अचानक हमरे अंदर छिपा हुआ कबि जाग उठा, अऊर हमको लगा कि हम एही भासा में लिखें... लेकिन फिर लगा कि नहीं कबिता को कबिता रहने देते हैं, अऊर सब लोग के खातिर हिंदिये में लिखने का कोसिस किए हैं॥ आपलोग का आसिरवाद चाहिए...
भयाक्रांत मन पिशाच
क्यों रहा है नाच!!
जीवन के स्वर्णिम मुहाने पर
कैसा है झंझावात!!
क्यों रहा है नाच!!
जीवन के स्वर्णिम मुहाने पर
कैसा है झंझावात!!
चलो बादलों को हटा दो
हम अपना घर ढूंढ लेंगें कहीं
पत्तो को रोक लो पीला होने से
दहलीज़ पर कौन ठिठक कर बैठ गया
हाँक लो सारी गायें
चलो अब फिर जी जायें!
हम अपना घर ढूंढ लेंगें कहीं
पत्तो को रोक लो पीला होने से
दहलीज़ पर कौन ठिठक कर बैठ गया
हाँक लो सारी गायें
चलो अब फिर जी जायें!
ए भाई,लगता नहीं है कि ई आपका पहला कोसिस है।
जवाब देंहटाएंआखिरी वाली भी लगा देते :)
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर :)
जवाब देंहटाएंए भाई,सही में लगता नहीं है कि ई आपका पहला कविता है / और एगो बात पहचान काहे छुपाते हैं ,खुले आम होइए ,आप एक बिहार की शान हैं ,हम सब की आन हैं /
जवाब देंहटाएंभाई जी ई आप का पहिलका कबिता हमरे करेजा में एटम बोम्ब की तरह फूटा है
जवाब देंहटाएंलगे रहिये बिहारी बाबु
@ Kumar radharaman :
जवाब देंहटाएं@ Abhi:
@ Maadhav:
हमरा हिम्मत बढाने का बहुत बहुत सुक्रिया !! त हम कबिता भी चालू रखते हैं साथे साथ!! बने रहिएगा.
@ Anup shukl
जवाब देंहटाएंसबसे पहिले त आप जईसे परतापी पंडित जी का हमरी कुटिया में आगमने हमरे लिए सौभाग्य का बात है. अब आप से का छिपा है किसन महराज!
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता.
डुबाया हमको होने ने, न होते हम त का होता.
कऊन पहिलौठ का है अऊर कऊन पेटपोंछन, एही फेर में बेचारा कंस केतना सिसु का हत्या कर गया.
आपका आसिस स्वीकार!!
बच गए होते हम भी मझधार से
हटाएंअगर खुदा को नाखुदा मान लेते
प्रणाम चाचा, आपका कविता पढने के बाद तो मन कर रहा है की अभी के अभी पटना लौट जाएँ .... :-(
जवाब देंहटाएं@इस्तुतिः
जवाब देंहटाएंबड़ा दिन बाद चाचा का याद आया है??? भोर के भुलावल सांझ के मिल जाए त भुलावल नहीं कहाता है.
बाह भैया जब इ अहाँ के पहला कविता छै तो दोसर तो इहो से जबरजस्त होते
जवाब देंहटाएंसलिल वर्मा जी कृपया आप मुझे इस नंबर पर फोन करें -09810752301
जवाब देंहटाएंजीवन के गहन रहस्य को उजागर करती तथा उस परमशक्ति के होने का आभास कराती कविता. अंतिम पंक्तियों में यदि “गायों” की जगह “भेड़ें” का प्रयोग किया गया होता तो जीवन की भेड़ चाल जीवंत हो उठती. और यदि “गायों” का प्रयोग किया ही था तो फिर अंतिम पंक्ति में “चलो अब फिर जी जायें” के स्थान पर “चलो अब फिर मिल गायें” यमक अलंकार का अनूठा उदाहरण हो सकता था… इसे मात्र सुझाव समझेंगे, बाध्यता नहीं.
जवाब देंहटाएंहाँक लो सारी गायें
जवाब देंहटाएंचलो अब फिर जी जायें!
आपका चिंतन हैरत में डाल देता है..
पत्तो को रोक लो पीला होने से
दहलीज़ पर कौन ठिठक कर बैठ गया
मेरा फिर कहना है आप मुल्ला नसीरुद्दीन के बिहारी अवतार हैं शायद!
वाह! कमाल की रचना है भैया, आपका परिचय जानकर भी खुशी हुई!
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय रचना - बधाई
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है
जवाब देंहटाएंविलुप्त नहीं हुई बस बदल गई हैं पंरंपराएं.......!!!
http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2010/05/blog-post_26.html
देर से आने के लिए क्षमा
जवाब देंहटाएंलेकिन ये आपकी पहली कविता है लगता तो नहीं है .
अच्छी है अगली भी ज़रुरु लिखना .........
aapka pahla kavita me damm hai bihari bhai......:)
जवाब देंहटाएंचलो अब फिर जी जायें!...क्या बात है बिहारी बाबू..तबीयत तो ठीक है. ऐसा ऊँचा ऊँचा कवित्तई करियेगा और कहते हैं कि पहला कविता है. चले आओ, कविता के चमन में..हम इन्तजार करते हैं. बेहतरीन रचे हैं, सच में और लिखिये. शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंअब महाराज आप बोले हो पहला तो माने पहला कविता है ...............ता ई बतावो दूसरा कब आइबे करेगा !! एकदम धोती कस के बैठे है पहला टिपण्णी हमरा ही होगा हाँ !!
जवाब देंहटाएंये पहली कोशिश तो नही है ... इतना गहरा लिखा है .. साधा हुवा ... ले में भी है ... जोरदार ...
जवाब देंहटाएंभयाक्रांत मन पिशाच
जवाब देंहटाएंक्यों रहा है नाच!!
जीवन के स्वर्णिम मुहाने पर
कैसा है झंझावात!!
चलो बादलों को हटा दो
हम अपना घर ढूंढ लेंगें कहीं
पत्तो को रोक लो पीला होने से
दहलीज़ पर कौन ठिठक कर बैठ गया
हाँक लो सारी गायें
चलो अब फिर जी जायें!
मन सचमुच भय से भरा हुआ पिशाच ही है
जो अपने झूठे डरों से ही नाच (डोल) रहा है
फिर इस कोलाहल भरे जीवन में भी स्वयं को स्वर्णिम द्वार पर खड़ा हुआ महसूस करता है और विचारों के इस झंझावात में निराकार बादलों को से भी लड़ने की हिम्मत जुटाने लगता है और आकाशकुसुम में अपने घर का सपना बुनता है और असंभव को संभव कर दिखाने के लिए अतिश्योक्ति में पतों को पीला नहीं होने की भी ठान लेता है ???? वो देखो जीवन की दहलीज पर ही मन ठीठक कर बैठ गया है और स्वयं को गाय साबित करते हुए सभी गायों पर कब्जा कर इस जीवन में फिर-फिर से जीने की एक कोशिश करता है मन ...
शायद यही अर्थ है इस कविता का ... नहीं है तो दूसरे का इंतजार कीजिए कल तक
very good.
जवाब देंहटाएंकल 13/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
चलो अब फिर जी जायें!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!
ागर ये पहली कोशिश है तो आखे क्या होगा/ लगता है शब्दों का आकाश छूने की तमन्ना है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंकविता भी बहुत अच्छी है |
जवाब देंहटाएंईमानदारी से कहूँ तो मैं इस कविता को कुछ और देर जारी रखना चाहता था |
आकाश
My God !!! gazab hai chachu ee kavita .. :)
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