शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अब ठहाके लगाओ कब्र में तुम

हम त रेडियो के जमाना में पैदा हुए, इसलिए रेडियो पर नाटक करते थे, बचपने से. आकासबानी पटना के तरफ से हर साल होने वाला इस्टेज प्रोग्राम में, पहिला बार आठ साल का उमर में इस्टेज पर नाटक करने का मौका मिला. नाटक बच्चा लोग का था, इसलिए हमरा मुख्य रोल था. साथ में थे स्व. प्यारे मोहन सहाय (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सुरू के बैच के इस्नातक, सई परांजपे से सीनियर, 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' अऊर परकास झा के फिल्म 'दामुल' के मुख्य कलाकार) अऊर सिराज दानापुरी. प्यारे चचा के बारे में फिर कभी, आज का बात सिराज चचा के बारे में है.

देखिए त ई बहुत मामूली सा घटना है, लेकिन कला का व्यावसायिकता अऊर कलाकार का बिबसता का बहुत सच्चा उदाहरन है. सिराज चचा एक मामूली परिबार से आते थे, अऊर उनका जीबिका का एकमात्र साधन इस्टेज पर कॉमेडी सो करना था. इस्टैंड-अप कॉमेडी के नाम पर आज टीवी में जेतना गंदगी फैला है, उससे कहीं हटकर. स्वाभाविक अऊर सहज हास्य उनका खूबी था. खुद को कभी कलाकार नहीं कहते थे, हमेसा मजदूर कहते थे. बोलते थे, “एही मजूरी करके दुनो सिरा मिलाने का कोसिस करते हैं."

रेडियो नाटक का रेकॉर्डिंग के समय, रिहर्सल के बीच में जब भी टाईम मिलता था, ऊ सब बड़ा अऊर बच्चा लोग को इस्टुडियो के एक कोना में ले जाकर, अपना कॉमेडी प्रोग्राम सुरू कर देते थे. सबका मनोरंजन भी होता था, अऊर रिहर्सल बोझ भी नहीं लगता था. सिराज चचा सीनियर कलाकार थे, इसलिए उनको आकासबानी से 150 रुपया मिलता था, अऊर हम बच्चा लोग को 25 रुपया.

एक बार रिहर्सल के बीच पुष्पा दी (प्रोग्राम प्रोड्यूसर अऊर हमरी दूसरी माँ, जिनका बात हम अपना परिचय में कहे हैं) सिराज चचा को उनका रोल के लिए एगो खास तरह का हँसी निकालने के लिए बोलीं. ऊ बिना पर्फेक्सन के किसी को नहीं छोड़ती थीं. पहिला बार ऊ सिराज चचा से झल्ला गईं. बोलीं, “सिराज भाई! क्या हो गया है आपको. कुछ जम नहीं रहा.सिराज चचा ने हँसी का बहुत सा सैम्पल दिखाया. लेकिन पुष्पा दी को कोई भी मन से पसंद नहीं आया. आखिर बेमन से रिहर्सल हुआ अऊर रेकॉर्डिंग का टाईम आया.

सिराज चचा, बीच में अपना चुटकुला लेकर सुरू हो गए. ओही घड़ी एगो लतीफा पर सब लोग हँसने लगा, अऊर सिराज चचा भी अजीब तरह का हँसी निकाल कर हँसने लगे. माइक ऑन था, इसलिए आवाज कंट्रोल रूम में पुष्पा दी को भी सुनाई दिया. ऊ भाग कर इस्टुडियो में आईं, अऊर बोलीं, “सिराज भाई! यही वाली हँसी चाहिए मुझे."

लेकिन इसके बाद जो बात सिराज चचा बोले, ऊ सुनकर पूरा इस्टुडियो में सन्नाटा छा गया, दू कारन से. पहिला कि पुष्पा दी को कोई अईसा जवाब देने का हिम्मत नहीं कर सकता था अऊर दुसरा, एगो मजाकिया आदमी से अईसा जवाब का कोई उम्मीद भी नहीं किया था. सिराज चचा जवाब दिए, “दीदी! आप उसी हँसी से काम चलाइए. क्योंकि यह हँसी डेढ़ सौ रुपए में नहीं मिलती है, इसकी क़ीमत पाँच से छः सौ रुपए है." एतना पईसा ऊ अपना इस्टेज प्रोग्राम का लेते रहे होंगे उस समय.

रेकॉर्डिंग हुआ, अऊर सिराज चचा ने अपना ओही डेढ़ सौ रुपया वाला हँसी बेचा. एगो कलाकार का कला दिल से निकलता है, लेकिन पहिला बार महसूस हुआ कि पेट,  दिल के ऊपर भारी पड़ जाता है.

एक बार हम दुनो भाई रात को रिहर्सल के बाद घर लौट रहे थे. हमलोग के साथ सिराज चचा भी थे. हमलोग पैदल चल रहे थे, ओही समय एगो आदमी साइकिल पर पीछे से आता हुआ आगे निकल गया. आझो याद है हमको कि ऊ आदमी सिगरेट पी रहा था अऊर जोर-जोर से कुछ बड़बड़ाता जा रहा था. हम दुनो भाई हंसने लगे. मगर सिराज चचा बहुत सीरियसली बोले कि हँसो मत, वो ‘पैदायशी आर्टिस्ट’ है. और कमाल का बात ई है कि कोनो अपने आप से बात करने वाला आदमी को देखकर आझो हमारे परिबार में ई मुहावरा सबलोग बोलता है.

जब पटना में दानापुर हमारा पोस्टिंग हुआ त पता चला कि उनका अकाउंट हमारे बैंक में है अऊर जब ऊ हमको देखे तो उनको बिस्वास नहीं हुआ कि जो बच्चा उनके साथ एक्टिंग करता था, आज एतना बड़ा हो गया है. पहिला बार जब मिले तो बहुत दुआ दिए.



आज से छौ साल पहिले ई पोस्ट का पहिला हिस्सा हम लिखे थे अपना ब्लॉग पर, तब सायद अपना बहुत सा याद में से कुछ याद सेयर करते हुए. जहाँ तक याद आता है हम अपना कोई भी पुराना पोस्ट नहीं दोहराए होंगे, लेकिन ई पोस्ट को दोहराने का कारन एही रहा कि आज सिराज चचा हमारे बीच नहीं रहे. व्हाट्स ऐप्प पर पटना से एगो अखबार का क्लिपिंग मिला जिसमें उनके मौत का खबर था. सिनेमा के तरह बहुत सा टाइम जो उनके साथ बिताए थे, याद आ गया. परमात्मा उनको जन्नत बख्से!

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

धड़कनों की तर्जुमानी


देखी होगी तुमने/ मेरी सोती जागती कल्पनाओं से
जन्म लेती हुई कविताओं को/ प्रसव वेदना से
मुक्त होते हुए/ सुनी होगी...
उनकी पहली किलकारी/ मेरी डायरी के पन्नों पर
और/ महसूस किया होगा... / सृजन का सुख
मेरे मन के/ कोने-कोने में


एक कविता के जन्म की इतनी सुंदर व्याख्या शायद कोई हो भी नहीं सकती. हर रचनाकार इस पीड़ा से गुज़रता है और नवजात रचना को देख यही कहता है. साथ ही यह भी लालसा अंतर्मन में जन्म लेती है कि इस रचना को सब सराहें, आख़िर अपने बच्चे की प्रशंसा किसे बुरी लगती है.

कविता की यह अनुभूति श्रीमती मृदुला प्रधान की है, जो उन्होंने संकलित किया है अपने कविता संग्रह “धड़कनों की तर्जुमानी” में. दो कम अस्सी रचनाओं का यह संकलन वास्तव में उनकी धड़कनों की आवाज़ हैं. मिथिला की पावन भूमि पर जन्मी मृदुला जी ने भारत के विभिन्न भागों में ही नहीं, विश्व के कई देशों का भ्रमण किया है. लेकिन उनकी कविताओं को पढकर भारत की माटी की सुगंध महसूस की जा सकती है. इनकी एक और विशेषता है कि इन्होंने हिंदी के साथ-साथ मैथिली, बांगला और उर्दू भाषा में भी कविताएँ लिखी हैं.

सामाजिक मंच पर इनसे जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होगा कि इनकी साहित्यिक गतिविधियाँ निरंतर चलती रहती हैं, चाहे वो किसी मित्र के यहाँ साहित्य विमर्श हो, कविता पाठ हो, कवि गोष्ठी हो या साहित्य अकादमी का कोई अनुष्ठान.

यह संकलन 2014 में प्रकाशित हुआ. इसमें संकलित रचनाओं के रचनाकाल के विषय में मृदुला जी ने कुछ नहीं कहा है. किंतु कुछ रचनाएँ मैंने लगभग छह वर्ष पूर्व पढ़ी है, तो यह संकलन एक अनवरत रचनाधर्मिता का परिणाम है. इनकी प्रिय शैली मुक्त छंद में कविता करना है, अत: सारी कविताएँ मुक्त छंद में हैं, लेकिन इनमें एक लयात्मकता दिखाई देती है. यह अलग बात है कि कहीं-कहीं यह लयात्मकता भंग हो जाती है. कुछ हद तक इन रचनाओं को नज़्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है.

मृदुला जी की कविताएँ, पाठक के मन पर कोई बोझ नहीं डालतीं, न कोई दार्शनिकता या आध्यात्मिकता का शोर मचाती हैं. ये सारी कविताएँ, हमारे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं का एक बारीक और भावपूर्ण अवलोकन है. जैसे “ढूँढती हूँ उस लड़की को” में अपने समय की स्कूल जाने वाली लड़की का एक ऐसा शब्दचित्र खींचा है उन्होंने कि एक स्केच सा लगता है और सबसे प्यारी बात यह है कि उस खोयी लड़की में वो ख़ुद को तलाशती हैं.

एक उच्च-सामाजिक परिवेश में रहकर भी उन्हें आधुनिकता के नाम पर शालीनता की उपेक्षा तनिक भी पसंद नहीं. उनकी कविता “कि मुझे क्यों दिखता है” संस्कारों की धज्जियाँ उड़ाती आधुनिकता के प्रति एक प्रश्न है. या फिर गृहिणियों की दिनचर्या के दो अलग-अलग रुख़ प्रस्तुत कर उन्होंने हाई-सोसाइटी की तथाकथित गृहिणियों पर तंज़ भी किया है. वहीं दूसरी ओर उनकी प्रणय रस से सिक्त कविताएँ किसी भी युवा दिल की तर्जुमानी है. प्रकृति से जुड़ी कविताएँ भी किसी पेण्टिंग से कम नहीं.  

इस संकलन में समाहित सभी कविताओं में और मृदुला जी की लगभग सभी रचनाओं में जो बात रेखांकित करने वाली है, वह है उनका अंदाज़-ए-गुफ़्तगू. सारी कविताओं में वो बतियाती हुई दिखाई देती हैं, चाहे उनके समक्ष कोई हो, या न हो! कभी उनसे जो उनके साथ नहीं, कभी प्रकृति से, कभी निर्जीव सी लगने वाली किसी शै से और कोई नहीं मिला तो सहारा रेगिस्तान में ख़ुद का ख़ालीपन तलाशती, ख़ुद से बतियाती हैं. चुँकि बातचीत के माध्यम से वो नज़्म कहना चाहती हैं, इसलिये भारी भरकम बात भी इतने आसान से लफ़्ज़ों में कह देती हैं कि बस जहाँ छूना चाहिये – कविता छूती है. रोज़ की चाय हो, किसी का जन्मदिन, किसी की कमी हो, उलाहना हो, प्यार हो, चुप्पी हो, अतीत की यादें हों या महानगर की कॉलोनी का सण्डे... कोई भी रंग अछूता नहीं उनकी कविताओं से.

कविताओं को पढ़ते हुये जो बात खटकती है, वो है जेण्डर की भूल. कई जगह हर्फ़ की कौमें छा गयीं को छा गये लिखना, “मरुभूमि कितना सूना लगता है” (मरुभूमि कितनी सूनी लगती है) या “नए-नए तरकीबों” (नई-नई तरकीबों) का लिखना रुकावट पैदा करता है. लेकिन कविता के भावों के समक्ष ये व्यवधान वैसे ही हैं जैसे किसी मीठी किशमिश के दाने के तले में चिपका तिनका. मिठास वही है.

कविता-संग्रह का प्रकाशन आत्माराम ऐण्ड संस, दिल्ली-लखनऊ ने किया है और सजिल्द पुस्तक की कीमत है रु.295.00. मुद्रण की कई त्रुटियाँ भी हैं, जिनसे शब्दों के अर्थ भी बदल गये हैं.

यह कविता संग्रह, उनका छठा संग्रह है, जो उनके अनुभव का दस्तावेज़ है. इस संग्रह को पढने के बाद मेरा दावा है कि आप कविता के शिल्प की प्रशंसा तो करेंगे ही, उनमें अभिव्यक्त भावों में ख़ुद को पाएँगे भी. सबसे बड़ी बात यह है कि ये तमाम कविताएँ (जिनमें कुछ ख़ालिस उर्दू में हिंदी तर्जुमा के साथ हैं) आपको “देखी हुई” लगेंगी. जहाँ ये कविताएँ आपके चेहरे पर एक मुस्कुराहट और शांति बिखेरती हैं, वहीं कुछ कविताओं में बिखरा उदासी का अण्डरटोन भी आपको साफ़ सुनाई देता है. ख़ुद मृदुला प्रधान जी के शब्दों में –

बैठा है ख़्यालों में छुपा, दर्द बेज़ुबाँ
आँखों की नमी क़ैद है, पलकों की परत में!

मेरी बात:
फेसबुक पर मृदुला दी की कविताओं के साथ ख़ुद मैंने न जाने कितनी जुगलबंदी की है. कमेण्ट से हुई शुरुआत, कई बार मेरी कुछ अच्छी नज़्मों (जिन्हें मैंने सहेजा नहीं) की प्रेरणा भी बनी हैं. एक शालीन व्यक्तित्व जिससे कोई भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता.

दीदी! आज आपको इस पोस्ट के माध्यम से जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ!!