शनिवार, 21 अप्रैल 2012

किसन अर्जुन

अभी कल्हे-परसो टीवी पर देख रहे थे प्रोग्राम “मूभर्स एंड सेखर”... अरे ओही अपना सेखर सुमन का प्रोग्राम. एगो पाकिस्तानी हिरोइन को बोलाए हुए था, जिसके बारे में बहुत सा खिस्सा पहिलहीं से मशहूर है, नाम बीना मलिक. जब ऊ बोलने लगी त बताईं कि भारत में उनका बहुत सा लोग के साथ प्रेम सम्बन्ध बना अऊर सबके साथ ब्रेकप हो गया. अब ई ब्रेकप का माने होता है मन भर जाना, चाहे भिखमंगा के जैसा दोसरा दरवाजा देखना. हमको संतोस हुआ कि इसमें दिल टूटने जैसा कोनो बात नहीं है. बस भेकेंसी हो जाने वाला बात है कि अब जगह खाली है. बीना मलिक खुदे बोलीं कि अब हमको कोई सच्चा दोस्त का तलास है.

सिनेमा का दुनिया में ई सब टाइप का खिस्सा पहले बनाया जाता है, फिर उसको फैलाया जाता है अऊर बाद में उससे इनकार कर दिया जाता है, चाहे अफवाह बता दिया जाता है.  ऊ एगो कहावत है न कि लक्ष्य पा लेने के बाद त कोनो आनंद नहीं है, असली आनंद त जात्रा में है. आमिर खान जब अपना बीवी को छोडकर दोसरा औरत से बिआह (?) कर लिए त बात खतम हो गया, करीना कपूर जब होटल में साहिद कपूर के साथ धरा गयी थीं, त बड़ी हंगामा हुआ, मगर जब साहिद कपूर को छोड़ दी त कोनो बात नहीं, सैफ अली, जब सादी के इतना साल बाद, अमृता सिंह को छोड़ दिए त बबाल मच गया, मगर जब करीना के साथ खुल्ले आम घूमने लगे त बात खतम. अब ऊ बिआह करें कि साले-साल बिआह पोस्टपोन करें, कोनो आदमी के पेट में दरद नहीं होता है. जब तक ऊ लोग ई खबर को अफवाह बताता रहा, लोग मजा लिया; जिस दिन कन्फर्म हो गया, बात खतम.

देवयानी चौबल उर्फ देवी (खाली ‘उर्फ’ लगा देने से खूंखारियत चौगुना हो जाता है) अइसने एगो पत्रकार थीं – गॉसिप पत्रकार. जब हम लोग इस्कूल/कॉलेज में पढते थे, तब सोचते थे कि कहाँ-कहाँ का खबर निकालकर लाती है. अभी हाल में जब “द डर्टी पिक्चर” देखे, त अंजू महेन्द्रू (इनका गैरी सोबर्स के साथ, बाद में राजेस खन्ना के साथ खूब कहानी चला था) को देवयानी चौबल के रूप में देखकर पुराना टाइम याद आ गया. भगवान उनके आत्मा को सांति दे, मगर कमाल की गॉसिप पत्रकार थी. बताता है लोग कि राजेस खन्ना को ऊपर चढाने में देवी का बड़ा हाथ था.

जाने दीजिए, सिनेमा का दुनिया त आभासी दुनिया से भी जादा आभासी है. ब्लॉग का आभासी दुनिया भी गॉसिप से अछूता नहीं है. आज ओही बताने के लिए हम इतना बात बताए हैं. हमरा ब्लॉग पढ़ने वाला में बहुत सा लोग अइसा भी है जो लोग सामाजिक/व्यावसायिक दुनिया से हमसे जुड़ा है. ऊ लोग कमेन्ट नहीं करता है, मगर ब्लॉग पढता है जरूर. ई बात इसलिए कहे कि ऊ लोग का नाम बताने से भी आपलोग नहीं पहिचान पायेंगे. ऊ लोग से गाहे-बगाहे भेंट होता रहता है. कुछ रोज पहिले एगो फंक्सन में हम गए. बिस्वास कीजिये, जेतना लोग हमसे मिला, सब लोग एक्के बात पूछ रहा था. तनी आप भी सुनिए बातचीत:
“क्या बात है सलिल भाई! चैतन्य जी से कोई झगड़ा हुआ है क्या?”
“नहीं तो!!! आपसे किसने कहा?”
“छोडिये, जाने दीजिए! हम भी खबर रखते हैं!” मुस्कुराते हुए अइसे बोले जैसे एजेण्ड बिनोद हों.
“अच्छा! ज़रा मुझे भी बताइये, क्या खबर है हमारे बारे में?”
“यही कि आप लोगों में लिखने को लेकर झगड़ा हो गया है. वैसे एक बात बताऊँ सलिल जी, मैं शुरू से जानता था कि ये ज़्यादा दिन तक नहीं चलने वाला था. इगो क्लैश, यू नो!”
“मित्रवर! इगो का परित्याग करके ही हम दोनों एक हुए थे. फिर हमारे मध्य इगो की दीवार कहाँ से आयी!”
“हा हा हा! अब तो आप ये कहेंगे ही! खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे. प्लीज़ बुरा मत मानियेगा!”
“बुरा तो हमें किसी बात का नहीं लगता, मगर आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे आपने घोड़े के मुँह से ही सुन रखा हो ये सब. चैतन्य जी ने आपको फोन किया था या आप चंडीगढ गए हुए थे उनके पास?”
“अरे हम तो मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देखकर!” (फिर से एजेंट विनोद) “चलिए मान लिया आपकी बात सच है, तो फिर ‘संवेदना के स्वर’ पर कुछ भी नया क्यों लिखा आप लोगों ने? बताइये-बताइये! जबकि ‘चला बिहारी..’ पर आप लगातार लिख रहे हैं!”

त ई बात है!!! हम चुप रहे, हम हंस दिए... अब ऊ लोग को हम का बताएं कि सायदे कोनो दिन अइसा होता होगा जब चैतन्य आलोक अऊर हम नहीं बतियाते होंगे, बल्कि दिन भर में बीस बार. कोनो मुद्दा ऑफिसियल या अन्-ऑफिसियल, हम दुनो सेयर करते हैं, बहस करते हैं और सलाह-मसबिरा करते हैं. हम दुनो को अफ़सोस है कि उनके साथ काम का बोझ एतना आ गया है अऊर ऑफिस का माहौल इतना अजीब हो गया है कि पहिले जेतना टाइम भी नहीं है अऊर टेंसन भी बहुत है! हमरा भी ओही हाल है, मगर हम उनके बिना ‘संवेदना के स्वर’ का कल्पना भी नहीं कर सकते हैं. इहाँ तक कि ई ब्लॉग पर भी कोनो पोस्ट अइसा नहीं है, जो उनको बिना सुनाये हुए हम पोस्ट किये हों. एही नहीं, ब्लॉग जगत का कोनो गतिबिधि उनसे छूटा हुआ नहीं है. ऊ ब्लॉग जगत से दूर हैं, मगर सब खबर पूछते रहते हैं हम से.

आज हमरे ब्लॉग का दोसरा सालगिरह है. मगर ई दू साल के सफर में हम दू आदमी को कभी नहीं भुला सकते हैं. एगो हैं मनोज भारती... हमेसा हमको लिखने के लिए प्रेरित करते रहे. हमारा पोस्ट जेतना मन लगाकर ई पढते हैं, बहुत कम लोग पढता होगा. सच पूछिए त जेतना सीरियसली हम लिखते नहीं हैं, ओतना सीरियसली मनोज भारती जी पढते हैं हमारा पोस्ट.

अऊर चैतन्य बाबू का त बाते अलग है. मनोज जी अगर प्रेरना हैं त चैतन्य जी आत्मा हैं. आज अगर हम ब्लॉग जगत में दू साल पूरा कर रहे हैं त उस जात्रा में एक कदम हमरा है अऊर दोसरा कदम चैतन्य जी का. बहुत दिन हो गया उनसे मिले हुए. एक दिन फोन किये कि बस आपके साथ आमने-सामने बैठकर बात करने का मन कर रहा है. हम भी सोचे कि पता नहीं कब हमरे ट्रांसफर का चिट्ठी आ जाए अऊर हम उनसे एतना दूर हो जाएँ कि आसानी से मिलना भी नहीं हो पाए. हम भी बोले कि बस आपको छूकर देखना चाहते हैं. आज पता नहीं कहाँ से पाओलो कोएल्हो का कहा हुआ एगो संबाद याद आ रहा है:

मैंने गौर से कारवाँ को रेगिस्तान पार करते देखा. इन दोनों की भाषा एक ही है. इसीलिए रेगिस्तान कारवाँ को अपने ऊपर से गुजरने देता है. वह कारवाँ के हर कदम को बड़े ध्यान से देखता-परखता है कि वह समय के साथ है कि नहीं. यदि है, तो फिर वह हमें नखलिस्तान पहुँचाने से नहीं रोकता!

सचमुच ऊ नखलिस्तान हमरे सामने है, हम दुनो ‘सखा’ के साथ-साथ चलने का नतीजा, हमरे ब्लॉग का दूसरा सालगिरह!


शनिवार, 14 अप्रैल 2012

तीन दशक और वह, जो शेष है!


“वह, जो शेष है!” श्री राजेश उत्साही की कविताओं का प्रथम संकलन है. ज्योतिपर्ब प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का विमोचन अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला – २०१२ में प्रगति मैदान, नई दिल्ली में हुआ. इस कविता-संग्रह में कुल ४८ कवितायें हैं, जो इन्होंने तीन दशक से भी अधिक के कालखंड में रची हैं. यदि इतने लंबे अंतराल में उत्साही जी द्वारा रचित कविताओं की संख्या (जो इस संग्रह में हैं) मात्र ४८ हैं, तो सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उन्होंने कवितायें “लिखीं” नहीं है, “रची” हैं. एक-एक कविता, गर्भधारण से लेकर प्रसव तक की यात्रा है. अतः यह कहने की आवश्यकता नहीं कि राजेश जी ने इन कविताओं को जिया है, पात्रों के साथ एकाकार हुए हैं और उनकी अनुभूतियों को अपने अंदर उतारा है, उनकी वेदनाओं का हलाहल नीलकंठ की तरह पिया है, तब जाकर इन कविताओं का जन्म हुआ है.

इस कविता-संग्रह में कविताओं के क्रम न तो रचना-काल के अनुसार हैं, न ही रचनाकार की पसंद के क्रम में हैं. राजेश जी के अनुसार कविताओं की विषयवस्तु के आधार पर उन्हें क्रम प्रदान किया गया है, जो मूलतः तीन श्रेणी में हैं – प्रेम, सरोकार और व्यक्तिगत कवितायें. यहाँ मुझे एक और श्रेणी दिखी जिसके विषय में कवि ने कुछ नहीं कहा. वह श्रेणी है (और संग्रह में प्रथम श्रेणी वही है) कवि और कविता के संबंधों की. शायद स्वयं को कविता के दर्पण में देखने की चेष्टा. चुप्पी उनके स्वभाव का परिचायक है और “कवि भी एक कविता है” में यह कहना कि

इसलिए पढ़ो/कि कवि/ स्वयं भी एक कविता है/ बशर्ते कि तुम्हें पढ़ना आता है!

“कविता बिना कवि” बिना हथियार के डॉन की तरह है क्योंकि कवि आत्मा पर चोट करता है और डॉन शरीर पर. उनके अनुसार कविता यदि आत्मा पर चोट न करे तो कवि की रचना सार्थक नहीं.

प्रणय विषयक कविताओं की श्रेणी में जितनी भी कवितायें हैं उनका चरित्र वैसा ही है जैसा उन्होंने “प्रेम” शीर्षक कविता में कहा है कि प्रेम दरसल व्यक्त करने की नहीं महसूसने की चीज़ है. उनकी सभी प्रेम कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें प्रेम का पारंपरिक वर्णन कहीं नहीं मिलता है, किन्तु शब्द-शब्द प्रेम पगा है. “तुम अपने द्वार पर” की अंतिम पंक्ति में जब वे कहते हैं कि “मुझे भी अपने द्वार का एक पौधा मान लो” तब जाकर यह कविता एक प्रेम कविता बनती है. और ज़रा इन पंक्तियों को देखें:
क्या लिखती हो तुम,
मेज़ पर, शीशे पर,
कागज़ पर,
ज़मीं पर, रेत में,
हवाओं में, पानी में,
उँगलियों से, तिनकों से,
क्या लिखती हो
जानना चाहता हूँ!
“वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था” वाले अंदाज़ में आरम्भ से अंत तक सबको पता है कि वह क्या लिखती है, मगर कवि नहीं कहता अपने मुँह से, उलटा प्रश्न छोड़ देता है कि क्या लिखती हो, जानना चाहता हूँ! पराकाष्ठा है यह प्रेमाभिव्यक्ति की. हर कविता एक अलग ही अंदाज़ में और एक अलग ही अभिव्यक्ति के साथ. लेकिन कवि के रूप में राजेश जी कहीं भी कविता और पाठक के बीच नहीं आते!

अगली श्रृंखला में समाजी सरोकार से जुडी कुछ कवितायें हैं, जिसमें बिना शब्दजाल फैलाए जिस प्रकार उन्होंने छोकरा शीर्षक के अंतर्गत बूट पॉलिश करने वाले, ट्रेनों में झाडू लगाने वाले, गाकर पैसे माँगने वाले बच्चों की दुर्दशा का वर्णन किया है, वह संवेदना का हिमालय है. और यहाँ भी उनका काव्य-चातुर्य दिखाई देता है, जब हम पाते हैं कि उन बच्चों की व्यथा व्यक्त करने के लिए उन्होंने अनावश्यक मार्मिक शब्दों और अनर्गल वर्णन का सहारा बिलकुल नहीं लिया है. कवितायें मन को छूती हैं, क्योंकि सादा हैं, शब्दों की पेंटिंग नहीं, ज़िंदगी की तरह बदरंग! धोबी, चक्की पर, स्त्री, घोड़ेवाला, चिड़िया, गांधी आदि कवितायें झकझोरती हैं और सीधा जोड़ती हैं उस सरोकार से. एक आईने की तरह रख दी हैं वे कवितायें हमारे सामने जिसमें हमें हमारा बदसूरत चेहरा दिखता है.

अंत में उनके कवि ह्रदय का परिचय देती हुई कुछ व्यक्तिगत कवितायें संगृहीत हैं. कवि-ह्रदय से यहाँ तात्पर्य यह है कि उनकी सोच का माध्यम भी कविता है. यद्यपि उन्होंने गद्य भी लिखे हैं, तथापि उनकी मूल अभिव्यक्ति कविता में ही मुखर हुई है. इन सारी कविताओं के पात्र, वे स्वयं हैं और उनके परिजन. नितांत वैयक्तिक कवितायें हैं. “इतनी जल्दी नहीं मरूंगा मैं” के अंतर्गत मौत से सामना होने की कुछ घटनाएँ उन्होंने कविता के माध्यम से साझा की हैं. कविताओं का प्रवाह बांधकर रखता है. बाद की कविताओं में उन्होंने अपने परिवार की जिन घटनाओं का वर्णन किया है, वह एक बड़ा ही साहसिक कदम है. आम तौर पर जो घटनाएँ कोई भी व्यक्ति, किसी अनजान व्यक्ति के साथ शेयर नहीं करता, उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी से सारी दुनिया के साथ बांटा है. इस क्रम में उनकी जीवनसंगिनी का शब्दचित्र सर्वोत्तम है. कविता “नीमा” में उन्होंने पत्नी के संघर्ष की कथा और स्वयं को उनका पति, संगी, साथी और साधक के रूप में प्रस्तुत किया है, जो समस्त स्त्री जाति के प्रति उनके सम्मान की भावना का द्योतक है. इसी विशेषता के कारण यह कविता उनका व्यक्तिगत अनुभव न होकर सम्पूर्ण नारी समाज के प्रति व्यक्त किया गया सम्मान है.

कविताओं की संरचना छोटे-छोटे मुक्त छंदों से की गई है, कोई भी कविता अनावश्यक लंबी नहीं है, जो कवितायें लंबी हैं, वह विषय-वस्तु की मांग पर आवश्यक है, भाषा इतनी सरल है कि मानो आम बोल-चाल की भाषा हो, भावनाओं को उभारने के लिए व्यर्थ का शब्दाडम्बर कहीं भी नहीं है और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कविता में कोई दर्शन नहीं छिपा है - जहाँ कवि कहना कुछ चाहता है और पाठक समझता कुछ और है या फिर कवि के स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव होती हो पाठक को, भाव इतनी सरलता और सहज रूप में अभिव्यक्त हुए हैं कि पाठक तक कवि की बात सीधी पहुँचती है!

कुछ दोष जो यहाँ वहाँ दिखे वो बस वैसे ही जैसे किशमिश के दाने में लगा तिनका. कुछ तथ्यात्मक दोष जो मुझे दिखे, जैसे- झील में पड़ी अपनी लाश के विषय में यह कहना कि “तबतक धंस चुका होउंगा मैं/झील में नीचे” जबकि तथ्य यह है कि लाश तैरती है, धंसती नहीं; “यहीं १९५९ के साल की पहली तारीख को/नीमा ने पहली किलकारी भरी”- यह निश्चित रूप से जन्म की तिथि है अतः किलकारी नहीं- पहला रूदन, किलकारी तो शायद कुछ महीनों बाद ही सुनाई देती है. कविता में मध्यप्रदेश को “मप्र” लिखना खलता है, क्योंकि एमपी तो प्रचलित है, मप्र नहीं! लेकिन यह दोष वास्तव में बिम्ब के रूप देखे जाएँ तो दोष नहीं लगते.

एक कविता है “वह औरत”. इसमें उन्होंने एक जवान मजदूरनी पर कुदृष्टि डालते ठेकेदार और स्वयं को साक्षी बनाकर उस औरत की मनोदशा और उसे भारत माता की दुर्दशा से जोड़ते हुए अभिव्यक्त किया है. किन्तु पढते हुए एक स्थान पर यह कविता समाप्त होती प्रतीत होती है अपने पूरे प्रभाव के साथ
अचकचाकर
मैं उसे देखता हूँ.
मुझे वह औरत
अपनी माँ नज़र आने लगती है!
इसके बाद माँ को भारत माँ से जोड़ना वह प्रभाव नहीं उत्पन्न कर पाया. अगर इसे दूसरी कविता के रूप में अलग से प्रस्तुत किया गया होता तो पाठकों को एक दूसरे अनुभव से उद्वेलित कर सकती थी.

कुल मिलाकर तीन दशकों की रचनाओं का संकलन “वह, जो शेष है” राजेश उत्साही जी के शांत, सहृदय व्यक्तित्व, जूझारू चरित्र, ज़मीन से जुड़े स्वभाव और ईमानदार अभिव्यक्ति का खज़ाना है. ये शांत भाव से, साहित्य की सेवा करने वाले व्यक्ति हैं, तभी आज तक छिपे रहे. किन्तु कल तक छिपे थे आज छपे हैं. मुझ डाकू खडगसिंह के बाबा भारती!

पुनश्च:
संयोग से आज ही मनोजकुमार जी ने “राजभाषा हिन्दी” ब्लॉग पर इस कविता-संग्रह की चर्चा की है. पुस्तक-परिचय यहाँ देख सकते हैं.

रविवार, 8 अप्रैल 2012

मेरा साया!!


[अली सैयद साहब की यह पोस्ट और उनका प्रोत्साहन जिसने मुझे यह पोस्ट आपसे शेयर करने का हौसला दिया!]

कच्चा घर, सामने दालान अउर पीछे अंगना. अंगना के चारों ओर देवाल. देवाल के पार गली, जिसमें दिन भर लोग-बाग का आवा-जाही लगा रहता था. गली के साथ देवी-स्थान और उसमें बिसाल पीपल का पेड़. गर्मी में हम लोग अंगना में बैठकर बतियाते, खेलते अउर पढाई करते रहते थे. गली से आने-जाने वाला लोग का माथा देखाई देता था अउर जब ऊ आदमी छवि बाबू के घर के पास पहुंच जाता, तब पीछे से ऊ पूरा देखाई देता था. इसका उलटा जब छवि बाबू के घर के तरफ से कोई आता, तो पूरा देखाई देता अउर पास आने पर खाली माथा नजर आता.
एक रोज साम को कोनो आदमी का माथा देखाई दिया अऊर छवि बाबू के घर के पास पहुँचने से पहले का मालूम कैसे सब लोग का ध्यान उधरे चला गया. ऊ आदमी का पीठ देखाई दे रहा था. ऊ आदमी उजला गंजी पहिने हुए था अउर छवि बाबू के घर के पास पहुँचाने से पहिले ही नजर से ओझल हो गया (सायद गायब हो गया). हम लोग घबराए अउर बाद में टेंसन कम करने के लिए मजाक उड़ाने लगे हम लोग. कोई बोला आत्मा होगा, कोई बोला भूत, कोई बोला कि गंजी पहिने था तो जरूर चाचा होगे! अउर हम लोग जोर-जोर से हंसने लगे!!

कुछ साल बाद:
सफ़ेद गंजी वाले आदमी का आना अब बहुत बढ़ गया था. जब भी हम लोग में से कोई भी अंगना में बइठा रहता त ई बात के तरफ जरूर ध्यान देता कि गली से कौन जा रहा है. मगर ऊ दिन आस्चर्ज का बात हुआ. अंगना वाला दरवाजा बाहर के तरफ खुला हुआ था, इसलिए गली से आने-जाने वाला सब आदमी पूरा देखाई दे रहा था. दरवाजा से देखाई देने वाला आदमी, गली से होकर, छवि बाबू के घर से आगे निकल जाता था. ओही घड़ी, सफ़ेद गंजी पहने हुए ऊ आदमी दरवाजा पार किया अउर गली में नहीं पहुंचा. भागकर देखा गया त ऊ नदारद था. पैदल चलकर कोई एतना जल्दी, एतना दूर नहीं निकल सकता था.
हम लोग (इहाँ स्पस्ट कर देते हैं कि हम लोग से हमरा मतलब घर का बच्चा-बड़ा सब लोग से है - जिसको जब ई घटना देखाई दे जाए) धीरे-धीरे ई घटना के आदी हो गए अउर एकदम मामूली घटना हो गया हमलोग के लिए! हाँ, एगो बात बताते चलें कि तब तक हम लोग ऊ आत्मा/भूत/साया/हवा को चाचा जी मान चुके थे.

कुछ और साल बाद:
पुराना घर टूट गया अउर पक्का मकान बन गया. घर के फाटक से ड्राइंग-रूम तक आते समय जमीन पर एगो बड़ा सा पत्थर का स्लैब है. बस्तब में ऊ ढक्कन है. जब कोई आता है त उसके ऊपर गोड़ धरते ही ऊ पत्थर हिल जाता है अऊर खटाक का आवाज होता है. ई आवाज का एतना अभ्यास हो गया है कि केतनो हल्ला में भी सुनाई दे जाता है अऊर हमलोग समझ जाते हैं कि कोई आया है. दरवाजा के तरफ ताकिये, चाहे ड्राइंग रूम के खिडकी से देख लीजिए, पहिला नहीं त दोसरा खिड़की से देखाई दे जाएगा कि कौन आ रहा है.
बताने का जरूरत नहीं है कि एक रोज हम लोग बैठ कर टीवी देख रहे थे अऊर बिना फाटक खुलने का आवाज हुए पत्थर का खटाक सुनाई दिया. सबलोग का नजर खिड़की पर. पहिला खिड़की से सफ़ेद गंजी पहिने कोई निकला, मगर दूसरा खिड़की तक कोई नहीं आया. कोई लौटा भी नहीं, काहे कि दोबारा पत्थर का आवाज नहीं हुआ, न फाटक का. बाहर निकल कर देखे त फाटक तक कोई नहीं. एक बार फिर स्पस्ट करने का समय आ गया है कि कोई बिलाई या कुत्ता (नहीं घुस सकता) के आने से खटाक का आवाज़ नहीं हो सकता.
एक बार भाई का कोनो दोस्त आते समय खिड़की से रूम में झांकते हुए आया. भाई से जब मिला त पूछा कि अभी इहाँ सोफा पर गंजी पहिनकर कौन बैठे हुए थे. लगता है हमारे कारन चले गए! भाई मुस्कुराकर रह गया. बोला, चाचाजी थे!

वर्त्तमान समय:
अब हम भाई-बहन बुजुर्ग कहलाने लगे हैं. हमरा बच्चा लोग बड़ा हो रहा है. माताजी बूढ़ी हो गयी हैं. उजला गंजी अऊर पाजामा पहिने हुए चाचा जी आझो हमलोग को, बच्चा लोग को भी, हमरे दोस्त लोग को भी अऊर बहुत सा मेहमान लोग को भी आते जाते हुए देखाई देते हैं. एक बार सोफा पर बैठा हुआ छोडकर, हमेसा ऊ जल्दी में चलते हुए देखाई दिए हैं. एक कमरा से निकलते हैं मगर दोसरा कमरा तक पहुँच नहीं पाते. हाँ, हमारी पालतू कुतिया जब तक ज़िंदा थी, अचानक कभी-कभी कोनो अनजान आदमी को देखकर भौंकने लगती थी, जबकि उसके सामने कोनो नहीं होता था.

इन सारी घटनाओं की शुरुआत से पहले:
ऊ रोज अचानक माताजी को गाँव जाना पड़ा. हम-सब बच्चा लोग को बताया गया कि हमरे चचेरे चाचा का अचानक मौत हो गया है. इसीलिये माता जी को गाँव जाना पड़ा. सब लोग सदमा में था. अभी साल भर भी नहीं हुआ था सादी का. उमर केतना रहा होगा, मोसकिल से २८-३० साल. लंबा कद, बलिष्ठ बदन, सुन्दर चेहरा अउर हंसमुख आदमी. उनके मौत का कोई बिस्वास नहीं कर सकता था.
माताजी दोसरा दिन लौटकर आईं. हम बच्चा लोग डर जायेंगे इसलिए बहुत सा बात हमलोग के सामने नहीं किया गया. बाक़ी जेतना बात हमलोग के सामने हुआ उससे बस एतना ही पता चला कि उनका मरा हुआ देह खेत में पड़ा था अउर उस समय ऊ उजला गंजी और पाजामा पहिने हुए थे. पैर में हवाई चप्पल था.

और अंत में:
ऊ कौन है, काहे हैं, कहाँ से आते हैं, कहाँ चले जाते हैं, कहाँ रहते हैं... पता नहीं! मगर आज भी हमरे परिबार के सदस्य हैं... हमलोग के लिए चाचा जी!