बुधवार, 25 मई 2011

कहानी फ़िल्मी नहीं है!

अगर कोनो आदमी, बिना दिन तारीख बताए हुए किसी का घर में चला आवे, त उसको अतिथि कहते हैं. ओइसहीं अगर कोनो अईसन घटना घट जाए जिसका उम्मीद नहीं हो त उसको संजोग कहते हैं. एगो अउर परिभासा है संजोग का जो हमरे घर में बहुत परचलित है. हमलोग संजोग को सिनेमा जईसा घटना बोलते हैं. जइसे सनीचर को अचानक हमरा चंडीगढ़ जाने का प्रोगराम बन गया अउर जब हम चैतन्य बाबू के सामने खडा हुए, तो सिनेमा का घटना का जईसा लगा उनको अउर ऊ एकदम अबाक रह गए अउर हमसे हाथो नहीं मिला सके. तनी हमरा पुराना पोस्ट पर नजर दौड़ाइयेगा त याद आ जाएगा कि अनुराग जी से हमरा मुलाक़ात भी एकदम सिनेमा का घटना जईसा हुआ था.

असल में तीन घंटा के भीतर का मालूम केतना साल का खिस्सा देखा देता है सिनेमा में. कभी कभी त पिछला जनम तक का कहानी उसमें रहता है. अब सब बात तीन घंटा में देखाने के कारन, घटना एतना तेजी से घटता है कि बिस्वास नहीं होता है कि जिन्नगी कहीं इतना तेजी से चलता है. एही से सिनेमा का घटना सब संजोग लगता है. एगो रईस बिजनेसमैन, अचानक सड़क पर आ गया, घर नीलाम हो गया, दोस्त धोखा दे गया, बाल-बच्चा नालायक निकल गया अउर ऊ बेचारा दाना-दाना के लिए मोहताज हो गया. संजोग से एगो दोस्त भेटा गया, जो उसको नौकरी दिया अउर मेहनत से सिनेमा के अंत में ऊ फिर से आलीशान कोठी का मालिक. जइसे उनका दिन बहुरा, भगवान सात घर दुसमन का दिन भी बहुराए.

ब्लॉग के दुनिया में एतना फास्ट घटना क्षमा जी के बिखरे सितारे पर घटता है. अपना सामाजिक जीबन में, बहुत सा महिला लोग से उनका मुलाक़ात हुआ, बहुत सा बात उनको पता चला, बहुतों का जीबन सुधारने के लिए ऊ कोसिस कीं. अउर उनसे हमलोग का भी परिचय करवाईं. ऊ महिला लोग के जीबन का उथल पुथल देखकर मन बहुत दुखी हो जाता था. उनके पोस्ट पर केतना बार हम कमेन्ट किये कि ये सारी घटनाएँ, फिल्मी घटनाओं सी लगती हैं. ऐसा लगता है कि सारी दुनिया उस किरदार की दुश्मन बनी बैठी है और सारे दुःख, तकलीफें सिर्फ उसी का इंतज़ार कर रही हैं. आप एक अच्छी पटकथा लिख सकती हैं. उनके साथ बतियाने में भी ई बात हम उनको बताए कि आपके चरित्र को क्या एक भी अच्छा आदमी नहीं मिलता या एक बार धोखा खाने पर वो कैसे विश्वास कर सकती है दूसरे धोखेबाज़ पर? लेकिन उनका जवाब एक ही होता, तुम्हारे कहने से मैं उन घटनाओं को नहीं बदल सकती, जो उन महिलाओं के साथ हुई हैं. तुम्हें ये बातें फ़िल्मी भले लगती हों, लेकिन जिनपर बीती हैं, मैं उनकी साक्षी रही हूँ कभी न उनके बात का हम बुरा माने, न ऊ हमारे बात का बुरा मानीं.

ओशो कहते हैं कि चारों ओर हमारी ही फेंकी हुई ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती हैं. थोड़ी देर अवश्य लगती है. ध्वनि टकराती है बाहर की दिशाओं से और लौट आती है. जब टक लौटती  है तब तक हमें ख्याल भी नहीं रहता कि हमने जो ध्वनियाँ फेंकी थी, वही वापस लौट रही हैं.

क्षमा जी से कहा हुआ बात इतना जल्दी वापस आ जाएगा कभी सोचे नहीं थे. पीछे एक डेढ़ महीना में आठ साल पुराना लैपटॉप परेसान करने लगा. बनवाए तो एकदम फस्ट क्लास हो गया. मगर एक हफ्ता के बाद दम तोड़ गया बेचारा. सरीर का कोनों अईसा अंग खराब हुआ कि कोइ डोनर नहीं मिला. ईस्वर उसका आत्मा को सांति दे. हमारे दाहिना हाथ का दर्द एतना बढ़ गया कि बर्दास्त करना मोस्किल हो गया. बीमारी सचिन तेंदुलकर वाला अउर कारण ओही लैपटॉप. पता नहीं उसके बीमारी का कारण हम थे कि हमरा बीमारी का कारण ऊ. अभी इसी में ओझराए थे कि एडी का दर्द के चलते, गोड जमीन में धरना दुस्वार. ऑफिस, घर, परिबार सब तरफ से पेंडिंग, सब परेशानी अपना हिसाब मांगने चला आया. इनकम टैक्स बिभाग भी नोटिस भेज दिया कि हम अपना एतना इनकम छुपाए हैं, जेतना ई मामूली तनखाह पाने वाला आदमी का तीन महीना का तनखाह होता है. त हम जो बारह महीना का टैक्स दिए ऊ साल साल में कहीं १५ महीना तो नहीं था!! का मालूम होइयो सकता है.

अंत में हमको मिली क्षमा जी के कहानी वाली औरत. हमरे फ़्लैट के ऊपर रहती थी. एतवार को हमरी बेटी खेलने के लिए निकली, अउर तुरत लौट कर बोली, डैडी!! ऊपर एक आंटी ने फांसी लगा ली है! उसको घर में रुकने को बोलकर हम भागकर ऊपर गए. देखे कि हॉल में घर का मालिक (अफ़सोस ऊ हमरे संस्थान में काम करता है) सराब के नसा में धुत्त आराम से बईठा हुआ है. हम अंदर जाकर देखे तो कमरा बंद, अऊर जब दरार से आँख लगाकर देखे त हमरा देह ठंडा हो गया. पंखा से ऊ औरत झूल रही थी. सफाई करने वाला आदमी को जब पता चला त चिल्लाकर भागा था अउर हमरी बेटी सुनी. सोसाइटी के पदाधिकारी होने के नाते अउर सामाजिक होने के नाते पुलिस, पोस्टमार्टम का इंतजाम किये. ऊ आदमी को कोइ होस नहीं. बयान तक नहीं दे पाया पुलिस के सामने. आधा रात के बाद जब आंध्र परदेस से उसकी बेटी आ गयी, तब हम घर लौटे.

मरने वाली के बेटी का रोना अउर तेलुगु में रोते हुए बाप को कोसना अउर माँ को याद करना, हमरे कान में टीस मार रहा था. जब उधर से दिमाग हटा तो हम क्षमा जी को फोन किये और बोले, आज आपकी कहानी के एक और किरदार से मिला मैं. साल भर से मेरे घर के ऊपर रह रही थी. और सचमुच ये सिनेमा की कहानी नहीं है.

शनिवार, 7 मई 2011

बिना शीर्षक!!


जब से वो ट्रांसफर होकर यहाँ आया था, तकरीबन एक साल पहले, तब से ही बहुत परेशान रहा करता था. किसी से कुछ बतियाता भी नहीं था और किसी को कुछ बताता भी नहीं था. लोग कहते कि पहली बार घर से बाहर आया है इसलिए होम-सिकनेस है. साल भर के अंदर उसने छुट्टियाँ भी काफी लीं. तब पता चला कि उसका १४-१५ साल का बेटा दिमागी तौर पर बीमार है और कभी कभी तो उसकी तबियत इतनी बिगड जाती है कि बस अब-तब की हालत हो जाती है. इसी वज़ह से कई बार उसे अचानक छुट्टी पर जाना पड़ जाता था.  
यूनियन के नेताओं से बात की, उच्च अधिकारियों को मजबूरी बताई. ये भी बताया कि बेटे का इलाज एक ही डॉक्टर इतने सालों से कर रहा है, इसलिए बच्चे को यहाँ लाकर नए सिरे से इलाज नहीं कराया जा सकता है और दिमाग का मरीज़, बाप के सिवा किसी से संभालता भी नहीं. लेकिन सारी पैरवी बेकार. सबों ने अपनी-अपनी मजबूरी जता दी और कहा कि तीन साल से पहले वापस ट्रांसफर संभव नहीं. उलटे उसे जली-कटी भी सुनने को मिली कि बिना बताए छुट्टी पर चला जाता है. काम की तो कोइ फ़िक्र ही नहीं. इसे तो किसी और मुश्किल जगह पर ट्रांसफर करना पडेगा, तब पता चलेगा.
एक रोज फिर वो इसी तरह गायब हो गया. एक समझदार व्यक्ति ने उसकी सारी समस्या फिर से यूनियन नेताओं को बताई और कहा कि उसके बेटे की हालत बहुत खराब है, जो बाप के पास न रहने से और भी बिगड गयी है. किसी भी तरह से उसका ट्रांसफर वापस उसके शहर करवा दिया जाए तो, बड़ा उपकार होगा उसपर. नेताओं और अधिकारियों ने इस बार सच्चे दिल से उसके बारे में सुना और सोच-विचार किया. फ़ाइल ऊपर बढाई गयी और संकेत मिले कि काम हो जाएगा.
इस बीच वो लौट आया. सर मुंडाए, और भी ज़्यादा उदासी लपेटे. लोगों की समझ में सारी बात आ गयी कि उसका बेटा चल बसा. कई लोगों ने सांत्वना व्यक्त की, कई लोगों ने कहा कि उस बच्चे को कष्ट से मुक्ति मिल गयी. नेताओं ने समझाया कि हमारी भी मजबूरियाँ होती हैं, हम तो कोशिश कर ही रहे थे और फ़ाइल आगे बढ़ भी चुकी थी. वो सबों की बातें चुपचाप सुनता रहा. पहली बार उसकी आँखों से टप-टप आंसू बह रहे थे.
यूनियन के नेता अधिकारियों के पास गए और उनमें बातचीत शुरू हुई.
चलो अच्छा हुआ उसका बेटा मर गया, सारे ट्रांसफर हो जाने के बाद बीच में किसी का ट्रांसफर करवाना कितना मुश्किल होता है, ये हम ही जानते हैं.
फ़ाइल वापस लौटाने का कोइ फायदा नहीं है. एक बार ट्रांसफर की परमिशन आ जाए, तो देखेंगे उसकी जगह किसी अपने आदमी को एडजस्ट कर लेंगे. क्या कमाल का संजोग है!
पुनश्च: यह मात्र कथा नहीं, एक सत्यकथा है. इसमें पात्रों, शहर, संस्थान आदि के नाम नहीं लिखे हैं, इसलिए किसी से मेल खाने का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता है. घटना के मेल होने की स्थिति में इसे भी उसी घटना की श्रेणी में मानें.
(टंकक: सुधीर)