हमलोग जब छोटा थे तब का समय अऊर आज का समय
मेँ जमीन-आसमान का फरक हो गया है. पढाई-लिखाई का सिस्टम भी बदल गया है. जहाँ एक
तरफ हिन्दी के किताब मेँ नज़ीर अकबराबादी का मस्नवी पढाया जा रहा है, ओहीँ दोसरा
तरफ कबीर अऊर कबीर का दोहा भी. अज्ञेय का कबिता भी अऊर कैफी आज़मी का गीत भी. देखकर
बहुत खुसी भी होता है कि आज के बच्चा लोग को साहित्त माने साहित्त पढा रहे हैँ, अब
ऊ चाहे हिन्दी भासा का साहित्त हो चाहे उर्दू/हिन्दुस्तानी भासा मेँ लिखा जाने
वाला साहित्त. मगर दु:ख भी होता है, जब देखते हैँ कि अपना बच्चा लोग को न सायरी मेँ
दिलचस्पी है, न दोहा मेँ; न कबिता मेँ, न ग़ज़ल मेँ.
एक रोज बेटी हिन्दी का किताब लेकर आई कि कबीर
का दोहा समझा दीजिये. हम बोले कि पढो जोर से कौन सा दोहा है. ऊ पढना सुरू की:
निन्दक नियरे राखिए,
आँगन कुटी छवाये,
बिन साबुन पानी
बिना, निरमल करे सुभाये!
हम उसको अर्थ बताये – जो व्यक्ति तुम्हारी
आलोचना या बुराई करता है उसको हमेशा अपने पास रखना चाहिये. हो सके तो उसे अपने घर के आँगन
मेँ एक कुटिया बनाकर रहने की जगह दे दो. क्योँकि ऐसे व्यक्ति तुम्हेँ तुम्हारे
दोषोँ से परिचित कराते हैँ और इसी बहाने तुम्हेँ उसे सुधारने का अवसर प्रदान करते
हैँ. वास्तव मेँ वे लोग बिना साबुन और पानी के ही तुम्हेँ निर्मल करते हैँ.
क्योँकि साबुन और पानी से तो केवल शरीर की गन्दगी को साफ होती है, ये आलोचक
तुम्हारे अंतर्मन को निर्मल करते हैँ.
बेटी बहुत गौर से हमारा बात सुनती रही.
बोली, “डैडी! जब आप हिन्दी मेँ कविता या दोहे का अर्थ बताते हैँ तो मुझे
सुनने मेँ बहुत अच्छा लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी धार्मिक सीरियल का डायलॉग
बोल रहे हैँ!” हम अकबका गये कि बेटी के इस बात को “कॉम्प्लिमेण्ट” समझेँ कि का समझेँ. मगर जब ऊ अपना तरफ से दोहा का ‘एक्स्प्लेनेशन’
दी, तब हमको कुच्छो कहते नहीँ बना. ऊ बोली, “ये तो गलत बात है डैडी! अगर उसको अप्ने आँगन मेँ कुटिया बनाकर रहने
देंगे, तब तो वो आलसी हो जायेगा और इसको आपका एहसान मानेगा. एहसान से दबने के बाद
तो वो खुद ही निन्दा करना भूल जायेगा.”
जेतना तर्कजुक्त तरीका से अऊर सीरियसली ऊ
हमसे कही ई बात, हम एकदम अबाक रह गये अऊर तत्काल कोनो जवाब हमको नहीँ सूझा. बस
एतने कहे कि ई सब बात इम्तिहान मेँ मत लिख देना, नहीँ त जीरो मिलेगा. जेतना समझाये
हैँ, ओतने लिखो.
चैतन्य बाबू को फोन पर बताए ई बात. पहिले
त ऊ हंसे, ई बात सुनकर, बाद मेँ राजनैतिक बिसय पर अपना एक्स्पर्ट कमेण्ट देने के
इस्टाइल मेँ बोले, “आप नहीँ समझते हैँ
सलिल भाई, मगर बेटी ने बहुत मार्के की बात की है. सच पूछिये तो यही बात मैँ कब से
कह्ता आ रहा हूँ. ये प्रिण्ट और एलेक्ट्रॉनिक मीडिया, व्यवस्था के साथ मिलकर यही
तो कर रहे हैँ. हमने तो इस विषय पर कितनी पोस्ट लिखी है.”
हम बोले. “ आप तो हर बात का पॉलिटिकल मतलब निकालने लगते हैँ.”
“नहीँ सर! ये बात तो
बिटिया ने कह दी, जो आप नहीँ मानना चाहते. एक ज़माना था जब कहावत मशहूर थी कि जब
तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो. तब ये मीडिया निन्दक का काम किया करते थे. लोग
घबराते थे. आज हालात बदल गये हैँ. व्यवस्था ने तमाम निन्दकोँ यानि मीडिया घरोँ को
घर दे दिये, अपने आंगन मेँ कुटिया छवाकर बिठा लिया. अब जैसा बिटिया ने कहा, सारे
निन्दक आलसी हो गये हैँ, उन्हेँ व्यवस्था के दोष दिखाई ही नहीँ देते और धीरे-धीरे
वे निन्दक से चाटुकारोँ की श्रेणी मेँ आ गये हैँ. रोटियोँ और बोटियोँ के एवज़ मेँ सच्ची
निन्दा के स्थान पर, झूठी प्रशंसा के पुल बनवा लो उनसे.”
“चैतन्य भाई! आज इस
मुद्दे पर दूसरी बार निरुत्तर हुआ हूँ. पहले बेटी ने किया और अब आपने. लगता है
पुराने सन्दर्भोँ को दुबारा देखने परखने की ज़रूरत है.”
”सर जी! सिर्फ मीडिया
ही नहीं समाज में हर तरफ यही दिखाई दे रहा है. वे बातेँ और मर्यादाएँ कब की खण्डित
हो चुकी हैँ. और मैँ तो डायलॉग नहीँ बोलता आपकी तरह, फिर भी कहता हूँ कि खण्डित
प्रतिमाएँ म्यूज़ियम मेँ तो रखी जा सकती हैँ, ड्राइंग रूम मेँ नहीँ सजायी जा सकती.”
कबीर
के दोहा का ऐसा भावार्थ सुनकर हमरा त माथा घूम गया. याद आ गया एगो अऊर कहानीकार का
बात. का मालूम का नाम था उसका, लोग कह्ता था कि ऊ खेत का मेँड पर बइठकर कहानी
लिखता था. जहाँ बइठकर दतवन किया जाता है वहाँ बइठकर कहानी लिखने से एही खराबी होता
है. सुनिये ऊ कहानीकार का बात, अब त हमको भी फिजूल का बात लगता है. कहीँ पढे थे कि
बिगाड के डर से ईमान की बात नहीँ कहोगे.
हम
होते त जवाब देते कि ई त डिपेण्ड करता है कि बिगाड किससे मोल लेना है अऊर ईमान
का बात किसके फेभर मेँ बोलना है!!