गुरुवार, 17 जून 2010

जवाब मत दीजिए - मुँह भी बंद मत कीजिए

आज पहिला बार हमको ई पोस्ट लिखने में बहुत दुबिधा का सामना करना पड़ रहा है. सोचे लिखें कि नहीं. फिर सोचे कि नहीं लिखकर बेमतलब हम अपना रात का नींद हराम करेंगे. एक त अईसहीं कम सोने का बिमारी है. बहुत बिचार के बाद सोचे लिखिए देते हैं, पढने वाला लोग को इससे कोई सरोकार हो चाहे न हो, हमको चैन मिल जाएगा.
ओशो अपना बिद्रोही बचपन का बहुत सा घटना लिखे हैं. उसी में एगो उनका परिवार का घटना ऊ लिखे हैं. एक बार एक जैन मुनि उनके घर पर आए, काहे कि उनका परिवार गाँव में अकेला जैनी परिवार था. ऊ मुनि जी का ई नियम था कि ऊ खाना खाने के बाद घर परिवार के लोग को उपदेस देते थे. अचानक बालक ओशो उठ खड़ा हुए अऊर उनसे पूछ बईठे.
“जैन धर्म में पूरी कोशिश है कि दुबारा जन्म न लेना पड़े. यह एक विज्ञान है दुबारा जन्म लेने को रोकने का. क्या आप दुबारा जन्म नहीं लेना चाहते?”
"कभी नहीं.”
“फिर आप आत्महत्या क्यों नहीं कर लेते.जब आप दुबारा पैदा नहीं होना चाहते, तो आप जीवित क्यों हैं?”
मुनि ने बहुत गुस्से से देखा तो मुझे कहना पड़ा, “याद रखिए, आपको दुबारा जन्म लेना ही पड़ेगा, क्योंकि आपमें अभी भी क्रोध है. आप इतने गुस्से से मुझे क्यों देख रहे हैं. मेरे प्रश्न का उत्तर शंति से दीजिए. सुखपूर्वक उत्तर दीजिए. अगर आप उत्तर नहीं दे सकते तो कह दीजिएकि मैं नहीं जानता. लेकिन इतना क्रोध मत कीजिए.”
वह अवाक् रह गया. वह विश्वास ही न कर सका कि एक बच्चा इस प्रकार का प्रश्न पूछ सकता है. आज मुझे भी विश्वास नहीं हो सकता है. मैं कैसे ऐसे प्रश्न पूछ सका इसका एक ही उत्तर मैं दे सकता हूँ कि मैं अशिक्षित था,अज्ञानी था. ज्ञान, जानकारी तुम्हें चालाक बना देती है. मैं चालाक नहीं था. था. मैंने वही प्रश्न पूछे जो कोई भी पूछ सकता था अगर वह शिक्षित न होता तो. शिक्षा मासूम बच्चे के प्रति किया गया सबसे बड़ा अपराध है.
ओशो कहते हैं कि ई उनके प्रश्न पूछने का सुरुआत नहीं था, बल्कि दुनिया का उत्तर नहीं देने का सुरुआत था.

ई घटना पढने में बहुत अच्छा लगता है. लेकिन इसका अनुभव अऊर भी सुंदर है. अऊर कष्ट देने वाला भी. बच्चा त अनपढ होता है. बहुते सवाल पूछता है, केतना बार हमलोग जवाब नहीं जानते हैं तइयो बच्चा को मनगढंत जवाब दे देते हैं. कभी कभी गुस्सा होकर कहते हैं कि भाग यहाँ से पढाई लिखाई करना नहीं है, बेमतलब का बात पूछता रहता है. जा तेरह का पहाड़ा याद करके आओ.
लेकिन बास्तव में ई गुस्सा हमरा अपने ऊपर होता है, बच्चा का ऊपर नहीं, काहे कि हम जवाब नहीं जानते हैं. बच्चा बड़ा हो जाए त हम उसको ई भी नहीं कहते हैं कि अच्छा हमको जवाब नहीं पता, तुम बताओ. अईसा कहने से अपना कमी जाहिर हो जाएगा. ई भी नहीं स्वीकारना चाहते हैं हम लोग.

खैर हमरा बिचार में त सवाल जवाब से सम्बाद बनता है और सम्बाद से संबंध. उत्तर नहीं देना त अपराध हईये है, जवाब में चुप रह जाना त अऊर बड़ा अपराध है.

लेकिन इसका बारे में का कहिएगा कि सवाल सुनकर, जवाब देने, नहीं देने, चुप रह जाने के बदले, मुँह दबाकर प्रस्न पूछने वाला का अवाज बंद कर देना, ऊ अनपढ, असिक्षित, नादान बच्चा के प्रति अन्याय नहीं है?


13 टिप्‍पणियां:

  1. अगर हमरा ई पोस्ट से किसी का भावना आहत हुआ है त हम उसके लिए क्षमा प्रार्थी हैं... इसमें लिखा हुआ हर बात हमरे मन का भावना है अऊर इसका उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना कतई नहीं है. लेकिन सवाल है त जवाब भी होगा... ई न तो यक्ष प्रस्न है, न बेताल का प्रस्न है...

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  2. ओशो का बचपन ...मैंने भी पढ़ा है. रोचक और शानदार किताब है. कहीं-कहीं मैं भ्रमित भी हुआ ऐसा प्रतीत हुआ कि अपनी ही कही बात को आगे जाकर उलट दिए हैं..! अभी दुबारा पढ़ने का मन है..किताब है मेरे पास.
    आपने खूसूरत उदहारण दे कर बात समझाने का प्रयास किया है.
    बच्चों के प्रश्न का उत्तर देना ही चाहिए मगर प्रश्न इतने सच्चे होते हैं कि हम आडम्बरी लोग सही जवाब दे ही नहीं पाते..बस क्रोध ही कर के रह जाते हैं.
    ..उम्दा पोस्ट के लिए बधाई.

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  3. बहुत सुन्दर!...पढ़ कर पाउलो फ्रेरे की ('पेडागोजी ऑफ़ द ओप्रेसेड') याद आ गयी... वह भी 'मौन की संस्कृति' को तोड़ने की बात करता है ओर संवाद पर जोर देता है।

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  4. बहुत बढ़िया द्रष्टान्त और एक शानदार लेख के लिए शुभकामनायें भाई जी !

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  5. "खैर हमरा बिचार में त सवाल जवाब से सम्बाद बनता है और सम्बाद से संबंध."

    वाह...हम आपकी बात से सौ प्रतिशत सहमत हूँ...आप ओशो पढ़ते हैं जान बहुता ही हर्ष हुआ क्यूँ के हम भी उन्हें पढ़ें हैं आँख बंद करके फालो नहीं किये लेकिन उनकी बात से हमेशा प्रभावित हुए हैं...

    नीरज

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  6. यह बहुत बढ़िया रही, बिना अपराध बड़ों को गरियाने की सजा क्या होनी चाहिए ये और बताय दो गुरूजी ! अब भेज दें १३ का पहाडा याद करने को ? वह कमेंट्स /प्रश्न मुझे मेल करें जिसके लिए तीन चार दिन से नाराज बैठे हो !

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  7. ओशो के स्वर्णिम बचपन से दृष्टांत लेने के लिए आपका आभार...और उससे भी अधिक आपको इस बात के लिए साधुवाद की आपने ओशो को पढ़ने और समझने तथा जीवन के मूल प्रश्नों की ओर लौटने का साहस दिखाया । ओशो की बातों में द्वंद्व नहीं है ... न ही कोई विरोधाभास है...हाँ जो ओशो को न समझने और जीवन के वास्तविक तथ्यों को देखने से बचना चाहते हैं और जीवन को उथला-उथला जीते हैं, वे जरूर उनमें विरोधाभास सेखते हैं ...जीवन प्रतिपल बदल रहा है ...अगर हमने यह मान लिया कि जीवन आज जैसा है,वैसा ही कल भी रहे...तो जीवन में विरोधाभास घटित होगा ...।

    फिर जब आपने पोस्ट लिख ही दिया और उसको ब्ला़ग पर चस्का दिया ...फिर स्वयं पहली टिप्पणी के रूप में खेद क्यों व्यक्त कर रहें हैं ???

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  8. @मनोज भारती जी...
    आपके उद्गार के लिए धन्यवाद!! हम जब जब आत्मा से कोई बात कहना चाहते हैं त हमरे अंदर से ओशोवाणी फूट पड़ता है...लगता है कि ऊ हमरे अंदर से बोल रहे हैं... इसलिए उनका कोई भी दृष्टांत देकर हमको सर्मिंदगी महसूस हो, ई हो ही नहीं सकता... एक बात मन को कचोट रहा था...इसलिए लगातार दुसरे दिन ई पोस्ट लिखना पड़ा... समय देखिए, रात भर जगने के बाद भोर में ई पोस्ट लगाए हैं हम…यह पोस्ट जिसके लिए लिखा गया था, उनसे क्षमा मांगे थे हम कि हमरे बात से आहत न हों... उनको पता भी नहीं चला, इसलिए फोन से समझाना पड़ा...
    पुनः आपका धन्यवाद!! और क्षमा, मेरी टिप्पणी के लिए!

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  9. krodh hamesha kamjoree kee nishanee hota hai.......
    aisa mera manna hai.....
    post acchee lagee.

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  10. ओशो के बचपन की बात से सार्थक निष्कर्ष निकालती अच्छी पोस्ट ... सच है कि बहुत बार बच्चों के पूछे प्रश्नों के जवाब नहीं सूझते ...पर इस पर क्रोध करने के बजाए स्वीकार कर लेना चाहिए कि नहीं मालूम ॥

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  11. बहुत छोटी बात है लेकिन गौर कीजियेगा -
    बचपन में मैं पूछता था कि वहाँ उस अँधेरी बंद कोठरी में क्या है , मुझे जवाब दिया जाता था , वहाँ मत जाना , वहाँ 'झोली वाले बाबा' रहते हैं |
    मैंने वहीँ से डरना शुरू कर दिया , किसी इंसान से नहीं , एक नाम से |
    जबकि स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि निर्भय बनो , भय ही व्यक्ति का सबसे बड़ा पाप है |

    सादर

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