गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

वह आता...


नई दिल्ली के कनॉट प्लेस का बाहरी चाहे भीतरी सर्किल हो या पुरानी दिल्ली के कोनो पुराना पुल के नीचे का कोना, भोर का टाइम हो कि दिन-दोपहरी-रात, जाड़ा का समय हो कि जेठ का तपता हुआ गरमी... आपको ओहाँ कोनो न कोनो गठरी नुमा आदमी, गलीज कपड़ा ओढ़े हुए, धरती माता के ओर झुका हुआ देखाई दे जाएगा. सारा दुनिया से बेखबर, अपना साधना में लीन. मगर जब ऊ अपना चेहरा उठाकर जब आपके तरफ ताकता है, त आपको देखाई देता है, उसका जलता हुआ लाल-लाल आँख, बिखरा हुआ बाल, गन्दगी से सना हुआ चेहरा... एकदम बच्चा लोग के कहानी के दानव जैसा. हाथ में हथियार के जगह, सिगरेट का पन्नी अऊर दियासलाई. आगे बताने का जरूरत नहीं है कि ऊ का कर रहा होता है. भीख में जेतना पईसा मिला, ऊ नसा के धुंआ में उड़ गया.

गरमी का मौसम अऊर दोपहर को चलता हुआ लू, अब त लू का नाम सुनकर बच्चा लोग अइसे मुंह ताकता है जइसे उल्लू का बात हो. कॉलेज से बाहर निकले अऊर पाकिट में हाथ डाले त हाथ में दू रुपिया का नोट था. रेक्सा वाला डेढ़ रुपिया लेता था. असोक राजपथ पर खडा होकर रेक्सा का इंतज़ार करिये रहे थे कि एगो सज्जन हमरे सामने आये अऊर बोले कि बेटा हमरा पर्स कहीं गिर गया है. पी.एम्.सी.एच. (पटना मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल) में आये थे. सुबह से कुछ नहीं खाए हैं. दादाजी का सिखाया हुआ बात, माँ-बाप का दिया हुआ संस्कार, उस आदमी का उमर अऊर उसके गोहार में दर्द महसूस करके हम अपने पाकिट से दू रुपया का नोट निकाल कर उसको दे दिए. अब एही लू में पैदल जाना होगा घर.  हिम्मत करके बढे त देखते का हैं कि ऊ सज्जन ओही दू रुपिया का नोट देकर सिगरेट खरीद रहे हैं. हम धूल फांक रहे हैं अऊर हमरे पईसा को ऊ धुंआ में उड़ा रहे हैं. हम उसके सामने जाकर खडा हो गए, घूर कर देखे अऊर चल दिए. ऊ आदमी घबरा गया अऊर नजर बचाकर गली में गायब हो गया.

चन्द्रसेखर जी... हमरे वरिष्ठ सहकर्मी... अब रिटायर हो गए. अपना उसूल पर चलने वाले आदमी. किसी के दबाव में काम नहीं करते थे. अगर ऊ ऑफिस जा रहे हैं अऊर आपको भी ओही साइड जाना है तो आपको गाडी में बइठा लेंगे. आपको आपके ओफिस के गेट तक छोड़ेंगे. ई नहीं कि मोड तक पहुंचा कर कहेंगे कि चले जाइए, हमको आगे जाना है. एक बार हमको बोले थे कि मेरा उसूल है कि या तो हम लिफ्ट देते नहीं है और देते हैं तो पहुंचाकर ही छोड़ते हैं, आधे रास्ते में नहीं. उनके उसूल में से एक उसूल इहो था कि रास्ता में सिग्नल पर भीख माँगने वाला कोनो भिखारी को भीख नहीं देते थे. हमरे जईसा कोनो घटना के कारन हो सकता है कि उनको ई सिद्धांत लेना पड़ा होगा.
बिजयलक्ष्मी जी रोज उनके साथ ऑफिस जाती थीं. रोज के तरह ऊ दिन भी ऊ चन्द्रसेखर जी के साथ गाड़ी में जा रही थीं. एक जगह सिग्नल पर गाड़ी रुका. ऊ देख रही थीं कि थोड़ा दूर पर एगो आदमी पुराना कोट-पैंट पहने हुए भीख मांग रहा था. जाड़ा के दिन में कोट पहिनकर भीख मांगना कोनो आदमी को आस्चर्ज में डाल सकता था. मगर उसके बाद जो हुआ, ऊ त घोर आस्चर्ज वाला घटना था. रुका हुआ गाडी देखकर, ऊ भिखारी चन्द्रसेखर जी के गाडी के पास आया. चन्द्रसेखर जी गाडी का सीसा नीचे रोल किये अऊर पाकिट से दस रुपया का नोट निकाल कर उसके हाथ में दिए. सिग्नल हरा हो गया था अऊर गाड़ी आगे निकल गया.

बहुत समझदार आदमी थे अऊर बहुत संतुलित बात करते थे. ऊ भांप गए कि बिजयलक्ष्मी जी के माथा में बार-बार ई सवाल उठ रहा है कि जो आदमी कोनो भिखारी को एक पैसा नहीं देते है, ऊ कोट-पैंट पहनने वाला भिखारी को दस रुपया कइसे दे दिए.
मुस्कुराकर ऊ पूछे, “क्या सोच रही हो विजय लक्ष्मी? मैंने उस भिखारी को पैसे क्यों दिए!”
“सर! आपने देखा नहीं. वो तो कपडे से भी भिखारी नहीं लग रहा था.”
“वो कैसे!”
“उसने तो कोट-पैंट पहन रखा था.”
“हाँ! पिछली सर्दियों में मैंने ही उसे ये कोट-पैंट दिया था, यह कहकर कि इसे पहनना. वो चाहता तो इसे बेचकर नशा कर लेता. मगर उसने मेरी भीख को दान समझकर अपना लिया.”

का मालूम ई भेस में ऊ भिखारी का धंधा कैसा चलता होगा.
बहुत सा लोग जो ई घटना नहीं जानता होगा, ऊ लोग उसको ढोंगी समझता होगा.
या सचमुच ऊ दरिद्र-नारायण था.

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

और इक साल गया!!


आज एगो बहुत पुराना खिस्सा याद आ गया. गर्मी के दुपहरिया में एगो पेड़ के नीचे तीन आदमी थक कर आराम कर रहा था. पहिला मौलवी, दोसरा पंडित अऊर तीसरा कोनो दुकानदार था. ओही पेड़ पर एगो चिड़िया भी सुस्ता रही थी. अचानक चिड़िया बोली टिर्र, टिर्र, टिर्रक. आग जइसा गर्मी में चिड़िया का बोली का मिठास सुनकर तीनों आदमी परसन्न हो गया. सबसे पहिले मौलवी साहब बोले, “देखो परिंदा कह रहा है, खुदा की कुदरत!”
पंडित जी टोक दिए, “क्या बात करते हैं आप, ये कह रहा है राम, लक्षमन, भरत!”
दोकानदार बोला कि चिड़िया को धरम-करम से का मतलब ऊ त बोल रहा है “नून, तेल, अदरख!”
खिस्सा खतम. बड़ा होने पर ई कहानी से हमको एही समझ में आया कि आदमी आपना पेसा के हिसाब से सब चीज को देखता है. याद है न आपको फिलिम मुन्नाभाई, एम्.बी.बी.एस. में डॉक्टर अस्थाना पेसेंट को सब्जेक्ट बोलता था, जबकि मुन्नाभाई कहता था कि ऊ आनंद बैनर्जी है, सब्जेक्ट नहीं.

एगो कागज़ पर अंगरेजी का अच्छर AC लिखकर हमको देखाइयेगा, त हम कहेंगे कि इसका मतलब होता है अकाउंट, बैंकर हैं ना. मगर कोनो दोसरा आदमी बोलेगा कि इसका मतलब होता है एयर कंडीसन. “मेमोरी” सब्द का माने, कंप्यूटर वाला के लिए और मनोवैज्ञानिक के लिए अलग-अलग होता है.

एगो नौजबान इस्मार्ट ब्लॉगर, एक रोज अपना प्रेमिका से मिलने गया, त ऊ बहुत दुलार से सिकायत करते हुए बोली, “हमारा त गली में निकलना मोसकिल हो गया है. लड़का लोग बहुत कमेन्ट करता है!” ई बात बताते हुए उसका ओठ पर मुस्कान साफ़ देखाई दे रहा था. मगर ऊ ब्लॉगर साहब चौंक कर बोले, “कमाल है! दिन भर में कितने कमेन्ट मिल जाते हैं तुम्हें?”
लड़की लजा गयी अऊर बोली, “कभी-कभी त बहुत गंदा कमेन्ट भी करता है सब!”
“पागल हो तुम भी! मॉडरेशन क्यों नहीं लगाती!”
ई जवाब सुनने के बाद लड़की का ज्ञान-चक्छू खुला अऊर उसको समझ में आया कि ऊ कार का बात कर रही थी और ब्लॉगर प्रेमी बेकार का बात किये जा रहा था.
(आचार्य परशुराम राय जी के आग्रह पर)

अब देखिये न, पीछे हम बेंगलुरु वाला पोस्ट पर अपना, उत्साही जी अऊर करण बाबू का फोटो लगाए थे. सबलोग ऊ फोटो देखा अऊर बहुत प्यारा-प्यारा बात भी लिखा. मगर डॉ. कौशलेन्द्र जी का नजर कहीं अऊर था. हमरे फोटो के बारे में उनका मेल हमको आया:
सलिल भैया जी नमस्कार ! 
बेंगलुरु प्रवास में उत्साही जी के साथ खीचे गए आपके चित्र का अवलोकन किया. मेरी चिकित्सकीय दृष्टि को आपके स्वास्थ्य में कुछ गड़बडी दिखाई दी....आप पहले भी कुछ अस्वस्थ्य थे? क्या बात है? कहीं लम्बे समय तक कोर्टीज़ोन तो नहीं लिया था? 
मेल में डॉक्टर साहब का मोबाइल नंबर भी था. उनसे बतियाए अऊर बताए कि आपका नजर सचमुच पारखी है. हमरा आँख देखकर यही बात हमारा डॉक्टर भी हमको बोला था. मगर सर्दी अऊर अनिद्रा के कारन आपको अईसा लगा है. रहा बात कोर्टिज़ोन का, त हमको जब टेनिस एल्बो का जबरदस्त समस्या हुआ था, तब डॉक्टर कहा था इंजेक्ट करने के लिए, मगर हम मना कर दिए. हमरे पिताजी का इसी के मारे बहुत बुरा हाल हुआ था. हम त परहेज से कंट्रोल में किये है. मगर जब दू गो डॉक्टर, एक्के बात कहा है, त एक बार जांच करवा लेते हैं. का मालूम मामला सच्चो सीरियस हो!

डॉक्टर कौशलेन्द्र जी के इस मेल से पहिला बात त ई किलियर हो गया कि हमरा चिंता करने वाला लोग ई आभासी दुनिया में भी है. दोसरा बात कि हमको अब अपना उमर के साथ-साथ अपना स्वास्थ के बारे में भी चिंता करना चाहिए. आखिर मेडिकल साइंस भी कोनो चीज है दुनिया में. खाली दुआ से त काम नहींए चलता है.

हम आजतक एही मानते आए हैं कि हमरे साथ, हमरी माता जी का आसीरबाद अऊर आप सब दोस्त लोग का सुभकामना भी है. अईसे में कोनो रोग-बलाए हमरा का बिगाड़ सकता है. मगर अब समय है चेत जाने का, उमर के साथ. डॉक्टर साहब! जांच करवाकर, रिपोर्ट के साथ आपसे बात करते हैं.
मगर आप लोग कहाँ जा रहे हैं. खेला अभी खतम नहीं हुआ है. आज त हमको आप सब लोग का दुआ, आसिरबाद अऊर सुभकामना का सबसे अधिक जरूरत है. अरे, आज हमरा जनम-दिन है भाई!

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

पुरुष-ब्लॉगर पर मेरी डेब्यू फिल्म का प्लॉट


(रश्मि रविजा जी ने अपनी नवीनतम पोस्ट पर एक सवाल उठाया था कि “क्यूँ मुश्किल है पुरुष ब्लॉगर परफिल्म बनाना?” उनके साथ फेसबुक पर कुछ कमेंट्स के आदान-प्रदान हुए और हाज़िर है यह जवाब कि बहुत आसान है एक पुरुष ब्लॉगर पर फिल्म बनाना, मगर किसी ने कोशिश नहीं की. आवश्यकता है एक प्रोड्यूसर की. यहाँ पेश है फिल्म का प्लाट!)

रात भर प्रसव पीड़ा के बाद, भोर में जाकर एगो पोस्ट का जनम हुआ, तब हम सोने जा सके. अब भोर में चार बजे नींद आना भी संभव नहीं था अऊर कोनो साथी ब्लोगर का कमेन्ट आने का संभावना भी नहीं था. ब्लॉग खोलकर कमेन्ट का इंतज़ार करने से अच्छा था कि नींद का इंतज़ार किया जाए. मगर अबकी बहुत उम्मीद था कि ऐसा पोस्ट पर त कमेन्ट का बरसात होने वाला है. अईसा बिसय त पहले कोनो नहीं ट्राई किया होगा ई ब्लॉग जगत में.

एही चिंता-सोच-बिचार में कब आँख लग गया बुझएबे नहीं किया. नींद खुला जाकर साढ़े आठ बजे. गुसियाकर पत्नी को बोले कि हमको उठाई काहे नहीं. पत्नी भी सीधा पलटकर बोली,”ए जी! आप रात भर लैपटॉप में माथा फोड़ते रहते हैं अऊर जब सुबह हम उठाते हैं त का मालूम का-का बडबडाते रहते हैं... टिप्पणी, बुलेटिन, मीट, कमेन्ट... हम त जानकर छोड़ दिए सोने के लिए कि आपका माथा हल्का हो जाएगा!”

जल्दी-जल्दी तैयार होकर ऑफिस भागे. तनी जल्दी उठ जाते, त देख पाते कि केतना कमेन्ट आ गया पोस्ट पर. घर से गेट पर आए, त सामने रेक्सा देखाई दिया. जब तक इसारा करते, एगो आदमी आकर बइठ गया रेक्सा पर. भुनभुनाते हुए पैदल चल दिए मेट्रो इस्टेसन के तरफ. जाड़ा के मौसम में भी पसीना निकल गया. लगता था कि पूरा मोहल्ला का रेक्सा वाला अपोजिसन पार्टी के तरह हमरे खिलाफ हो गया है. कोनो खाली नहीं. आखिर में एगो रेक्सावाला मिला त उसका चाल मत पूछिए... तौबा ये मतवाली चाल. पाँच मिनट का रास्ता, दस मिनट में.

भागते हुए मेट्रो इस्टेसन के सीढ़ी चढ़कर जब सिकुरिटी के सामने पहुंचे, तब याद आया कि आज हडबडी में मेट्रो का कर्डवा घरे छूट गया. मने मन कुढते हुए टोकन के लाइन में खडा हुए अऊर जबतक टोकन लेकर प्लेटफार्म पर पहुंचे, तबतक ०९:२६ का मेट्रो निकल गया था. अब ०९:३१ वाला मिलेगा अऊर दस मिनट देरी से पहुंचेगे ऑफिस. पाँच मिनट फोन करके बताने में निकल गया कि तनी देरी होगा. एही चक्कर में ट्रेन आ गया. अंतिम डिब्बा के सामने खड़े थे कि ऊ एकदम एस्केलेटर के सामने रुकता है. गाड़ी आने के साथ-साथ सब लोग आगे भागने लगा. कारन ई था कि छः डिब्बा के गाड़ी के जगह ऊ चार डिब्बा वाला गाड़ी था, जो आगे जाकर खडा होता था. भागते-भागते चढ त गए गाड़ी में, बाक़ी जेतना आक्सीजन कमाए थे, सब गंवा दिए अऊर अंदर का भीड़ में ऊहो कम्पेंसेट होने का संभाबना कम्मे था. तनी गोड़ धरने का जगह मिला त सोचे कि मोबाइल पर एक बार देख लें कि केतना कमेन्ट आया है. ब्लॉग खुलने लगा अऊर जैसहीं स्क्रोल करके कमेन्ट तक पहुँचाने वाले थे कि सिग्नल गायब हो गया. लौट के बुद्धू घर को आये. उसके बाद त जेतना भी कोसिस किये, सब बेकार. हमरा इस्टेसन भी आइये चला था. बुझाया कि अब ओफ़िसे में जाकर देख पायेंगे.

पहुंचते ही टेबुल पर हेड ऑफिस का एगो लेटर रखा था अर्जेंट बोलकर. दिसंबर क्वार्टर का अलगे-अलगे फिगर देना था. इधर उधर से फोन करके सब हिसाब-किताब मंगाए, जोड़-घटाव किये तब जाकर रिपोर्ट भेजाया हेड ऑफिस. एही बीच में चार बार ओहाँ से फोन आ चुका था. तनी साँस लिए, चाय मंगवाकर पिए अऊर सोचे कि अब तनी समय चोराकर देखते हैं. अभी मोज़िला क्लिक भी नहीं किये थे कि गोड्जीला हमरे सामने आकर बैठ गया. गोड्जीला माने हमरा बॉस. “वर्मा जी, उस पावर प्रोजेक्ट के सिलसिले में आज कंपनी के प्रोमोटर आने वाले हैं. ब्रीफ मीटिंग है. देख लीजिए क्या-क्या इश्यूज हैं! बस वो आने ही वाले होंगे!”
“पावर प्रोजेक्ट तो कोई नहीं है अभी?”
“अरे वो हाइवे वाला.”
“वो तो रोड प्रोजेक्ट है ना!”
“हाँ हाँ वही! एक ही बात है!”
अब हम का बहस करते. लगे नोट्स तैयार करने. मीटिंग हुआ, कुछ नोर्मल अऊर कुछ गरम.
अभी तक मौक़ा नहीं था कि ब्लॉग देख सकें. लंच का टाइम हो गया अऊर सब लोग जबरदस्ती ले गया कैंटीन में. खाना खाकर तनी इत्मिनान हुआ. सोचे अब कोनो डिस्टर्बेंस नहीं होगा, मगर पता चला कि नेट डाउन है अऊर सर्किल ऑफिस में लोग ठीक करने में लगा है. सायद इंट्रानेट चल जाएगा, मगर इंटरनेट नहीं चलेगा. हम कपार धरकर बईठ गए. सोच लिए कि आज अब हम घर जाने के बादे देखेंगे.

घर में त ऑफिसो से भयंकर माहौल था. सिरीमती जी आज चंडिका के रूप में थी. आते ही दरवाजा पर से हमरा बैग उठाते हुए बोली, “ई इस्कूल की टीचर सब भी का मालूम का-का प्रोजेक्ट देते रहती हैं. ई सब हमसे नहीं होगा. बाज़ार से समान ला दिए हैं. कल्हे इस्कूल में देना है. अब आप ही बनवाइए!” प्रोजेक्ट बनवाने में रात का नौ बज गया. खाना खाकर करीब साढ़े दस बजे जब इंटरनेट पर ब्लॉग खोल कर बैठे, त देखे कि ओहाँ बबाल मचा हुआ था.


हमरा मामूली सा बात, जो हम मजाक में लिखे थे अऊर उम्मीद कर रहे थे कि ई मजाक का लोग आनंद लेगा अऊर अपना टिप्पणी का बारिस कर देगा, ऊ त पूरा का पूरा उलटा हो गया. अब सफाई देने बैठेंगे त पूरा रात निकल जाएगा. कुल मिलाकर चौबे-छब्बे अऊर दुबे वाला खेला हो गया.

घबराहट में चैतन्य बाबू को फोन लगाए अऊर पूछे कि कोनो उपाय बताइये ई बैतरनी पार करने का. ऊ बोले, “अभी तो ग्यारह बजे हैं. एक सुन्दर सी पोस्ट लिखकर सारी बात साफ़ कर दीजिए. आपके पुराने पढ़ने वाले हैं, समझ जायेंगे!”
हम लैपटॉप लेकर बैठ गए पोस्ट लिखने अऊर उधर हमरी सिरीमती जी का गाना बैकग्राउंड में चल रहा था – ना जाओ सैयाँ, छुडा के बइयाँ, कसम तुम्हारी मैं रो पडूँगी!

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

воспоминания о Shikha (शिखा-स्मृति)



“स्मृतियों में रूस” भले ही शिखा वार्ष्णेय की स्मृतियों का दस्तावेज़ हो, लेकिन पिछली पीढ़ी के हर भारतीय की स्मृतियों में बसता है. पूर्व विदेश मंत्री श्री वी. के. कृष्णमेनन जब रूस गए थे तो वहाँ से इंदिरा के लिए रूसी गुड़िया लेकर आए थे. रूसी सर्कस के लचीले कलाकार आज भी अपने प्लास्टिक और रबर सरीखे शरीर के लिए याद किये जाते हैं. रूस में राज कपूर और नरगिस की यादें भी इतनी प्रगाढ़ थीं कि जब प्रसिद्द अंतरिक्ष यात्री यूरी गैगारीन पहली बार राज कपूर से मिला, तो हाथ मिलाते हुए बोला, “आवारा हूँ!”

जब संबंधों की ऐसी गहराई हो, तो एक १६-१७ वर्ष की युवती के लिए विद्यालायोपरांत स्नातकोत्तर स्तर तक की पढाई का समय विस्मृत करना संभव नहीं. पाँच वर्ष की एक लंबी अवधि, एक नवयुवा मन से, एक व्यस्क नागरिक बनने तक के रूपांतरण का काल है. एक ऐसा काल, जिसमें भविष्य आकार ग्रहण करता है, जीवन के प्रति धारणाएं स्पष्ट होती जाती हैं, स्वावलंबन सुदृढ़ होता है और एक व्यक्तित्व का निर्माण होता है. ऐसे संक्रमण काल में, जब सम्पूर्ण जीवन शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तौर पर बदल रहा हो, वे घटनाएँ जो इस निर्माण में सहायक होती हैं, पत्थर पर लकीर की तरह होती हैं. ऐसी ही छवि को नाम दिया है शिखा वार्ष्णेय ने “स्मृतियों में रूस”.

शिखा वार्ष्णेय से हमारा परिचय एक संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त लेखिका के रूप में है. वे कवितायें भी लिखती हैं, लेकिन उसे मात्र उनकी अभिव्यक्ति का हिस्सा माना जा सकता है. पत्रकारिता की विद्यार्थी होने के कारण, उनके आलेखों पर इसकी छाप आसानी से देखी जा सकती है. हाँ, इस पुस्तक की भाषा और अभिव्यक्ति में यह प्रभाव बहुत कम दिखाई देता है. मेरे विचार में इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला, इस पुस्तक के अंकुर उनके मस्तिष्क के पत्रकार की मिट्टी में अंकुरित नहीं हुए हैं और दूसरा, यह संस्मरण एक पत्रकार के हैं ही नहीं.

कुल पचहत्तर पृष्ठ की यह पुस्तक, छोटे-छोटे अध्यायों में विभाजित है, जिनमें आलेखों के बीच वहाँ के श्वेत-श्याम छाया-चित्र भी संकलित हैं. उनके ब्लॉग “स्पंदन” पर इसके अंश प्रकाशित होते रहे हैं, संभवतः इसी कारण कई अध्याय मात्र एक या दो पृष्ठ के भी हैं. शिखा जी ने जिस प्रकार घटनाओं का वर्णन किया है, वह इतना जीवंत है कि पाठक स्वयं को उन घटनाओं का पात्र या उस समाज का हिस्सा मान लेता है. विदेश का आकर्षण किस प्रकार वास्तविकता के कठोर आघात से टूटता है या एक नया आकार ग्रहण करता है, इसका वर्णन बहुत ही ईमानदारी से किया गया है. लेखिका ने यह समझाने का भरसक प्रयत्न किया है कि दूर के ढोल हमेशा सुहावने लगते हैं, जबकि सचाई उसके सर्वथा विपरीत होती है. किन्तु इसके पीछे उनका उद्देश्य किसी को हतोत्साहित करना नहीं, अपितु यह बताना है कि सफल वही होता है जो इन विपरीत परिस्थितियों में आनंद के पल खोज लेता है और हिम्मत नहीं हारता. भाषा, भोजन, सामाजिक मान्यताएं, बदलते आर्थिक वातावरण, जनता का चरित्र, सरकार का रवैया, शिक्षकों की मानसिकता, सहपाठियों का व्यवहार, न्यूनतम सुविधाएँ आदि ऐसे विन्दु हैं जिनपर उन्होंने खुलकर अपने अनुभव बांटे हैं और ये अनुभव कटु भी हैं और मधुर भी.

पुस्तक के नाम से यह ध्यान में आना स्वाभाविक है कि यह पुस्तक आपको रूस के दर्शनीय स्थलों की सैर कराएगी. लकिन यह पुस्तक कहीं से भी एक सैलानी के दृष्टिकोण से नहीं लिखी गयी है, अतः एक पर्यटक के लिए सहायक नहीं हो सकती. इस पुस्तक में रूस के कुछ मुख्य पर्यटन स्थलों का वर्णन भी है, लेकिन मात्र उतना ही जितना शिखा जी के तात्कालिक संपर्क में आया हो. उन्होंने स्वयं इस बात की स्वीकारोक्ति भी की है कि जिस जगह हम रहते हैं वहाँ के दर्शनीय स्थलों के प्रति उदासीन रहते हैं. इतने पर भी उन्होंने हमें वेरोनिष्, मॉस्को, कीव, गोर्की, पुश्किन आदि के गाँव की सैर कराई है. महान लेनिन के साथ वहाँ के लोगों के भावनात्मक जुड़ाव का वर्णन सुनकर, भारत में बैठे हमारा ह्रदय भी भाव-विह्वल हो उठता है.

भाषा पर शिखा जी के अधिकार के बावजूद कुछ मुहावरों अथवा शब्दों के प्रयोग त्रुटिपूर्ण लगते हैं. जैसे स्वयं सारे काम करने के परिश्रम के लिए “सांप छुछुन्दर की स्थिति” का प्रयोग, आपका दाना पानी जहां जब-तक बंधा है तब तक आप पार नहीं पा सकते और ‘हालात’ की जगह ‘हालातों’ शब्द का प्रयोग. लेकिन दूसरी ओर जहां एक केले में पूरे परिवार को खिलाती एक औरत का विवरण आता है, फ़ौज में भर्ती होते युवकों की व्यथा और उनकी प्रतीक्षारत प्रेयसियों का वर्णन आता है, प्यार भरे सम्बोधन से द्रवित होती वृद्धाओं का या किसी स्थल का चित्रमय वर्णन आता हो, वहाँ उनकी लेखनी आपके समक्ष चित्र खींच देती है और आप उसका हिस्सा बन जाते हैं.

कुल मिलाकर शिखा वार्ष्णेय ने यह प्रमाणित किया है कि वे एक सिद्धहस्त संस्मरण एवं यात्रा-वृत्तान्त लेखिका हैं. यह पुस्तक न केवल उनके इस पहलू को प्रमाणित करती है, अपितु उनके एक संवेदनशील और भावनात्मक चरित्र को भी उजागर करती है. क्योंकि बिना भावनात्मक जुड़ाव के संस्मरणात्मक लेखन संभव नहीं.

उनकी लेखन यात्रा में नए कीर्तिमान स्थापित हों, यही मेरी शुभकामना है!!