)
जवाब देंहटाएंगजब का सर्राटेदार भाषा मे लिखा है. मजा आगया.
रामराम.
सर्वप्रथम नवरात्रि पर्व पर माँ आदि शक्ति नव-दुर्गा से सबकी खुशहाली की प्रार्थना करते हुए इस पावन पर्व की बहुत बहुत बधाई व हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंवैसे तो हम भोजपुरी के जानकार हैं नही पर एकदमैच भोजपुरी मा नही लिखा था ना जादा कठिन नही लगा…एक तो श्री रामचरित मानस की एक चौपाई का पहिला चरण याद आ गया "भय बिन प्रीत न होय गोसाईं" त कहने का मतलब है "देखते-देखते गाड़ी के अंदर एकदम भयमुक्त समाज स्थापित" पहिले भय था तबही न हो पाया……भाई साहब प्रस्तुति एकदम जानदार……
Wah! Kya tarkeeb soojhee!
जवाब देंहटाएंbahut se jameeni hakikat kee bayangi bahut achhi lagi.. ..bahut kuch ghatne ke baad ant mein kuch achha hota hai to man ko thoda sukun mil hi jaata hai..
जवाब देंहटाएंbahut badiya prastuti ke saath hi aapko NAVRATRI kee spariwar haardik mangal kamnayen..
व्हाट एन आईडिया सर जी ... वैसे ... इस केस में ज्योति जी बहुत बड़ा योगदान रहा ... सो कभी वो गए हुए १०० रुपये वापस आये ... तो ५० उनको देना ना भूले ... भई तब चवन्नी के हिसाब से अब के तो ५० रुपये ही बने ना !!??
जवाब देंहटाएंवैसे आज ब्लॉग की फीड ठीक तरह से आ गई थी ...
आपलोगों के प्रजेंस आफ माइंड की दाद देनी पड़ेगी। भयमुक्त समाज की स्थापना रु.100/- देकर। कितना सस्ता है भयमुक्त समाज।
जवाब देंहटाएंगजब का प्रवाह है रचना में, एकदम कविता सा।
पहले तो पूरा डर गये थे।
जवाब देंहटाएंसलिल भाई!
जवाब देंहटाएंआज भी भयमुक्त नहीं हो पाए! सोचा था आज तो फिसड्डी नहीं होंगे टिप्पणी करने में...आज भी तेरहवें नंबर पर ही आ पाए!!
पुलिस विद अ ह्यूमैन फेस का एक अनुभव हम भी सुनाएँ ...भतीजे को स्कूटर पर बिठा कर पिक्चर दिखाने ले जा रहे थे. शहर में नए-नए थे, वन वे में घुस गए. पुलिसिया भाई तीस रुपये का चालान बनाने लगा ( १९९० की बात है). हम भतीजे पर झुंझलाए, 'बड़ी जिद कर रहा था... ले अब देख ले पिक्चर!' पुलिस के अन्दर बैठे आदमी ने दस रुपये लौटाते हुए कहा -रख लो भाई साहिब ...बच्चे का मन मत मारो, उसे पिक्चर दिखा लाओ!!!
रोते-रोते हँस लेना भी ई भयमुक्त समाज की ही देन है ।
जवाब देंहटाएंAbhay ki car me, Gyaan ki Jyoti ki chamak
जवाब देंहटाएंkyaa baat hai :)
Chaitnay Alok
सोच में हूं कि 'अन्ना-दृष्टि' से कुछ कहना चाहें, तो क्या कहें इस पर.
जवाब देंहटाएंऐसे ही जीवन प्रसंगों में यदा-कदा भयमुक्त समाज का दृश्य उभर आता है।
जवाब देंहटाएंआजकल 'आदमी' विलुप्तप्राय प्राणी की श्रेणी में आ गया है और 'हवलदार टाइप' के जीवों की संख्या में भयानक वृद्धि देखी जा रही है।
ई पोस्ट बहुत रोचकेबुल है अउर हम टीपे बिना नहीं रह सकते ।
जवाब देंहटाएंहा हा...खतरनाक आईडिया था....गुलज़ार साहब का गाना से हो तो आपको वो आयीडिया आया था :P
जवाब देंहटाएंवैसे चचा एगो बात बताइए..
"घर में रहिये त पत्नी का भय (पत्नी नहीं रहें त घर काटने को दौडता है अऊर रहें त ऊ अपने काटने को दौडती हैं),"
चाची ई वाला लाईन पढ़ी हैं की नहीं..:P
आपके बचने में गुलज़ार साहब का बहुत बड़ा हाथ रहा, क्यों?
जवाब देंहटाएंमिअज्वा खुस हो गइल, बाह भैया!
भयमुक्त या भययुक्त? :), आपनें पीड़ा का भय दिखाकर हवालदार को पुलिस से इन्सान बना दिया!! फिर भय मुक्ति क्यों?
जवाब देंहटाएंएक मेरी सहेली ने भी कुछ ऐसी ही एक्टिंग कर अपने देवर को पुलिस से बचाया था .
जवाब देंहटाएंआज पंद्रह साल हो गए...पर वो देवर को ये बात भूलने नहीं देती....:)
आपलोग भी तैयार रहें...ज्योति जी मेरी सहेली जैसी हुईं तो भूलने नहीं देंगी..:)
बहुत ही रोचक पोस्ट
@ सुज्ञ जी:
जवाब देंहटाएंहमारे कार्यालय में हंसने का अवसर बिलकुल नहीं मिलता है (यह वातावरण पिछले कुछ सालों की दें है) और खुल कर हंसने का तो प्रश्न ही नहीं.. इसलिए वह भयमुक्त वातावरण भी मैंने गाड़ी की दीवारों के अंदर ही कहा है!! बाहर कहाँ!!!
हाँ राहुल जी ने जैसा कहा है इसे आप हमारा भ्रष्टाचार भी कह सकते हैं!! :)
:)
जवाब देंहटाएंभय बिनु होय न प्रीति का कथन याद आ गया।
पुलिस वाले भी होते तो इंसान ही हैं, बस नौकरी इस तरह की है कि उनकी संवेदनायें मर जाती हैं या दब जाती हैं।
जवाब देंहटाएंचलिये गाड़ी के अंदर ही सही, भयमुक्त समाज का अनुभव तो मिला।
आजकल ‘आदमी‘ विलुप्तप्राय प्राणी की श्रेणी में आ गया है। चारों तरफ ‘हवलदार टाइप‘ का ही बोलबाला है।
जवाब देंहटाएंवैसे, नुस्खा बहुत अच्छा है।
भयमुक्त समाज और वो भी इतने कम दाम में ...
जवाब देंहटाएंरोचक घटना!
सलिल भाई,रोचक प्रसंग था.
जवाब देंहटाएंबैंकों में कहाँ बचा भयमुक्त समाज.
जो दिन अच्छा गुजर जाए सो भला.
मैं तो सोचता हूँ,हमारी पगार के दस हज़ार रूपए तो सिर्फ गालियाँ खाने के मिलते हैं.
s.m.s की परिभाषाएं देख कर पुरानी मैनेजमेंट परिभाषा याद हो आयी,
बहुत आंतरिक पीड़ा से लिख रहा हूँ.
Not less than a bastard can be a manager.
गाड़ी में ही सही भयमुक्त समाज स्थापित तो हुआ भले ही थोड़ी देर के लिए
जवाब देंहटाएंमज़ा आया पोस्ट पढ़ने में
sachhi me blod line ne to sachmuch 'unbardatebul'
जवाब देंहटाएंkar diya......
pranam.
ऊ पुलिसवाला खाली अपने आदमियते का परिचय नहीं दिया बल्कि अपने कर्तव्यनिष्ठो होने का परिचय दे दिहिस सरकार का रेभ्न्यु बढ़ाके...
जवाब देंहटाएंजैसे किसी फिल्म का कोई डायलोग लम्बे समय तक याद रहता है वैसे ही आपकी इस पोस्ट से यह डायलोग मुझे हमेशा याद रहेगा....
जवाब देंहटाएंबेचारा हवलदार आदमी निकला, पुलिस नहीं.
ही ही ..ये प्रेगनेंसी वाला बहाना भी हर जगह चल जाता है.
जवाब देंहटाएंभय से निकलने में आपकी सूझबूझ जबरदस्त रही...!!!यह भी खूब रही...
जवाब देंहटाएंभय से डरपोक डरते हैं आप जैसे लोग नहीं :)
जवाब देंहटाएंसलील भैया,नमस्कार .
जवाब देंहटाएंजवन लोग हमरे सबके उपर बैठ कर यह कह रहे हैं कि "योगक्षेम व्रहाम्यम" वे .ह न .कह कर असल में कह रहें है कि "अहं ब्रहास्मि" ।
पोस्ट अच्छा लगा ।
धन्यवाद ।
:)...
जवाब देंहटाएंsubho vijaya,daau !
वाह .. भय मुक्त समाज की बस सौ रूपये .... कौन है ऐसा पुलिस वाला भाई ... इसे देश का प्रहरी बनाओ ...
जवाब देंहटाएंदशहरे की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंसादर
बाह रे सलिल बाबू खूब रही...मुला सबसे पहले इस फारसी शब्द अनबर्दास्तेबुल के लिए बहुतै शुक्रिया .....डायरी में नोट कर लिए हैं ....आगे भी ऐसे ही बर्ड की उम्मीद पाल पैठे हैं ...
जवाब देंहटाएंदूसरे ई वृत्तान्त्वा से ऊ एक ठो बुडबकवा की याद आ गयी जो मुम्बई नगरिया बिहार से पहुंचा था और एक ठो गगनचुम्बी बिल्डिंग क मंजिल गिनने लगा था ...जब एक मुम्बईया कड़क के पूछा तो कहा कि बस पांच महला ही गिन पाए थे -और हर्जाना पांच सौ देकर पीछे हो हो हंस रहा था कि खूब साले को बुडबक बनाया -गिन तो मैं पन्द्रहंवी रहा था ...
अब बिहारी बाबू वही खिस्सवा फिर से चरितार्थ हुयी गवा हो ...हमनी सपरिवार खिस्स खिस्स हंस रही बानी हो :)
मतलब यह कि अगर पुलिस वाला हजार का चालान काटता तो क्या वह आदमी नहीं होता। अाखिर तो वह अपना काम ही कर रहा था। आपको उसने सौ रुपए का चालान काटकर छोड़ दिया तो वह आदमी हो गया। और अगर वह सौ रुपए जेब में रख लेता तो आप उसे क्या कहते।
जवाब देंहटाएं*
आपकी यह पोस्ट जहां एक तरफ मनोरंजक है वहीं दूसरी तरफ ऐसे सवाल भी खड़े कर रही है कि आखिर हम किस तरह का भयमुक्त समाज बनाना चाहते हैं।
आपको एवं आपके परिवार को दशहरे की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसलिल जी एक बार फिर अंत पकड़ने में नाकामयाब रहा. ठीक कहा आपने कि पुलिस की आदमीयत ठीक से बात कर लेने में ही है. आज ही गाँव से लौट रहा था तो रास्ते में देखा कि स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में अलीगढ में एक हॉकर मूंगफली बेचने चढ़ा ही था कि बेचारा आर पी ऍफ़ के हत्थे चढ़ गया. बिचारे को बोहनी से पहले पचास रूपये देने पड़े. पचास रुपया देके वो रहत की साँस ले रहा था. आजकल ले दे के ही भयमुक्त समाज की स्थापना हो रही है. अब जब पैसे दे के मंत्री विधायक बन रहे हैं तो बिचारी पुलिस क्या करे... रोचक पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लिखले बानी सहिये बा,अच्छी पोस्ट पर बधाई !
जवाब देंहटाएंबेचारा हवालदार आदमी निकला....
जवाब देंहटाएंसचमुच ऐसे ही आदमियों से दुनियां बची हुई है...
बहुत बढ़िया वाकया सुनाये...हमको भी याद आ गया कि गया पटना लाइन में ठसाठस भरी ट्रेन में हमरे साल भर के बेटे ने कैसे (पखाना कर) हमें सीट दिलवाया था...पूरा का पूरा एक सीट...
बड़ा सही कहे ...भय से मुक्ति अंतिम सांस तक संभव नहीं....
:) :) :)
जवाब देंहटाएंaayee to dua slam karane hi thi lekin aapaki post ho to muskurane ka bahana mil jata hai is liye muskuraye bina rah n saki. kaise hain aap? roz kuch time dene ki koshish karati hoon sabhi blogs par. shubhakamanayen.
जवाब देंहटाएंभयमुक्त समाज ... और पुलिस वाला आदमी निकला ... बहाना सटीक निशाने पर लगा ... कुछ पल हंसने का मौका मिला ... बढ़िया पोस्ट .
जवाब देंहटाएंक्या करें बहुत सोचे थे कि आगे नहीं पढेंगे , लेकिन जी नहीं माना , मन मारकर पढ़ना शुरू किये , लेकिन धीरे धीरे फिर से मन लगने लगा |
जवाब देंहटाएंस्वामी विवेकानंद जी ने भी कहा है कि भय इंसान का सबसे बड़ा पाप है , निर्भय बनो , हम तो केवल सुने , आप एप्लाई कर दिए , बहुत बढ़िया |
सादर