रविवार, 21 अप्रैल 2013

प्रसव पीड़ा


“हेलो सर जी! क्या चल रहा है!”
“अरे कुछ नहीं, बताइये!”
“एक मजेदार कांड हो गया. पता है......!”
लगभग अइसहीं हम दुनो का बात चीत सुरू होता है. अब इसमें संबाद का अदला बदली भी आम बात है. डिपेंड करता है कि फोन किया कउन है. केतना बार उनका फोन आया त हम बोले कि पूछिए मत लेबर पेन से छटपटा रहे हैं.
“कोई बात नहीं, सलाइन चलने दीजिए, डिलीवरी नोर्मल होगी!”
एतने नहीं, आधा एक घंटा के बाद फिर पूछेंगे, “क्या हुआ?”
“बस हो गया!”
“तो चलिए मुँह दिखाइए! इरशाद”
अऊर इसके बाद सुरू होता है सिलसिला चैतन्य बाबू को फोन पर पोस्ट सुनाने का, माने बच्चा का मुँह देखाई. एगो अऊर बात बड़ा मजेदार ई रहा है कि आजतक बिना इरसाद बोले हममें से कोनो आदमी सुनाना सुरू नहीं करता है.
बहुत सा पोस्ट को सुनते ही ऊ खुस हो जाते हैं, कोनो कोनो पोस्ट पर उनके आवाज से हमको बुझा जाता है कि बहुत पसंद नहीं हुआ. लेकिन उनके बात का हम अऊर हमरे बात का सम्मान ऊ करते रहे हमेसा.
एगो पोस्ट हम बहुत मन लगा कर लिखे थे. बहुत प्यारा था हमको. पूरा सुनने के बाद ऊ बोले, “बहुत सुन्दर है सर जी! लिखा भी शानदार है! लेकिन इसको पब्लिश मत कीजिये. जिन बातों के कह देने से अपशकुन होने की बात आप कह रहे हैं, उसपर पोस्ट लिखना भी तो कह देने जैसी बात है.”

उनका बात हमको दिल पर लग गया. भले ही ऊ पोस्ट हमको बहुत पसंद था, लेकिन आझो हमरे फोल्डर में पड़ा हुआ है. कुछ बच्चा गंडमूल नछत्तर में भी पैदा हो जाता है बेचारा.

दू दिन पहिले अइसहीं मन नहीं लग रहा था त सोचे कि चलो अपना पुरनका पोस्ट पढकर देखते हैं. एकदम नॉस्टैल्जिक लगा. बिस्वास नहीं हुआ कि बेनामी से सलिल वर्मा अऊर सलिल वर्मा से सलिल जी, सलिल जी से सलिल भाई अऊर सलिल भाई से चाचा, दादा, बाउजी, दाऊ, दादू, पापा अऊर पा. कभी सोचबे नहीं किये थे कि बात बात में बात एतना बढ़ जाएगा.

आज हमरे ब्लॉग का भी तीन साल हो गया.
हमरे सुरुआती टाइम का दू चार ठो कमेन्ट आपके साथ बांटना चाहते हैं. लोग का सोचते थे हमरे बारे में अऊर अब का दर्जा है हमारा उनके दिल में.

कुमार राधारमण:
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है। मेरा शुरू से मानना रहा है कि ब्लॉग पर जितना सार्थक काम हो रहा है,उसमे से कम से कम पचास प्रतिशत का श्रेय छद्मनामी या अनामी ब्लॉगरों को जाता है। ठेठ भाषा की शैली में नाममात्र ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। मुझे विश्वास है कि अगर आप ब्लॉग जगत में बने रहे,तो एक दिन आपका योगदान सार्वजनिक चर्चा का विषय बनेगा। शुभकामनाएं लीजिए।

शिवम मिश्रा:
मेरे हिसाब से बात यह जरूरी है की आप अपने ब्लॉग के मार्फ़त क्या कहेते है ना कि यह कि आप कौन है और कहाँ के है ??

मैं आपके ब्लॉग से जुड़ा क्योंकि आपकी बातो में मुझे अपनेपन का अहेसास हुआ और आपकी बाते दमदार लगी !! जिस किसी भी दिन यह दोनों खूबियाँ आप में नहीं होगी आप आप नहीं होगे और हम आपके साथ नहीं होगे !! वैसे बिहार का होने में कोई गुनाह नहीं है आप अपनी भाषा को और अपने आप को जो सम्मान दिलाने की कोशिश कर रहे है वह तारीफ के काबिल है !!

हमारी शुभकामनाएं आपके साथ है !!


संजय अनेजा- मो सम् कौन:
ई लेयो भाई, पहला कमेंट हमरा झेलो।
अपनी पोस्ट पर कमेंट और अपने प्रदेश पर होने वाली कमेंट की बात करके आपने अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया है। 
फ़िर से कहता हूं, जब तक आप किसी की मानहानि नहीं कर रहे हैं, बेनामी होने के कारण या किसी प्रांत विशेष से संबंध रखने के कारण होने वाले भेदभाव के विरोध में हम भी आपके साथ हैं।


सतीश सक्सेना:
मेरा विचार है कि किसी लेखक के व्यक्तित्व को जानने के लिए आप उसके ३ - ४ लेख पढ़ लीजिये ! मेरा विश्वास है कि उसका सच्चा व्यवहार समझने में देर नहीं लगेगी ! आपकी पहली पोस्ट से आप एक भले मगर मज़बूत आदमी लगे ! प्रांतीयतावाद और भेदभाव इस देश से हर हालत में मिटना चाहिए ! इसके लिए लेख के माध्यम से आवाज उठाना मानवता और देश की सेवा ही है !
 
एक बात और कृपया गुरु जी न कहें ...मैं अपने आपको इस सम्मान के योग्य नहीं मानता ...हो सके तो दोस्त और भैया कहो उसमे बड़ा प्यार है!


नीरज गोस्वामी:
आज आपका ब्लॉग पे पहली बार आना हुआ और पहली बार में ही यहाँ का हो कर रह गया..आपक लिखने का अंदाज़ इतना रोचक है के एक के बाद एक कई पोस्ट पढ़ गया...दू जून का बात में आप गज़ब ही कर दिए हैं...अब आपका समझो मैं पक्का फैन हो गया हूँ...कोई रोक सके तो रोक ले...:))

स्व. डॉक्टर अमर कुमार:
মা গো.. কি রকম ভাল কথা.. (ओ माँ, कितनी सुन्दर बात)
কিন্তু একটু অব্যেক্শন তো..  (किन्तु एक ओब्जेक्शन है)
এঈটা কোলকাতার ও বাঁগালের কর্জ নেঈ (यह कोलकाता और बंगाल का क़र्ज़ नहीं)
আবার দিন দুঈগুলোর প্রতিদান বলবেন (इसके बाद दोनों को प्रतिदान बोलिएगा)

मनोज कुमार:
धुत्त मरदे!
इतना अपनापन से कोई लिखता है। आप त बात-बात में रुलाइए देते हैं। ई सब बात मने में रखते त काम नहीं चलता का।
अब छोटका भाई बना लिए हैं त आना त पड़ेगा ही। इधर बहुत दीन से दील्ली जाना हुआ ही नहीं है। ससुरारो बाला सब इयाद नहीं करता है। देखें "ऊ" अगर राखी बांधने का जीद की त जाना तो होगा ही।
हं एगो बात है। परिबार बढाते रहिए। इसमें नियोजन का कोनो जरूरत नहीं है।

सरिता दी:
aaj mai London pahuch gayee bitiya ke paas mere blog se mere bacche jude hai kahee bhee ho padte hai aur personally phone par batate hai apanee pratikriya.........

aapkee tippanee padkar aapkee shailee bahut acchee lagee. ( S F O se phone par bolee badee betee ) mamma uncle apane lagte hai...........
ise blog jagat se parivar jan saa sukh milta hai.....comments kee gintee mai nahee kartee par haa apanapan jaroor toul letee hoo .
bitiya ne yanhaa aate hee sabse pahile mera laptop activate kar diya.......

अब का कहें.. बहुत कुछ बिखरा सा है. बहुत सा रिस्ता समेट लिए. हाँ, सरिता दी का एक्के बात दिमाग में हमेसा रहा कि कमेंट्स का गिनती कभी नहीं किये, हाँ अपनापन जरूर तौल लेते रहे.

कहानी, कबिता, नज़्म, संस्मरण, समीक्षा सब लिखे. सम्मान और अवार्ड के नाम पर रिस्ता बनाते रहे. कभी गायब रहे तो महीनों नजर नहीं आये, मगर हालचाल सबका पता लगाते रहे! अपनापन भी कोनो चीज है भाई. अऊर एही त पहचान है हमारा!!

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

Diamonds are forever!!


कभी-कभी हमको अपना ऊपर बहुत गोस्सा आता है कि जहाँ पढा-लिखा लोग-बाग, अपना बात कहने के लिये गीता-पुरान, उपनिसद अऊर ग्रंथ का उदाहरन देता है, हम सिनेमा का उदाहरन देकर अपना बात कहते हैं. मगर जाने दीजिये मतलब त बात कहने से अऊर समझ में आने से है. कुच्छो हो, सिनेमा त ऐसहूँ हमरे रग-रग में बसा हुआ है.

ऊ का है कि तब तक सिनेमा में आतंकबाद नहीं आया था. अपराध माने स्मगलिंग - ऊ भी हीरा का. रॉबर्ट एगो काला रंग का पोटली निकालकर लॉयन को थमाता है अऊर उसके अन्दर से ढेर सा हीरा निकलकर चमकने लगता है. हीरा से जादा चमक लॉयन के आँख में देखाई देता है. ऊ घूमकर गोली चलाता है अऊर रॉबर्ट ओहीं जमीन पर गिरकर ढेर हो जाता है. लॉयन अपना बाकी आदमी से बोलता है, कफन में जेब नहीं होती, मगर इस मुर्दे की जेब भी है और असली हीरे उसमें ही हैं. निकाल लो हीरे और इसकी लाश को माहिम की खाड़ी में फेंक दो!
बहुत बड़ा मकान था. तिनमहला था मगर बहुत लम्बा-चौड़ा. फाटक के जगह पर बड़ा-बड़ा लोहा का ग्रिल, बीच में छोटा सा दरवाजा, एक आदमी के जाने भर, पीछे एगो गार्ड हाथ में बन्दूक लिये हुये. सीढी चढकर, जैसहिं हम दरवाजा खोले कि घूमने वाला कुर्सी के पीछे से आवाज़ आया, आइये साहब!
सामने पूरा देवाल पर टीवी स्क्रीन लगा हुआ था अऊर फाटक से लेकर एहाँ तक हमरा एक-एक कदम निगरानी में था. एही नहीं, तिनमहला मकान के हर कमरा पर एहीं से निगरानी रखा जा रहा था. हमको सामने वाला कुर्सी पर बइठने का इसारा हुआ.
बोलिये साहब क्या लेंगे, ठण्डा या गरम, चाय या कॉफी?
बस ठण्डा पानी.
क्या साहेब! पहली बार आये हैं तो सिरिफ पानी कैसे चलेगा...  ठण्डा आपो (लाओ)!
ठण्डा नहीं, चाय चलेगी!
जबतक चाय आता, हम अगल-बगल सीसा का कमरा में नजर दौड़ाये. टेबुल के ऊपर लैम्प जलाकर सैकड़ों जवान लड़का सब टेबुल में मूड़ी गड़ाये हुये काम में मगन था.
देखिये साहब! यही हमारा छोटा सा काम है!
एतना बात बोलते हुये ऊ कागज का पुड़िया निकाला अऊर हमरे सामने एक मुट्ठी हीरा निकाल कर रख दिया. सामने चमचमाता हुआ हीरा देखकर हमको भी अजीब तरह का सिहरन होने लगा. याद आया कि बचपन में जब हमरा छोटा भाई दादा जी के ऑफिस जाता था (माँ-पापा के साथ), त दादा जी उसको पोस्ट ऑफिस का तिजोरी खोलकर देखा देते थे जिसमें नोट भरा रहता था. हमरे भाई का आँख देखने लायक होता था ऊ समय. ऊ मम्मी को कहता था कि दादा जी से पैसा माँगने पर मना कर देते हैं अऊर सब पैसा ऑफिस में रखते हैं.
फिर ऊ आदमी हमको पूरा फैक्टरी घुमाने ले गया. मामूली गन्दा पत्थर, एकदम सेन्धा नमक का ढेला जइसा, मगर लेजर से काटने अऊर पॉलिस करने के बाद जब ऊ चमक लेकर हमलोग के सामने आता है त इतिहास गवाह है कि केतना लोग का नीयत खराब हो जाता अऊर केतना खून-खराबा हो जाता है.

पिछला तीन-चार महीना से एतना परेसान रहे हैं कि का बतायें. घर-ऑफिस का रोज का परेसानी के साथ-साथ एगो जरूरी दस्तावेज हमसे पहिले वाला आदमी लेना भुला गया अऊर पकड़ा गया हमारे टाइम में. सबको मालूम था, लेकिन जिम्मेवारी हमरा था. नौकरी में दाग, अनुसासनिक कार्रवायी अऊर पता नहीं का का होता. टेंसन अइसा कि कोई मदद करने वाला नहीं.

एक रोज एगो आदमी मिलने आया अऊर उसको हम मदद के लिये अपना समस्या बताये कि अगर कोई जान-पहचान से दस्तावेज मिल जाये तो हम अपना पइसा खर्च करके कलंक से त बच सकेंगे. ऊ बोला, साहब! आपके लिये हम इतना भी नहीं कर पाये तो लानत हम पर और आप जैसे नेक आदमी को यहाँ परेसानी हो,  ये हमसे बर्दाश्त नहीं होगा. आप मेहमान हैं हमारे. आपका पैसा नहीं खर्च होगा. तीन रोज में ऊ आदमी कागज लेकर हमारे सामने आया अऊर बोला, साहब! आप हंसते हुये अच्छे लगते हैं!

हम परेसानी के लेजर किरन के आँच में कटते अऊर रगड़ाते हुये अपना चेहरा का चमक बचा सके अऊर ई सोचकर खुस थे कि परमात्मा तकलीफ नहीं दे त इंसान हीरा कैसे बनेगा. एही अनजान सहर में ऊ हीरा जइसा आदमी हमको भेंटा गया.

अमित जी त रोज कहबे करते हैं, बाकी आज त हम भी आप लोग को कहेंगे कि
खुसबू है एहाँ के हर बात में,
अरे, कुछ दिन त बिताइये गुजरात में!