गुरुवार, 30 सितंबर 2010

ग़ज़ल

आदरणीय सुभाष राय जी  साखी पर जो सम्मान दिए, उसका अंजाम इ हो गया है की हम भी ग़ज़ल लिखने लग गए. असल में एगो परिचर्चा में ऐसा बाते निकल गया कि ग़ज़ल बन गया. पुराना लोग कहते हैं कि ग़ज़ल गुफ्तगू का दोसरा रूप है. 
एही से पहिले आदरणीय तिलक राज कपूर जी एगो ग़ज़ल लिख दिए. अब हम उनका पदचिह्न पर चलकर एहां तक पहुंचे हैं. देखिये का होता है अंजाम: 

ख़ुश्क हैं आँसू, वो अब रोता नहीं .
दर्द क्यों इन्साँ को अब होता नहीं.

तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
हम नहीं जाते, हमें  न्यौता नहीं.

सिर पकड़ होरी है बैठा खेत में,
है धरा बंजर, उसे जोता नहीं.

जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
फूटता कविता का अब सोता नहीं.

हर तरफ उगने लगे हैं अब बबूल
आम मीठे कोई अब बोता नहीं.

काला धन, काली कमाई, उजले तन
हाथ का यह मैल, वह धोता नहीं.

चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं.

अब 'सलिल' सम्वेदना के स्वर कहाँ
धमनियों में रक्त भी होता नहीं.

55 टिप्‍पणियां:

  1. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं

    कमाल के हरफन मौला हो यार, मुझे ग़ज़ल की समझ नहीं है मगर जितना भी पढ़ा है उस हिसाब से यह वाकई किसी मशहूर शायर की रचना से कम नहीं !
    हार्दिक शुभकामनायें !

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  2. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.

    Waise to harek lafz gazab hai,lekin ye panktiyan bahut bha gayin!

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  3. चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
    फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं.
    Ye panktiyan bhi behad pasand aayin!

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  4. are wah harfan moula .............ek se bad kar ek sher......
    filhaal KAWWALEE ACCHEE LAGEE..........
    :)

    HASEE aa rahee to haso....sehat ke liye acchee hai

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  5. Priy bhai Salil, Jindagee badee hairatkhej hai. kabhee-kabhee jinko ham naheen janate hain, unse itana apanapan milata hai ki use batorana mushkil ho jaataa hai. sakhi kee is chhoti see yaatra ne mujhe kai aise mitr diye jin par mujhe naaj hai. aap bhee unmen se ek ho. itanee sadhee hui baten koi rachanakar hee kar sakata hai, yah to main bahut pahale he jaan gayaa tha. par aaj us jaanane kee pushti bhee ho gayee, aap kee yah gajal padhkar. main taareef karake us apnatv ko kam naheen karana chahata hoon. bas ek sher jodataa hoon--
    salil hon, rajesh hon, sanjeeb hon
    dost jiske, bheed men khota naheen

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  6. @सुभाष रायः
    आप पारखी हैं...आपकी बातें आशीष हैं मेरे लिए!! बस स्नेहाशीष बनाएँ रखें..
    सलिल

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  7. काला धन, काली कमाई, उजले तन
    हाथ का यह मैल, वह धोता नहीं.

    -धार बनी है..कुछ गज़लें और फटाफट निकाल दिजिये..आनन्द आ जायेगा.

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  8. सिर पकड़ होरी है बैठा खेत में,
    है धरा बंजर, उसे जोता नहीं.

    हर तरफ उगने लगे हैं अब बबूल
    आम मीठे कोई अब बोता नहीं.

    काला धन, काली कमाई, उजले तन
    हाथ का यह मैल, वह धोता नहीं.


    अब 'सलिल' सम्वेदना के स्वर कहाँ
    धमनियों में रक्त भी होता नहीं..

    वाह ..आज तो गज़ब ही लिख दिए हैं ...हर शेर सवा सेर है ...बहुत खूब .

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  9. कैसे सोच ले पढ़ कर आपकी ग़ज़ल,
    'बिहारी' में हुनर ये होता नहीं...

    बहुत खूब...उम्दा.. जारी रखिये ...

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  10. अब तो पूरा का पूरा ब्लोगिया ही गये हैं तो ऊपर का हेड़िंगवा बदल ना दीजिए। काहे को कि अब तो आप हु को मजा आने लगा है ई मुसरवा का खेल में :-)

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  11. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं
    गज़ब ...
    एक एक शेर बस बब्बर शेर है.कमाल है बस कमाल है.

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  12. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक,
    हम नहीं जाते हमें न्योता नहीं।

    छद्म और पाखंडयुक्त धार्मिकता पर करारा व्यंग्य है इन पंक्तियों में
    ...वाह बहुत खूब।

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  13. वाह सलिल भाई वाह ..... बेहद उम्दा भावो से भरी हुयी है आपकी यह रचना ! बहुत खूब !

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  14. सलिल भाई, ग़ज़ल हमने भी पढ़ ली और गजब है। शिल्‍प का मुझे पता नहीं,पर बात तो भेदती है। एक तो मैं भी बहुत दिनों से यह कहना चाह रहा था कि अब आप अपने नाम में परिवर्तन कर ही लीजिए। चला बिहारी ब्‍लागर बनने अब जमता नहीं है। अब तो आप बन ही गए हैं।
    दूसरी बात आपके माध्‍यम से ही सुभाष भाई को यह कहना चाहता हूं कि कम से कम मुझे उन्‍होंने साखी के माध्‍यम से एक नई पहचान दी है यहां ब्‍लाग की दुनिया में । और आप और संजीव भाई जैसे मित्रों से लगातार हौसला और समर्थन मिलता है।
    तो आपकी,संजीव भाई और अपनी तरफ से सुभाष भाई को कहना चाहता हूं उनकी उंगली पकड़कर हम लोग चल रहे हैं भीड़ में। तो हमारे खोने का अब सवाल नहीं है,फिर वे कैसे खो सकते हैं।
    आपकी ग़ज़ल के ये दो शेर बहुत ही मारक और धारक हैं-

    तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.

    चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
    फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं.

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  15. सिर पकड़ होरी है बैठा खेत में,
    है धरा बंजर, उसे जोता नहीं.


    इस शेर में थोड़ी दिक्‍कत मुझे लगी। पहली बात तो कि अगर धरा बंजर है तो फिर वह खेत नहीं हो सकती है। अगर पहले खेत थी और अब बंजर हो गई है तो फिर दूसरी पंक्ति में हुई धरा ठीक लगता है। (वजन की बात आप जानो।)

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  16. kyaa baat hai sir!!!!!! bhut hi ,,,,bahut hi sundar aur bhavanaao ko sanjoye huye vichar hai aap ke
    dhanyvad

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  17. आपने अपनी िस ग़ज़ल के माध्यम से आजके समय को लेकर कुछ जरूरी सवाल खड़े किए हैं। विगत कुछेक दशकों में हमारा समय जितना बदला है उसकी चिंता आपकी ग़ज़ल में बहुत ही प्रमुख रूप में दिखाई देती है। हमने इस बदले समय में जिस तरह से अपनी पुरानी समृतियों को पोंछ डाला है, वह आपकी ग़ज़ल में चिंता का विषय है। एक ओर जहाँ उत्पीडन, शोषण, अनाचार और अत्याचार जैसी सामाजिक विसंगतियों के प्रति ध्यान आकृष्ट किया गया है तो दूसरी ओर मानवीय संवेदना, ममत्त्व, दया, कारुण्य भाव, जनहित तथा श्रृँगार-परक भावना एवं अपनत्व के ह्रास पर चिंता अत्यधिक प्रखर है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    मध्यकालीन भारत - धार्मिक सहनशीलता का काल, पढिए!

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  18. इतना दमदार लिख गये, वह भी उकसाने पर। एक नियमित व्यक्ति लगा दिया जाये फिर तो उकसाने में।

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  19. कभी हम भी आप जितना ही सुन्दर लिख सकें, ऐसा कोशिश करेंगे चचा जी...

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  20. @ राजेश उत्साहीः
    बड़े भाई दोसरा बात सही है..पहिले खेत था अब धरा रह गया है,इस्लिए सिर पर हाथ धरा देख रहा है कि सब धरा का धरा रह गया अऊर ऊ देखते रह गया..

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  21. @ प्रवीण पाण्डेः
    24x7x365 लगे हैं लोग उकसाने वाले...

    @ अभिः
    हम आसिर्बाद दे रहे हैं..अभी अभी हमरी छोटकी बेटी (उमर तीन साल)हमको तीन सेर सुनाई है फोन पर,ऊ भी मुनव्वर राना का...कोसिस करो,दिल से लिखो बस सब कहा हुआ ग़ज़ल हो जाएगा!!

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  22. मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि कोई ब्‍लॉगर बिहारी बनने चला है या कोई बिहारी ब्‍लॉगर बनने चला है। भारी क्‍न्‍फ़्यूज़न है। शायद कन्‍फ़्यूशियस को पढ़ने से ऐसा ही होता है।
    बिहार का इतिहास ब्‍लॉग से अधिक समृद्ध है, और अखिल भारतीय सेवाओं में सबसे अधिक उपस्थिति की भी यही स्थिति है। ज्ञान का भंडार रहा है और आज भी है। हॉं ज़मीन से जुड़ा होना इसकी खासियत है और वही आपकी ग़ज़ल में भी आ गयी।

    मुझे अनुमान नहीं है कि आप ग़ज़ल में कितना दखल रखते हैं लेकिन ग़ज़ल में कहन के महत्‍व पर आपकी पकड़ स्‍पष्‍ट है और इसे आपकी प्रारंभिक ग़ज़ल कोई नहीं मानेगा।
    वज्‍़न पालन का प्रयास तो आपने गंभीरता से किया ही है ('फ़ायलातुन, फ़ायलातुन, फ़ायलुन' या 2122, 2122, 212) जहॉं तक आंशिक समझौते की उपस्थिति का प्रश्‍न है वह असामान्‍य नहीं है।
    इस काफि़या में न्‍यौता पर आपत्ति का खतरा बना हुआ है।
    बाकी नवजात की कुँडली कवि गिरधर की कुँडलि जैसी है, भविष्‍य उज्‍जवल है।
    कोई धृष्‍टता हुई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।

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  23. संजीदा व्यक्ति अपने आसपास के प्रति भी संवेदनशील होता है। देखे-भोगे के प्रति कवि-हृदय की कचोट इन पंक्तियों में साफ झलकती है।

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  24. अब 'सलिल' सम्वेदना के स्वर कहाँ
    धमनियों में रक्त भी होता नहीं.

    आघात गहरा है कि धमनियों में बहने वाला खून भी पानी हो गया है ।

    कल ही हमने आपसे सम्वेदना के स्वर पर अन्य विधाओं में लिखने का आग्रह किया और आज एक नई विधा में आपने रचना प्रस्तुत कर दी । बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है ।

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  25. @तिलक राज जी,
    आपका आगमन एक बादेनसीम की तरह है और आपकी बातें प्रसाद के जैसी.. वाक़ई गज़ल पर कोई दखल नहीं मेरा (लोग इसे मॉडेस्टी समझते हैं)... न्यौता ख़ुद मुझे ही खटक रहा था, लेकिन तख़य्युल की मीज़ान पर तोला तो सोचा आँखें बंद कर लूँ... शुक्रिया हौसला अफ़ज़ाई का!!

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  26. भैया आपको मैं कैसे भूल सकता हूँ अक्सर ये होता है कि अपनों को हम नज़रअंदाज करने लगते हैं ज़रूरत ही महसूस नहीं होती अपनापन जताने की, कुछ ऐसा ही हुआ है यहाँ भी, फिर भी माफ़ी चाहता हूँ कुछ व्यस्तता के कारण नहीं आ पाया, बाकी ग़ज़ल तो बेहतरीन लिखी है आपने!

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  27. Salil sir
    ab hum ka kaheen...hanumaan ji ke bhi bal yaade dilawe ke pade...raur ta shaayri ke hanuman ji ho gayeeleen...hehe..
    Aur ka dhakad ghazal ba..maza aa gayil...bas ekke baat kahe ke ha uho raure andaj me..

    Sach dikhaya aaj ka, dil ro pada
    Yun to patthar hai kabhi rota nahi..

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  28. इत्ती इत्ती तारीफ हो गई है कि अब कुछ कहने को बचा ही नहीं है मेरे पास। अइसा करते हैं कि सबकी तारीफ के शब्द बटोर कर उन्हें अपना कहकर आपको भेंट कर देता हूं।

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  29. हम कोई पारखी नहीं है गज़ाल वगैरह के, इतना जानते भर हैं कि जो दिल को छू ले, वो अच्छी लगती है। बहुत खूबसूरत क्याल हैं, अपनी पसंद का छांट लिये हैं उसमे से,
    चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
    फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं
    बहुत अच्छा लगा पढ़कर। धन्यवाद।

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  30. कविता हुयी बाँझ कवि रहा सोता -इसी गजल की प्रेरणा से ! सोता में श्लेष ढूँढने का आमंत्रण ! :)

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  31. @पंडितअरविंद मिश्र जीः
    श्लेष तो खोज लिए हैं..आप के चिरपरिचित अंदाज में है. चर्चा फिर कभी,आभार अभी!
    @स्वप्निलः :)
    @रोहित बाबूः एतना बहुत है.
    @संजय जीः असली वाला छाँट लिए आप.

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  32. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.

    भले ही काफिया दुरूस्त न हो लेकिन हमें तो यही पसन्द है। इस न्यौते का जवाब नहींं वाह! और ये षेर

    जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
    फूटता कविता का अब सोता नहीं.

    बहुत अच्छा है
    और ये
    चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
    फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं

    वाह!वाह!

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  33. क्या खूब शेर कहें हैं! दाद देनी पड़ेगी आपके कलाम की!! भगवान करे गजल का सोता यूँ ही फूटता रहे, सिक्कों का जाम हमारे हिस्से में आ जाये!!!

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  34. तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.

    ab isse jiyada kya kahen

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  35. सोचता हूं मौन भी समझते हो सलिल तुम
    मुह्ब्बते-ए-इज़हार, अब हमसे बार-बार होता नहीं।
    - चैतन्य

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  36. कृप्या मुह्ब्बते-ए-इज़हार,को इज़हार-ए-मुहब्बत पढें।
    सलिल भाई करेक्श्न इसलिये कि आप फिर कहेंगे कि :

    मयकदे में बैठ कर लिख रहे हो कैसे नशे में हो ?
    क्या "साखी" से डर लगता नहीं ।

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  37. शुष्क हैं आँसू, वो अब रोता नहीं .
    दर्द क्यों इन्साँ को अब होता नहीं.

    वाह, वाह,वाह, वाह क्या बात है सलिल जी दिल खुश हुआ , भगवन करे इस सुसंगति का असर आप पर हमेसा बना रहे ! बहुत गजब !

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  38. जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
    फूटता कविता का अब सोता नहीं.

    भाई साहब , आज मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि बिहारी बाबू अब पक्के ब्लोगर बन गए है !

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  39. वाह जी ये क्या कमाल कर दिया..
    गद्य से पद्य लाजवाब कर दिया.

    :)

    बधाई.

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  40. बोले तो बिन्दास बिहारी बाबू यहाँ जितनी भी तारीफ हुयी बस ये समझ लीजिये कि मैने ही की है। आपकी गज़ल उस्तादाना है मतला ही क्या कमाल का है और शेर एक से बढ कर एक
    जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
    फूटता कविता का अब सोता नहीं.
    बिलकुल सही बात है।
    चाँद सी कहता रहा हरदम तुझे
    फूल कहता, तो तुझे खोता नहीं
    वाह वाह क्या बात है। सभी शेर बहुत अच्छे हैं। बधाई आपको।

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  41. सलिल भाई...वो कलम कहाँ है जिससे आपने ये गज़ल लिखी...चूमने को जी कर रहा है...जियो मेरे भाई...बेहद खूबसूरत लफ्ज़ और उतने ही खूबसूरत ज़ज्बात पिरोये हैं आपने अपनी गज़ल में...लंबी रेस के घोड़े हो मित्र...दूर तक जाओगे...इसमें संदेह हमें होता नहीं...:))

    नीरज

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  42. ग़ज़ल पर कुछ कहना मेरे बस में तो नहीं...पर हर शेर बहुत पसंद आया ये जरुर कहूँगा...

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  43. ग़ज़ल के व्याकरण से तो मैं परिचित नहीं लेकिन बातें मुझे अच्छी लगी.. हर शेर उम्दा और बात नयी लिए हुए... खास तौर पर... ये दो शेर...
    " जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
    फूटता कविता का अब सोता नहीं."
    और
    " सिर पकड़ होरी है बैठा खेत में,
    है धरा बंजर, उसे जोता नहीं. "

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  44. सलिल जी .... पता नही कैसे ई ग़ज़ल हम से छूट गयी ..... बहुत ग़लती हो गया ... नही तो आपके इस अंदाज़ से बेख़बर रह जाते ..... भाई आपने तो कमाल किया है ... बिल्कुल बहर, लय औट शब्दों का खूबसूरत मंथन किया है ... और नये, मौलिक विचार लिखे हैं ..... ये दोनो शेर बहुत पसंद आए .... अब आगे और भी ग़ज़लें मिलेंगी बस इसी बात की आशा और विश्वास है ...

    तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.


    जाम कर रक्खा है सिक्कों ने दिमाग़
    फूटता कविता का अब सोता नहीं.

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  45. आज 'पहिलकी' बार आया हूँ आपके ब्लॉग पर, मज़ा आ गया! अब बार-बार आऊँगा। हुज़ूर... आप अपनी Email ID देने की कृपा करें, यदि एतराज़ न हो।

    मेरी Email ID है jjauharpoet@gmail.com

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  46. आपकी पहली गजल पढ़ी , बहुत सुन्दर लिखी है |
    एक लाइन विशेष रूप से दोहराना चाहूँगा -
    तीर्थ चारों धाम के तुमको मुबारक
    हम नहीं जाते, हमें न्यौता नहीं.

    सादर

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