मुम्बई: 26 नवम्बर 2008
गरीबी से परेसान अऊर परिवार-समाज से निकाली हुई एगो औरत अपना बीस साल
की बच्ची को लेकर मुम्बई पहुँची. ई सोचकर कि ओहाँ से कोनो दोसरा गाँव-सहर में जाकर
खेत में मजूरी करके अपना अऊर बेटी का पेट पाल लेगी. अपना गाँव में जब कोनो सहारा
नहीं रहा त सबै भूमि गोपाल की. रात को छत्रपति सिवाजी टर्मिनस इस्टेसन पर आकर कोनो
ट्रेन से आगे जाने का बिचार था. अचानक रात में साढे नौ बजे के आस-पास तीन चार गो
जवान बन्दूकधारी, फौजी वर्दी में ओहाँ आया अऊर दनादन फायरिंग सुरू कर दिया. देखते
देखते ओहाँ लास का अम्बार लग गया. कुछ लोग गोली से मरा अऊर बहुत लोग भगदड़ में चँपा
गया. एही भागदौड़ में ऊ औरत का हाथ अपना बेटी के हाथ से छूट गया अऊर फिर अदमी का
समुन्दर में ऊ कहाँ बह कर बिला गई, पते नहीं चला. बेटी सदमा में, न कुछ बोलने के
हालत में, न बताने के हालत में. कुछ चोट भी लगा अऊर खून भी निकल रहा था. बाद में
पुलिस अऊर स्वयम सेवक लोग मिलकर उसकी माए को खोजने का कोसिस किया, मगर सब बेकार.
अंत में दू दिन बाद, उसको लोग बान्द्रा इस्टेसन पहुँचा दिया जहाँ अऊर भी बहुत सा
लोग झुण्ड में था.
भावनगर: गुजरात
जइसे पटना का पहचान तीन ठो “ग” से है – गंगा जी, गाँधी मैदान अऊर
गोलघर, ओइसहिं भावनगर में भी तीन ठो “ग” बहुत मसहूर है. मगर सम्भलकर... कोनो
भावनगर वाला अदमी को ई बात बोल दिये त बमक जाएगा. ऊ तीन “ग” है – गाय, गाँठिया अऊर
गाण्डा! इसमें बमकने वाला बात “गाण्डा” है – माने पागल. हम जब खोज किये त पता चला
कि एहाँ सच्चो में बहुत सा मानसिक रोगी पाया जाता है. अब त बहुत सा मानसिक
रुग्नालय हो गया है, नहीं त एक टाइम था कि ऊ लोग सड़क पर घूमता रहता था, जइसे गाय.
लोग नियम से गाय को चारा खिलाते हैं, बाकी गाय रोड पर बइठल है त कोनो नहीं उठाता
है. बचा गाँठिया, त ई नमकीन ब्यंजन एहाँ के घर घर का पहचान है.
हाँ त ई मानसिक रोगी लोग के बारे जब पड़ताल किये तब पता चला कि पच्छिम
रेलवे का भावनगर इस्टेसन अंतिम इस्टेसन है, उसके बाद समुन्दर. इसलिये एहाँ आने
वाला गाड़ी में ई रोगी लोग को बइठाकर अलग अलग जगह से रवाना कर दिया जाता था. बाद
में ई सहर का दयालु सोभाव ऊ लोग को अपना लेता था. बहुत तादाद में एहाँ पागल लोग का
खेप आता रहता था.
मुम्बई: बान्द्रा टर्मिनस:
अपना घाव पर पट्टी बाँधे, ऊ लड़की बेचारी अपना माए को नहीं खोज पाई. हारकर
कोनो से माँगकर आधा पेट कुछ खाई. कम उमर के लड़की को, का करे कुछ नहीं बुझा रहा था.
एही परेसानी में सबेरे से साँझ हो गया अऊर साँझ से रात. जब कुच्छो समझ में नहीं
आया त रात को प्लेट्फारम पर जऊन गाड़ी सामने देखाई दिया, ओही गाड़ी में चढ़ गई अऊर
एगो कोना देखकर बइठ गई.
भावनगर टर्मिनस:
पच्छिम रेलवे का मण्डल होने के बावजूद भी एकदम उपेच्छित इस्टेसन है -
भावनगर टर्मिनस. मगर मेहनतकस लोग के लिये, बस मेहनत का महत्व है, का आदर – का
उपेच्छा. ई इस्टेसन पर अस्सी परसेण्ट कुली बूढी औरत सब हैं. बाकायदा बर्दी पहने
अऊर बाँह में ताबीज के जइसा बिल्ला बाँधे. कोनो बुजुर्ग औरत ई नहीं देखती कि उसका
बिल्ला नम्बर 786 त नहीं, काहे कि उसको पता है कि ईमानदारी अऊर मेहनत करने वाले का
बिल्ला नम्बर 786 होइये जाता है. एगो बात अच्छा है कि ई लोग समान अपना माथा पर
नहीं उठाती हैं, बल्कि पोर्टर लोग का गाड़ी में खींचकर ले जाती है. एही इस्टेसन पर
बहुत सा हौकर लोग एगो झोला में तरह तरह का फरसाण (नमकीन नास्ता) बेचते हुये भी
देखाई दे जाता है.
भावनगर : हमारा ऑफिस
छोटा जगह होने के कारन लोग के साथ बेक्तिगत पहचान बन जाना सोभाविक है,
खासकर तब जब लोग बहुत मिलनसार हो. एक रोज अपना केबिन के सीसा से देखे कि कोनो कुछ
बेचने वाला आया है अऊर सब इस्टाफ लोग उससे कुछ न कुछ खरीद रहा है. हम बोलाए अऊर
पूछे कि ई सब का हो रहा है त पता चला कि ऊ बेचने वाला आदमी गूँगा-बहिरा है. मगर
बहुत दिन से आता है अऊर सब लोग उससे नमकीन, बिस्कुट खरीद लेता है. दिन भर मेहनत
करता है बेचारा अपना परिबार के लिये. ऊ हमरे पास भी आया अऊर का मालूम का बात था
उसमें कि बस हमारा दोस्ती हो गया उसके साथ. कुछ गुजराती में लिखकर, कुछ इसारा में
अऊर कुछ अजीब सा आवाज निकालकर जो बताया उससे एही समझ में आया कि ऊ कोनो सेठ के
एहाँ से ई सब सामान लेता है अऊर दू-चार रुपिया के मुनाफा पर बेचता है. दिन में
इस्टेसन पर, दुपहर में ऑफिस सब में अऊर साँझ को साइकिल पर झोला बाँधकर गाँव में
बेचते हुये घर लौट जाता है.
बान्द्रा एक्स्प्रेस: अंतिम स्टेशन
जब सबेरे करीब दस-साढे दस बजे ऊ लड़की का गाड़ी आकर इस्टेसन पर लगा त
पूरा गाड़ी खाली हो गया, माने ई गाड़ी आगे नहीं जाने वाला था. ऊ गाड़ी से उतरी अऊर
डरी-सहमी सामने लगा हुआ नलका में पानी से मुँह-धोकर आगे का करे एही सोच रही थी, तब
तक उसके सामने एगो झोला लिये हुये भेण्डर आकर खड़ा हो गया. उसको एगो गाँठिया का
पैकेट निकालकर दिया. लड़की के पास पइसा त था नहीं, इसलिये ऊ मना कर दी. मगर ऊ बेचने
वाला जबर्दस्ती उसको हाथ में धरा दिया अऊर इसारा से बताया कि पइसा देने का जरूरत
नहीं है. ई हालत में जब ‘दुख ने दुख से बात की’ तब ऊ लड़की को समझ में आया कि ऊ
फरसाण बेचने वाला गूँगा है. ऊ लगभग रोते हुये उसको इसारा से बताई कि उसका ई दुनिया
में कोई नहीं है. एक मिनट सोचने के बाद ऊ गूँगा उसको अपने साथ अपना घरे ले गया अऊर
अपना माँ को सब बात बताया. ऊ लड़की रोते हुये अपना पूरा कहानी बताई. बूढ़ी माँ उसको
अपना गले से लगा ली.
भावनगर: कुछ समय बाद
बूढी औरत के काम में वो लड़की हाथ बँटाने लगी अऊर धीरे धीरे भासा अऊर
बेगानगी का दीवार मिट गया. ऊ लड़की को जइसे उसकी माँ मिल गई. मगर बूढ़ी औरत दुनिया
देख चुकी थी. एक रोज रात को खाने के टाइम पर तीनों जब एक साथ बइठ कर खाना खा रहे
थे, तब बूढ़ी ऊ लड़की से बोली, “देखो, यहाँ रहते हुये तुम्हें दो तीन हफ्ते हो चुके
हैं. तुम दोनों जवान हो और समाज में लोगों को जवाब भी देना पड़ता है! मैं तुमपर
किसी तरह का ज़ोर नहीं दे रही. लेकिन मेरा बेटा घर चलाने भर कमा लेता है और मैं भी
काम करती हूँ. तुम भी मेरे काम में हाथ बँटाती हो. बस मेरे बेटे के साथ भगवान ने
यही अन्याय किया है कि उसकी ज़ुबान छीन ली है. फिर भी मैं तुमसे पूछ रही हूँ कि
क्या तुम मेरे बेटे से शादी करोगी?” बिना सुने ऊ लड़का सब समझ गया अऊर लड़की के तरफ
देखने लगा. ऊ लड़की चुपचाप अपना सिर झुका ली अऊर माँ के गले से लग गई. बूढ़ी भी दुनो
बच्चा को अपना छाती से लगा ली.
स्वीकारोक्ति:
यह घटना एक मूक वधिर व्यक्ति के इशारों और कुछ लिखकर बताए गए वर्णन के आधार पर प्रस्तुत की गयी है. इसलिए इसमें कुछ स्वतंत्रता मेरे द्वारा ली गयी है, लेकिन उतनी ही मात्रा में, जिसमें घटना की मूल भावना प्रभावित न हो. इसमें पात्रों के नाम लड़का और लड़की ही बताए गए हैं, जबकि मैं चाहता तो पंकज भाई और चन्दन बेन भी लिख सकता था. लेकिन नाम में क्या रखा है और इंसानियत का कोई नाम हो भी नहीं सकता. और अंत में, चूँकि यह एक घटना का सिलसिलेवार बयान है, कोई कहानी नहीं, इसलिए इसमें संवादों का कोई स्थान नहीं.