इधर दू तीन दिन रोजी रोटी के चक्कर में तनी परेसान रहे, इसी से लिखने का मौका नहीं मिला. जबकि दिमाग में एतना अच्छा अच्छा बिचार आ रहा था कि पूछिए मत. काहे से कि जब पेट में अनाज होता है ना, त दिमाग में एक से एक बिचार आता रहता है. अऊर पेट खाली रहता है त आदमी गुलजार साहब के जईसा चाँदो मे रोटिए देखता है (कान को हाथ लगा लिए हैं), ‘चाँद सी महबूबा हो मेरी’ नहीं देखाई देता है उसको.
हमरा एगो आदत है. जब भी हम कोनो पोस्ट लिखने बईठते हैं त सबसे पहले, पिछलका पोस्ट पढकर, उसका टिप्पणी पढकर बिचार करते हैं. कहीं कोई गलती रह गया, त उसके लिए छमा माँगना भी पड़ सकता है, कोई सुझाव हुआ त उसका पालन भी करना हो सकता है. आज भी लिखने बईठे त श्री मनोज भारती का कमेंट देखकर हमरा बिचार रुक गया.
"जिसे दो जून की रोटी नसीब नहीं होती, वह कैलेंडर से भी वाकिफ़ कहां हो पाता है...फिर इतिहास तो बहुत दूर की बात हो जाती है ...आपने दो जून की रोटी को महत्व दिया और कलैंडर के महीने दिन का सुंदर प्रयोग किया है ...लेकिन जिसके लिए आप बात कर रहें हैं, उसे इसकी कोई खबर नहीं है ...कि कोई बिहारी बाबू उसके लिए इतना सोचते हैं."
हम एक बार सोचे कि अपने कमेंट बॉक्स में, चाहे मनोज भारती जी को कमेंट लिखकर जवाब दें, लेकिन तुरत हमको लगा कि कुछ बात, जवाब देने से छोटा हो जाता है. एकदम सटीक बात कहे हैं मनोज जी.
हर दिन ब्लॉग दुनिया में केतना तरह का बात, आम आदमी अऊर साधारन आदमी के बारे में लिखा जाता है. हम लोग बहुत खोज खोज कर, दिमाग पर जोर डालकर उनका दसा लिखने का कोसिस करते हैं, अऊर लिखते हैं. केतना लोग त बहुत मार्मिक कबिता भी लिख देते हैं. एक आदमी लिखता है, अऊर डेढ़ सौ लोग उसपर कमेंट करते हैं कि एकदम सजीव, मार्मिक. हमहूँ लिखे हैं केतना बार कि करेजा चीर कर रख देता है आपका अभिव्यक्ति. लेकिन सही बात है कि हम लोग के बिचार अऊर प्रतिक्रिया से अनजान, ऊ बेचारा आम आदमी अपना समस्या से जूझता रहता है, उसको त ईहो पता नहीं कि उसके बारे में कोई सोचता भी है.
आम आदमी के समस्या के बारे में भासन देकर कोई बड़ा नेता बन जाता है, लिखकर बुद्धिजीवी पत्रकार बन जाता है, कबिताई करके पद्मश्री पाने वाला कबि बन जाता है, साहित्य लिखकर ज्ञानपीठ पुरस्कार पा जाता है, फिल्म बनाकर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है और हमरे जैसे ब्लॉगर बन जाते हैं. बाकि ऊ बेचारा जो इन सबके बीच होता है, कहीं खो जाता है.
अभी कुछ दिन पहले टीवी पर एगो प्रोग्राम देखाया था ‘लिफ्ट करा दे’. एक आदमी रोड पर काम करके कुछ पैसा कमाता है, अऊर ऊ पैसा को सैकड़ों गुना करके, एगो फिलिम इस्टार आकर लाखों रुपया में बदलकर, सहर का एक बहुत गरीब अऊर जरूरतमंद आदमी को दे देता है. एगो एपिसोड में जॉन अब्राहम आए थे, अऊर केरल की एक मछुआरन को कई लाख रुपया दिए.
भगवान को साक्षी मान कर कहते हैं उस दिन हमरा आँख में आँसू आ गया. ऊ औरत को, जो एतना पईसा जिन्नगी में नहीं देखी थी, अऊर जिसका जिन्नगी बदलने जा रहा था, पईसा मिलने का कोनो खुसी नहीं था. उसके आँख में अपना गरीबी के लिए मिलने वाला लाख रुपया का भीख से जन्मा सरम का आँसू था. जब उसको बोलने के लिए कहा गया त ऊ बोल नहीं सकी. उधर उसका आँख से लोर (आँसू) गिर रहा था, इधर हमरा.उसके बाद हम कभी ऊ प्रोग्राम नहीं देखे.
तकषी शिवशंकर पिल्लै के उपन्यास ‘चेम्मीन’ की मछुआरिन हमरे सामने थी, अऊर हमरे लिए ऊ सीता मईया के समान थी उस समय, जो जमीन में माथा गड़ाए सोच रही थी कि जमीन फटे अऊर ऊ समा जाए उसमें.
मनोज जी अच्छा है कि ऊ लोग हमरा ब्लॉग नहीं पढता है. नहीं त सिकायत करता कि
एक सहंसाह ने बनवा के हसीं ताज महल
हम गरीबों के मोहब्बत का उड़ाया है मजाक.
श्री मनोज भारती का पिछला टिप्पणी से प्रेरित होकर लिखा हुआ पोस्ट...
जवाब देंहटाएंइस सम्मान के लिए धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंगरीब कहां-कहां और किन-किन लोगों की सफलता (अगर हम कहें तो)का सहारा बनता है ।
आपने सही बात कहा चाचा...
जवाब देंहटाएंवो प्रोग्राम हम देखें हैं एक-दू एपिसोड...
बिलकुल वो लोग शिकायत करता है अगर की
"एक सहंसाह ने बनवा के हसीं ताज महल
हम गरीबों के मोहब्बत का उड़ाया है मजाक."
तो कोई गलत बात नहीं होती...
लोग न जाने कितनों पर कवितायेँ लिखते हैं, गरीबी पर...भुखमरी पर लेकिन उन लोगों की हालात तो अभी भी वैसी ही है...
हम एक प्रोग्राम देखें थे सलमान खान आया था उस प्रोग्राम में..नाम था "तेरे मेरे बीच में"..इसमें भी सलमान खान ने एक आदमी को कुछ लाख रुपये दिए थे...उस दिन हमारे आँख में भी आंसू आ गया था ...
प्रकाश झा की "राजनीति" फिल्म देखी जिसमे नसीरुद्दीन शाह ने एक डायलोग बोला है " ये पेट की मारी जानता है एक रोटी का लालच दे दीजिये दो मीठे वादे कर दीजिये ये किसी भी रंग का झंडा उठा लेगी " सही ही कहा है लोग अपने-अपने फायदे के लिए इस गरीब जानता की गरीबी का इस्तेमाल कर रहे है कोई वोट के लिए तो कोई कुर्सी के लिए ..................पर असल में इस जानता की सोचने वाले बहुत कम है !..........
जवाब देंहटाएंसलिल भाई! मनोज भाई की बात को सुन्दर विस्तार दिया है आपने.
जवाब देंहटाएंदरअसल, आम आदमी अपनी रोज़ी रोटी की ज़रुरत पूरी करने की कोशिश में हलकान है. आम आदमी की ज़रुरत उसका जल, जंगल और ज़मीन; खास आदमी की सम्पदां विकसित करने में उपयोग हो जाती है. अब खास आदमी को ही सोचना होगा...आम आदमी के बारे में...
सलील जी आपका बलाग देख के मजे आ गया ...
जवाब देंहटाएंसलिल भाई , बहुत बढ़िया लिखा है आपने और आपके मन की बात हम तक पहुँची भी है ............बस इतना कह सकता हूँ कि भले ही हम लोग एक आम आदमी के लिए कुछ कर नहीं सकते पर यह क्या कम है कि हम कुछ एक लोगों कि तरह बिपाशा और मल्लिका के अंतर्वस्त्रो के बारे में नहीं लिखते |
जवाब देंहटाएंवैसे यह भी वही बात ही है कि .............." दिल के खुश रखने को ग़ालिब यह ख्याल अच्छा है | "
जमीनी मुद्दा जमीन पर ही पड़ा रहता है...!
जवाब देंहटाएंहम लोग यहाँ लिख पढ़ कर सिर्फ अपने भावनाओं के वजन को हल्का कर रहे हैं.
Bihari babu, bada mudde ki baat pakarte hain aap.........achcha lagta hai!!
जवाब देंहटाएंsachche kahte hain.........wo yaad hai na "nemla ke bahu, sabke bhaojai'
kuchh waisan hi hai.......garib garib karte hain, aur bas bhul jaate hain.......
lekin koi nahi din dur nahi......:)
बिहारी बाबू
जवाब देंहटाएंहमरा नमस्कार !
बहुत गंभीर अऊर बहुत बढ़िया लिखे हो ।
हमरे ब्लॉग की इज़्ज़त भी बढ़ाए हो , तोहार धन्नवाद !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
बहुत अच्छा लिखा है ... ज्वलंत मुद्दे को अपने प्रभावशाली अंदाज़ में उठाया है ...
जवाब देंहटाएंन ऊ गरीब हमार-तोहार ब्लॉग पढ़त है , न हमारे ब्लोग्बाजी से उह्का कौनो भला होत है , उह्के अगर कौनो चिंता है तो बस दो जून की रोटी की |
जवाब देंहटाएंएगौ और चीज इहाँ अच्छी लगी - " कुछ बात, जवाब देने से छोटा हो जाता है."(ई बहुत अच्छी बात है बशर्ते महामौन मनमोहन जी ई बात पर कौनो शायरी ना मार दें )
सादर