अभी हफ्ता दस दिन पहले दिल्ली में हमरे इस्कूल का अलुम्नाई मीट था. अचानक फोन पर निमंत्रन पाकर हम हक्का बक्का रह गये. ई सोचकर कि एतना दिन के बाद केतना पुराना लोग से मुलाकात होगा, मन में अजीब तरह का धुकधुकी होने लगा. ऊ सब बिछड़ा हुआ दोस्त लोग का चेहरा, बस ओहीं पर फ्रीज हो गया था दिमाग में, जहाँ से हम लोग अलग हुए. अपना खुद का उमर एतना हो जाने के बाद भी ऊ दोस्त लोग को हम बचपने के जैसा चेहरा में देख रहे थे. लग रहा था कि हम बुजुर्ग हो गये हैं अऊर हमरा दोस्त सब अभी भी ओही चौदह पंदरह साल का है.
जब पहुँचे तो देखे कि हमसे भी सीनियर लोग आए हुए थे. एकदम भावुक कर देने वाला मौका था. एक बार फिर से ओहीं मंच पर 1965 से लेकर 1990 के बीच का पूरा जमाना गुजर गया. हमको डॉ. राही मासूम रज़ा का बात याद आ गया कि यादें बादलों की तरह हल्की फुल्की चीज़ नहीं होतीं कि आहिस्ता से गुज़र जाएँ, यादें एक पूरा ज़माना होती हैं और ज़माना कभी हल्का नहीं होता. पूरा चौथाई सताब्दि का समय हमारे सामने था और उसको फिर से जीते हुये, सब लोग एतना एक्साइटेड था कि पूछिये मत. इस्कूल, हेडमास्टर साहब, सिच्छक लोग, छुट्टी, सोर सराबा, हल्ला हंगामा, नल का पानी, खेल का मैदान, इस्कूल से भागकर मैच देखना अऊर सिनेमा देखना, सिच्छक का नकल करना… सब कुछ एतना सहजता से लोग बोल रहे थे कि जईसे बस कल्हे परसों का बात हो. दूगो बात गौर करने वाला था. पहिला कि हमरा इस्कूल सहसिच्छा वाला इस्कूल नहीं था, इसलिये कोई भी आदमी अपना पहिला पहिला प्यार का चर्चा नहीं किया, अऊर दोसरा बात कि लगभग हर आदमी सिच्छक का तारीफ के साथ साथ, उनसे पिटाई का बर्नन भी बहुत मन लगाकर किया. किसी के मन में कोनो मलाल नहीं था कि ऊ फलाना मास्टर से पिटाया था. लोग हँस हँसकर पिटाई का कहानी सुना रहे थे.
आजकल तो इस्कूल में पिटाई होने पर बात मीडिया अऊर अदालत तक पहुँच जाता है. हमारे टाइम में ऐसा नहीं होता था. उस समय में सजा एगो लड़का को मिलता था लेकिन पूरा क्लास काँपने लगता था. सजा का मतलब एगो बच्चा को उसके गलती का एहसास दिलाना नहीं, पूरा क्लास को उस तरह का गलती नहीं करने देने का माहौल बनाना होता था. एक बच्चा को क्लास के सामने मुर्गा बनाने पर बाकी सब को लगता था कि अगर हम गलती करेंगे तो हमको भी एही बेइज्जती झेलना पड़ेगा. इसलिये एक बार बदमासी करने के पहले, सौ बार सजा के बारे में सोचता था. क्लास के सामने मुर्गा बनना, बेंच पर खड़ा हो जाना, क्लास से बाहर निकलकर खड़ा किया जाना, हाथ पर छड़ी से पिटाई होना.. ई सब सजा इसलिये कि गलती दोहराया नहीं जाए अऊर दूसरा कोई भी उसको दोहराने का कोसिस नहीं करे.
संजुक्त अरब अमीरात में सारजाह का मुख्य चौराहा रोला एस्क्वायर... जिसको समुद्र के किनारे से जोड़ने वाला सड़क बैंक स्ट्रीट कहलाता है. इसके दूनो तरफ दुनिया भर का तमाम बैंक का साखा है. रास्ता के बीच में सारजाह का पुराना किला है,जिसको अरबी में अल हिस्न कहते हैं. आजकल उसको म्युजियम बना दिया गया है. किला के बाहर खूब चौरस चबूतरा बना हुआ है जिसमें किला के दरवाजा पर तोप रखा हुआ है. हमारे घर के ठीक सामने होने के कारन एकदम साफ देखाई देता था किला. लेकिन एक बात पर हमको बहुत आस्चर्ज होता था कि किला के ठीक सामने चबूतरा पर एगो ऊँचा सा लकड़ी का खम्बा बना हुआ था. पुराना खम्बा, किला के रेसम का चादर पर टाट के पैबंद जईसा नजर आता था. हम उसको रोज देखते थे अऊर रोज सोचते थे कि जब सबकुछ नया हो गया था तो इसको काहे नहीं हटा दिया गया वहाँ से. अऊर ई है का चीज जो एकदम किला के दरवाजा के सामने बना हुआ है.
एक दिन ऊ म्यूजियम के अंदर घूमने चले गये, तब भेद खुला. बास्तव में ऊ मजबूत लकड़ी का खम्बा अपराधी को सजा देने के काम में आता था. ओही खम्बा में बाँधकर अपराधी को कोड़ा लगाया जाता था. किला के बाहर, खुला मैदान में, आने जाने वाला सब लोग के सामने, ताकि पूरा परजा देखे कि अपराध करने का सजा का होता है अऊर इसमें केतना तकलीफ होता है. अपराधी अपराध दोहरा नहीं पाए अऊर दोसरा कोई अपराध करने का हिम्मत नहीं जुटा पाए.
अपना देस में रोज नया घोटाला एतना आसानी से होता रहता है कि पूछिये मत. कारन खाली एतना कि भ्रस्ट अधिकारी को पता है कि उसको सजा तो होने वाला नहीं है. आराम से माल अंदर किये जाओ. कोई खून करके आराम से घूमता रहता है, कोई गबन करके.
कुतुब मीनार के अहाता में एगो लोहा का खम्बा बना हुआ है. कहावत है कि इसके साथ पीठ सटाकर अगर कोई पीछे के तरफ अपना दोनों हाथ से ऊ खम्बा को जकड़ लेता है, तो उसका मन का कोई भी इच्छा पूरा हो सकता है. अब तो बंद कर दिया गया है अईसा करना. आज जरूरत है उस खम्बा को इण्डिया गेट के पास लगाने का, जहाँ जनपथ राजपथ से मिलता है. अऊर देस का तमाम घोटाला में लिप्त अधिकारी अऊर नेता को ओही खम्बा से बाँधकर कोड़ा लगाने का. मगर बिकट समस्या एही है कि जबतक अपराध साबित नहीं हो जाए, मुजरिम मुल्जिम कहलाता है और मुल्जिम सम्मानित ब्यक्ति होता है. मुल्जिम को तो इण्डिया गेट के सामने खम्बा से बाँधकर कोड़ा लगाना सम्भब नहीं. आफ्टर ऑल देस में प्रजातंत्र जो है!! और कानून भी कहता है कि सौ अपराधी भले छूट जाएँ, कोनो निरपराध को सजा नहीं होना चाहिये!
bhawbhini yadon ke saath-saath achchi jankaree bhi dete hain jise padhne men bahut anand aata hai.
जवाब देंहटाएंदाऊ… !
जवाब देंहटाएंअसल में "राज-पथ" तो "जन-पथ" से शायद कभी मिलता ही नहीं … ! और रही कोड़े लगाने की बात तो जब कातिल और मुन्सिफ़ एक ही थैली के हों तो भला…………।
स्कूल के दिन भी क्या दिन होते हैं ना दाऊ…… एक सिल्वर स्क्रीन स चलने लगा आँखों के सामने!
लेकिन जो पापी ना हो वो पहला पत्थर मारे..........
जवाब देंहटाएंशुरुआत तो स्कूल के रियूनियन से की...हमें लगा....ढेर सारी खट्टी-मीठी यादों का ज़खीरा मिलेगा, पढ़ने को {सहशिक्षा वाला स्कूल होता तो शर्तिया मिलता :)}
जवाब देंहटाएंपर बात आपने बड़ी गंभीर कर डाली....सच,ये भ्रष्टाचार का तूफ़ान तो देश की नैया ले डूबेगा
स्कूल के रीयूनियन से शुरू होकर कहानी सजा और खम्भे तक पहुँच गई और बहुत कुछ कह भी गई.रही बात राजपथ से जनपथ मिलने की ..तो वो न आजतक मिले है न कभी मिलेंगे.
जवाब देंहटाएंसरेआम सज़ा? ताकि लोग अपराध से डरें, मोसकिल लगता है।
जवाब देंहटाएंराजपथ का जनपथ से मिलता होगा, समानान्तर चल नहीं सकता।
सजा देने वाले जब अपराधी हों तो न्याय होना मुश्किल लगता है।
@ राधारमण जीः
जवाब देंहटाएंजो पापी न हो वह पहला पत्थर मारे के एलान पर आज हर कोई तैयार हो जाता है मारने को, क्योंकि उसे साबित जो करना है कि वो पापी नहीं!
आप भी सलिल भाई किन की बात कर बैठे ... आपकी बातें सुन कर हम भी अपनी स्कूल की यादो में बह रहे थे ... कि आपने फिर कहानी घुमा दी ... यह भी कोई बात हुयी भला !?
जवाब देंहटाएंसलिल जी, यह संतुलन बनाना आसान कहाँ है? व्यक्तिगत रूप से मैं उस व्यवस्था को पसन्द करूंगा जहाँ किसी निर्दोष को सज़ा न हो मगर साथ ही यह प्रयास भी होना चाहिये कि पुलिस, अदालत, वकील आदि के निकम्मेपन की वजह से दोषियों का "बाइज़्ज़त" बरी हो जाना (या कभी हाथ ही न आना) एक अपवाद हो न कि रोज़-रोज़ का रुटीन। अगर हम अपने दिल साफ रख पायें तो अदालत और सज़ा की ज़रूरत ही न रहे!
जवाब देंहटाएंकुतुबमीनार धन्य हो जायेगी तब।
जवाब देंहटाएंअब तो ये है कि बेगुनाह को अपनी बेगुनाही साबित करने में पूरा जीवन निकल जाता है , जबकि गुनहगार सीना तान कर कहता है ’साबित करके दिखावो’,और पूरा जीवन निकल जाता है ।
जवाब देंहटाएंsachche me bade bhaiya...iss baar aap gadamgad kar gaye, lagta hai jaldi me the ka..:P
जवाब देंहटाएंdu go post ko ekke me kar diya...!
almunie meet ko alge na rakhte....:) waise agar wo qutub minar wala loha india gate pe aa jata to bhrast logo ke badle, waise choro ko peeta jata jo apni bhookh ke karan, 2-4 rs. ka chori karte hain...Raja fir bhi bach jata bhaiay....yahi apna tathakathit prajatantra hai..:(
इस व्यवस्था में बहुत कुछ कमजोरियां हैं और शायद किसी भी न्यायप्रणाली को तर्क संगत बनाने के लिये समयानुसार उसमें बदलाव होना चाहिये.
जवाब देंहटाएंरामराम.
कोई नया गणित्ग्य ही आये जो समानान्तर रेखाओं को एक करने का फार्मूला ईज़ाद करे तभी रज पथ और जन पथ एक होंगे और जिस दिन दोनो एक हो गये तो कोडे लगाने की जरूरत नही पडेगी। इस पोस्ट से स्क्ल के दिनो की याद करवा दी जबध्यापक और बच्चों मे एक प्रेम और आदर का भाव था तब डंडे खा कर भी मलाल नही होता था। लेकिन आज सब कुछ बदल गया है। क्या आपको नही लगता कि जरा स डर भी जरूरी है? मगर किसे समझायें। बहुत अच्छा संस्मरण। बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रजातंत्र है ...प्रजा को लूटने का तंत्र ! शुभकामनायें अच्छी सोंच के लिए !
जवाब देंहटाएंऔर अपराध कभी साबित नही होता, अपराधी मर जाता है
जवाब देंहटाएंजी हाँ लोकतंत्र कहाँ है हमारे देश में? प्रजातंत्र का मतलब ही हुआ की कोई राजा भी है तभी जनता प्रजा होगी और राजा वही होगा जिसमें राज छिपे होंगे.अब सुधार के लिए पहले विनाश का इन्तजार करिए.विनाश के खंडहर पर पुनर्निर्माण की पताका फहराने हेतु तैयार रहिये.
जवाब देंहटाएंaapke post ..... kuch assume karne nahi deta .....
जवाब देंहटाएंbakiya satish bhaijee se purntaya sahmat....
pranam.
का जुलुम ढा दिए। हम त नौसटलजिया गए। स्कूल में ऐसा घुसे कि उससे बाहर निकलने में एक घंटा लग गया जब नेक्स्ट पीरियड का घंटी बजा।
जवाब देंहटाएंयाद आया जब हाल्फ़ पैंट पहिन के स्कूल जाते थे, और हमरे मास्टर साहेब हमको छड़ी से जांघ के निच्चा बाला हिस्सा पर छड़ी से छड़िया रहे थे। ऊ भी काहे, कि हमको गणित में ९५ नम्बर ही क्यों आया, १०० क्यों नहीं आया। एगो साध्य नहीं लिखे थे। ऊ मार के बाद जे ऊ दिन घर लौटे त हॉल एण्ड स्टीवेन्सन का बहत्तरो साध्य रटिए के दम लिए अउर ओकरा बाद फेर कभी ९९ नम्बर नहीं आया।
अउर ऊ जे लोहा बाला खम्भा का बात किए त एगो बात हम हू बताइए दें। जब हम पहिला बार ओकरा देखने गए त हमको बताया गया कि उसको वही पीछे हाथ करके पकर सकता है तो सत्यवादी हो। और सुनने में आया कि गांधी बाबा को छोड़कर आज तक कोई पकरिए नहीं पाया!
अउर एगो बात बता दें, ऊ मास्टर साहेब को हम आज भी अपना गुरु जी मानते हैं। गुरु गोविन्द दोऊ कह्ड़े का के लागूं पाए, बाला गुरुजी।
जवाब देंहटाएंआज मास्टर छरी मारेगा त बच्चा कॉलर करेगा। है न?
और आपका इस लेख का जो अगिलका भाग है, जनपथ-अउर राजपथ बाला नाटक जो आप देखाए हैं, उसके बारे में एक्के गो बात कहना है,
जवाब देंहटाएंसिर्फ दो किरदार नाटक में हमारे बच गये
भूख से बदहाल हैं ये, वो नशे में चूर हैं।
शिक्षक और छात्र के बीच के संबंधों ने नव इतिहास रचे हैं आज .......ज़माना ऐसे ही चलता है ....वर्तमान कब हमें संतुष्ट कर पाया है......?
जवाब देंहटाएंअपराध के प्रति भय समाप्त हो गया है अब ........अधिकारियों को पता है कि उन्हें सजा नहीं मिलने वाली .......शासकीय कार्यों में इतनी उदासीनता इसीलिये है .......सजा का प्रावधान होना चाहिए .....इसके लिए कुछ करना होगा सलिल भाई !
अनुराग जी की टिप्पणी से शत प्रतिशत सहमत।
जवाब देंहटाएं@स्मार्ट इण्डियन/अविनाशः
जवाब देंहटाएंयही इस लेख का छिपा व्यंग्य है.. हमारी विधि व्यवस्था ने उस एक लाईन को पकड़कर पता नहीं कितने अपराधी छोड़ दिये.. और अब अपराध समाज का एक अभिन्न अंग बन गया है!!
चचाजी,
जवाब देंहटाएंआज आपका आलेखो कनिक हट के है इसीलिए हम भी कुछ अलग ही कहना चाहते हैं. कौनो परसंग मिल जाए तो वाह-वाह कीजियेगा नहीं तो जय रामजी की!
"उजालों में स्याही मिल रही है !
ये कैसी बेपनाही मिल रही है !!
बहुत कमजर्फ साबित हो रही है,
समंदर से तबाही मिल रही है !
वही कातिल है, हम सब जानते हैं,
कहाँ कोई गवाही मिल रही है ?
तेरा इल्जाम बेबुनियाद निकला,
यहाँ उसकी बेगुनाही मिल रही है !!"
@करण समस्तीपुरीः
जवाब देंहटाएंई तो सवा सेर हो गया करन बाबू! हमरे लेख के ओजन में आपका दूगो सेर "वही क़ातिल है" और "तेरा इल्ज़ाम" त पसेरी साबित हो रहा है!! जुग जुग जिय बबुआ!!
@ आज जरूरत है उस खम्बा को इण्डिया गेट के पास लगाने का, जहाँ जनपथ राजपथ से मिलता है। अऊर देस का तमाम घोटाला में लिप्त अधिकारी अऊर नेता को ओही खम्बा से बाँधकर कोड़ा लगाने का।
जवाब देंहटाएंआपकी और हम सबकी मनोकामना पूर्ण हो।
बेहतरीन... कटाक्ष.
जवाब देंहटाएंखम्बा केवल इंडिया गेट पर लगाने से काम नहीं चलेगा। हर शहर में ऐसा एक खम्बा लगाना पड़ेगा। पर लगाएगा कौन यही सवाल तो सबसे बड़ा है।
जवाब देंहटाएंसलिल भैया, रहस्यमयी हमें बताया था आपने, हैं आप खुद। हम तो पहचान गये हैं अब। पहले आपकी पोस्ट को परीक्षापत्र की मानिंद पढ़ते हैं, ऊपर से नीचे तक, फ़िर दोबारा पढ़ते हैं और वैसे ही पसीना पसीना हो जाते हैं जैसे परीक्षा-पत्र हल करने में हो जाते थे। यहाँ यह तय करना होता है कि पोस्ट को किस कैटेगरी में रखा जाये, संस्मरण, व्यंग्य, सामाजिक या राजनैतिक सरोकार से संबंधित वगैरह वगैरह और आखिर में 'all of these' मानना ही सही लगता है।
जवाब देंहटाएंमेरी राय में तो यह निरपराध को सजा न मिले वाला सिद्धांत भी और बहुत से सरकारी सिद्धांतों की तरह जानबूझकर छोड़ा गया वो लैकूना है, जो for, of & by influential ones है।
हम, आप, नेता हैं तो सब एक जैसे, लेकिन धन्य हैं नेतागण, जो आगे आकर हम-आपकी भड़ास झेलते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंमीठी यादो के साथ आज की भ्रष्ट व्यवस्था का दर्द |
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट |
आखिर का पैरा तो गजब का रहा। लोह स्तम्भ को इंडिया गेट पर लगाने की ही जरूरत है। मैं राजेश उत्साही जी से भी सहमत हूं कि ऐसा एक खंबा हर शहर में लगाने की जरूरत है। फिलवक्त तो भारत में स्थिति बहुत ही खराब हैं। सब जानते हैं फलां अपराधी है फिर भी हमारे कथित बुद्धिजीवि उन्हें पाक साफ साबित करने के लिए पूरी की पूरी दवात उड़ेल देते हैं।
जवाब देंहटाएंपहले शिक्षकों का भी अभिभावकों सा ही दर्जा था इसलिए उनकी मारपीट को बुरा नहीं माना जाता था ...अब स्थितियां बदल गयी है
जवाब देंहटाएंभ्रष्टाचार एक नासूर बन गया है, मगर व्यवस्था में बने रहने के लिए लोगों की मजबूरी भी ...!
तब के बच्चो और आज के बच्चो की सोच और उनके सन्वेदनशील होने में जमीन आसमान का फर्क है मेरी तो चार साल की बेटी भी मार पड़ने को लेकर काफी संवेदनशील है | हम भी अपने पुराने मित्रो से मिलना चाहते है पर ये जानते है की संभव नहीं है क्या करे सरकारी स्कुल में जो पढ़े है वह ये संभव नहीं है | चौराहे पर पिटा किसे जाये जब मुजरिम साबित हो तब न जो समय पर फैसला हो जाये और भ्रष्टाचारी को कानून में दर्ज सजा ही मिल जाये तो ऐसी तालिबानी सजा देने की आवश्यकता ही न रहे बाकि अपने आप ही सुधर जायेंगे |
जवाब देंहटाएंअपने बचपन के स्कूल में तो मैं भी जाता हूं....बल्कि हफ्ते में एक दिन जाना पड़ता है क्योंकि मेरे बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ते हैं जिस स्कूल में कभी मैं पढ़ा था :)
जवाब देंहटाएंकुछ शिक्षक तो ऐसे हैं जिन्होंने कि मुझे तो पढ़ाया ही, अब मेरे बच्चों को भी पढ़ा रहे हैं :)
यादें अब भी मेरी वहीं से जुड़ी हैं, पैरेंट्स मीटिंग के दिन जब स्कूल जाता हूं तो उस कोने अतरे को, उन स्कूली बेंच कुर्सियों को देखकर जरूर याद करता हूं कि यहीं पर मैं बैठा था एक दिन और मार खाया था, इसी क्लास के बाहर निकाल कर दरवाजे के पास हम लोगों को खड़ा किया गया था ( शरारत के कारण :)
sahi hai dadu.....bolkul sahi hai....saza to aise hi milni chahiye....taaqi agli baar koi himmat na kar sake.....!!
जवाब देंहटाएंसर जी... परनाम....
जवाब देंहटाएंबहुते अच्छी लगी आपकी इहे पोस्ट... अभिन त हम आया हूँ ... अब पूरी छूटी पोस्ट पढूंगा....
हम फिर आता हूँ ...
राम राम...
स्कूल से बात शुरू कर कहाँ घोटालों पर और सज़ा पर खत्म की है ...इस बार मेरठ जाना हुआ तो अपने कॉलेज भी गयी थी ..३६ साल बाद भी लग रहा थ की अभी तो पढ़ती थी इस कॉलेज में ...बहुत सी यादें ताज़ा हो गयीं ...पुराना स्टाफ तो नहीं थ पर हॉस्टल की वार्डेन अभी भी थीं ....न जाने कितनी बातें चंद लम्हों में याद कर लीं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सी समस्याओं के जड़ में लगातार बढ़ रही जनसंख्या है। सामर्थ्य से बड़ा कुनबा होगा तो व्यवस्था चरमरा ही जायेगी। व्यवस्था के चौपट होने से सभी निरंकुश हो जाते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत्ते दिन के बाद आये इधर.. उसके लिए छमा.
जवाब देंहटाएंसजा का बहुत पुराना इतिहास है....और कई थो तो धरोहर के रूप में रखा हुआ है..अजिसा अकी आप लिखिए दिए हैं....फोटो में बच्चा के हाथ में फट्ठा पड़ रहा है.... बेचारा लगता है टास्क नहीं किया है....
हमको बहुत दर लगता था इसलिए हम टास्क जरूर करते थे...
प्रणाम
आपने हमें भी शारजाह की याद करा दी ... अब तो हम भी पिछले ५ सालों से इस जगह नहीं गए ...
जवाब देंहटाएंबातों ही बातों में बात को कहाँ से कहाँ ले गए आप ... येही आपकी खूबी है ... अपने देश में सच में ऐसे बहुत से खम्बों की जरीरत है आज ...
यादों का बाईस्कोप
जवाब देंहटाएंक्या कहें.. अभी हम. "राजपथ - जनपथ" तो मेरे अन्दर की एक चिंगारी है.
जवाब देंहटाएं-
यादें तो अनमोल खजाने हैं. दो लाइन सुनिए आप भी..
मुहल्ले के साथियों को
कहानियाँ खूब सुनाते थे.
एक रूपये का नोट छुपाकर
किताबों में, हम इतराते थे.
जाड़े की धूप में छत पे बैठ
हम आधे बाल्टी नहाते थे.
माँ से थप्पर खा कर ही
फिर दिन में सो पाते थे.
मेहमाँ जो घर में आये कोई
देख मिठाइयाँ ललचाते थे.
शीशी, गत्ते, कबाड़ बेच के
मलाई बर्फ हम खाते थे.
अखबारों के पतंग बना
जैसे तैसे उड़ाते थे.
दादाजी के पाँव दबा
चार आने हथियाते थे.
टीचर ने मेरी जो धुलाई की थी याद है तुमको? मम्मी ने तो उनकी क्लास लगा ही दी थी टिफिन के बाद! कम से कम सौ बेल्ट तो मारे ही होंगे उसने. स्कूल से जी उचट गया. चलो, पढ़कर याद आ गया. अच्छा
जवाब देंहटाएंलगा पढ़कर.
शशि
आपने कुतुबमीनार वाला जो जिक्र किया है , उसका जिक्र अमिताभ बच्चन कि एगो फिलिम (चीनी कम) के अंतिम दृश्यों में भी मिलता है , बहुत सुन्दर फिलिम और बहुत मार्मिक खम्भे वाला द्रश्य |
जवाब देंहटाएंसादर