हर रोज़ घूमते-फिरते न जाने कितने लोग मिलते हैं. किसी के साथ कोई रिश्ता निकल
आये तो उससे दो बातें भी हो जाती हैं और कितने तो बस कुछ दूर साथ चलकर अपने रास्ते
निकल जाते हैं. ये बोलने-बतियाने वाले या चुपचाप निकल जाने वाले भी अपने अन्दर
कितनी कहानियाँ और क़िस्से छिपाये रहते हैं, कौन जाने. ज़रा सा कन्धे पर हाथ रख दो
या प्यार से पूछो – कैसे हो दोस्त, तो हज़ारों दास्तानें फूट पड़ती हैं.
ऐसे ही एक रोज़ फेसबुक पर एक पोस्ट में अभिषेक ने एक मोबाइल ऐप्प के
ज़रिये, एक महिला डेण्टिस्ट का ज़िक्र किया. जैसा कि हमेशा उसके साथ होता है, उसके
तमाम दोस्तों ने इस घटना को एक मज़ाकिया शक्ल देकर उसकी चुटकी लेनी शुरू कर दी. पोस्ट
देखकर दो किरदार मेरे दिमाग़ में उभरे. मैंने भी चुटकी लेते हुये एक मरीज़ और
डेण्टिस्ट की बातचीत पोस्ट की. मक़सद था अभिषेक के साथ चुहलबाज़ी करना. इसको एक थर्ड
परसन का फ़्लेवर देने के लिये, इसे एक उपन्यास का अंश बता दिया. लोगों की
प्रतिक्रियाएँ देखते हुये ये सिलसिला दो चार पोस्ट तक चला. जिसमें अलग-अलग तरह की
बातें थीं; बेमक़सद, बेतरतीब.
इसी बीच जब गिरिजा दी को यह पता चला कि ये किसी उपन्यास का टुकड़ा नहीं,
बल्कि मेरी रचना है तो उन्होंने मुझसे कहा कि सम्वाद अच्छे हैं, लेकिन इसमें कहानी
नदारद है. अब कहानी लिखना तो मेरे बस की बात नहीं थी. सो मैं घबरा गया. रोज़ कुछ न
कुछ लिखकर बतौर फेसबुक स्टैटस पोस्ट तो किया जा सकता है, लेकिन कहानी लिखने के
लिये बहुत सी बातों का होना ज़रूरी है, जो मुझमें बिल्कुल नहीं. एक घटना को संस्मरण
के रूप में तो मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ, लेकिन एक काल्पनिक घटना बुनना मेरे लिये
असम्भव था. ऐसे में पीछे लौटना भी मुमकिन नहीं था मेरे लिये.
यही नहीं, एक और समस्या ये थी कि अब मेरे किरदार भी मेरे बस में नहीं थे. वे
पूरे के पूरे घटना में ढल गये थे. अगर इस तरह बीच रास्ते में उन्हें छोड़ देता तो
वो मेरी रातों की नींद हराम कर देते. मुझसे रातों को जगा कर सवाल करते कि “कश्ती
का साहिल होता है, मेरा भी कोई साहिल होगा” तो क्या जवाब देता. एक कहानी के
किरदार इस तरह बेदखल हो जाएँ कहानी से तो कभी माफ़ नहीं करते और ऐसे में मैं दुनिया
भर की बद्दुआ तो सह सकता हूँ अपने पात्रों की क़तई नहीं.
फेसबुक पर मेरी पोस्ट कोई नहीं पढ़ता और उसपर कमेण्ट करना तो बिल्कुल ही ज़रूरी
नहीं समझता. फिर भी कुछ लोग इससे जुड़े, इसे पढ़ा और बहुत मज़ेदार प्रतिक्रियाएँ दीं.
इससे एक फ़ायदा ये हुआ कि मुझे एक रास्ता मिल गया; एक सिरा, जिसे पकड़कर मैं इस
बेतरतीब से सिलसिले को “कहानी” का नाम दे सकता था. लोग कहानी का अनुमान लगाते गये,
मैं कहानी में बदलाव लाता गया और प्रतिक्रियाओं की भीड़ में बदन समेटे कहानी आगे
बढ़ती रही.
सिर्फ दो पात्रों से शुरू हुए सिलसिले में प्रियंका की ज़िद के कारण एक
नया कैरेक्टर दाख़िल हुआ और फिर कहानी की माँग के हिसाब से दो और ज़रूरी कैरेक्टर
शामिल हुये, जिसमें से एक इस पूरी कहानी का केन्द्रीय पात्र था, जबकि कुछ लोग
सिर्फ़ ज़िक्र में शामिल रहे. कहानी का यह फ़ॉर्मैट मुझे हमेशा से पसन्द रहा है, हो
सकता है कि कहानियाँ पढ़ते समय उन्हें विज़ुअलाइज़ करना और उनका ड्रामेटाइज़ेशन मुझे
हमेशा सहज लगता रहा है. माँ प्रतिभा सक्सेना ने जबसे अपने ब्लॉग पर “कथांश”
शीर्षक से एक धारावाहिक कथा-शृंखला प्रस्तुत की थी, तब से यह विचार मेरे दिमाग़ में
समाया था. माँ के कहने पर उनकी एक पूरी पोस्ट मैंने अपनी तरह से लिखी थी, जिसे
उन्होंने अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था. तो ये स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच
नहीं कि इस शृंखला की जननी डॉ. प्रतिभा सक्सेना हैं.
जहाँ तक शुरुआती पोस्ट में दाँतों के ईलाज में दंत-चिकित्सा से जुड़े तथ्यों का
प्रश्न है, उसके लिये आवश्यक जानकारी अभिषेक और मेरी सहयोगी सुश्री सरोज
चौधरी ने उपलब्ध करवाई. रश्मि प्रभा दी, अंशुमाला, सुमन पाटिल, अर्चना
तिवारी, प्रियंका गुप्ता, निवेदिता, वन्दना दी, वाणी, श्री मनोज भारती, डॉ. सुशील त्यागी और
देवेन्द्र पाण्डेय जी ने समय समय पर अपनी कीमती टिप्पणियों के माध्यम से मुझे
रास्ता दिखाया. मेरी बहन विनीता, भाई शशि प्रिय, बहु अनुपमा और पौत्री अभिलाषा के
प्रोत्साहन ने बड़ा बल दिया. सनातन कालयात्री श्री गिरिजेश राव के ब्लॉग की टैग लाइन और ख़लील जिब्रान की
एक उक्ति जो मुझे सदा से आकर्षित करती रही है, सम्वादों में पिरोकर मैंने साझा
किया. चुँकि इस कथा में हर पात्र अपनी दिव्य दृष्टि से अपने भूत और भविष्य में
झाँक रहा था तथा एक दूसरे से साझा कर रहा था, इसलिये भाई चैतन्य आलोक ने
शीर्षक सुझाया “संजय उवाच” जो इस कथा को एक सांकेतिक अर्थ प्रदान करता है.
एक बात परमात्मा को साक्षी मानकर स्वीकार करना चाहता हूँ कि इस कहानी में
सम्वादों के माध्यम से जितनी भी घटनाओं का ज़िक्र आया है, उनमें कुछ भी बनावटी नहीं
है. इन सारी की सारी घटनाओं का अपने जीवन काल में साक्षी रहा हूँ मैं और जानता हूँ
कि मेरे परिवार में या बाहर जो कोई भी उन घटनाओं से जुड़ा रहा है उन्हें वे बातें
स्मरण हुई होंगी. जाने-अनजाने मैंने किसी को आहत किया हो तो उसके लिये भी मैं
क्षमा चाहता हूँ, क्योंकि मुझे पता है कि कई जगहों पर अपने पात्रों की बातों से
मैं ख़ुद आहत हुआ हूँ.
मेरे लिये कहानी लिखना एक प्रयोग था और सम्वादों के माध्यम से लिखना भी उसी
प्रयोग का हिस्सा था. इसमें कितना सफल हुआ या असफल रहा यह फ़ैसला तो आपके हाथों में
है. लेकिन मैंने सोच रखा था कि अपने किरदारों को आज़ाद छोड़ दूँगा ताकि वो खुलकर
अपनी बात कह सकें और मेरा दखल बिल्कुल ही न हो. गुरुदेव राही मासूम रज़ा के
शब्दों में मैं कोई तानाशाह नहीं कि कहानी लिखते समय अपने पात्रों के हाथ में एक
डिक्शनरी थमा दूँ और हण्टर फटकारते हुये कहूँ कि तुम्हें एक भी लफ्ज़ इससे बाहर
बोलने की इजाज़त नहीं है.