मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

ज़िन्दगी फूलों की नहीं



बात बहुत पुराना है. केतना पुराना इयाद नहीं, हाँ एतना बता सकते हैं कि तब हस्पताल का माने नर्सिंग होम नहीं होता था अऊर पोस्ट-ऑफिस का मतलब गलीये-गली खुला हुआ कोरियर पिक-अप प्वाइण्ट नहीं होता था. सुरच्छा के नाम पर पुलिस के जगह हाथ में लाठी लिये हुए मरियल चौकीदार नहीं होता था अऊर बिजली अम्बानी साहब के एहाँ से नहीं आता था. इस्कूल में एडमिसन होने पर फीस लगता था, फीस लेकर एडमिसन नहीं होता था. त अब एही से अन्दाजा लगा लीजिये कि बात केतना पुराना है.

पी. एम. सी. एच. (पटना मेडिकल कॉलेज एवम हस्पताल) में एगो आदमी अपना गोड़ में पट्टी बाँधे ड्रेसिंग करवाने आया हुआ था. कम्पाउण्डर पहिले ऊपर वाला पट्टी खोला, फिर घाव के ऊपर रखा हुआ रूई हटाने लगा. ऊ रूई घाव में सटा हुआ था. कम्पाउण्डर जैसे हाथ बढ़ाया, ऊ अदमी झट से उसका हाथ पकड़ लिया. कम्पाउण्डर हाथ छोड़ाकर दोबारा हाथ बढ़ाया, दोबारा ओही हाल. अंत में ऊ गुसियाकर बोला, आप हमको पट्टी हटाने दीजियेगा कि नहीं!
कम्पाउण्डर साहब! बहुत दरद करता है!
अरे ठीक हो गया है घाव, अब दरद नहीं करेगा!
आप का समझियेगा. दरद त हमको न हो रहा है! तनी आराम से हटाइये!
ठीक है! एतना कहने के साथ कम्पाउण्डर धीरे से हाथ बढ़ाया अऊर एक बार में झटका के साथ पूरा पट्टी उतार दिया. ऊ अदमी अरे बाप किया, मगर तुरत नॉर्मल हो गया.
देखिये, कुछ बुझाया आपको! बार-बार हाथ धर लेते थे. आपका बात सुनते त दिन भर आपही के पट्टी में लगे रहते अऊर भर दिन आप ड्रेसिंग करने नहीं देते!
ई जिन्नगी भी अइसहिं एगो घाव के तरह है. कऊन अदमी है एहाँ जिसका देह अऊर मन पर कोनो जखम लिये नहीं घूमता है. केतना बार त घाव भर जाता है मगर उसका निसान रह जाता है. बाकी निसान के कारन कोई जिन्नगी त नहिंए जीना छोड़ देता है. निसान के ऊपर मन्नू भाई के जइसा रिस्ट बैण्ड लगाया अऊर जिन्नगी के टेनिस कोर्ट पर जम गये.

साल 2013 भी जाते-जाते बहुत सा खराब खबर सुना गया. कुछ खबर मन को झकझोर के रख दिया और मन पर गहरा जखम छोड़ गया. एगो साथी कह भी रहे थे कि ई साल बहुत खराब बीता है. का मालूम अगिला साल अच्छा रहे. हम उनको निर्भया वाला घटना इयाद कराये अऊर बोले कि 2012 में भी आप एही कहे थे. हमको भी अपने गुरुजी श्री के. पी. सक्सेना के निधन का बहुत अफसोस हुआ अऊर अभी जाते-जाते अभिनेता फारुख सेख साहब के इंतकाल का भी ओतने सदमा पहुँचा. मगर का किया जा सकता है. जिन्नगी का अपना रफ्तार है.

हम सबलोग जानते हैं कि गाड़ी में लगा हुआ ‘रियर-व्यू मिरर’ बहुत छोटा होता है, जबकि विन्डशील्ड बहुत बड़ा. एही से कि जो पीछे छूट गया है ऊ बहुत छोटा है, मगर जो सामने है ऊ पूरा हाथ फैलाकर स्वागत कर रहा है. अब ‘रियर-व्यू मिरर’ में देखकर गाड़ी त नहिंए चलाया जा सकता है. के.पी. सक्सेना साहब का कहा हुआ एगो बात आज फिर से हमको इयाद आ रहा है. लाश का क़फ़न जितनी बार सरकाओगे उतनी बार रुलाई आयेगी!

बस एक बार हिम्मत करके बीता हुआ साल का जखम के ऊपर से कसकर पट्टी खींच दीजिये. हल्का सा तकलीफ त होगा बाकी घाव भी धीरे-धीरे भर जाएगा. जो गुज़र गया उसका मातम मनाने से कहते हैं जाने वाला को भी तकलीफ होता है. देखिए गुलज़ार साहब केतना नीमन बात कहते हैं दर्द के बारे में:

दर्द कुछ देर ही रहता है बहुत देर नहीं
जिस तरह शाख से तोड़े हुए इक पत्ते का रंग
माँद पड़ जाता है कुछ रोज़ अलग शाख़ से रहकर
शाख़ से टूट के ये दर्द जियेगा कब तक?
ख़त्म हो जाएगी जब इसकी रसद
टिमटिमाएगा ज़रा देर को बुझते बुझते
और फिर लम्बी सी इक साँस धुँए की लेकर
ख़त्म हो जाएगा, ये दर्द भी बुझ जाएगा
दर्द कुछ देर ही रहता है, बहुत देर नहीं!!

त एकबार जो लोग ई बरिस हमसे बिछड़ गए उन सबके याद के आगे माथा झुकाते हुए, आइये स्वागत करें नया साल का एक बार फिर ओही उम्मीद से कि ई साल बहुत अच्छा होगा.

फिलिम क्लब 60 में फ़ारुख सेख साहब का ई डायलाग आज उन्हीं के याद को समर्पित है -
साँसें ज़िन्दगी देती हैं पर जीना नहीं सिखातीं. ये तो वो खेल है, जिसे खेलना सबको आता ही नहीं. थोड़ी देर से ही सही, सुख और दु:ख की परछाइंयों से मैंने ज़िन्दगी का क़द मापना छोड़ दिया है. सच कहूँ तो मैंने जीना सीख लिया है.

आप सबके घर-परिवार के लिये हमरे तरफ से साल 2014 के लिये बस एही सन्देस –
ज़िन्दगी फूलों की नहीं,
फूलों की तरह, मँहकी रहे!

रविवार, 22 दिसंबर 2013

तुम मुझमें ज़िन्दा हो

फिलिम दीवार का एगो सीन हमेसा इयाद आता है. पुरनका पुल के नीचे अमिताभ बच्चन अऊर ससि कपूर दुनो खड़ा होकर बतिया रहे हैं.

“तुम जानते हो, मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है?”
”तुम्हारे यहाँ जाना मेरे उसूल के ख़िलाफ है और मेरे यहाँ आना तुम्हारी शान के ख़िलाफ.  तो हमलोग कहीं और ही मिल सकते थे!”
”हमलोग कहीं और नहीं सिर्फ यहीं मिल सकते थे. हमारे रास्ते चाहे कितने भी अलग क्यों न हो जाएँ, हमारे बचपन एक दूसरे से कभी अलग नहीं हो सकते!”

बहुत गहिरा बात है. लोग एक दोसरा से केतनो दूर हो जाए, ऊ लोग का बचपन कहियो अलग नहीं होता है. सच कहें त कोनो अदमी का बचपन ख़ुद ऊ अदमियो से कभी अलग नहीं हो पाता है. जब अकेले में होता है त अपने मने गुनगुनाने लगता है – “आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम, गुज़रा ज़माना बचपन का.”

हम जब नजर फेरकर अपना बचपन को दोहराकर देखने का कोसिस करते हैं त हमको बस एक्के गो मुस्कुराता हुआ चेहरा देखाई देता है. सपाट माथा जिसके बारे में ऊ अपने कहते थे कि कोनो मक्खी अगर गलती से बैठ जाए त मीलों तक फिसलते हुए चला जाए. दुन्नो साइड पर झूलता हुआ सफेद बाल, आँख पर मोटा चस्मा, मगर सरारत वाला चमक, नाक अऊर उपरका ओठ के बीच में दुनो तरफ घना मोंछ. ई पूरा असेसरीज़ एगो छोटा सा, मगर नूरानी चेहरा के ऊपर लगाया हुआ था अऊर ऊ चेहरा रखा हुआ था एगो साधारन कद-काठी वाला दुबला पतला बुजुर्ग के कन्धा के ऊपर.


ऊ बुजुर्ग के मुँह में जऊन जुबान था, बस ओही बहुत बड़ा कातिल था. अऊर अइसा नाजुक कातिल कि आसानी से दिल में छुरी जइसा पैबस्त हो जाए अऊर सुनने वाला के मुँह से आह तक नहीं निकले. सायद जुबान का एही मिठास बतीसों दाँत के बीच ऊ जुबान को हिफाजत से रखता होगा. आवाज का लेवेल अइसा कि हमको लगता है कि कहियो बच्चा लोग पर गुसिया के बोलते भी होंगे त घण्टा भर त ई समझने में लगता होगा कि दुलार कर रहे हैं कि नाराज हो रहे हैं. कुल मिलाकर एगो साधारन टाइप के असाधारन बेक्ति.

अपने बारे में बताते थे कि उनका जनम 1934 में उस जगह हुआ जहाँ कभी झुमका गिरा था. एही नहीं ऐसन केतना मोहावरा अऊर सब्द का कॉपीराइट अगर होता त उनके नाम होता. एक जमाना में झुका हुआ मोंछ का बड़ा फैसन था, उसके बारे में उनका कहना था कि चेहरा पर सात बजकर पच्चीस मिनट हो रहे हैं; पड़ोस के छत पर दू गो जवान प्रेमी-प्रेमिका का चुपके से एक दोसरा को देखना उनके नजर में “मोहब्बत के पिच पर धीमा-धीमा डबल स्पिन अटैक था, हाफ सुइटर को 50% स्वेटर बताना अऊर गुजर जाने को ख़र्च हो जाना. बात कइसनो हो, उनका एगो नया सब्द तड़ से हाजिर रहता था. फिलिम ‘कमीने’ में साहिद कपूर का ‘स’ को ‘फ’ बोलना आज का जेनरेसन के लिये नया होगा, मगर हमनी के जमाना में ऊ ई सब कह चुके थे. कब ऊ एही सब कहते हुए हँसाते-हँसाते आँख से आँसू निकाल देते थे, ई आपको तब पता चलता था जब पूरा खिस्सा पढ़ने के बाद आपका आँख का कोर भींग जाता था.  

अपना बचपन के बहाने उनको इयाद करना एकतरफा नहीं था. उनके लिये भी बचपन अऊर बच्चा लोग कोनो खजाना से कम नहीं था. एगो पार्क में से बच्चा लोग को ऊँट से उतारकर एगो सरकारी अफसर के कहने पर उनका बच्ची को अकेले बइठा दिया गया त ऊ का कहते हैं – “मैं देश के मामले में टाँग अड़ाना नहीं चाहता. जिनका देश है वो देश को जिधर चाहें मोड़ ले जाएँ. मगर बच्चों के मामले में मुझे बोलने का हक़ है. मैं बच्चों का लेखक हूँ... ख़ुद बच्चा रह चुका हूँ. बच्चों के अधबुने सपनों की एक पूरी दुनिया देखी है मैंने. इनके अरमानों से खेलता है कोई तो मन कसक उठता है. चन्द बच्चों के चेहरों से हँसी छीनकर अफसरशाही सुर्ख़रू नहीं होती... स्याह और बदनाम हो जाती है. बच्चों के भोले मन तो यों भी सब कुछ बहुत जल्द भूल जाते हैं. बच्चे जो ठहरे.” एहीं आप गड़बड़ा गये चचा जी. बच्चा लोग भोला जरूर होता है मगर भूला नहीं होता है. अगर भूलिये जाना रहता, त का आज हम बइठकर ई पोस्ट लिख रहे होते!

ई बचपन, भुलाने वाला बाते नहीं है. अबकि पटना गए, त अलमारी से इन्हीं का एगो किताब निकाले – “तलाश फिर एक कोलम्बस की”. अख़बार का ख़बर से बना हुआ उनका लेख सब है ई किताब में. मगर ओही हास्य अऊर ब्यंग का संगम. खोजकर एगो लेख निकाले “आत्महत्या की पहली किताब”. बेटा के साथ एक सिटिंग में पटकथा लिखे अऊर सम्बाद में उनसे मेल करना पड़ा (कान को हाथ लगा रहे हैं). बन गया एगो स्क्रिप्ट. फिर हम सब मिलकर उसको सूट किये, बेटी फिर से कैमरा उठा ली, बेटा एडिटिंग किया, फिलिम तैयार. हमको जल्दी में लौटना था एही से हम कच्चा प्रिंट लेकर गुजरात लौट आए.

सोचे थे ई फिलिम हम डेडिकेट करेंगे अपने गुरू जी को. मगर भगवानी लीला को कऊन समझा  है आज तक. दू दिन बाद खबर मिला कि ऊ हम सबको हमनी के बचपन के साथ छोड़कर चले गए. ऊ दिन खाली उनका निधन नहीं हुआ. उनके चिता के बगल में मिर्ज़ा का कब्र पर भी मट्टी पड़ गया. मिर्ज़ा का पूरा नाम त मालूम नहीं मगर गुरुदेव कालिका प्रसाद सक्सेना, अमाँ छोड़ो हम के. पी. सक्सेना चाहे के. पी. ही ठीक हैं, के साथ ये मिर्ज़ा इस तरह समाए हुए हैं कि उनके बिना मिर्ज़ा का होना ही नामुमकिन है. एतना अफसोस में रहे हम सारा दिन कि उन्हीं के सब्द में कहें त आँख सारा दिन बादल बनी रहीं. हम चुपचाप बइठे हुए थे कि कान में उनका आवाज सुनाई दिया –
“हर आँसू मोती नहीं होते. जिनके आँसू मोती होते हैं वे उसकी पाई-पाई वसूलना भी ख़ूब जानते हैं. हमदर्दी कोई सड़क पर पड़ा सिक्का नहीं है कि किसी के भी हाथ लग जाए. जिनकी हमदर्दी का महत्व है वे उसे रिज़र्व रखते हैं और सही मौक़े पर कैश करा लेते हैं. आँसुओं का फिक्स्ड डिपॉज़िट, अभिनय कौशल और नन्ही सी लिप सिम्पथी, कुर्सी और इनको बरकरार रखती है और नक़ली आँसू धीरे-धीरे विदेशी बैंकों में डालर की शक्ल में बदल जाता है. अब वे आँसू कहाँ रहे जो सीने की तहों से निकलकर आँखों तक आते थे.”


फिर गलत. अब आपको चैलेंज त नहिंये कर सकते हैं, मगर एतना बता देते हैं कि कभी मौका मिले त आकर तनी देख जाइयेगा. न हमरा आँसुये झूठ है, न एहसास नकली है अऊर न बचपन का खिस्सा गलत है. काहे कि हम भी आपहिं के तरह बच्चा रह चुके हैं.


शनिवार, 14 दिसंबर 2013

दादागीरी



बचपन में हमरे एगो मास्टर थे, किरपा बाबू. उनका कहना था कि भुसकोल से भुसकोल बिद्यार्थी भी फट से कहता है कि केमेस्ट्री माने Zn + H2SO4 = ZnSO4 + H2. ई बात का आजमाइस करके भी देखे हम. एकदम सौ टका सही बात. बाद में एगो अऊर बात हमको अपना तजुर्बा से बुझाया कि सेक्सपियेर साहब का नाम लेने से भी भुसकोल से भुसकोल बिद्यार्थी कहिये देता है कि ओही ना जे कहे थे कि नाम में का रक्खा है, गुलाब को कोनो दोसर नाम से भी बोलावोगे त उसका खुसबू ओही रहेगा.

का मालूम केतना सचाई है सेक्सपियेर साहेब के बात में, लेकिन हमको त नाम के नाम पर गुलजार चचा का ऊ वाला नज्म याद आ जाता है कि “नाम सोचा ही न था है कि नहीं.” अऊर तनी-मनी आगे बढ़ते हैं, त याद आता है सिनेमा पंकज परासर का “आसमान से गिरा”. उसमें एगो एलिएन धरती पर एगो बच्चा से भेंटा जाता है गलती से. ऊ एलिएनवो बच्चा था अपना ग्रह का. धरती का बच्चा उसको अपना नाम बताता है “कौतुक”, तब ऊ कहता है,”यार! तुम एक नाम की क़ैद में कैसे रह जाते हो ज़िन्दगी भर? हमारे यहाँ तो सुबह एक नाम होता है, दोपहर में और.” कास, ऐसने एहाँ भी होने लगता त हम भोर में अमर, दुपहरिया में अमरजीत, साँझ को अंथोनी अऊर रात तक अहमद बन जाते.

खैर, हम बात कर रहे थे नाम के बारे में. बास्तव में हमलोग अपना बच्चा का नाम बहुत प्यार से रखते हैं. अऊर सिनेमा में त हीरो हीरोइन “नन्हा सा गुल” खिलने के पहिलहिं नाम सोच लेता है.
”देखो जी! मैं साफ-साफ कह देती हूँ कि हमारे बच्चे का नाम मैं रखूँगी!”
”मगर तुम्हें कैसे पता लड़का होगा कि लड़की!”
”मैंने सोच लिया है, लड़का हुआ तो शशि और लड़की हुई तो भी शशि!”
”हा हा हा!!”
ई सब बात सिनेमा में अऊर आज के जमाना में त ठीक है, बाकी हमलोग के पुराना जमाना में लड़िका के जनम के पहिले नाम रखने का मनाही था. अब ई अन्धबिस्वास हो चाहे जो हो. लोग इसको मानता था एकदम सीरियसली. मगर मन के ऊपर कोनो कंट्रोल त नहिंए न है, मन में सोचियो लिये, चाहे बिचार आइये गया, त कोई निकाल नहिंये सकता है.

हमरे बाबू जी मने मन सोच के रक्खे हुए थे कि दूगो बेटा होगा त ऊ दुन्नो का नाम रखेंगे “अविनाश वर्मा” अऊर “आशुतोष वर्मा”. पहिलौठी के बच्चा यानि हम पैदा हुए अऊर ई खबर सुनकर हमरे दादा जी खानदान का अगिला पीढ़ी का पहिला औलाद होने का खुसी में बैजनाथ धाम चले गए. लौटकर आने के बाद हमरा मुँह देखे अऊर बोले कि हमरा पोता का नाम रखाएगा “सलिल प्रिय”. अब बड़ा के फैसला के आगे बोलना त ऊ समय में कोई सोचियो नहीं सकता था. असल हमरा ई नाम धराने के पीछे भी एगो अलगे कहानी था.

हमरे दादाजी की सबसे बड़ी दीदी, उनसे उमर में बहुत बड़ी थी. हमरे दादा जी भी सोच कर रखे थे कि अपने बेटा का नाम “सलिल प्रिय” रखेंगे. ऊ थे भी तनी समय से आगे का सोच रखने वाला आदमी. कहते थे कि नाथ, प्रसाद, कुमार ई सब पुराना लगता है. हम अपने बेटा का नाम में “प्रिय” लगायेंगे. लेकिन बात त ओही है कि पहिले से सोचा हुआ त होता नहीं है. दादा जी की बड़की दीदी, हमरे पिता जी के पैदा होने पर बोलीं कि हमरा भतीजा का नाम “शम्भु नाथ” रखाएगा. अब दादा जी नाम त बदल नहिंए सकते थे, मन मसोस कर रह गये कि ओही “नाथ” वाला नाम रखाया उनके बेटा का. 

जब हमरा दोसरका भाई पैदा हुआ त पिताजी उसका नाम पहिले से सोचा हुआ, न अबिनास रखे, न आसुतोस. नया ट्रेण्ड दादा जी सुरू कर दिये थे, त उसका नाम धराया “शशि प्रिय.” फिर त हमरे खानदान में, अऊर अगिला पीढी तक ओही परम्परा चल गया. बाद में चन्द्र प्रिय, विश्व प्रिय अऊर बच्चा अनुभव प्रिय, अनुभूति प्रिया अऊर अनुनय प्रिय. बाद में एगो हमरे रिस्तेदार ऊ दुनो नाम अबिनास अऊर आसुतोस हमरे पिताजी से मांग कर ले गये अपना दुन्नो बच्चा के लिये.

जब हम नौकरी में आए त एगो डायरी मिला था नया साल में. उसमें बेक्तिगत बिबरन भर रहे थे त मजाके मजाक में लिखे

पत्नी का नाम – वेणु वर्मा
पुत्र का नाम – किंशुक वर्मा
पुत्री का नाम – कादम्बिनी वर्मा

ई डायरी लिखला के सात साल बाद बिआह हुआ त पत्नी वेणु त नहीं, रेणु मिलीं. लेकिन पुत्र/पुत्री के लिये आठ साल इंतजार. आठ साल के बीच का कहानी त फिर कहियो कहेंगे. लेकिन जबतक बेटी हमरे जिन्नगी में आई, तब तक हमरे इंतजार अऊर उम्मीद का कादम्बिनी बिना बरसे हमरे जीवन से जा चुका था. पर्तिच्छा का एतना लम्बा अऊर तकलीफदेह सिलसिला था कि हम अपना बेटी का नाम रखे “प्रतीक्षा प्रिया”.

अब एतना होने के बाद त हम कहियो नहीं सकते हैं कि नाम में का रखा है. बहुत कुछ रखा है सेक्स्पियेर साहब, अगर बच्चा के पैदा होने के पहिले रखा जाए! कम से कम हमरे खानदान में त आजमाया हुआ है!