बचपने से बुरा संगत में पड़ गए और आज तक भुगत रहे हैं. कलम चलाना खून में मिला अऊर नाटक करना, संगीत सुनना सोहबत से. हमरे एगो दोस्त थे, जिनके बारे में हम पहिले भी चर्चा कर चुके हैं, उनके संगत में संगीत का समझ डेवेलप हुआ. आज भी आरोह अवरोह चाहे खड़ज निसाद नहीं समझ में आता है, लेकिन संगीत मधुर है कि कटु आँख बंद करके भी बुझा जाता है.
एक बार एगो गजल का धुन पर हम दुनो में बहस छिड़ गया. बिना हमरे “हाँ” कहे भाई साहेब धुन भी फाईनल नहीं कर पाते थे. हम जऊन धुन के बारे में कह रहे थे कि हमको अच्छा लग रहा है उसको ऊ रिजेक्ट कर दिया ई बोलकर कि ई धुन गायिका के लिये ठीक है, लेकिन गायक के लिये नहीं. अब हम परेसान कि संगीत का सात सुर से, कोनो राग पर आधारित गाना अगर बनाया जाए, तो ऊ गाना भी स्त्री अऊर पुरुस के लिये अलग अलग हो सकता है.
हमको परेसान अऊर कंफ्यूज देखकर ऊ हमको बेग़म अख़्तर का गाया हुआ एगो ग़ज़ल अऊर फ़रीदा ख़ानम का गाया हुआ गीत अपने आवाज़ में गाकर सुनाया. हम जब आँख बंद करके ऊ सब सुने तब हमको लगा कि उसका बात सच है. उसके पिता माननीय दत्तात्रेय काळे जी ने भी समझाया कि गीत का धुन गायक या गायिका को ध्यान में रखकर बनाया जाता है अऊर बहुत सा धुन अईसा भी होता है जो दोनों के लिये होता है. पहिला बार हमको लगा कि कला के छेत्र में भी प्रकृति का ई अंतर लागू होता है.
बाद में अंतर अपने आप साफ होने लगा. महादेवी वर्मा का कबिता अऊर बच्चन जी का कबिता, प्रसाद अऊर सुभद्रा कुमारी चौहान का कबिता. बहुत सा अपबाद भी मिला, लेकिन जादातर पढ़कर अऊर सुनकर पता लगने लगा कि कौन महिला का कृति है अऊर कऊन पुरुस का. मतलब ई कि कलाकार का सोभाव उसके कला में देखाई देईये जाता है.
ब्लॉग जगत में भी जेतना लोग को पढ़े हैं, उनको पढ़कर भी आसानी से ई अंतर समझ में आता है. केतना लोग का लेखन तो अईसा है कि चिल्ला चिल्ला कर कहता है कि भईया ई उनके अलावा कोनो दोसरा आदमी का होईये नहीं सकता है. सर्वश्री गिरिजेश राव, पंडित अरविंद मिश्र, प्रवीण शाह, अली सैयद, गुरुदेव सतीश सक्सेना अऊर एबभ ऑल श्री अनूप सुकुल. वईसहीं माननिया सरिता अग्रवाल (अपनत्व), निर्मला कपिला, संगीता स्वरूप, सुनीता (अनामिका) अऊर क्षमा जी वगैरह.
हमरे गुरू श्री के. पी. सक्सेना तो एहाँ तक कहे हैं कि हर आदमी का एगो खास गंध होता है, जो हर कोई पहचान लेता है. ऊ रेलवे में काम करते थे, इसलिये उदाहरन के लिये बोले कि अगर हम प्रिंस चार्ल्स जईसा कपड़ा भी पहनकर बाजार में निकल जाएँ, तो लोग चाहे हमको जईसनो नजर से देखे, धीरे से कान में जरूर पूछेगा कि फलानी डाउन केतना बजे आती है. अब लखनऊ का चारबाग हो चाहे दिल्ली का अजमेरी गेट, मानुस गंध पहचानना कोनो मोस्किल काम नहीं, बस नाक का अभ्यास चाहिये.
अपने संजय बाबू “मो सम कौन” वाले क्रिस्मस के छुट्टी वाला दिन ऑनलाईन भेंटा गये. तड़ से भेज दिये एगो लिंक अऊर बोले कि पढ़िये. हम अपना दिल का रेकमेंडेसन तो दबा देते हैं, लेकिन दोस्त लोग का रेकमेंडेसन त तुरते मानना पड़ता है. पढ़ गये पूरा पोस्ट अऊर बहुत इम्प्रेस भी हुये. संजय बाबू जब हमसे हमरा प्रतिक्रिया माँगे, तब हमको लगा कि इनका हर बात में गूढ़ रहस्य छिपा होता है. हम बोले कि प्रभु! भले हम उस प्रदेस से आते हैं जहाँ बट बिरिछ के तले एगो महान राजा गौतम बुद्ध कहलाए थे. लेकिन हमरा ज्ञान चक्षु अभी नहीं खुला है कि हम ई भेद समझ सकें. लेकिन कुछ बात हमको समझ में आ रहा है. पहिला, ई आपका ट्रेड मार्क फत्तू उड़ा ली हैं बहिन जी. दोसरा, ई सभ्य महिला हमरे प्रदेस की हैं. तिसरा, लेखन में गजब का फ्लो है. चौथा अऊर सबसे मह्त्वपूर्न बात ई है कि ई लेख कहीं से भी कोई महिला का लिखा हुआ नहीं बुझाता है.
तब भाई साहब, हमको बोले कि थोड़ा देर के लिये संजय का दिब्य दृस्टि आपको उधार देते हैं, तनी देखिये. बाप रे! कमाल का दृस्य था. उनका पोस्ट ऊ सभ्य महिला अपना नाम से छाप रखी थीं. तबे हमको लगा कि ई कोनो मर्द का लिखा हुआ बुझाता है, अऊर फतुआ को देखियो के हमको नहीं सूझा कि ऊ मर्द हमरे संजय बाबू हैं.
तब हमको याद आया कि एगो संजय ग्रोवर जी भी हैं, इनका भी पोस्ट कोई चोरा कर अपना नाम से छाप दिया था अऊर उसपर सायद गिरिजेश जी का कमेंट भी था कि मन में आया कि अनाप सनाप लिख दें, मगर ऊ चोर अपना बच्ची का प्यारा सा फोटो लगाए हुये था, इसलिये चुप रह गये.
हमरा ई पोस्ट कल मंगलबार के लिये था, एक दिन देरी होने के कारन संजय बाबू भी एही बिसय पर सिकायत दर्ज कर दिये हैं. कहीं हमरा पोस्ट को भी कोई उनका नकल न समझ ले. मगर एगो बात तो पक्का है, आप ही कहते थे कि मो सम कौन, त कहीं इसको सवाल समझकर पूजा बेदी माफ कीजिये पूजा देबी, ई जबाब त नहीं न दी हैं. जो भी हो, अब हम का बोलें, पहिलहिं बिहारी हैं उसपर ई चोरी. बस एतने कह सकते हैं कि
वो मेरा दोस्त है सारे जहाँ को है मालूम
दगा करे जो किसी से तो शर्म आए मुझे!