बुधवार, 29 अगस्त 2012

निंदक, बिगाड़, ईमान और कबीर


हमलोग जब छोटा थे तब का समय अऊर आज का समय मेँ जमीन-आसमान का फरक हो गया है. पढाई-लिखाई का सिस्टम भी बदल गया है. जहाँ एक तरफ हिन्दी के किताब मेँ नज़ीर अकबराबादी का मस्नवी पढाया जा रहा है, ओहीँ दोसरा तरफ कबीर अऊर कबीर का दोहा भी. अज्ञेय का कबिता भी अऊर कैफी आज़मी का गीत भी. देखकर बहुत खुसी भी होता है कि आज के बच्चा लोग को साहित्त माने साहित्त पढा रहे हैँ, अब ऊ चाहे हिन्दी भासा का साहित्त हो चाहे उर्दू/हिन्दुस्तानी भासा मेँ लिखा जाने वाला साहित्त. मगर दु:ख भी होता है, जब देखते हैँ कि अपना बच्चा लोग को न सायरी मेँ दिलचस्पी है, न दोहा मेँ; न कबिता मेँ, न ग़ज़ल मेँ.

एक रोज बेटी हिन्दी का किताब लेकर आई कि कबीर का दोहा समझा दीजिये. हम बोले कि पढो जोर से कौन सा दोहा है. ऊ पढना सुरू की:
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाये,
बिन साबुन पानी बिना, निरमल करे सुभाये!
हम उसको अर्थ बताये – जो व्यक्ति तुम्हारी आलोचना या बुराई करता है उसको हमेशा अपने  पास रखना चाहिये. हो सके तो उसे अपने घर के आँगन मेँ एक कुटिया बनाकर रहने की जगह दे दो. क्योँकि ऐसे व्यक्ति तुम्हेँ तुम्हारे दोषोँ से परिचित कराते हैँ और इसी बहाने तुम्हेँ उसे सुधारने का अवसर प्रदान करते हैँ. वास्तव मेँ वे लोग बिना साबुन और पानी के ही तुम्हेँ निर्मल करते हैँ. क्योँकि साबुन और पानी से तो केवल शरीर की गन्दगी को साफ होती है, ये आलोचक तुम्हारे अंतर्मन को निर्मल करते हैँ.
बेटी बहुत गौर से हमारा बात सुनती रही. बोली, डैडी! जब आप हिन्दी मेँ कविता या दोहे का अर्थ बताते हैँ तो मुझे सुनने मेँ बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी धार्मिक सीरियल का डायलॉग बोल रहे हैँ! हम अकबका गये कि बेटी के इस बात को कॉम्प्लिमेण्ट समझेँ कि का समझेँ. मगर जब ऊ अपना तरफ से दोहा का ‘एक्स्प्लेनेशन’ दी, तब हमको कुच्छो कहते नहीँ बना. ऊ बोली, ये तो गलत बात है डैडी! अगर उसको अप्ने आँगन मेँ कुटिया बनाकर रहने देंगे, तब तो वो आलसी हो जायेगा और इसको आपका एहसान मानेगा. एहसान से दबने के बाद तो वो खुद ही निन्दा करना भूल जायेगा.

जेतना तर्कजुक्त तरीका से अऊर सीरियसली ऊ हमसे कही ई बात, हम एकदम अबाक रह गये अऊर तत्काल कोनो जवाब हमको नहीँ सूझा. बस एतने कहे कि ई सब बात इम्तिहान मेँ मत लिख देना, नहीँ त जीरो मिलेगा. जेतना समझाये हैँ, ओतने लिखो.

चैतन्य बाबू को फोन पर बताए ई बात. पहिले त ऊ हंसे, ई बात सुनकर, बाद मेँ राजनैतिक बिसय पर अपना एक्स्पर्ट कमेण्ट देने के इस्टाइल मेँ बोले, आप नहीँ समझते हैँ सलिल भाई, मगर बेटी ने बहुत मार्के की बात की है. सच पूछिये तो यही बात मैँ कब से कह्ता आ रहा हूँ. ये प्रिण्ट और एलेक्ट्रॉनिक मीडिया, व्यवस्था के साथ मिलकर यही तो कर रहे हैँ. हमने तो इस विषय पर कितनी पोस्ट लिखी है.
हम बोले. आप तो हर बात का पॉलिटिकल मतलब निकालने लगते हैँ.
नहीँ सर! ये बात तो बिटिया ने कह दी, जो आप नहीँ मानना चाहते. एक ज़माना था जब कहावत मशहूर थी कि जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो. तब ये मीडिया निन्दक का काम किया करते थे. लोग घबराते थे. आज हालात बदल गये हैँ. व्यवस्था ने तमाम निन्दकोँ यानि मीडिया घरोँ को घर दे दिये, अपने आंगन मेँ कुटिया छवाकर बिठा लिया. अब जैसा बिटिया ने कहा, सारे निन्दक आलसी हो गये हैँ, उन्हेँ व्यवस्था के दोष दिखाई ही नहीँ देते और धीरे-धीरे वे निन्दक से चाटुकारोँ की श्रेणी मेँ आ गये हैँ. रोटियोँ और बोटियोँ के एवज़ मेँ सच्ची निन्दा के स्थान पर, झूठी प्रशंसा के पुल बनवा लो उनसे.
चैतन्य भाई! आज इस मुद्दे पर दूसरी बार निरुत्तर हुआ हूँ. पहले बेटी ने किया और अब आपने. लगता है पुराने सन्दर्भोँ को दुबारा देखने परखने की ज़रूरत है.
सर जी! सिर्फ मीडिया ही नहीं समाज में हर तरफ यही दिखाई दे रहा है. वे बातेँ और मर्यादाएँ कब की खण्डित हो चुकी हैँ. और मैँ तो डायलॉग नहीँ बोलता आपकी तरह, फिर भी कहता हूँ कि खण्डित प्रतिमाएँ म्यूज़ियम मेँ तो रखी जा सकती हैँ, ड्राइंग रूम मेँ नहीँ सजायी जा सकती.

कबीर के दोहा का ऐसा भावार्थ सुनकर हमरा त माथा घूम गया. याद आ गया एगो अऊर कहानीकार का बात. का मालूम का नाम था उसका, लोग कह्ता था कि ऊ खेत का मेँड पर बइठकर कहानी लिखता था. जहाँ बइठकर दतवन किया जाता है वहाँ बइठकर कहानी लिखने से एही खराबी होता है. सुनिये ऊ कहानीकार का बात, अब त हमको भी फिजूल का बात लगता है. कहीँ पढे थे कि बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे.

हम होते त जवाब देते कि ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!!

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

तुझपे दिल कुर्बान!!


सुक्रबार के रोज मुसलमान लोग नमाज पढ़ने मस्जिद में जाता है. लेकिन ओही रोज हमलोग पूरा परिबार के साथ मंदिर जाते थे. जुमा के रोज नमाज पढ़ने का त एक ज़माना से परम्परा चला आ रहा है, बाक़ी सुक्रबार को हमरा मंदिर जाना संजोग का बात नहीं था. असल पूरा सहर सुक्रबार को मंदिर जाता था. मंदिर में दरसन करने के लिए एक किलोमीटर लंबा लाइन लगा रहता था अउर दरसन करने में टाइम भी लगता था. जइसे मंगल को बजरंगबली के मंदिर में होता है एकदम ओइसने. मगर ई मंदिर भी संतोषी माता का नहीं था. राधाकिसन, दुर्गा जी, महादेव बाबा अऊर गुरुद्वारा में गुरुग्रंथ साहिब भी थे. समुंदर के किनारे ऊ मंदिर अऊर मंदिर के सामने एगो मस्जिद. सुक्रबार का दिन त हम बताइये दिए हैं. सो बस मेला का दिरिस रहता था.

ओह सौरी!! ई बताना त हम भुलाइये गए कि ई मंदिर दुबई के बर-दुबई इलाका में था अऊर सुक्रबार के दिन साप्ताहिक छुट्टी रहता था ओहाँ, एही से ओही दिन लोग मंदिर जाता था. हमलोग शारजाह में रहते थे. सिरीमती जी के आदेस के अनुसार, भोरे-भोरे उठकर नहाधोकर सबलोग तैयार हो जाते थे. नास्ता-पानी कुछ नहीं, जबतक मंदिर में पूजा नहीं कर लें, तब-तक हमलोग का उपवास. पूजा के बाद, परसादी खाकर पानी पीना, उसके बाड़े कोनो रेस्त्राँ में जाकर नास्ता पानी.

घर से टैक्सी में जाना होता था अऊर जाने में भी करीब पौना घंटा का टाइम लगिये जाता था. ओहाँ जादातर टैक्सी चलाने वाला अफगानिस्तान का पठान सब है. भर रास्ता टैक्सी में चाहे कोनो पख्तूनी गाना बजाते रहता था, नहीं त कोनो कुरआन सरीफ का पाठ चलता रहता था. पख्तूनी गाना समझ में भले नहीं आता था, लेकिन संगीत सुनकर मन खुस हो जाता था, लगता जइसे अपने देस का संगीत सुन रहे हैं. ओहाँ सिनेमा हॉल में भी हिन्दी सिनेमा देखने बहुत सा अरबी लोग आता था. हमरा एगो साथी बताया कि सिनेमा त ऊ लोग ‘सब-टाईटिल’ देखकर समझता है, मगर असली मजा ऊ लोग को हिन्दुस्तानी गाना अऊर संगीत में आता है. बाद में एक रोज सिनेमा हॉल में बहुत भीड़ नहीं था, त हमलोग देखे एगो अरबी अपने हाथ में पारंपरिक अरबी छाता नुमा छड़ी (जो गडरिया लोग लिए रहता है और ईसा मसीह के हाथ में देखाई देता है) लिए हुए सीट के बीच वाला रास्ता में नाच रहा है, पूरा लय अऊर ताल के साथ.

खैर, हम बता रहे थे मंदिर जाने के बारे में. ऊ दिन भी सुक्रबार था अऊर सबेरे ठीक सात बजे हमलोग टैक्सी में बैठकर बर-दुबई जाने के लिए निकले. टैक्सी ड्राइवर एगो दाढी वाला पठान था. सलवार कमीज पहने हुए, आँख में सुरमा लगाए हुए, आधा मेंहदी वाला लाल अऊर आधा काला लंबा दाढी, माथा पर गोल जालीदार उजाला टोपी पहने हुए. टैक्सी जैसहीं अल-जज़ीरा पार्क से आगे निकला, दुनो तरफ समंदर के रेत वाला इलाका चालू हो गया.

ऊ पठान अपना इस्टीरियो पर गाना बदला. गाना बदलते ही टैक्सी के अंदर दिलरुबा का सुर फैल गया अऊर हमको लगा कि एतना मधुर संगीत हम सच्चो कभी नहीं सुने थे. गाना का लाइन बुझा नहीं रहा था, मगर लगा कि कोई बहुत दर्द भरा गाना है या कोनो आदमी किसी को याद कर रहा है. खाली संगीत से हम एतना अंदाजा लगा लिए, इसी से आप समझिए कि ऊ संगीत में केतना गजब का अभिब्यक्ति रहा होगा.

हम देखे कि ऊ टैक्सी का आइना एडजस्ट किया अऊर अचानके पीछे घूम कर देखा. फिर गाड़ी चलाने लगा. मगर ऊ रह-रहकर पीछे देखता जा रहा था. अंत में हमको लगा कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाए त हम बोले, “आप सामने देखकर गाड़ी क्यों नहीं चला रहे हैं! बार-बार पीछे क्यों देख रहे हैं? कुछ बात है क्या, तो हम दूसरी टैक्सी ले लेते हैं!”

ऊ पठान गाड़ी किनारे खडा कर दिया अऊर जब पीछे घूमा त हम देखे कि उसका आँख से आंसू बह रहा है. हम त एकदम अचकचा गए कि ई का हुआ. हमरे बोलने के पहिलहीं ऊ बोलने लगा, “भाई जान! आपकी बच्ची को देख रहा था बार-बार. हमारी बच्ची भी इतना बड़ा होती, जब उसको मुलुक में छोडकर हम आया. दस साल हो गया भाई जान, उसका शकल तक नहीं देखा. आज आपका बच्ची को देखकर अपना बच्ची याद आ गया.”
एतना कहकर अपना सीट के पीछे से ऊ एगो छोटा सा बच्ची का फोटो निकाल कर देखाया. “ये देखो भाई जान, मेरा बच्ची, जब हम उसको छोडकर आया. है ना आपका बच्ची का जैसा हू-ब-हू. पहला बार देखा है अपना बच्ची का शकल आपका बच्ची में!”
पता नहीं ऊ फोटो वाली बच्ची हमरी बेटी के जैसा थी कि नहीं, मगर बेटी त थी. उसके टैक्सी में बैठने वाली हमरी बेटी पहिला बच्ची त नहिंये होगी, मगर उसको का मालूम काहे अइसा लगा.

उसके बाद ऊ टैक्सी चलाता रहा, मगर हमरे आँख के सामने गुरुदेव रबिन्द्र नाथ ठाकुर का कहानी “काबुलीवाला”, बलराज साहनी का चेहरा, सलिल चौधुरी का संगीत और प्रेम धवन साहब का गीत.. सब एक साथ गुज़र गया. टैक्सी में काबुली धुन बज रहा था और गाना का बोल जो हमरे कान में गूँज रहा था, ऊ सायद अलग था उससे
माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू
और कभी नन्हीं सी बेटी बन के याद आता है तू
जितना याद आता है मुझको
उतना तड़पाता है तू
तुझ पे दिल क़ुरबान!!

सोमवार, 6 अगस्त 2012

कितना देती है??


जगह पटना का कोनो मेन रोड:

बताइये त तनी, बोलेरो, सुमो, जाइलो, सफारी, टवेरा, स्कोर्पियो, क्वालिस.. ई सब नाम सुनकर आपके मन में सबसे पहले का बात आता है. एही कि ई सब बडका गाड़ी का नाम है एस.यू.भी. बोलते हैं ई सब गाड़ी को. अऊर हो सकता है कि आपके दिमाग में हमरा भतीजा अभिषेक का भी नाम आ जाए, जो गाड़ी के बारे में अपना ब्लॉग पर लिखता है. मगर जब हम पटना का बात कर रहे हैं त ई सब नाम का माने कोनो गाड़ी का नाम भर नहीं है. ई सुमो, बोलेरो, स्कोर्पियो आपके लिए टाटा अऊर महिन्द्रा का गाड़ी होगा, मगर जब इसके साथ पटना का नाम जुट जाता है त ई गाड़ी नहीं कुछ अऊर बन जाता है.

पटना का कोनो सड़क पर निकल जाइए, एक त सड़क बहुत चौड़ा नहीं है अऊर दोसरा बिकास के अंतर्गत ऊ सड़क को भी आधा-आधी बाँट दिया गया है आने-जाने वाला के लिए अलग अलग लेन बनाकर. माने सड़क अऊर संकरा हो गया है. एही आधा सड़क पर दनदनाते हुए आपको हर दोसरा गाड़ी एही बडका वाला देखाई देगा. ऊहो एतना जोर से लगातार होर्न बजाते हुए कि मोटरसाइकिल वाला आदमी अगर हमरा जइसा कमजोर करेजा वाला हो त ओहीं रोडे पर गिर जाए.

तब्बे हम कह रहे हैं कि पटना में आझो सुमो, सफारी, बोलेरो अऊर क्वालिस का माने खाली गाड़ी नहीं होता है, इसका मतलब होता है एगो एलान कि हमरा औकात देख लीजिए, हमारा ताकत का अंदाजा लगा लीजिए अऊर समझ जाइए कि हमरे अंदर का सामंती ठाठ अभियो बरकरार है. अऊर ई सब के पीछे एलान एही कि हमरे खातिर रस्तवा खाली कर दिया जाए. जउन रास्ता पर मामूली वैगन-आर मोसकिल से चलता है उसपर बोलेरो लेकर होर्न बजाते हुए निकलना ही असली सक्ति-प्रदर्सन है. बड़ा आदमी होने का लच्छन.

जगह: नोएडा, सेक्टर २६, हमरे अपार्टमेंट के सामने का कोठी:

कोठी के दरवाजा पर सरकारी जमीन पर एगो रोवर गाड़ी, एगो नैनो अऊर दू गो फोर्ड अऊर होंडा सिटी गाड़ी लगा रहता है. सबेरे कभी बेटी को बस स्टॉप तक छोड़ने जाने के टाइम में घर की मलकिनी अपना पोती को ओही स्टॉप पर जहाँ सब लोग पैदल जाता है, रोवर से छोडने जाती हैं अऊर छुट्टी के टाइम पर नैनो से वापस लाने. दस बजे मालिक रोवर से ऑफिस चले जाते हैं कनॉट प्लेस, होंडा से बेटा जाता है कनॉट प्लेस और फोर्ड से बेटी जाती है ओही कनॉट प्लेस. घर में नैनो रहता है माता जी के लिए, ओही माता जी जो भोर में रोवर से बच्चा को छोड़ने जाती हैं.

समझे में नहीं आता है कि इहाँ भी होंडा अऊर फोर्ड या नैनो अऊर रोवर, गाड़ी का नाम है कि रुतबा का सर्टिफिकेट. अऊर कमाल ई कि पेट्रोल का दाम बढ़ने पर एही लोग सरकार के गलत फैसला का दुहाई देता फिरता है.

जगह: भावनगर, गुजरात:

छोटा सहर है, दिल्ली/नोएडा से त कोनो तुलना करने का बाते नहीं है, मगर जिला मुख्यालय है अऊर पटना से तुलना किया जा सकता. आइये इहाँ भी कुछ नाम सुनाते हैं आपको. स्कूटी, एक्सेंट, लूना (भुला गए होंगे ई नाम त इयाद कर लीजिए) वगैरह. बच्चा से लेकर बच्चा के दादा-दादी अऊर नाना-नानी तक, मजदूर से लेकर साहेब तक. अइसा नहीं है कि इहाँ ऊ सब गाड़ी का नाम कोई नहीं जानता है. हमरे घर के सामने एगो जिम है, ओहाँ भोरे-भोरे देखाई देता है, रिट्ज, स्विफ्ट, डिजायर. मगर सान का सवारी है स्कूटी नहीं त बाइक. इस्कूल जाने वाले बच्चा से लेकर (हमको त संदेह है कि कोनो बच्चा के पास लाइसेंस होता होगा) हमरे जइसा साहेब तक. अऊर मजेदार बात ई है कि कोनो दुपहिया के ऊपर चार-गो से कम सवारी नज़रे नहीं आता है. पूरा परिवार दुपहिया पर लादे, ई बात से बेखबर कि फालतू का सक्ति-प्रदर्सन किसके लिए या जबरदस्ती का स्टेटस काहे के वास्ते. जब बूढ़ी से बूढ़ी औरत को हम स्कूटी चलाते देखे त मन श्रद्धा से झुक गया.

सोचने लगे कि जब पेट्रोल का दाम बढ़ा त पूरा फेसबुक पर आग लग गया. फेसबुक में लॉग-इन करते के साथ पेट्रोल का गंध से नाक भर जाता था. मगर हमको लगता है कि इहाँ भावनगर में ऊ टाइम पर भी कोनो लड़का अपना दोस्त के बाइक पर प्यार से हाथ फेरते हुए कोनो गाड़ी के बारे में सबसे जरूरी सवाल पूछ रहा होगा – कितना देती है?