शनिवार, 18 सितंबर 2010

लाइट ले यार!!

ई तेरह का पहाड़ा अच्छा खासा आदमी का बेइज्जती करने के लिए काफी है. अपना बचवो अगर आकर पूछ लेता है कि “थर्टीन एट्ज़ आर” केतना होता है, त मन पहिले त उसका अनुबाद करता है, तब समझता है कि बचवा तेरह अठे केतना होता है, ई पूछ रहा है. मगर असल परेसानी इसके बाद सुरू होता है, जब पता चलता है कि पहाड़ा ससुर तेरह का है. तब सब बाप ‘कौन बनेगा करोड़पति’ का बिज्ञापन वाला बाप के जईसा उल्टा सीधा जवाब देने लगता है, नहीं त मुँह लुकाने लगता है.

मगर चार साल शारजाह में रहने के बाद देख लिए कि एक से एक अनपढ हिंदुस्तानी (बहुत बड़ा आबादी है कम पढा लिखा अऊर अनपढ लोग का ओहाँ) को भी अऊर कुछ आवे चाहे नहीं आवे, तेरह का पहाड़ा कण्ठस्थ रहता है. एक कप चाय पियेगा कोनो कैफेटेरिआ में, पचास फिल्स (यू.ए.ई. का 100 फिल्स एक दिरहम के बराबर होता है) का, अऊर मने मन पहाड़ा पढेगा, तेरह पंजे पैंसठ माने साढे छः रुपया का चाय, 10 दिरहम का सामान खरीदेगा त सोचेगा एक सौ तीस रुपया का सामान हो गया. अब समझ में आया तेरह का पहाड़ा का चक्कर. दरसल वहाँ का एक दिरहम भारत का तेरह रुपया के बराबर होता था उस समय.

ओहाँ आम हिंदुस्तानी कमाता तो दिरहम में है, मगर खर्चा करते समय तेरह का पहाड़ा पढकर रुपया में खर्चा का हिसाब करता है अऊर मन ही मन बहुत दुखी होता है कि बहुत खर्चा हो गया. ओहाँ पर काफी बड़ा तबका मजदूर लोग का या साधारन काम करने वाला का है. एही में से कोई तनी बेसी पढा लिखा आदमी, जो बाकी लोग से अच्छा ओहदा पर होता है अऊर तनी बेसी कमाता है, अपने को बाकी से सुपीरियर बुझता है. उसका चेहरा पर एगो अजीब तरह का चमक अऊर घमंड देखाई देगा. बात बात में पइसा को लात मारेगा, मगर मने मन तेरह का पहाड़ा जरूर पढेगा. हो सका त दू तीन लाइन अंगरेजी हर बात में बोलता हुआ देखाई देगा अऊर सकल से बहुत बिजी नजर आएगा.

जुमा यानि सुकरवार का दिन हमरे लिए बहुत बिजी दिन होता था. उस दिन पूरा यू.ए.ई. में छुट्टी, मगर हमरे लिए कोई छुट्टी नहीं, उल्टे सब दिन से जादा काम. बहुत भीड़ ऑफिस में अऊर लोग का ताँता, जईसे सावन में भोले नाथ पर जल ढरा रहा है.

ऑफिस में हमरा सामने से पूरा हॉल का दृश्य देखाई देता था. मगर हमरे पास समय कहाँ कि हम देख सकें. काम के साथ साथ लोग का सिकायत, नमस्कार अऊर प्रनाम सुनते हुए भी हमरा माथा झुकले रहता था. एक रोज ओही भीड़ में लाइन के बीच से एगो आदमी का मोबाइल बजा. हमको उसके आवाज से कोनो डिस्त्टर्बेंस नहीं हुआ, बल्कि ऊ बतियाने वाले का बात सुनकर हँसी आया अऊर ध्यान भी चला गया उसपर. ऊ किसीको बोल रहा था, “अभी हम थोड़ा देरीमें बात करेंगे. अभी हम ट्रैफिक जाम में फँसे हैं.” ऊ ई बात एतना जोर से बोला कि हमरा ध्यान उसके तरफ चला गया. हमहूँ सोचे कि बताओ तो ई आदमी केतना चिल्लाकर झूठ बोल रहा है. हमको तनी हँसी भी आया, उसके तरफ देखे अऊर काम में लग गए.

ऊ आदमी कैसियर के पास पइसा जमा किया. हमरे पास आया त उसका कागज पर दस्तख़त कर दिए अऊर ऊ चला गया. भीड़ भाड़ ओइसहीं चल रहा था. देखे का कि आधा घंटा के अंदर ऊ आदमी हमरे सामने फिर प्रकट हो गया. हम पूछे, “क्या बात है?”

“सर! मेरा मोबाइल कहीं छूटा है यहाँ?”

“अभी तो थोड़ी देर पहले आप किसी को बता रहे थे कि आप ट्रैफिक में फँसे हैं. और उसके बाद आपने मोबाइल अपने बगल में खड़े अपने दोस्त के पॉकेट में रखा था. पूछकर देखिए अपने दोस्त से.”

“दोस्त?? मैं तो अकेला आया था यहाँ.”

“ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन आपकी बात सुनकर जब मैंने आपकी तरफ देखा था तो आपको बात ख़तम करके अपना फोन, बगल वाले अदमी की जेब में रखते हुए देखा था मैंने.”

ऊ अदमी माथा पीट रहा था अपना, बगल में खड़ा लोग हँस रहा था उसका बेकूफ़ी पर अऊर हम मने मन सोच रहे थे कि ई आदमी के आँख पर पैसा का कइसा पट्टी बँधा है कि इसको ई भी देखाई नहीं दे रहा था कि ऊ मोबाइल फोन दोसरा आदमी के जेब में डाल रहा है! मनसिक सम्बेदना के साथ साथ, भौतिक सम्बेदना भी समाप्त कि अपना छुवन भी नहीं पता चला!! जावेद अख़्तर का एगो शेर याद आ गया

गिन गिन के सिक्के,हाथ मेरा खुरदुरा हुआ
जाती रही वो लम्स की नरमी, बुरा हुआ.
                                            (लम्सःस्पर्श)

खाना खाने के टाइम अगर अंधेरा हो जाए त हाथ का खाना मुँह के जगह नाक में त नहिंए जाता है, मगर अहंकार का अंधकार में आदमी को अपना हाथ से अपना मोबाइल रखने के लिए अपना पॉकिट का भी पता नहीं चलता है !!

हम त कुछ भी सांत्वना नहीं दे पाए उसको. बस एतने कह सके, “ अरे! कौन सी बड़ी चीज़ थी, दूसरी ले लेना,फिलहाल तो लाइट ले यार!!”


41 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ज़बरदस्त बात कहे हैं आज तो ...

    मनसिक सम्बेदना के साथ साथ, भौतिक सम्बेदना भी समाप्त कि अपना छुवन भी नहीं पता चला!! जावेद अख़्तर का एगो शेर याद आ गया

    गिन गिन के सिक्के,हाथ मेरा खुरदुरा हुआ
    जाती रही वो लम्स की नर्मी, बुरा हुआ..

    कहाँ चली गयी हैं संवेदनाएं ..

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  2. तो सलिल बाबू शारजाह रिर्टन हैं। मजा आया पढ़कर आपका यह संस्‍मरण । हम भी आजकल दुबई में हैं। अरे भैया चौंकिए मत हम भोपाल वालों के लिए तो बंगलौर भी दुबई ही है।

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  3. रउर लेख में एगो मनोरंजन के साथे साथ सीख देबे के तरीका बहुत ही
    काबिले तारीफ ह, इहे शैली हमरा बहुत पसंद बा.

    दीपू सिंह

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  4. राजेश उत्साही जी की कसम, इस बात पर हमें भी निदा फाज़ली जी का एगो शेर याद आ गया :

    रस्ते को भी दोष दे, आंखे भी कर लाल!
    और चप्पल में जो कील है, पहले उसे निकाल!!

    जय हो सलिल बाबा !!!

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  5. ऐ! गुरूजी .... हमके तनी माफ़ करिहा..... हमरे लगे टाइमवे का बहोते सारटेज है... अऊर उहे वजहे से हम आपके ब्लॉग पर दस्तक नहीं दे पा रहे हैं.... पर इ हम वादा करता हूँ.... की जईसे ही टाइमवा मिलता है .... हम आपके पोस्टवे पर जरुर आता हूँ... अऊर आज का पोस्ट मा त बहुते मजेदार संस्मरण है.... अब बताइए न.... केतना बीजी रहा होगा उ ... के आपन मोबाइल दूसर के जेब मा डाल दीस रहा... उ त बढ़िया भईल के पईस्वा नईखे डललस.... माजा आ गईल इ संस्मरण मा ....

    हमरा परनाम स्वीकारें....

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  6. सलिल भाई, बढ़िया पोस्ट रही यह भी ....और सच कहू तो जरूरी भी थी माहौल को थोडा लाइट करने के लिए !
    सार्थक लेखन के लिए बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

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  7. हा-हा-हा , यह भी एकदम मजेदार और मनोरंजक व्यथा-कथा रही, सलिल जी , अच्छा था की वह मोबाईल था , पर्श नहीं रहा ! वैसे बाई दी वे वह बन्दा कहा का था ? :)

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  8. बहुत ही मजेदार किस्सा है सलिल जी !!! जावेद साहब का शेर भी बेशकिमती है ।

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  9. अराऊंड द वर्ल्ड और इनसाईड द मैन का सफ़र मजेदार रहा। वैसे बंदा गलत तो नहीं कर रहा था, ’ट्रैफ़िक जाम’ में ही तो फ़ंसा था।

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  10. बाहर रह कर एक्सचेन्ज रेट से गुणा भाग करते रहने में गणित बहुत अच्छी हो जाती है। लाभ भी तो बहुत है।

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  11. वाह! बहुत ही सुन्दर, शानदार और मज़ेदार किस्सा रहा ! बेहतरीन प्रस्तुती!

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  12. सलिल जी, एक दोस्त के बेटे का किस्सा याद आ गया...जब वो छोटा था तो बांये हाथ की अंगुली पर थूक लगाता था मगर किताब का पन्ना दांये हाथ की अंगुली से पलटता था.... पोस्ट काफी मजेदार लगी!

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  13. सलिल साहब बहुत मजेदार लगल ई किस्सा । साथ में ई सीख भी । वैसे जमाना कुछ ज्यादा टेंशन वाला हो गया ई बात बहुत काम की है।

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  14. अहंकार के अंधकार में लाइट (ला) ले यार ... बहुत बढिया लगा आपका ई सन्समरन। हम सब केतना अनमना सा जिनगी जी रहे हैं।

    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

    फ़ुरसत में … हिन्दी दिवस कुछ तू-तू मैं-मैं, कुछ मन की बातें और दो क्षणिकाएं, मनोज कुमार, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  15. पहाड़ा तो हम आज भी हिन्दी में गिनते हैं फिर जबाब भले अंग्रेजी में बोलें...:) मास्साब की बेंत भी याद कर लेते हैं तो पहाड़ा में गल्ती नहीं होता.

    वैसे भी तो हम हिन्दुस्तानी सोचते तो हिन्दी में ही हैं चाहे बोलें कोई भाषा...


    बहुत रोचक विषय लिया है.

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  16. लाईट लेना ही पड़ेगा ...जब सब संवेदनाएं हों तो भी , नहीं हो तो भी ...!

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  17. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं

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  18. खाना खाने के टाइम अगर अंधेरा हो जाए त हाथ का खाना मुँह के जगह नाक में त नहिंए जाता है, मगर अहंकार का अंधकार में आदमी को अपना हाथ से अपना मोबाइल रखने के लिए अपना पॉकिट का भी पता नहीं चलता है !!

    सच में...संवेदनायें कम हो गयी हैं...

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  19. BHAIYA
    bahut dino ke baad tumhari ye prastuti padhkar vini ko rona nahi aaya.....

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  20. paise se tumhara taatparya nishchay hi usi se hoga jise log kahte hath ka mail hai par is mail ko log sahej kar rakhna chahte hai, ise paane k liye kuchh v karne ko taiyar rahte hai, aur mauka mile to doosre ke mail ko apna banane ki koshish v karne se nahi hichakte hai. neeraj ki pankti,"paise ki pehchan yaha isaan ki keemat koi nahi, bach ke nikal ja is basti se karta muhabbat koi nahi."

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  21. हम त सोचबे नहीं किये थे कि लाइन में आगे लगने का ई फ़ायदा भी हो सकता है. यहाँ त हर कुछ देर पर अपना जेब देखना पड़ता है कि कोई मोबाइल मार त नहीं लिया.कुच्छे दिन पहिले,कन्सटीचुशन क्लब में,एन सी पी की बैठक में,कोई शरद पवार के पास बैठे एक बड़का नेता का मोबाइल गोल कर दिया.अब आराम से कहीं बतिया रहा होगा.

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  22. सही कहें हैं आप .... तेरा का पहाड़ा बहुत दीनो बाद छूटता है दुबई / शारजाह आने के बाद .... पर ई शूकर है हमारा जुम्मा और शनिवार अधिकतर खाली ही रहता है और तभी हम ब्लॉग जगत से भी दूर रहते हैं .... बहुत अच्छा लगा आपका संस्मरण ...

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  23. हा हा हा बहुत कमाल का आदमी था जरूर मेरे जैसा लापरवाह होगा। लेकिन खाना खाते हुये ध्यान रखती हूँ। बहुत मजेदार पोस्ट है।बधाई

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  24. अभी हाल में ही किसी ने किस्सा सुनाया कि मुंबई लोकल में यात्रा करते हुए भीड़ में उन्होंने अपना मोबाइल किसी दूसरे की जेब में रख दिया...और फिर उन्हें नहीं मिला...हमें विश्वास करना मुश्किल लग रहा था...पर आपकी पोस्ट पढ़ कर तो लगता है, यह सच में हो सकता है.

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  25. उफ्फ्फ मेरी मंद बुद्धि आपकी क्लिष्ट बिहारी भाषा नहीं समझ पाती. लेकिन जितना समझ आया पढ़ कर अच्छा लगा.

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  26. आपकी पोस्ट पढ़ने में मुश्किल तो होती है पर मजा आ जाता है :)
    बढ़िया किस्से.

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  27. ये कमोबेश उन सब इंसानों का है जो हर बात में पैसा देखते हैं गिनते हैं परेशान रहते हैं .माना के पैसा फ़िज़ूल खर्ची में नहीं उदाना चाहिए किफ़ायत से इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन सारा ध्यान सिर्फ पैसे में ही लगा रहे ये भी सही नहीं...
    अमिताभ का एक फिल्म आया था निशब्द आप देखे या नहीं पाता लेकिन उसका हिरोइन जो अठारह साल का बच्ची है हमेशा उनको कहती थी 'टेक ईट लाईट' हम ऊका वो बात गाँठ बाँध लिए...तब से टेंशन नाम की बिमारी कोसों दूर भाग गयी...

    आप साधारण सी घटना को कितना रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं ये आपके असाधारण लेखन का प्रमाण है...

    नीरज

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  28. सर ये हाल दुबई मे ही नही.. अप्नी दिल्ली, पट्ना.. मुम्बई मे भी है... पैसा की पट्टी आन्खो पर चढी हुइ है.. टेसन ही टेन्सन है चारो तरफ़... रोचक सन्स्मरण... आपके पास किस्सगोइ की अद्भुत कला है..

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  29. आज फेर फेरा लगा लिए। मतलब पढे। मज़ा आ गया। आपका लिखा हुआ बार-बार पढने को मन करता है।बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!

    और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  30. कौन कौन सी बात उठाकर इसमें से कोट करें ?????

    एक एक शब्द और बाक्य का पागुर कर रहे हैं.....
    आनंदम आनंदम !!!

    अब तो आते रहेंगे...

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  31. सलिल काका जी...... काका जी चलेगा न...
    शुरूआत से ही समां बांध दिया.... यही हालत हमार होत था। काहे कि हमऊं हिन्दी भाषी रहे और हिन्दी में ही पढ़ाई की है। जब आस-पडोस का बच्चे आते थे पढऩे के लिए तो मन में यही चलता रहता था जो आपने लिखा....... अंत में तो हमें हंसी आई। चाहे इस बात पर हमारी निंदा करे कोई कि एक व्यक्ति की परेशानी पढ़कर हम हंसे। लेकिन वो भी तो कमाल ही किया। अपना फोन दूसरे की जेब में सरका के चल दिया।

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  32. बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं

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  33. जो जहाँ तन-मन से लगा हो..

    ...पैसे का लोभी ही नहीं खोजी भी भुलक्कड़ होता है।
    एक वैज्ञानिक के बारे में सुना था कि वे जब बारिश से भीग कर घर आते थे तो खुद कोने मे खड़े हो जाते थे और अपना छाता सोफे पर रख देते थे!
    ..तीन दिन से हम भी अपना चश्मा ढूँढ रहे हैं और वही पुराने टुटहे चश्मे से काम चला रहे हैं!
    ...कोहू काहू मे मगन, कोहू काहू में मगन।

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  34. ध्यान से देखिये देवेंदर जी, कहीं चस्मा लगाकर चस्मा त नहीं खोज रहे हैं न!!

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  35. बहुते बढिया लिखे हैं।
    पढकर मज़ा आ गया और आपको बधाई भी।

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