शनिवार, 19 जून 2010

हँसी का कीमत

हम त रेडियो के जमाना में पैदा हुए, इसलिए रेडियो पर नाटक करते थे, बचपने से. आकासबानी पटना के तरफ से हर साल होने वाला इस्टेज प्रोग्राम में, पहिला बार आठ साल का उमर में इस्टेज पर नाटक करने का मौका मिला. नाटक बच्चा लोग का था, इसलिए हमरा मुख्य रोल था. साथ में थे स्व. प्यारे मोहन सहाय (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सुरू के बैच के इस्नातक, सई परांजपे से सीनियर, 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' अऊर परकास झा के फिल्म 'दामुल' अऊर 'मृत्युदण्ड' में भी काम किए) अऊर सिराज दानापुरी. प्यारे चचा के बारे में फिर कभी, आज का बात सिराज चचा के बारे में है.
देखिए त ई बहुत मामूली सा घटना है, लेकिन कला का व्यावसायिकता अऊर कलाकार का विवसता का बहुत सच्चा उदाहरन है. सिराज चचा एक मामूली परिबार से आते थे, अऊर उनका जीबिका का एकमात्र साधन इस्टेज पर कॉमेडी शो करना था. इस्टैंड-अप कॉमेडी के नाम पर आज टीवी में जेतना गंदगी फैला है, उससे कहीं हटकर. स्वाभाविक अऊर सहज हास्य उनका खूबी था. खुद को कभी कलाकार नहीं कहते थे, हमेसा मजदूर कहते थे. बोलते थे, “एही मजूरी करके दुनो सिरा मिलाने का कोसिस करते हैं."
रेडियो नाटक का रेकॉर्डिंग के समय, रिहर्सल के बीच में जब भी टाईम मिलता था,ऊ सब बड़ा अऊर बच्चा लोग को इस्टुडियो के एक कोना में ले जाकर, अपना कॉमेडी प्रोग्राम सुरू कर देते थे. सबका मनोरंजन भी होता था, अऊर रिहर्सल बोझ भी नहीं लगता था. सिराज चचा सीनियर कलाकार थे, इसलिए उनको आकासबानी से 150 रुपया मिलता था, अऊर हम बच्चा लोग को 25 रुपया.
एक बार रिहर्सल के बीच पुष्पा दी (प्रोग्राम प्रोड्यूसर अऊर हमरी दूसरी माँ, जिनका बात हम अपना परिचय में कहे हैं) सिराज चचा को उनका रोल के लिए एगो खास तरह का हँसी निकालने के लिए बोलीं. ऊ बिना पर्फेक्सन के किसी को नहीं छोड़ती थीं. पहिला बार ऊ सिराज चचा से झल्ला गईं. बोलीं, “सिराज भाई! क्या हो गया है आपको. कुछ जम नहीं रहा.” सिराज चचा ने हँसी का बहुत सा सैम्पल दिखाया. लेकिन पुष्पा दी को कोई भी मन से पसंद नहीं आया. आखिर बेमन से रिहर्सल हुआ अऊर रेकॉर्डिंग का टाईम आया.
सिराज चचा, बीच में अपना चुटकुला लेकर सुरू हो गए. ओही घड़ी एगो लतीफा पर सब लोग हँसने लगा, अऊर सिराज चचा भी अजीब तरह का हँसी निकाल कर हँसने लगे. माइक ऑन था, इसलिए आवाज कंट्रोल रूम में पुष्पा दी को भी सुनाई दिया. ऊ भाग कर इस्टुडियो में आईं, अऊर बोलीं, “सिराज भाई! यही वाली हँसी चाहिए मुझे."
लेकिन इसके बाद जो बात सिराज चचा बोले, ऊ सुनकर पूरा इस्टुडियो में सन्नाटा छा गया, दू कारन से. पहिला कि पुष्पा दी को कोई अईसा जवाब देने का हिम्मत नहीं करता था, दुसरा एगो मजाकिया आदमी से अईसा जवाब का कोई उम्मीद भी नहीं किया था. सिराज चचा जवाब दिए, “दीदी! आप उसी हँसी से काम चलाइए. क्योंकि यह हँसी डेढ़ सौ रुपए में नहीं मिलती है, इसकी क़ीमत पाँच से छः सौ रुपए है." एतना पईसा ऊ अपना इस्टेज प्रोग्राम का लेते रहे होंगे उस समय.
रेकॉर्डिंग हुआ, अऊर सिराज चचा ने अपना ओही डेढ़ सौ रुपया वाला हँसी बेचा. एगो कलाकार का कला दिल से निकलता है, लेकिन पहिला बार महसूस हुआ कि पेट, दिल के ऊपर भारी पड़ जाता है.
हमको अपना कहा हुआ एगो शेर याद आ गया:
        फ़न बेचने को अपना मैं निकला तो हूँ घर से
        बाज़ार  मिल   गया  है,  ख़रीदार   तो   आए! 

19 टिप्‍पणियां:

  1. कलाकार या व्यापारी...व्यापारी बनने को मजबूर कलाकार...

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  2. kalakar kalakar hee hai kathputalee banna kanha gavara hoga use...?
    sangharshmay jeevan kee ek jhalak jo aapne dikhai usake liye aabhar........

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  3. मेरी नज़र में तो वो हँसी अनमोल रही होगी ! ...........कोई भी इंसान जब उन्मुन्क्त रूप से दिल से हँसता है तो उस हँसी की कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती क्योकि उस वक़्त वो किसी कीमत के लिए नहीं हँस रहा होता बल्कि वो खुद के लिए हँस रहा होता है और ऐसी हँसी की कीमत कोई नहीं चुका सकता !

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  5. Blogger bhaiya aapke pitari me to har tarah ke rass se bhara sansmaran hai.........jo dil ko chhuta hai.......:)

    ab dekhiye na jiss muh se haste hain, kilkari marte hain......ussi muh se pet ka bhi rasta hai........to pet ki baat to yaad aayegi hi.......aur waise bhi paisa anmol hai........beshak kalakar ho to bhi....

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  6. Blogger bhaiya aapke pitari me to har tarah ke rass se bhara sansmaran hai.........jo dil ko chhuta hai.......:)

    ab dekhiye na jiss muh se haste hain, kilkari marte hain......ussi muh se pet ka bhi rasta hai........to pet ki baat to yaad aayegi hi.......aur waise bhi paisa anmol hai........beshak kalakar ho to bhi....

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  7. बहुताही रोचक संस्मरण सुनाये हैं आप...हम भी जयपुर रेडिओ में खूब चक्कर काटे हैं स्टेज पे नाटक शाटक भी खूब किये हैं और इस दौरान ऐसा ऐसा खुद्दार लोगन से भेंट हुआ के का कहें...भूखे रह लेंगे लेकिन चिरौरी नहीं करेंगे...कैसन लोग थे हमरा जमाने में....याद के साथ ही आंसू लाते हैं कमबख्त...सिराज भाई को हमरा सलाम...

    नीरज

    आप का शेर बहुत भा गया है...पूरी ग़ज़ल सुनाने का का लेंगे...बोलिए ना...

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  8. सिराज चाचा जैसे सच्चे कलाकार आज देखने को नही मिलते ... व्यावसायिक कारण के दौर में हर कोई अपने कला बेचने को लाइन में खड़ा है .... बहुत भावुक लिखा है आपने ...

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  9. ek dumme sahi baat.. kabbo kabhar kalar log bahut majboor ho jalan ...tab ja ke aisasn kadam uthave lan.. bahut badi seekh ba humari jaisan bachha khatir... :)

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  10. बहुत दिनों बाद भोजपुरी का मज़ा आया. बहुत बढ़िया लगा.

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  11. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    इसे 20.06.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
    http://charchamanch.blogspot.com/

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  12. सलिल जी वाकई। क्या कहने। जब शुरू शुरू में आपका ब्लॉग पढऩा शुरू किया तभी लग गया था कि यह कोई साधारण आदमी नहीं है। धीरे धीरे परतें खुल रही हैं। अब पता चला कि आप पुराने चावल हैं। बहुत सुंदर रचना है। आप रचना तो सुंदर लिखते ही हैं साथ ही टिप्पणी भी अच्छी और जानदार करते हैं। अब तो बिहारी ब्लॉगर बन ही गया जनाब। वाह। क्या कहने। शानदार। ये सिलसिला यूं ही चलता रहे। बधाई।

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  13. बहुत बढ़िया चाचा, हम भी बचपन में आकासबानी पे 'घरोंदा' प्रोग्राम में काम कर चुके हैं. एक ठो मौसी भी हैं, मम्मी की दोस्त की बहन 'शोभा' नाम है उनका...बहुत साल से वहां काम करती हैं.
    अगर आपको 'खदेरन की मदर' वाला कुछ याद है तो उसपे कुछ लिखिए...हम पापा लोग के मुह से बहुत सुने हैं उसके बारे में.

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  14. आप की रचनाएँ बहुत लोगों को अपना बचपन और आकाशवाणी के दिन याद ताजा करवा रही हैं ...सही मायने में आप लोकप्रिय ब्ला़गर बनते जा रहें है । हमारी बधाई स्वीकार करें और अपनी लेखनी की धार यूँ ही पैनी बनाए रखिए ।

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  15. बहुत अच्छा शेर था और पोस्ट भी |

    सादर

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