सोमवार, 21 जून 2010

बाबू लोहा सिंह - एक याद!!

(इस्तुती पांडे के अनुरोध पर; यादों के गलियारे से, एक मील  का पत्थर)

आकासबानी पटना से एगो प्रोग्राम होता था “चौपाल”. ई देहाती प्रोग्राम था. इसमें एगो मुखिया जी थे, जो हिंदी में बात करते थे, उनके अलावा बुद्धन भाई भोजपुरी में, बटुक भाई मैथिली में और गौरी बहिन मगही में. फॉर्मेट अईसा था कि बिहार का सारा भासा उसमें आ जाए. इसी में सुकरवार को बच्चा लोग का प्रोग्राम होता था हिंदी में “घरौंदा”.
लेकिन चौपाल कार्यक्रम का सबसे बड़का आकर्सन था भोजपुरी धारावाहिक नाटक “लोहा सिंह”. ई नाटक बिबिध भारती के हवा महल में होने वाला धारावहिक “मुंशी एतवारी लाल” के जईसा था. लोहा सिंह, एक रिटायर फौज के हवलदार थे, जिनके पास फौज का सारा कहानी काबुल का मोर्चा पर उनका पोस्टिंग के दौरान हुआ था.
लोहा सिंह के परिवार में, उनके साथ लगे रहते थे एगो पंडित जी, जिनको लोहा बाबू फाटक बाबा कहते थे, नाम त उनका पाठक बाबा रहा होगा. उनकी पत्नी जिनका असली नाम कोई नहींजानता था, काहे कि लोहा बाबू उनको खदेरन का मदर कहकर बुलाते थे. इससे एतना त अंदाजा लगिए गया होगा आप लोग को कि उनका बेटा का नाम खदेरन था. खदेरन के मदर के साथ उनकी सहेली अऊर घर का काम करने वाली एगो औरत थी भगजोगनी. एगो करेक्टर त भुलाइये गए, लोहा सिंह का साला बुलाकी. घर में सब लोग भोजपुरी भासा में बतियाता था, लेकिन लोहा सिंह हिंदी में बात करते थे. ई पोस्ट हम जऊन हिंदी में लिखते हैं,बस एही भासा था बाबूलोहा सिंह का.
ई धारावहिक का सबसे बड़ा खूबी एही था कि ई समाज में प्यार, भाईचारा अऊर मेलजोल का संदेस देता था. हर एपिसोड, गाँव में कोनो न कोनो समस्या लेकर सुरू होता था, अऊर अंत में लोहा सिंह जी के अकलमंदी से सब समस्या हल, दोसी पकड़ा जाता. ई सीरियल का सबसे बड़ा खासियत था उनका बोली. एही बोली से बिहार का सब्द्कोस में केतना नया सब्द आया. फाटक बाबा, मेमिन माने अंगरेज मेम, बेलमुंड यानि मुंडा हुआ माथा, बिल्डिंग माने खून बहना ( ऐसा फैट मारे हम उसको कि नाक से बिल्डिंग होखने लगा), घिरनई माने घिरनी ... अऊर बहुत कुछ.
हर नाटक का अन्त उनका ई डायलाग से होता था , देखिए फाटक बाबा, फलनवा का बेटी को अच्छा बर भी दिला दिए, ऊ दहेज का लालची को जेल भेजवा दिए, अऊर गाँव का बेटी को सब घर परिवार का सराप (श्राप) से मुक्ति दिला दिए. इसपर फाटक बाबा कहते कि को नहीं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो. अऊर नाटक खतम.
उनका एगो सम्बाद आजो हमरे दिमाग में ताजा है, जइसे कल्हे सुने हैं:
“जानते हैं फाटक बाबा! एक हाली काबुल का मोर्चा पर, हमरा पास एगो बाबर्ची सिकायत लेकर आया. उसका पट्टीदारी में कोई मू गया था इसलिए ऊ माथा मूड़ाए हुए था. हमको बोला – बाबू लोहा सिंह, बताइए त, आपका होते हुए कर्नैल हमरा माथा पर रोज तबला बजाता रहता है. हम बोले कि हम बतियाएंगे. हम जाकर करनैल को बोले कि उसका घर में मौत हो गया है, अऊर आप उसका बेलमुंड पर घिरनई जईसा तबला ठोंकते हैं. ई ठीक बात नहीं है. करनैल बोला कि ठीक है, हम नहीं करेंगे. जानते हैं फाटक बाबा, जब ई बात हम ऊ बाबर्ची को बताए त का बोला. ऊ बोला कि ठीक है बाबूसाहब ऊ तबला नहीं बजाएगा त हम भी उसका मेमिन का नहाने का बाद जो टब में पानी बच जाता है, उससे चाह बनाकर नहीं पिलाएंगे उसको.”
ई नाटक के लेखक अऊर लोहा सिंह थे श्री रामेश्वर सिंह कश्यप, अऊर खदेरन को मदर थीं श्रीमती शांति देवी. कश्यप जी पहले पटना के बी.एन. कॉलेज में हिंदी के प्रोफेसर थे, बाद में जैन कॉलेज आरा के प्रिंसिपल बने.
लम्बे चौड़े आदमी, नाटक में कडक आवाज, लेकिन असल जिन्नगी में बहुत मोलायम बात करने वाले. एक दिन पुष्पा दी के ऑफिस में आए और बैठ गए. हम बगले में बैठे थे.
पुष्पा दी पूछीं, “चाह (चाय) पीजिएगा, मंगवाऊं?”
कश्यप जी बोले, “आपकी चाह छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए.”
आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ई लोग अपने आप में इस्कूल थे. कोई ट्रेनिंग नहीं, लेकिन अदाकारी देखकर कोई बताइए नहीं सकता है कि केतना गहराई है. बहुत कुछ सीखे हैं इन लोगों से, तब्बे एतना तफसील से चार दसक बाद भी लिख पा रहे हैं. अईसा लोग मरते नहीं हैं.
ईश्वर उनके आत्मा को शांति दे!!
एगो बात त छूटिये गया:
खदेरन का मदर का तकिया  कलाम था "मार बढ़नी रे" और फाटक बाबा का था "जे बा से बीच के बगल में".
 

17 टिप्‍पणियां:

  1. * आपने 'लोहा सिंह'नाटक की याद दिलाकर स्मतियों के गलियारे में पहुँचा दिया। हमारे स्कूल में इसका कोई न न कोई अंश हर साल खेला जाता जाता था और इसके डायलाग्स विद्यार्थियों की जुबान पर होते थे। लाईब्रेरी में इसकी जबरदस्त डिमांड रहती थी। अब यह उपलब्ध है या नहीं , मुझे जानकारी नहीं। आपको कुछ खर हो तो जानकारी देने का कष्ट करेंगे।

    ** दरअसल 'लोहा सिंह' नामक इस नाटक ने हमारी पीढ़ी को भाषा को एक संस्कार दिया था, एक ऐसा संस्कार जो अपने ठेठ अंदाज पर गर्व करता था। तब वह एम्ब्रेसिंग जैसा कुछ अपने साथ लेकर नहीं आता था। यह नाटक एक तरह से बदलते हुए भोजपुर्या समाज का आईना था , समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक टूल।

    ----एक उम्दा पोस्ट।

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  2. हमें भी कुछ कुछ याद ताजा करा गया. बढ़िया.

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  3. Bihari Babu.........ketna pyare dhand se aap apna baat rakhte hain, sach me aapke passs ye god gifted hai, kahani sabke passs hota hai, lekin usko batane ka tarika to aapse seekhe......upar se ye bhasha......lagta hai jaise apne ghar ke pichhware me apne purane saathiyon ke saath batiya rahe hain...........dhanywad sir!!

    rahi baat, mere blog pe abhar prakat karne kee.......to ye jarurat hai ka.......:D
    waise wo bhi kar denge sir...:)
    naraj nahi hoiyega.........

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  4. हमें भी कुछ कुछ याद ताजा करा गया. बढ़िया

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  5. अच्छे व्यक्ति चित्र खींचे है आपने, अपनी यादों के सफ़र से। सबसे अनूठी और रसीली होती है आपकी भाषा ओर बात को पेश करने का ढंग!

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  6. आपका पोस्ट पढ़ कर दिमाग में घंटा बज गया...हम को याद आ गया लोहा सिंह....हम कालेज में ऊ का नक़ल किया करते थे...आप तो हमें हमारी जवानी का दिन याद करा दिए हैं...भाई वाह...
    नीरज

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  7. आ गए चाचा, आ गए! :) सुबह पढ़े थे, लेकिन ऑफिस आना था इसलिए कमेन्ट नहीं लिख पाए. बहुत धन्यवाद इसको लिखने के लिए. पापा बताते हैं की रामेश्वर सिंह हमलोग के घर आया करते थे, पापा के फूफाजी सासाराम में पोस्टेड थे, उन्ही से बहुत मित्रता थी और पापा वहां रह कर पढते थे.
    लोहा सिंह के नाटक का डाइलोग बहुत मजा आता है सुन के. कभी कभी मेरे पापा मम्मी को खदेरन की मदर बोलते थे. :D

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  8. इस रेडियो-नाटक से निकला एक और तकियाकलाम खूब चला था..
    वह था " रऊआ के बूझीं ", इसको नाटक की पात्र.. दुर अभी यादै नहिं आ रहा है, मार बढ़नी के..

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  9. वाह, बाबूजी
    आपने सबकी यादें ताज़ा करा दी लेकिन मुझे तो कुछ याद ही नहीं आया .........क्योकि में इन सभी चीजों से वंचित रह गई !!!!!!!
    कितनी प्यारी यादें है आपके पास !!!!!!!!!

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  10. आप की लेखनी को प्रणाम साथ में आप के भीतर के कलाकार को भी ...साहब अब तक कहाँ छीपे बैठे थे ?

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  11. @manoj bharti:
    एहीं पर थे मनोज बाबू, कहीं छिपे नहीं थे... बस पेट, पईसा अऊर पोस्टिंग के बोझ से दब गए थे.

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  12. बिहारी चाचा, बहुते सुनर लिखे हैं आप। पुरनका समय में जब टीवी दुरलभ चीज था तब रेडियो ही समाचार से लेकर मनोरंजन का सबसे सुलभ वाहक था।
    बहुत झकास लिखे हैं....

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  13. हा हा ई स्तुति के डिमांड पे था का ;) ;) मस्त

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  14. आज पता चला कि ये शब्द कहाँ से आये हैं , बहुत अच्छी |
    उन अमर कलाकारों के लिए -
    "आनंद मरा नहीं , आनंद मरते नहीं |"

    सादर

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