आकासबानी पटना का इस्टूडडियो नंबर पाँच. दरवाजा के ऊपर लाल बत्ती जल रहा है, माने अंदर रिकॉर्डिंग चालू है. तब झांककर सीसा से देखते थे कंट्रोल रूम से. पुष्पा दी नाटक रिकॉर्ड कर रही होती थीं अउर उधर सत्या सहगल और सतीस आनंद संबाद बोल रहे होते थे. आस्चर्ज होता था कि कैसे खाली अपना आवाज से पूरा का पूरा दिरिस सुनने वाले के सामने रख देते थे ऊ कलाकार लोग. मन मोताबिक एक्स्प्रेसन नहीं होने पर पुष्पा दी का गुस्सा के आगे सीनियर से सीनियर कलाकार जैसे अखिलेश्वर प्रसाद, प्यारे मोहन सहाय, मनोरमा बावा, भगवान साहू, भगवान प्रसाद, रामेश्वर प्र. वर्मा भी कुछ नहीं कह पाते थे. मगर जब काम सही हो जाता त ओही पुष्पा दी एगो बच्चा के तरह हंसते हुए सबका धन्यवाद करती थीं.
कब हम कंट्रोल रूम से निकलकर इस्टूडडियो में पहुँच गए, पते नहीं चला. पुष्पा दी का स्क्रिप्ट पर मेहनत देखकर लगता था कि उनके लिए नाटक जूनून से कम नहीं है. आज भी याद है कि पूरा स्क्रिप्ट में कलम से निसान बना रहता था, मुँह गोल करके बोलने के लिए के लिए निसान, फुसफुसाकर बोलने के लिए निसान, कुछ एक्सप्रेसन के लिए तो वो प्रस्नबाचक चिह्न लगाने को कहती थीं, जबकि उसमें सवाल नहीं होता था. आज भी उस तरह का बाक्य बोलते समय उनका याद आ जाता है. कुल मिलाकर स्क्रिप्ट में संबाद से जादा नोटेसन होता था.
फिर हम इस्टूडियो से निकलकर डबिंग रूम तक पहुँच गए उनके साथ. नाटक में संगीत, इफेक्ट अउर गलत संबाद को काटकर फाइनल रूप में लाना. पुष्पा दी को हमरे ऊपर बहुत भरोसा था. कहाँ कौन सा म्यूजिक देना है और कहाँ क्या इफेक्ट. इहाँ पर हम कुमार चंद्र गौड़ साहब का नाम भी लेना चाहेंगे. पुष्पा दी को उनके ऊपर भी गजब का भरोसा था डबिंग में. वो स्टाफ आर्टिस्ट थे अउर उनका नाम नाटक के क्रेडिट में देना जरूरी नहीं होता था, मगर पुष्पा दी का बड़प्पन था कि हमेसा उनका नाम देती रहीं.
ई सब फ्लैस बैक का जइसा मन का आँख के सामने से गुजर गया. नाटक छोड़े हुए ज़माना हो गया. आख़िरी नाटक कब किये होंगे याद भी नहीं. अपना आवाज रिकॉर्ड करने का भी कोइ इच्छा नहीं रहा मन में. एक बार आवाज की दुनिया पर पोस्ट लिखे तो अपने प्रिय चैतन्य जी के जिद में पॉडकास्ट किये. मगर झिझक महसूस होता रहता था हमेसा.
अर्चना के रूप में एगो छोटी बहिन मिली. कभी देखे नहीं, कभी मिले नहीं. अर्चना का खासियत है पॉडकास्ट. लोगों का लिखा हुआ केतना पोस्ट अर्चना के आवाज में सुना जा सकता है. समर्पित है एही साधना में, बिना इस लालच के कि परसिद्धि या तारीफ चाहिए, स्वान्तः सुखाय. एक रोज अचानक हमरा पोस्ट उसके आवाज में मेल से मिला, साथ में अनुरोध कि अनुमति दीजिए. हम घबरा गए. पहिला अनुभब था कि कोइ हमरा पोस्ट अपना आवाज में लगाने जा रहा था. आवाज में कमी बहुत था, काहे कि ई बोली के साथ बड़ा नहीं होने वाला के लिए इसमें बतियाना मोसकिल है. हम अपना आवाज में रिकॉर्ड करके भेज दिए कि इसको सुनो अउर अइसा ही बोलने का कोसिस करो. पता चला हमारे आवाज में पोस्ट उसके ब्लॉग पर लगा हुआ है. बाद में अपना आवाज में भी पॉडकास्ट की.
एक रोज फिर हमको बोली कि भैया आप तो रेडियो पर नाटक करते थे, क्यों न हमलोग मिलकर हवा महल जैसा कोइ नाटक करें. कहानी हम सोच लिए हैं. हमरे साथ मोसकिल है कि ना हमरे मुँह से निकलता नहीं है. अउर नाटक के नाम पर तो पहले भी कह चुके हैं कि मृत्यु सय्या पर भी हों अउर कोइ बोले कि ओथेलो करोगे, त हम जमराज से भी घंटा भर का टाइम मांग कर चल देंगे कि अगर अगिला जनम होता हो तो उसमें एक घंटा काट लीजियेगा.
खैर, कहानी को काट-छांट कर नाटक बनाए (ई तो आज पता चला कि अर्चना को संदेह था कि हम ई कर सकते हैं कि नहीं). मगर इसके बाद सुरू हुआ हमरा हाथ का बीमारी, फिर अर्चना बीमार, घर पर कभी बेटे का तो कभी बिटिया का एक्सीडेंट, फिर बच्चों का सगाई, फिर सादी का इंतजाम. हमरे पास भी समय नहीं था. करीब चार महीना लगा इसको पूरा होने में. मगर जब रिकॉर्ड किये त एक्के बार में फाइनल.
कहाँ रेडियो नाटक में कलाकार साथ में बैठकर आमने सामने संबाद बोलते थे, एक्स्प्रेसन समझते थे, अउर कहाँ हमरा नाटक कि एगो आदमी नोएडा में अउर दोसरा इंदौर में. फिर अनुराग शर्मा जी का मदद से पार्श्व संगीत का सोचे मगर उनके पास समय नहीं था, फिर तारनहार बनाकर आए पदम सिंह जी. उनको भी अर्चना ही राजी की अउर बना “हवा महल.”
कमाल ई है कि जिसका कहानी है उसको नहीं देखे हैं कभी - श्री संजय अनेजा, जिसके साथ मिलकर अभिनय किये उससे भी नहीं मिले हैं कभी- श्रीमती अर्चना चावजी, जो इसका उद्घोसना किये है उनसे खाली एक बार मिले हैं अचानक, नाटक के जैसा- श्री अनुराग शर्मा, अउर संगीत संयोजक से एक बार का परिचय है – श्री पदम सिंह! (उनको त यादो नहीं होगा).
ई सब परिचय के बाद सोचते हैं कि का हम उस आदमी को भी जानते हैं अच्छा तरह से, जो इसमें अभिनय किया है – सलिल वर्मा! इस आदमी के बारे में त बस एही कह सकते हैं कि
पहचान तो थी पहचाना नहीं,
मैंने अपने आप को जाना नहीं! (गुलज़ार)
जय हो, मंगलमय हो! अरे आप लोगों जैसे निस्वार्थ और उत्साही लोग शामिल हों तो क्या नहीं हो सकता। आप सभी को बधाई! संजय अनेजा ने नाट्य-रूपांतर सुना या अभी तक जगरावँ ब्लॉगर ऐसोसियेशन के तम्बू उखाडने में लगे हैं?
जवाब देंहटाएंआपले टैलेंट पर किसको सक होगा। नाटकों सुने। बड़ा बढिया लगा। ऐसने दु-चार गो और सुनाइए हम। हम इण्तज़ार कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंमुझे खुशी है कि मुझे आपके साथ सीखने को मिला ...मुझे लगता था कि आपका गणित ठीक है (शाशिप्रिया जी के ब्लॉग पर पढ़ा था ) पर जहा तक मुझे याद है नाटक लिखने कि शुरुआत कि थी फरवरी में (छ:महीने हो गए)...और मैंने सोचा इससे भी पहले था पता नहीं कित्ते पहले ...
जवाब देंहटाएंजाने कहाँ गए वो दिन !
जवाब देंहटाएंअब वो लोग कहाँ जो संवादों के माध्यम से पूरा दृश्य खिंच दिया करते थे . नाटकों के प्रति यमराज से मोहलत मांगने की दीवानगी तारीफे-काबिल है , पर आप आज के मित्रता दिवस की शुभकामना के साथ शतायु हों और यूँ ही लिखते रहें . आमीन !
badhaee aur shubhkamnae......bhavishy ke liye bhee .......
जवाब देंहटाएंjag me pahchaan ban gayee hai :) vaise swayam ko pahichanne ka prayas jaree rakh sakte ho......kuch na kuch naya ubhar kar aata rahega aur hum sabhee tak pahuchega.......
aasheesh
अभी सुना नहीं ,पर अग्रिम बधाई
जवाब देंहटाएंआज कई नयी बाते और नया परिचय जाना सलिल भैया !
जवाब देंहटाएंगज़ब चीज हो :-)
शुभकामनायें !
हम २००३ में भीष्म साहनी के नाटक कबीरा खड़ा बाजार मे का रेडियो रूपांतर किये थे... रेडिओ के लिखने के लिए आपके पास विज़न होना चाहिए... शब्दों का विज़न... ओथेल्लो नाटक करने के लिए तो हम भी यमराज से मोहलत मांग लेंगे... खास तौर पर अंतिम दृश्य.... जब ओथेल्लो डेसडिमोना को मारने के बाद पश्चाताप करते हुए खुद को भी मार लेता है... कहता है... "I kiss'd thee ere I kill'd thee: no way but this; Killing myself, to die upon a kiss."... एम ए में थे तब ये नाटक किये थे कई बार... हवामहल सुनकर अच्छा लगा... रेडिओ के प्रति आपकी दीवानगी जानकार भी अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंकल अर्चना जी के ब्लॉग पर जानकारी मिली थी ... और पोडकास्ट भी सुना था ..बहुत बढ़िया ..पुराने दिनों की याद आ गयी ...
जवाब देंहटाएंवाह .......
जवाब देंहटाएंसलाम
संजय अनेजा
अर्चना चावजी
पद्मसिंह
और
सलिल जी आपको भी.
अंतिम शब्द 'भी' नहीं लगाना चाहिए था.... कृपया इसे इग्नोर करें :)
जवाब देंहटाएंये एक नया ही रूप से परिचय हुआ, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं,आपकी कलम निरंतर सार्थक सृजन में लगी रहे .
जवाब देंहटाएंएस .एन. शुक्ल
जय हो, यह माहौल बना रहे।
जवाब देंहटाएंभैया, हमें तो अब तक पता ही नहीं था, बहुत पहुंचे हुए हैं आप, स्पीकर खराब है बाद मे सुनुंगा, शुभकामना आपको।
जवाब देंहटाएंहमने तो (और हमने क्या दुनिया ने भी) आपको तभी पहचान लिया था वर्मा जी, जब आप ब्लॉगर बनाने चले थे. यही कि आप बहुत पहुंचे हुए हैं!!
जवाब देंहटाएंवाह, ऐसी प्रतिभाएं एक साथ हैं, फिर तो खूब बात बनेगी.
जवाब देंहटाएंइसमें कोई शक नहीं कि पौडकास्ट बेहतरीन होना ही था. जहां तक इस कार्य में मिले सहयोग की बात है यह अनायास नहीं हुआ होगा दरसल पानी को तो सतह ढूंढ ही लेना था सो मिल गए...एक बात याद आती है कि पुष्पा दी मुझे अपने साथ कंट्रोल रूम में रखती थीं ताकि मैं बीच में हंस न दूं...बहुत डांटती थी रिकार्डिंग में व्यवधान डालने के कारण पर रिकार्डिंग खत्म होते साथ में घर तक छोड़ना नहीं भूलती थीं...याद आती है उनकी अभी भी. बिलकुल मम्मी जितना प्यार था हमसे उन्हें...
जवाब देंहटाएंदाऊ !
जवाब देंहटाएंबस नमन प्रेषित कर रहा हूँ ! शेष किसी टिप्पणी का सामर्थ्य नहीं है।
सलिल भैया जी ! अभी-अभी अनेजा जी की कहानी "इंतज़ार" का नाट्यरूपान्तरण सुना. इतनी उम्र में पहली बार ये काम किये हैं. हमारे गाँव में रेडिओ सुनना अच्छे लड़कों का लक्षण नहीं माना जाता था. हमारी गिनती उन्हीं में थी सो रेडिओ से केवल समाचार भर का रिश्ता था . जब बड़े हुए तो कभी फुरसत ही नहीं मिली. अभी भी टी.वी.-फीबी. प्रायः नहीं देख पाते हैं. आपको लगता होगा कि ये कौन ग्रह का प्राणी है....मगर सच्चाई यही है. तो पहली बात तो यह कि हम रेडिओ के नाट्य रूपांतरण और उसके इस पॉड संस्करण में तुलनात्मक समीक्षा नहीं कर पायेंगे. सिर्फ इतनी बात कहेंगे कि जब हम बिना देखे किसी की आवाज़ सुनते हैं तो हमें ऐसा लगना चाहिए कि जैसे कि किसी की चुपके से कान लगाकर बात सुन रहे हैं. संवाद अदायगी में कुछ और स्वाभाविकता की अपेक्षा है हमें. शुभ्रा जी की हंसी में तो बिलकुल भी स्वाभाविकता नहीं लगी. हम आशा करते हैं कि इसे और भी बेहतर बनाया जाएगा.
जवाब देंहटाएंअब हमारी इच्छा है कि आप "उसने कहा था " का भी नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत करने की कृपा करें. मालुम है यह सरल नहीं है पर आपके लिए मुश्किल भी नहीं है.
भाई कौशलेन्द्र जी!
जवाब देंहटाएंमुझे अच्छा लगता है जब कोइ स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कहता है. और अप्रिय कदापि नहीं यदि सत्य कहा गया हो. और आपने अपनी भावना सच्चाई से रखी है, इसलिए मुझे अच्छा लगा. आप संवेदनशील व्यक्ति हैं डॉक्टर साहब इसलिए आपकी बात समझ सकता हूँ.
सच है कि किसी को बिना देखे उसकी बात सुनना चोरी है, मगर जब बातें आपको सुनाकर कही जा रही हो तो चोरी कैसी. रेडियो नाटकों की कोशिश यही होती थी कि सारा दृश्य आपके समक्ष उपस्थित हो जाए. याद कीजिये क्रिकेट की कमेंट्री और जसदेव सिंह की आवाज़. उनको सुनना एक अनुभव था चोरी नहीं.
आपने सही कहा कि शुभ्रा जी की हंसी स्वाभाविक नहीं लगी.. इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ. और स्पष्टीकरण के तौर पर यह कहना चाहूँगा कि वो एक नाटक कलाकार कतई नहीं हैं और यह उनका प्रथम प्रयास है. मुझे स्वयं अपने संवादों में कई स्थान पर स्वाभाविकता की कमी लगी. कारण मैंने स्पष्ट किया है कि नोएडा और इंदौर में बैठकर मामूली तकनीक के सहारे इतना कुछ कर पाना, असंभव सा ही था.
'उसने कहा था' में जिन कलाकारों ने भाग लिया था मेरे समय में वो अब जीवित भी नहीं. आपने बड़ी विकत स्थिति में डाल दिया है. पुनः आभार आपकी प्रतिक्रया का!!
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंसचमुच हवामहल की याद आ गई।
इस सुन्दर कहानी को आपलोगों ने इतनी खूबसूरती से निभाया है, लगता ही नहीं कि एक कमरे में बैठ के नहीं रिकॉर्ड किया हो।
सलिल जी!!!कुछ चीजें कितनी कीमती होती हैं,इसका आंकलन हम स्वयं नहीं कर सकते। आपने इस नाट्य-रुपांतर के लिए जो कोशिश की है...उसने मुझे क्या कुछ दिया है,यह मैं ही जानता हूँ...मैं कह कर भी अपनी बात आपसे नहीं कह पाऊँगा...नि:शब्द...आपने अमृत जैसा स्वाद दिया है,मुझे इस नाटक से। कोटिश: धन्यवाद!!!
जवाब देंहटाएंनहीं सलिल भैया जी ! हम शायद अपनी बात ठीक से कह नहीं पाए. हमारा आशय यह था कि जब हम किसी की बात चुपके से सुनते हैं तो कहने वाले को पता नहीं होता किसी की उपस्थिति का और वह बड़े ही स्वाभाविक तरीके से बिना किसी हेजीटेशन के बोलता चला जाता है ..अपनी रौ में . हम वैसी संवाद अदायगी सुनना चाहते हैं. चोरी का आशय तो था ही नहीं.
जवाब देंहटाएंकुछ वर्ष पहले हमने खैरागढ़ विश्वविद्यालय के डॉक्टर योगेन्द्र चौबे जी से मधुशाला के मंचन का अनुरोध किया था. कुछ अड़चनों और मेरी जिद के बाद उन्होंने रायपुर में इसका मंचन किया भी. उसकी सफलता का अनुमान आप लगा सकते हैं कि आज वे उसका मंचन कई प्रान्तों में कर चुके हैं. मतलब यह कि यदि हमने जिद करली तो आपको भी करना ही पडेगा. नहीं तो फिर आपने अपने संवाद में इसका ज़िक्र किया ही क्यों था. लालच दे कर पीछे हटना ठीक बात नहीं है न !
aape ek aur naye vyaktitva se p[arichaya hua........ bahut khoob.
जवाब देंहटाएंफ्रेंडशिप डे की शुभकामनाये
जवाब देंहटाएंइन जैसे मुददों पर विचार करने के लिए
ब्लॉगर्स मीट वीकली में आपका स्वागत है।
http://www.hbfint.blogspot.com/
bade bhai ji aapp naatak bhi kiya karte the yah baat hame aaj pata chali aur kitne vidhaon se bhare hain aapyah jaankar atyant hi khushi hui
जवाब देंहटाएंbahu hi achha laga
sadarnaman v badhai
poonam
अभी सुना तो नहीं शाम तक सुनुगी पर पढ़ कर अच्छा लगा की अब हमारी हिंदी ब्लोगिंग का अपना एक रेडियो स्टेशन जैसा कुछ होगा और उस पर आता हवा महल, क्या पता कल हमारी कहनी को भी आप आवाज दे रहो हो ......... :)
जवाब देंहटाएंसपने देखने में थोड़े पैसे खर्च होते है :)
यह निर्माण कथा भी उपयोगी है। साथ ही कभी काम आएगी आपकी प्रतिभा!! आभार
जवाब देंहटाएंआज सुना है..हवा महल...सलिल जी आपकी आवाज़ सुनी और दिल प्रसन्न हो गया...एक एक शब्द की अदायगी पर महनत की गयी है...आप कलाकार हैं ये बात सपष्ट हो गयी...कहानी और प्रस्तुतीकरण विलक्षण है...
जवाब देंहटाएंनीरज
ye ek bar post dubara padhna padega na hame...kyuki ek hi baar me samajh aati nahi hai na. kaa karen ?
जवाब देंहटाएंआज चौथी बार इस पोस्ट पर आया हूं। क्या लिखूं,क्योंकि अब तक सुन नहीं पाया हूं। घर में डाटा कार्ड पर वह बस लोड ही होता रहता है, जैसे सचमुच का हवामहल ही हो। सोचता हूं कल आफिस में शाम को थोड़ी और देर तक रूक जाऊं, ताकि इत्मीनान से ब्राडबैंड पर सुन सकूं।
जवाब देंहटाएंआपकी और आपके साथी कलाकारों की प्रतिभा को नमन।
जवाब देंहटाएंहम तो आपको पढ़कर और सुनकर आह्लादित हैं।
मुंबई में'विविध भारती' के केन्द्र पर एक बार रिकौर्डिंग देखने का मौका मिला था. स्मृतियां उभर आईं. आपकी बहुमुखी प्रतिभा काफी प्रेरक है.
जवाब देंहटाएंसलिल वर्मा जी,
जवाब देंहटाएंनमस्कार,
आपके ब्लॉग को "सिटी जलालाबाद डाट ब्लॉगपोस्ट डाट काम"के "हिंदी ब्लॉग लिस्ट पेज" पर लिंक किया जा रहा है|
आपने इतनी सुन्दरता से लिखा है की मैंने चार बार इस पोस्ट को पढ़ा और मुझे बेहद पसंद आया! ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं हवामहल से घूमकर आ गई!
जवाब देंहटाएंhum chori chori padhte rahe.........aur adhik jankari gahte rahe.........
जवाब देंहटाएंnatak me awaz dene ka dil to hamara bhi karta hai.............kyonke pitaji ko 8.45 ka samachar
sun-na hota to kahte ........ are kahan gaya
hamara 'hawamahal'........jara radio to de...samachar sun-na hai.......
bakiya dagdar bhai koshlendraji ka agrah pe humara bhi jor samjha jai.......
pranam.
क्या खूब टीम वर्क -मान गए उस्ताद और उस्तादों के उस्ताद को !
जवाब देंहटाएंbehad sashakt aawaz........wah,bahut pasand aaya.
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाओं से लगता तो था कि आपमें कई कलाकार के रूप हैं। आज स्पष्ट भी हो गया कि आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं।
जवाब देंहटाएंक्या बात है साहब...
जवाब देंहटाएंरेडिओ पर हवामहल के ज़माने याद आ गए ...
जवाब देंहटाएंकई जानकारियां प्राप्त हुई ...
आभार !
रविवार को पोस्ट आई थी और मैं आज देख रहा हूँ :( हाँ दो तीन दिन ब्लॉग खोला भी नहीं अपना :(
जवाब देंहटाएंअभी तो मज़ा आ गया आपके और अर्चना जी की आवाज़ में पॉडकास्ट सुन के :) :)
पहले तो अभिषेक का शुक्रिया कि उसने Buzz पर शेयर की...और हमें पता चला...वर्ना दो तीन दिन अनुपस्थित रही नेट से...और इसी दरम्यान ये पोस्ट छूट गयी...सच बड़ा अफ़सोस होता....अगर रेडियो से सम्बंधित बातें...और इतने बेहतरीन टीमवर्क....से अनभिग्य रह जाती..
जवाब देंहटाएंये सिलसिला चलता रहे.,..और हम सब लाभान्वित होते रहें....
Swatantrata Diwas kee dheron mangal kamnayen!
जवाब देंहटाएंआपको एवं आपके परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
आप को बहुत बहुत धन्यवाद की आपने मेरे ब्लॉग पे आने के लिये अपना किमती समय निकला
जवाब देंहटाएंऔर अपने विचारो से मुझे अवगत करवाया मैं आशा करता हु की आगे भी आपका योगदान मिलता रहेगा
बस आप से १ ही शिकायत है की मैं अपनी हर पोस्ट आप तक पहुचना चाहता हु पर अभी तक आप ने मेरे ब्लॉग का अनुसरण या मैं कहू की मेरे ब्लॉग के नियमित सदस्य नहीं है जो में आप से आशा करता हु की आप मेरी इस मन की समस्या का निवारण करेगे
आपका ब्लॉग साथी
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
आज ही सुन के आ रहा हूँ .... मज़ा आ गया ... हवा महल की पुरानी यादें ताज़ा कर दी आपने ...
जवाब देंहटाएंसलिल भैया,
जवाब देंहटाएंआज ही अपने सिस्टम पर ’सपनों का महल’ सुना है। आपकी बहुमुखी प्रतिभा के बारे में तो अंदाजा पहले ही था, साक्षात सुनकर और खुद को इसका हिस्सा बना जानकर अभिभूत हूँ।
सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि ’अर्चना सलिल डेंटिंग पेंटिंग वर्कशाप’ नित नई ऊंचाईयों को छुये।
एक ठो किस्सा बताते हैं आपको , कॉलेज में हमारा पहिला साल था हमारा और २ अक्टूबर २०१० का दिन हम सबसे जूनियर थे , सारे सेनिअर हमको जबरदस्ती मंच पर भेज दिए , क्यूंकि उनको किसी ने बता दिया था कि मैं हिंदी माध्यम , यू.पी.बोर्ड का पढ़ा हूँ |
जवाब देंहटाएंमैं बचपन से ही कभी इन मामलों में नहीं रहा और जब रहना चाहा तो पढाई का हवाला दे के मुझे रोक दिया गया , इसीलिए मुझे स्टेज-फोबिया है , वहाँ स्टेज पर पहुँचते ही मेरे हाथ पाँव फूल गए , जो याद किया था सब भुला गया और सामने बैठी टुकटुकी लगाए जनता अपनी दुश्मन लगने लगी , मैंने स्टेज से भागना चाहा तभी वहाँ के मुख्य अतिथि महोदय ने मुझे रोका और मेरे कानों में सिर्फ इतना कहा कि तुम इन सब से अच्छा कह सकते हो , मुझे मालूम है , मैं वापस मंच पर आया और जो दो चार बच्चन साब और दुष्यंत कुमार जी के शेर याद थे सुना दिए (उस समय मैं खुद नहीं लिखता था वर्ना मंच पर अपनी कविता सुनाने से नहीं चूकता) , और संयोग से मुझे पहला पुरस्कार मिला |
सादर