बचपन में हमरे एगो
मास्टर थे, किरपा बाबू. उनका कहना था कि भुसकोल से भुसकोल बिद्यार्थी भी फट से कहता
है कि केमेस्ट्री माने Zn + H2SO4 = ZnSO4 + H2. ई बात का आजमाइस करके भी देखे हम. एकदम सौ टका सही बात. बाद में एगो अऊर बात
हमको अपना तजुर्बा से बुझाया कि सेक्सपियेर साहब का नाम लेने से भी भुसकोल से
भुसकोल बिद्यार्थी कहिये देता है कि ओही ना जे कहे थे कि नाम में का रक्खा है, गुलाब
को कोनो दोसर नाम से भी बोलावोगे त उसका खुसबू ओही रहेगा.
का मालूम केतना सचाई
है सेक्सपियेर साहेब के बात में, लेकिन हमको त नाम के नाम पर गुलजार चचा का ऊ वाला
नज्म याद आ जाता है कि “नाम सोचा ही न था है कि नहीं.” अऊर तनी-मनी आगे बढ़ते
हैं, त याद आता है सिनेमा पंकज परासर का “आसमान से गिरा”. उसमें एगो एलिएन धरती
पर एगो बच्चा से भेंटा जाता है गलती से. ऊ एलिएनवो बच्चा था अपना ग्रह का. धरती का
बच्चा उसको अपना नाम बताता है “कौतुक”, तब ऊ कहता है,”यार! तुम एक नाम की
क़ैद में कैसे रह जाते हो ज़िन्दगी भर? हमारे यहाँ तो सुबह एक नाम होता है, दोपहर
में और.” कास, ऐसने एहाँ भी होने लगता त हम भोर में अमर, दुपहरिया में अमरजीत,
साँझ को अंथोनी अऊर रात तक अहमद बन जाते.
खैर, हम बात कर रहे
थे नाम के बारे में. बास्तव में हमलोग अपना बच्चा का नाम बहुत प्यार से रखते हैं. अऊर
सिनेमा में त हीरो हीरोइन “नन्हा सा गुल” खिलने के पहिलहिं नाम सोच लेता है.
”देखो जी! मैं साफ-साफ
कह देती हूँ कि हमारे बच्चे का नाम मैं रखूँगी!”
”मगर तुम्हें कैसे
पता लड़का होगा कि लड़की!”
”मैंने सोच लिया है,
लड़का हुआ तो शशि और लड़की हुई तो भी शशि!”
”हा हा हा!!”
ई सब बात सिनेमा में
अऊर आज के जमाना में त ठीक है, बाकी हमलोग के पुराना जमाना में लड़िका के जनम के
पहिले नाम रखने का मनाही था. अब ई अन्धबिस्वास हो चाहे जो हो. लोग इसको मानता था
एकदम सीरियसली. मगर मन के ऊपर कोनो कंट्रोल त नहिंए न है, मन में सोचियो लिये, चाहे
बिचार आइये गया, त कोई निकाल नहिंये सकता है.
हमरे बाबू जी मने मन
सोच के रक्खे हुए थे कि दूगो बेटा होगा त ऊ दुन्नो का नाम रखेंगे “अविनाश वर्मा”
अऊर “आशुतोष वर्मा”. पहिलौठी के बच्चा यानि हम पैदा हुए अऊर ई खबर सुनकर हमरे दादा
जी खानदान का अगिला पीढ़ी का पहिला औलाद होने का खुसी में बैजनाथ धाम चले गए. लौटकर
आने के बाद हमरा मुँह देखे अऊर बोले कि हमरा पोता का नाम रखाएगा “सलिल प्रिय”. अब बड़ा
के फैसला के आगे बोलना त ऊ समय में कोई सोचियो नहीं सकता था. असल हमरा ई नाम धराने
के पीछे भी एगो अलगे कहानी था.
हमरे दादाजी की सबसे
बड़ी दीदी, उनसे उमर में बहुत बड़ी थी. हमरे दादा जी भी सोच कर रखे थे कि अपने बेटा
का नाम “सलिल प्रिय” रखेंगे. ऊ थे भी तनी समय से आगे का सोच रखने वाला आदमी. कहते
थे कि नाथ, प्रसाद, कुमार ई सब पुराना लगता है. हम अपने बेटा का नाम में “प्रिय” लगायेंगे.
लेकिन बात त ओही है कि पहिले से सोचा हुआ त होता नहीं है. दादा जी की बड़की दीदी, हमरे
पिता जी के पैदा होने पर बोलीं कि हमरा भतीजा का नाम “शम्भु नाथ” रखाएगा.
अब दादा जी नाम त बदल नहिंए सकते थे, मन मसोस कर रह गये कि ओही “नाथ” वाला नाम
रखाया उनके बेटा का.
जब हमरा दोसरका भाई
पैदा हुआ त पिताजी उसका नाम पहिले से सोचा हुआ, न अबिनास रखे, न आसुतोस. नया
ट्रेण्ड दादा जी सुरू कर दिये थे, त उसका नाम धराया “शशि प्रिय.” फिर त
हमरे खानदान में, अऊर अगिला पीढी तक ओही परम्परा चल गया. बाद में चन्द्र प्रिय,
विश्व प्रिय अऊर बच्चा अनुभव प्रिय, अनुभूति प्रिया अऊर अनुनय प्रिय. बाद में
एगो हमरे रिस्तेदार ऊ दुनो नाम अबिनास अऊर आसुतोस हमरे पिताजी से मांग कर ले गये
अपना दुन्नो बच्चा के लिये.
जब हम नौकरी में आए
त एगो डायरी मिला था नया साल में. उसमें बेक्तिगत बिबरन भर रहे थे त मजाके मजाक
में लिखे
पत्नी का नाम – वेणु
वर्मा
पुत्र का नाम –
किंशुक वर्मा
पुत्री का नाम –
कादम्बिनी वर्मा
ई डायरी लिखला के
सात साल बाद बिआह हुआ त पत्नी वेणु त नहीं, रेणु मिलीं. लेकिन पुत्र/पुत्री
के लिये आठ साल इंतजार. आठ साल के बीच का कहानी त फिर कहियो कहेंगे. लेकिन जबतक
बेटी हमरे जिन्नगी में आई, तब तक हमरे इंतजार अऊर उम्मीद का कादम्बिनी बिना
बरसे हमरे जीवन से जा चुका था. पर्तिच्छा का एतना लम्बा अऊर तकलीफदेह सिलसिला था कि
हम अपना बेटी का नाम रखे “प्रतीक्षा प्रिया”.
"गुलाब को कोनो दोसर नाम से भी बोलावोगे त उसका खुसबू ओही रहेगा. ... "
जवाब देंहटाएंमहाराज आप का नाम "सलिल" न हो कुछों भी होता न ... तो भी हम आपके फैन होते ही होते ... :)
व्यक्तित्व नाम पर हावी होना चाहिए न कि नाम व्यक्तित्व पर ।
जवाब देंहटाएं:-) कमाल है दादा ज़रा सी मिस्टेक हुई(रे की जगह वे )...वरना आप भौजाई की आमद पहले ही भांप गए थे !!
जवाब देंहटाएंऔर आपकी बात सही है...नाम में बहुत कुछ है.....हमारे अम्मा डैडी ने अपने पहले बेटे का नाम कुछ सोच रखा था मगर उनकी पैदाइश के वक्त एक बुज़ुर्ग मारवाड़ी ठेकेदार थे डैडी के,उन्होंने सोने की चेन पहनाकर "विश्वराज' नाम दिया तो भला कौन टाल सकता था :-) फिर उनके पीछे जो हुए वो "दिव्यराज " हुए !!!
सादर
अनु
सच, हर नाम की अपनी कहानी होती है...!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर पोस्ट!
रोचक आलेख !!सच है नाम का व्यक्तित्व पर कोई असर कहाँ पड़ता है ... गुलाब को कोनो दोसर नाम से भी बोलावोगे त उसका खुसबू ओही रहेगा.
जवाब देंहटाएंपता नही शेक्सपियर किस रौ में बह कर ऐसा कह गए वरना नाम में बहुत कुछ होता है बल्कि कभी-कभी तो सब कुछ होजाता है ।
जवाब देंहटाएंयह सही है कि कृतित्त्व से नाम बनता है लेकिन यह भी गलत नही कि नाम से व्यक्तित्त्व प्रभावित होता है । तभी तो बच्चे का नाम रखने के लिये इतने प्रयास होते हैं ।
बच्चे का नाम रखने की बात पर कितनी ही रोचक बातें याद आतीं हैं । शायद हर माता पिता की यही कहानी है । हमारे यहाँ प्रशान्त के पाँच नाम सोचे गए जिनमें तीन नाम अब भी प्रचलित है । उसके चाचा बुआ आदि का अलग , पापा का अलग और उसके गाँव के सहपाठियों का अलग । घर का नाम तो अलग है ही ।
kahani ban gayee ye to......manoranjak.
जवाब देंहटाएंरोचक प्रस्तुति ...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: मजबूरी गाती है.
नाम में ही आत्मा
जवाब देंहटाएंआत्मा से ही नाम
एक नाम से नश्वर शरीर की पहचान
बुज़ुर्गों की सोच का मान
भविष्य का स्वाभिमान
……
नाम की पुकार भी आत्मा से ही होती है
समय बड़ा बलवान
आपकी इस प्रस्तुति को आज की बुलेटिन राज कपूर, शैलेन्द्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंशायद अपने किस्म की पहली पोस्ट है यह , बधाई भाई !!
जवाब देंहटाएंउदय प्रकाश जी ने एक लंबी कहानी लिखी थी ’वॉरेन हेस्टिंग्ज़ का सांढ’ जो कि मेरी बहुत प्रिय कहानी है(प्रिय:)) उसमें हेस्टिंग्ज़ अपने भारत प्रवास के दौरान जिस बात से बहुत हैरान होता है वो ग्वालों के द्वारा अपनी गायों के नाम रखे जाने से और उससे भी ज्यादा इस बात से कि उस नाम से पुकारे जाने पर झुंड के बीच से वही गाय रियेक्ट करती थी जिसका नाम पुकारा जाता था।
जवाब देंहटाएंबाकी तो नाम की महिमा अपरंपार है, बखानी जाने लायक नहीं। इस नाम के चक्कर में एक दाग हमने भी अपनी चादर पर लगवा रखा है, दोबारा मिलेंगे तो किस्सा सुनायेंगे फ़िर देखते हैं कि अपनी रैंकिंग कितना गिरती है:)
पहले नाम रखे जाते थे देवी -देवताओं के नाम पर , ताकि भगवान् का नाम बिसरे नहीं।
जवाब देंहटाएंनाम की महिमा अपरम्पार !
दिलचस्प !
प्रिय उपनाम भी है और उद्देश्य भी।
जवाब देंहटाएंजैसे गुप्त वंश और मौर्य वंश प्रसिद्ध हैं हो सकता है प्रिय वंश भी प्रसिद्ध हो जाए :)
जवाब देंहटाएंऔर आपके इस लेख का एक अंश पढ़ कर मुझे भी थोड़ी दिलासा मिली है. पर बताऊंगा नहीं कौन सा अंश. हो सकता है कि आप खुद ही समझ जाएँ.
गम्भीर बात को बड़ी सरलता से कह देना आपके कथन का अनोखा ढंग वाह भाई जी सचमुच आप सलिल हैं ही
जवाब देंहटाएंतुलसी बाबा ने कहा है कि राम न सकहिं नाम गुण गायी -बढियां नामकरण संस्मरण
जवाब देंहटाएंइन दिनों हम भी अईसे ही एक उलझन में पड़े हैं -नीलेश , नीलमणि, नीलाभ ,नीलवीर ,वीरनील
क्या नाम धरें =पति हैं वीरेश, पत्नी नीलम!
कोई सुझाव ? :-)
पनेरू राम जरुर नींद में रहे होंगे जब कहा होगा कई नाम में कुछ नहीं रखा है ( ऊपर से कही पढ़ रहे होंगे तो अपने लिए ई नाम सुन कर जरुर अपने कहे पर पछता रहे होंगे ) मैंने देखा है कि लोग अपने नाम के या तो बिलकुल विपरीत व्यवहार करते है या बिलकुल वैसा ही इसलिए नाम रखते हुए ये जोड़ घटा लेती हूँ , अब तो नाम में बहुत कुछ रखा है कुछ समय पहले भतीजा हुआ तो नाम रखने के लिए हफ्तो माथा पच्ची करना पड़ा किसी एक नाम पर सहमति के लिए ( जब बुआ और मौसियों हो तो ये तो होना ही था ) अब तो खोज खोज कर अच्छे नाम लाये जाते है , हम तो किसी को भी अपनी बिटिया का नाम बताते है तो तो पलट के एक बार वापस से जरुर लोग पूछते है अच्छा नाम है इसका मतलब क्या है , हमारे घर में हमेसा से इस बात पर सब जोर देते कि कुछ अलग नाम रखो प्रचलित नहीं , कुछ नाम बताती हूँ अरण्या , पयस्वनी , इंद्रजा , निशीथ, कृशांशु , निमेष कई बार लोगो को बोलने में परेशानी होने लगती है । एक सवाल कही आप की बेटी का जन्मदिन तो नहीं है ।
जवाब देंहटाएंभैया ,एही से न आप सर्वप्रिय बन गये हैं ... सादर !
जवाब देंहटाएंमैंने तो आजतक किसी को उसके नाम के अनुरूप व्यवहार करते नहीं देखा.
जवाब देंहटाएंव्यक्तित्व का व्यक्ति के नाम से कोई सम्बन्ध होता है ऐसा मुझे नहीं लगता.
फिर भी नाम, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अहम है ही.
अगर मानिए तो नाम में बहुत कुछ रखा भी है...| इसका सबसे बड़ा सबूत तो दंगों के वक़्त मिलता है जब सामने वाले की पहचान कई बार सिर्फ नाम के जारी करने की कोशिश की जाती है...| (देखी घटना के आधार पर कह रही )...पर ये भी सच है कि अगर आप सलिल चचा न कहलाते, तो भी इतने ही अच्छे होते...:)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट है...दिल से...|
प्रियंका
जरिए *
हटाएंहा हा हा...आनंद दायक।
जवाब देंहटाएंनाम में तो बहुत कुछ रक्खा है ... ये पहचान तो है ही ... अब तो हर नाम के पीछे कुछ न कुछ कहानी भी होने लगी है ... जैसे प्रतीक्षा की कहानी ...
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया आपकी सहज बातचीत में ...
रोचक और मन-रंजक।
जवाब देंहटाएंहो सकता है, किसी और का भी नाम सलिल प्रिय हो लेकिन वह इतना अच्छा नहीं ही लिखता होगा !
चकाचक है जी। शानदार च!
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