नई दिल्ली के कनॉट प्लेस का बाहरी चाहे भीतरी सर्किल हो या पुरानी दिल्ली के कोनो पुराना पुल के नीचे का कोना, भोर का टाइम हो कि दिन-दोपहरी-रात, जाड़ा का समय हो कि जेठ का तपता हुआ गरमी... आपको ओहाँ कोनो न कोनो गठरी नुमा आदमी, गलीज कपड़ा ओढ़े हुए, धरती माता के ओर झुका हुआ देखाई दे जाएगा. सारा दुनिया से बेखबर, अपना साधना में लीन. मगर जब ऊ अपना चेहरा उठाकर जब आपके तरफ ताकता है, त आपको देखाई देता है, उसका जलता हुआ लाल-लाल आँख, बिखरा हुआ बाल, गन्दगी से सना हुआ चेहरा... एकदम बच्चा लोग के कहानी के दानव जैसा. हाथ में हथियार के जगह, सिगरेट का पन्नी अऊर दियासलाई. आगे बताने का जरूरत नहीं है कि ऊ का कर रहा होता है. भीख में जेतना पईसा मिला, ऊ नसा के धुंआ में उड़ गया.
गरमी का मौसम अऊर दोपहर को चलता हुआ लू, अब त लू का नाम सुनकर बच्चा लोग अइसे मुंह ताकता है जइसे उल्लू का बात हो. कॉलेज से बाहर निकले अऊर पाकिट में हाथ डाले त हाथ में दू रुपिया का नोट था. रेक्सा वाला डेढ़ रुपिया लेता था. असोक राजपथ पर खडा होकर रेक्सा का इंतज़ार करिये रहे थे कि एगो सज्जन हमरे सामने आये अऊर बोले कि बेटा हमरा पर्स कहीं गिर गया है. पी.एम्.सी.एच. (पटना मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल) में आये थे. सुबह से कुछ नहीं खाए हैं. दादाजी का सिखाया हुआ बात, माँ-बाप का दिया हुआ संस्कार, उस आदमी का उमर अऊर उसके गोहार में दर्द महसूस करके हम अपने पाकिट से दू रुपया का नोट निकाल कर उसको दे दिए. अब एही लू में पैदल जाना होगा घर. हिम्मत करके बढे त देखते का हैं कि ऊ सज्जन ओही दू रुपिया का नोट देकर सिगरेट खरीद रहे हैं. हम धूल फांक रहे हैं अऊर हमरे पईसा को ऊ धुंआ में उड़ा रहे हैं. हम उसके सामने जाकर खडा हो गए, घूर कर देखे अऊर चल दिए. ऊ आदमी घबरा गया अऊर नजर बचाकर गली में गायब हो गया.
चन्द्रसेखर जी... हमरे वरिष्ठ सहकर्मी... अब रिटायर हो गए. अपना उसूल पर चलने वाले आदमी. किसी के दबाव में काम नहीं करते थे. अगर ऊ ऑफिस जा रहे हैं अऊर आपको भी ओही साइड जाना है तो आपको गाडी में बइठा लेंगे. आपको आपके ओफिस के गेट तक छोड़ेंगे. ई नहीं कि मोड तक पहुंचा कर कहेंगे कि चले जाइए, हमको आगे जाना है. एक बार हमको बोले थे कि मेरा उसूल है कि या तो हम लिफ्ट देते नहीं है और देते हैं तो पहुंचाकर ही छोड़ते हैं, आधे रास्ते में नहीं. उनके उसूल में से एक उसूल इहो था कि रास्ता में सिग्नल पर भीख माँगने वाला कोनो भिखारी को भीख नहीं देते थे. हमरे जईसा कोनो घटना के कारन हो सकता है कि उनको ई सिद्धांत लेना पड़ा होगा.
बिजयलक्ष्मी जी रोज उनके साथ ऑफिस जाती थीं. रोज के तरह ऊ दिन भी ऊ चन्द्रसेखर जी के साथ गाड़ी में जा रही थीं. एक जगह सिग्नल पर गाड़ी रुका. ऊ देख रही थीं कि थोड़ा दूर पर एगो आदमी पुराना कोट-पैंट पहने हुए भीख मांग रहा था. जाड़ा के दिन में कोट पहिनकर भीख मांगना कोनो आदमी को आस्चर्ज में डाल सकता था. मगर उसके बाद जो हुआ, ऊ त घोर आस्चर्ज वाला घटना था. रुका हुआ गाडी देखकर, ऊ भिखारी चन्द्रसेखर जी के गाडी के पास आया. चन्द्रसेखर जी गाडी का सीसा नीचे रोल किये अऊर पाकिट से दस रुपया का नोट निकाल कर उसके हाथ में दिए. सिग्नल हरा हो गया था अऊर गाड़ी आगे निकल गया.
बहुत समझदार आदमी थे अऊर बहुत संतुलित बात करते थे. ऊ भांप गए कि बिजयलक्ष्मी जी के माथा में बार-बार ई सवाल उठ रहा है कि जो आदमी कोनो भिखारी को एक पैसा नहीं देते है, ऊ कोट-पैंट पहनने वाला भिखारी को दस रुपया कइसे दे दिए.
मुस्कुराकर ऊ पूछे, “क्या सोच रही हो विजय लक्ष्मी? मैंने उस भिखारी को पैसे क्यों दिए!”
“सर! आपने देखा नहीं. वो तो कपडे से भी भिखारी नहीं लग रहा था.”
“वो कैसे!”
“उसने तो कोट-पैंट पहन रखा था.”
“हाँ! पिछली सर्दियों में मैंने ही उसे ये कोट-पैंट दिया था, यह कहकर कि इसे पहनना. वो चाहता तो इसे बेचकर नशा कर लेता. मगर उसने मेरी भीख को दान समझकर अपना लिया.”
का मालूम ई भेस में ऊ भिखारी का धंधा कैसा चलता होगा.
बहुत सा लोग जो ई घटना नहीं जानता होगा, ऊ लोग उसको ढोंगी समझता होगा.
या सचमुच ऊ दरिद्र-नारायण था.