मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कन्फ्यूज़न


तब हमरी बेटी छोटी थी. कलकत्ता में पैंटालून के स्टोर में उसको लेकर हम लोग गए. ओहाँ जाकर खेलौना देखकर उसका खुसी का ठिकाना नहीं रहता था. लगता था कि पूरा दोकान खरीद लेगी. मगर बच्चा का मन. एगो खेलौना उठाकर आगे जाती, त दोसरका लेने का मन करता अऊर उसके आगे कोनो अऊर. फाइनली जो हमलोग ले देते उसी से खुस. ऊ रोज हमलोग कपड़ा देखते हुए आगे बढ़ गए अऊर बेटी खेलौना वाला सेक्सन में पीछे रह गयी. ओहाँ पर जो कर्मचारी था ऊ देखा कि बच्चा अकेला रह गया है त उसके पास जाकर बोला, “तुम्हारे पापा उधर चले गए हैं!” हमरी बेटी अपना धुन में मगन थी, जवाब दी, “वो मेरे डैडी हैं, पापा पटना में रहते हैं!” हमलोग ई बात सुनकर अपना हंसी नहीं रोक पाए अऊर बेटी को लेकर आगे बढ़ गए. ऊ कर्मचारी बेचारा हैरान माथा पर प्रश्न चिह्न लिए हमलोग को देखते रह गया.

हमारे परिबार में बच्चा सब अपने बाप को परगतिसील अंगरेजी में डैडी बोलता है अऊर चाचा लोग को पापा. हम लोग भी भतीजा-भतीजी नहीं, बेटा-बेटी कहते हैं, जब कभी अन्य पुरुस में संबोधित करना होता है तब. मगर मामला इतने सिम्पुल होता, त हम ई पोस्ट नहीं लिख रहे होते. हमारा बेटा (एकलौता है खानदान में) हमको अऊर हमरी पत्नी को भैया-भाभी कहता है. का है कि बचपने से सबको एही बोलते सुना त ओही बोलने लगा. बच्चा लोग का त सोभाव होता है. हमरी बेटी अपनी माँ को सुरू सुरू में हमरा देखा-देखी नाम से बोलाती थी. एक दिन सिरीमती जी सिकायत की हमसे कि आपको देखकर ऊ हमको नाम लेकर बोलाती है. हम बोले कि समझाओ उसको, सुधर जाएगी. अब उसको समझाने के लिए हम तुमको मम्मी कहकर त नहिंये बोला सकते हैं.

बचपन में अईसा बात बहुत साधारण होता था. करीब-करीब हर घर में. हमरी छोटी फुआ हमरी माता जी को भाभी कहती थी, त हमरा फुफेरा भाई भी उनको भाभी कहने लगा था मामी कहने के बदले. हमरा एगो दोस्त अपनी दादी को अम्मा कहता था, काहे कि उसके माँ-बाबूजी दादी को अम्मा कहते थे.

मगर हमलोग के घर पीछे के पीछे रहने वाला दोस्त सिव कुमार के घर का रिवाज त अऊर अनोखा था. ऊ लोग अपनी दादी को “दादा” कहकर पुकारता था. अब इसका कारन त साधारण तौर पर समझ से बाहर था. त एक दिन हमलोग उसको पूछ लिए. ऊ जो कारन बताया ऊ त अऊर अनोखा था. ऊ लोग दादी को पहले दादी कहता था, मगर उसके दादा के देहांत के बाद उसकी दादी अपना सब पोता-पोती को बोलीं कि तुमलोग के सामने त हम जीवित हैं, मगर तुम लोग हमको दादा कहकर पुकारोगे त तुम्हारे दादा भी हमारे साथ जीवित रहेंगे. कमाल का प्रेम था अऊर कमाल का तरीका याद को ज़िंदा रखने का.

ई त था आदमी लोग का खिस्सा. हमरे यहाँ एगो तोता था. उमर में हमसे बड़ा. ऊ हमरी फुआ को बुच्ची, हमरी माता जी को दुल्हिन अऊर हमको बेटू कहकर बोलाता था. कमाल का तोता, ठेठ मगही भासा में बतियाता था. १९७५ के बाढ़ में गलती से डूबकर उसका स्वर्गवास हो गया. अगर ऊ आज ज़िंदा होता त हमरा सब पोस्ट का पोडकास्ट बहुत सफाई से कर सकता था. खैर, हमरे दादा जी से सबलोग को पुकारना सीखकर जइसे दादाजी बोलाते थे, वइसहीं ऊ भी बोलाता था.

अब सेक्सपियेर साहब भले बोल गए हों कि नाम में का रखा है. मगर रिस्ता का भी त नाम होता है. इन फैक्ट, रिस्ता का नाम से ही रिस्ता समझ में आता है. भाभी माने भाई की पत्नी, साला मतलब पत्नी का भाई, देवर मतलब पति का भाई. मगर इस तरह अगर रिस्ता का नाम में गुलमफेंट हो गया हो, त कैसे समझाया जा सकता है रिस्ता. उधर गुलजार साहब कहते हैं कि
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो!
बात सही है, देवर-भाभी के रिस्ता के नाम के साथ जो मिठास है, भैया-दीदी के नाम के साथ जो स्नेह का खुसबू है, सब रूह से महसूस त किया जा सकता है, मगर ई रिस्ता का नाम सुनते ही, रिस्ता के साथ रिस्ता कायम होता है!

51 टिप्‍पणियां:

  1. बच्चा वही बोलता है जो सुनता है। मजा तो तब आता है जब न रिश्ते का ज्ञान हो न नाम का। बस प्यार हो और प्यार का एहसास हो। वहां का करें? वहां तो...

    सुनिए ! कहिए ! कहते, सुनते, प्यार हो जायेगा।

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  2. आपकी इस पोस्‍ट से मुझे याद आया कि हम अपनी दादी को बऊ कहते थे। बहुत समय तक यह समझ नहीं आया। फिर विश्‍लेषण करने पर पता चला कि बऊ बहू का अपभ्रंश है। वे अपने मोहल्‍ले में बहू कहकर पुकारी जातीं रहीं। इसी तरह हम पिताजी को कभी‍ पिता कहकर बुला ही नहीं पाए। वे रेल्‍वे वालों के लिए बाबूजी थे,सो हमारे लिए भी बाबूजी ही हो गए थे।
    *
    बहरहाल आपने जो बात उठाई है वह बहुत से संयुक्‍त परिवारों में आज भी होती हुई मिल जाती है। सच तो यही है कि हर रिश्‍ते का एक नाम होता है और उसे उस नाम से संबोधित किया जाए तो उसका आनंद दुगना हो जाता है।

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  3. मैं और मेरा भाई अक्सर ये बातें करते हैं -कि ये रिश्ते होते तो ऐसा होता..... वैसा होता ....

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  4. ई सब बरा आम है अपना तरफ़ भाई साहेब! हमरे मां के नैहर के दूगो और लड़की हमरे परिवार में ब्याह के आ गईं थीं और उसमें से एगो मां की फ़ुआ और दूसरी भतीजी। अब उनको जो रिस्ता हमारा होता उससे बुलाते तो वे मेरे पापा के परिबार की हो जाती और मां के रिश्ता का संबोधन उनको नहीं भाता --- सो बीच का रास्ता निकला -- एगो को लल्ला कहते थे और दूसरे को दादा, जबकि दोनों हमारे चाचा थे।

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  5. मेरे एक मित्र हैं, वे भी अपनी माँ को भौजी ही बोला करते थे। इसी प्रकार की एक और घटना याद आ रही है। एक बच्ची थी और उस परिवार के लोग अपने एक पड़ोसी को अंकल बोला करते थे और बच्ची उन्हें बाबा अंकल कहा करती थी।
    बड़ा ही रोचक वर्णन।

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  6. आपने बिलकुल सही कहा है ..मैं भी अपनी दादी को अम्माजी कह कर बुलाती थी और नानी को अम्मा .. बस रिश्तों में मिठास होनी चाहिए ...

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  7. क्या कहें ... इनमे से कई रिश्ते तो मेरी ज़िन्दगी में हैं ही नहीं... पापाजी और माजी के सिवा...

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  8. सदा की भांति इस बार भी आश्चर्य चकित कर गए ! हमारे यहाँ भी एक तोता था... हम जब स्कूल से लौट ते थे तो छोटे भाई के साथ साथ वो भी बोलता था माँ माँ भैया आ गए.. भैया आ गए... माँ को वो माँ कहता था... उसके नहीं रहने के बाद दो दिन तक घर में खाना नहीं बना था... हमलोग भी बाबूजी को बहुत दिनों तक भैया ही कहते थे.... काश वे रिश्ते लौट पाते जीवन में... शहर बहुत कुछ छीन रहा है...

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  9. SOONDAR POST PAR
    SOONDAR COMMENTS.
    MEREE MATAJI KO BHI MERE BADE BHAI SAHAB 'VAHINI' YANIKI BHABHEE KAHATE THE.
    UDAY TAMHANE.
    BHOPAL.

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  10. बड़े पापा..छोटे पापा...बड़ी मम्मी..छोटी मम्मी कहने का रिवाज तो हमारे यहाँ भी है...रिश्ते को एक नया नाम देने से रिश्ते में थोड़ी और मिठास आ जाती है.

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  11. मैं अपने ताउजी को 'अब्बा' कहता था और पापा को 'चाचा' कहता हूँ ! बढ़िया पोस्ट लगाई आपने भी रिश्तो पर ... जय हो !

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  12. हमारे गांव में पिता को काका कहते हैं,जब मैं गांव से चंडीगढ़ यानी पंजाब आया तो बहुत कन्फ्यूजन हुई। यहां छोटे बच्चे को काका कहकर पुलाते थे...मुझे बड़ा अजीब लगता था। इसी तरह जब पहली बार महाराष्ट्र गया तो दादा शब्द के मायने बदले हुए मिले दादा यानी बड़ा भाई!!!

    रिश्तों को जोड़ता सुंदर कन्फयूजन क्रियेट किए हैं इस बार...

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  13. आपके लेखन शैली से महसूस होता है की हम अपने घर में बात कर रहे हों ...
    बधाई इस आत्मीयता के लिए !

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  14. अपनी माँ को भाभी कहकर पुकारने वाले कई लोग याद आ गये।दादी को दादा कहने की बात मन को छू गयी। ईश्वर तोते की आत्मा को शांति दे! शेक्स्पीयर और गुलज़ार साहित्यकार हैं कुछ भी कह सकते हैं। मगर यह भी सच है कि हर रिश्ते को परिभाषित नहीं किया जा सकता।

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  15. रिश्तों का संसार अनोखा होता है... मै सात आठ साल तक अपनी नानी को ही अपनी माँ समझता था। और आज उनके जाने के बाद भी मेरे दिल मे माँ से बढ़ कर स्थान रखती हैं।
    रिश्तों का बढ़िया तानाबाना ... सुन्दर

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  16. बस आदत की बात है, 'डैडी' और 'पापा' अपना लिये जाते हैं, फिर और (शब्‍दों) की ?

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  17. मजेदार रहा रिश्ता, सम्बोधन और एहसास का घालमेल!...बोले तो सलिल भाई, वर्मा साहब, बिहारी बाबू...!!

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  18. डैडी, पापा या पिताजी, सच्ची में कनफ्यूजन है..

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  19. हँसते हँसते पेट में बल पड़ गए ....बेटी को सुनाया ... अभी अम्मा बाकी हैं .... सलिल जी , मान गए आपकी कलम और सुपर रिस्तों को

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  20. कौन का कहता है उ के पाछे रहिएगा तो सच्चे कनफ़ुजिया जाइएगा। काहे कहता है ई है इम्पोर्टेंट। आपके पोस्ट और लेखन-शैली से सीख रहा हूँ।

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  21. रिश्तों का अहसास तब तो दुगुना हो जाता है जब पुकारने की आदत व असली रिश्ते के नाम अहसास से पहचान होती है। गजब की पोस्ट है।

    तोता उदाहरण नें विषय की वास्त्विकता से सामन्जस्य कर लिया। सुन्दर संदेश!!

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  22. .... रोचक वर्णन।
    मैं भी अपनी बुआ को दीदी कह कर बुलाता हूँ !

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  23. पंजाबी बोलने वाले कई घरों में माँ को भाभी बोलते हैं और भाभी को भरजाई ...
    गज़ब का ताना बाना बुना है आपने रिश्तों का .... मज़ा आ गया ...

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  24. सामान्य से विवरण को आप रोचक और उद्देश्यपूर्ण बना देते है।

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  25. यह समस्या तो बहुत आम है...कई घरों में बच्चे अपनी माँ को नाम लेकर बुलाते देखे जाते हैं.या फिर भाभी,चाची आदि.यूँ बच्चों को सिखाने के उद्देश्य से पति अप्तनी आपस में मम्मी पापा के संबोधन भी करते देखे जाते हैं:)इससे बच्चा तो सीख जाता है पर उनके लिए बाद तक भी यह आदत छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है :)

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  26. ये बहुत कॉमन है. आपने बड़े रोचक तरीके से प्रस्तुत किया. हम भी बहुत सालों तक अपने भैया को 'नाम से ही' बुलाते थे. बाद में 'मेरे भैया' कहने लगे.

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  27. ये बडे रोचक प्रसंग हैं । हमारे पास के कस्बा में एक शिक्षिका थीं-बेटीबाई वे बतातीं थीं कि बचपन में जैसा कि लडकियों को प्यार से कहा जाता है सब उन्हें बेटी कहते थे । बाद में उनका नाम बेटी ही पड गया बेटीबाई । भैया भी बेटी कहने लगे-बेटी जीजी । उनके छात्र-छात्राएं कहते--बेटी बहन जी । जब शादी हुई तो पतिदेव पुकारते --अरे बेटी कहाँ हो । और उनका बेटा माँ का नाम पूछे जाने पर जब माँ का नाम बताता--तब पूछने वाला मुस्कराए बिना नही रह पाता था ।

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  28. जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे ....इसलिए शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है हर शब्द एक रिश्ते को ही नहीं बल्कि एक अहसास को भी अभिव्यक्ति देता है ...! इस प्रासंगिक पोस्ट के लिए आपको ढेरों शुभकामनाएं ......!

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  29. हमारे अंचल में भी ऐसा ही होता है... हमारे साथ खुद आपकी बेटी के जैसा एक शानदार अनुभव जुदा है... हम छोटे थे परीक्षा में रोल नंबर, नाम. पिता का नाम मैडमजी को भी भरना होता था... वो हमसे पूछी की तुम्हारे पिताजी का नाम क्या है.. हम सहज उनको उत्तर दे दिए - हमारे पिताजी का नाम पिताजी है... उन्हें समझ आये तो पूछती हैं की तुम्हे छोड़कर बाकि के लोग उन्हें क्या बोलते हैं.. तब हम जवाब दिए की उन्हें पूरा गाँव पिताजी ही बोलता है...
    हमारे दादाजी को गाँव के सभी लोग पिताजी कहते हैं... इस घटना को सोचकर हमें आज भी खूब हंसी आती है...

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  30. देवर-भाभी के रिस्ता के नाम के साथ जो मिठास है, भैया-दीदी के नाम के साथ जो स्नेह का खुसबू है, सब रूह से महसूस त किया जा सकता है,


    वाह...क्या लिखते हैं आप? अद्भुत...

    नीरज

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  31. किसी परिवार में रिश्तों के नामों में ऐसी विविधता दिखे तो समझना चाहिए कि वह संयुक्त परिवार है और कम से कम तीन पीढि़यों के सदस्य प्रेमपूर्वक साथ-साथ रहते हैं।
    .......................
    कुछ रिश्ते
    जैसे साथ हों फरिश्ते
    और कुछ रिश्ते
    सिर्फ रिसते रहते हैं।

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  32. दादा,हमहू अपने पिताजी को भइया कहिथ है ,बचपने ते !
    बच्चे वहै तो सीखथ हैं जऊन उनके आस-पास ह्वाथ !

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  33. रिश्तो को नया अर्थ देती रचना.... काश ऐसा कन्फ्यूज़न सबके जीवन में हो...

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  34. प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो!
    यही तो अपुन के जीवन की भी फिलासफी रही है सलिल बाबू !

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  35. बहुत अच्छी सुंदर प्रस्तुति,मेरे ख्याल से संबोधन रिश्तों के मर्यादाओं के अनुसार शोभा देता है,...
    new post--काव्यान्जलि : हमदर्द.....

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  36. इतनी अच्‍छी पोस्‍ट पर बहुत देर से आ पायी। रिश्‍तों की महक उनके सम्‍बोधन से ही है। बड़े पापा और छोटे पापा बोलकर बड़े कन्‍फ्‍यूज कर देते हैं लोगं

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  37. :)इतनी मिठास पर कुछ कहने का मन नहीं :)

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  38. आपकी इस पोस्‍ट पर आने का पूरा श्रेय आदरणीय रश्मि जी की कलम को जाता है ..प्रत्‍येक शब्‍द स्‍नेहयुक्‍त अपनी भावनाओं की मिठास लिए हुए ..आभार सहित शुभकामनाएं ।

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  39. माफ़ कीजियेगा ...देर आये ..दुरुस्त आये ...!!
    आपकी लेखनी पढ़ते पढ़ते हम बिहारी बोलना सीख जायेंगे...
    अब आपका ब्लॉग भी फौलो कर लिया है ....

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  40. SALIL JI

    MERA AAP SE KYA REESHTA HAI ?
    MAI KYA JAANOO !

    REESHTE KO SALAM !

    UDAY TAMHANE
    BHOPAL.

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  41. हमने देखी है उन् आँखों की महकती खुशबू ,
    प्यार से छू के इसे रिश्ते का 'इल्जाम' न दो......अहा
    .
    पता नहीं बाऊ जी , आपको ऐसा लगता है कि नहीं लेकिन मुझे एक बात लगती है , गुलजार साब के बोलों को न जाने कितने बड़े बड़े दिगज्जो ने अपनी आवाज से सजाया है , लेकिन जब भी मैं उनको खुद गुलजार साब की आवाज में सुनता हूँ , सिहरन दौड़ जाती है , लगता है कि यही आवाज सबसे परफेक्ट है इन बोलों के लिए
    चाहे वो 'बस्ते जैसी बस्ती' हो , या 'वो पुराना खम्भा' या फिर 'मेरा वो सामान लौटा दो' या कि 'इस मोड से जाते हैं' या 'लिजेंड्री - बल्लीमारा'.
    हालाँकि आपने सुना जरूर होगा लेकिन मेरी गुजारिश पर आज एक बार और सुनिए(मेरी तरफ से तोहफा समझिए इसे और मैं इसे आपका आशीर्वाद समझूंगा)

    सादर

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