रविवार, 2 जुलाई 2017

यादों की मिठास - भावनगर डायरीज़

वो एक अधेड़ उम्र की औरत थी. अव्यवस्थित कपड़े, बिखरे हुये खिचड़ी बाल, माथे पर तनाव के कारण उत्पन्न शिकन, भृकुटि तनी हुई, आँखें चौकन्नी और दृष्टि सन्देह से भरी. इस सन्देह में एक असुरक्षा का भाव भी छिपा हुआ स्पष्ट दिखाई देता था. हाथों में एक मैली-कुचैली थैली लिये और उसे सीने से ऐसे लगाए मानो अपने जीवन भर की जमा-पूँजी दुनिया से बचाकर सहेजते हुये घूम रही हो. 
मैंने देखा कि उसने हमारी शाखा में शीशे का दरवाज़ा धकेलकर प्रवेश किया और चौंकन्नी नज़र पूरे परिसर पर डाली. फिर धीरे-धीरे काउण्टर पर राहुल के पास पहुँची. “मुझे इस खाते में से पैसे निकालने हैं” कहते हुये उसने बैंक की पास-बुक निकालकर राहुल को थमा दी. राहुल ने पास-बुक देखकर उससे कहा, “यह दूसरे बैंक का खाता है. इस खाते से पैसे यहाँ नहीं निकल सकते. आप उस बैंक में जाइये जहाँ ये खाता है.”
”इस खाते में पैसे हैं कि नहीं?”
”खाते में कई सालों से कोई एण्ट्री नहीं हुई है, पहले सारी एण्ट्री करवा लीजिये, तब पता चलेगा कि इसमें कितने पैसे हैं.”
वो औरत गुस्से से तमतमा गयी और बोली, “जितने पैसे हैं उतना निकाल दो.”
”ये हमारे बैंक का खाता नहीं है, इसलिये यहाँ कोई पैसा नहीं निकलेगा.”
”कैसे नहीं निकलेगा. आजकल तो मुम्बई के खाते का पैसा, दिल्ली में निकल जाता है; यह तो इसी शहर में है. क्यों नहीं निकलेगा पैसा.”
जब लगने लगा कि बात बिगड़ने वाली है, तो ऑफिसर ने उसे अपने पास बुलाया और कहा, “आप भूल से हमारी शाखा में आ गयी हैं, आपका बैंक दो मकान छोड़कर पास में ही है. आप वहाँ जाकर बताएँ तो आपको पैसे मिल जाएंगे.”
”मैं वहीं से होकर आ रही हूँ. उन लोगों ने कहा है कि इसमें पैसे नहीं हैं. तुम अपने कम्प्यूटर में देखकर बताओ कि इसमें पैसे हैं कि नहीं.”
”माता जी! हमारे कम्प्यूटर में केवल हमारे बैंक के खातों का हिसाब दिखाई देता है. दूसरे बैंक का नहीं.”
”तुम सब लोग मिले हुये हो और जानबूझकर मुझे परेशान कर रहे हो और मेरा पैसा चुरा लेने का इरादा है तुम लोगों का.”
उस महिला क स्वर इतना तीव्र हो चला था कि मुझे अपने कक्ष से उठकर बाहर आना पड़ा. मैं उस महिला को अपने कक्ष में ले गया और समझाने की कोशिश की. लेकिन उसने जैसे न समझने की कसम खा रखी थी.
थोड़ी देर बाद मैं उस महिला को लेकर बाहर निकला और उसे पास वाले बैंक की शाखा में ले गया और उस बैंक के प्रभारी श्री राजेश मेहता से मिलने उनके कक्ष में गया. जब मैंने उस महिला की पास-बुक दिखाई तो मेहता जी मुस्कुराकर बोले, “अच्छा तो वो आपके बैंक में गयी थी!”
”क्यों क्या बात है?”
”सर! उस औरत का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है. उसके हाथ उसके घर में रखी कोई पास-बुक लग गयी है और वो हर दूसरे-तीसरे दिन यहाँ के सभी बैंकों में जाकर पैसा निकालने की बात कहती रहती है.”
पूरी बात जानकर मैंने उसे समझाया, ”अभी आपका पैसा नहीं आया है. मैंने यहाँ के मैनेजर साहब को कह दिया है कि वो आपको परेशान नहीं करें. जैसे ही आपका पैसा आएगा, वो आपको दे देंगे.”
और वो औरत लौट गयी. हमलोग भी अपने-अपने काम में व्यस्त हो गये. हम सभी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि उस महिला का मानसिक संतुलन ठीक नहीं है, इसलिये वो इस तरह की बातें कर रही थी.
अभी दो चार दिन भी नहीं बीते होंगे कि वो फिर से आ धमकी. फिर से काउण्टर पर वही सारी घटनाएँ दोहराई गईं. इस बार वो अधिक क्रोधित थी, क्योंकि उसने पूरी बैंकिंग व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया था. काउण्टर पर अन्य ग्राहकों का काम प्रभावित न हो, इसलिये मैं उस महिला को पुन: अपने कक्ष में ले गया और समझाने लगा. वो महिला मुझपर गुस्सा होकर बिगड़ रही थी, हवा में पास-बुक घुमा रही थी और मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था. अपनी ओर से मैंने कुछ भी कहने की कोशिश नहीं की, बस सिर हिलाटा रहा. चार-पाँच मिनट के इस तूफ़ान के बाद वो महिला शाखा से चली गयी.
भोजनावकाश के समय राहुल ने कहा, ”सर! आप क्यों उसको अपने केबिन में जाने देते हैं. उसे चले जाने को क्यों नहीं कहते. बिना मतलब वो आपको इतना कुछ कह-सुनकर चली जाती है, जबकि हमरा उससे कोई लेना देना भी नहीं.”
सभी स्टाफ-सदस्यों ने एक सुर में यही बात दोहराई और ये भी कहा कि आइन्दा वो शाखा में आई तो उसे अन्दर नहीं घुसने दिया जाएगा. सबकी बात सुनने के बाद मैंने कहा. ”आपलोगों की भावना का मैं सम्मान करता हूँ. लेकिन उस महिला के साथ कोई दुर्व्यवहार करने की न तो स्थिति है, न आवश्यकता. मैं उसे सम्भाल लूँगा.”
खैर, उसके बाद नियम हो गया कि हर हफ्ते-दस दिन पर वह औरत आती और ऊपर अपना सारा गुस्सा निकालकर चली जाती. मैं चुपचाप उसकी बात सुनता और मेरे कहने पर सब लोग उसे एक साधारण सी घटना ही मानकर चुप रह जाते.
एक दिन जब वह महिला अपना क्रोध-प्रकरण समाप्त कर शाखा से विदा हुई, तो मैंने सभी को बुलाया और बताया, “जानते हैं, इसके साथ क्या हुआ है! इसके पति की मृत्यु के पश्चात, इसके बच्चों ने इसके सारे पैसे इससे छीन लिये और इसे घर से निकाल दिया. यह लाचार मज़दूरी करती हुई अपने दिन काटने लगी और इसी सदमे से इसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया. घर छोड़ते समय उसके हाथ बस यही एक पास-बुक लगी, जिसके बदले में उसे कोई पैसा नहीं मिला सिर्फ दुत्कार मिली हर तरफ से. इसे बैंक का हर आदमी इसके ख़िलाफ़ साज़िश करता प्रतीत होता है. वो मेरे सामने अपने दिल की तमाम शिकायतें निकालकर चली जाती है.”
कुछ दिनों बाद वो महिला फिर से शाखा में आई. सामान्य सी दिख रही थी उस दिन. उसने फिर थैली खोली. लेकिन इस बार उसकी थैली से पासबुक नहीं, एक छोटा सा टिफ़िन निकला. उसने टिफिन खोलकर मेरे सामने कर दिया. उसमें चीनी भरी थी. बोली, “तुम मुँह मीठा करो. जितने प्यार से तुमने मुझसे बात की है, उतनी आज तक किसी ने नहीं की. सब दुत्कार कर भगा देते हैं.”
उन चीनी के दानों की मिठास आज ताज जुबान पर बसी है.