बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

अटकन चटकन : छोड़ आए हम वो गलियाँ

 बातों वाली गली” का कर्ज़ चुकाने का मौक़ा “अटकन चटकन” ने दे दिया, हालाँकि इसमें भी व्यक्तिगत व्यस्तताओं और परेशानियों के कारण महीने भर से ज़्यादा का समय निकल गया। यह उपन्यास लिखा है श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे ने और इसके प्रकाशक हैं शिवना प्रकाशन। कुल जमा 88 पृष्ठों का यह उपन्यास मेरी नज़र से देखें तो एक रोशनदान है जिससे झाँकते हुए मैं उन गलियों का सफ़र तय कर पाता हूँ जिसके बारे में गुलज़ार साहब ने अपनी एक नज़्म में कहा था – छोड़ आए हम, वो गलियाँ!


उपन्यास का ताना बाना उस शहर या गाँव के इर्द-गिर्द है जिसका नाम वंदना जी ने ग्वालियर या झाँसी भले लिखा हो, लेकिन वह आज से मात्र चार पाँच दशक पहले का कोई भी गाँव या शहर हो सकता है और स्थान उस गाँव या शहर के एक सम्पन्न खेतिहर परिवार की हवेली। एक ऐसी हवेली जिसमें दालान है, आँगन है, रसोई है, छत है, कई कमरे हैं और बहुत सारे लोग बसते हैं। इस उपन्यास की कहानी दालान को छोड़कर (ज़रूरत के समय थोड़ा बहुत इण्टरफ़ेरेंस को छोड़कर) बाक़ी तमाम जगहों की हैं , इसलिए इसके किरदार औरतें और बच्चे हैं। उपन्यास को पढ़ते हुए हमारी उम्र के सभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे अपनी दादी, बुआ, मौसी, चाची, काकी और शायद अपनी माँ से मिल रहे हैं।

उपन्यास की केंद्रीय पात्र सुमित्रा जी और कुंती हैं, जिन्हें वंदना जी ने अपने पिता जी के साथ यह उपन्यास समर्पित भी किया है। सुमित्रा के साथ जीका और कुंती के साथ सिर्फ नाम का सम्बोधन क्यों किया गया है यह बात उन्होंने स्पष्ट नहीं की। लेकिन हमारे जीवन में कुछ लोग होते ही इतने सीधे-सादे हैं कि उनको जी कहकर सम्बोधित किये बिना नहीं रहा जा सकता। सुमित्रा जी भी शायद उसी मिट्टी की बनी हुई थीं। दो सगी बहनें, लेकिन एक दूसरे की कार्बन कॉपी यानि शक्ल सूरत से लेकर सीरत तक में एक कार्बन की तरह काली और दूसरी बिल्कुल सफ़ेद। सन्योग से दोनों बहनें एक ही घर में ब्याही जाती हैं और फिर शुरू होती है महाभारत की एक शृंखला... घटना दर घटना जो मायके से लेकर ससुराल तक और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलती जाती है। यह महाभारत वास्तव में संयुक्त पारिवार के बीच फलते फूलते कलह का एक ऐसा उदाहरण है, जिसके साक्षी हम सब रहे होंगे अपने बचपन में और यदि हम कहें कि हमने ऐसा कभी देखा सुना नहीं, तब या तो हम झूठ बोल रहे हैं या फिर हमने बचपन जिया ही नहीं। ख़ैर उपन्यास का अंत, जैसा कि हम सब देखना चाहते हैं, उसी तरह हुआ – और सब सुख-शांति से रहने लगे!

उपन्यास में वर्णित सारी घटनाएँ कुंती के इर्द-गिर्द घूमती हैं और उसी से जुड़े सभी किरदार सामने आते जाते हैं। इसलिये इस उपन्यास की हीरो कुंती ही है, क्योंकि इसके चरित्र के बहुत सारे शेड्स हैं, बल्कि जो भी किरदार उसके सामने आता है उसे एक नया रंग देकर जाता है और आख़िर में उन सभी रंगों को ख़ुद में आत्मसात कर, कुंती का किरदार पूरी तरह काला हो जाता है। उपन्यास की शुरुआत से ही मेरे मन में कुंती की जो छवि बनती जाती है वह है शेक्सपियेर के मशहूर नाटक ऑथेलो के पात्र इयागो की, जिसे साहित्यकार निरुद्देश्य खलनायक की संज्ञा देते हैं। कुंती भी जितने प्रपंच रचती है, उसका उद्देश्य न तो स्वयम का वर्चस्व सिद्ध करना होता है, न किसी को नीचा दिखाना, किंतु उसका परिणाम अवश्य यह होता है कि कोई भी कुंती से उलझना नहीं चाहता। इसे कम से कम मेरे विचार में न तो कुंती के झगड़ने का उद्देश्य माना जा सकता है, न उपलब्धि। और जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, लगता है कि आगे चलकर कुंती विश्वम्भर नाथ शर्मा “कौशिक” की कहानी ताईकी रामेश्वरी सी होगी। लेकिन कुंती का अनोखापन उसे कुंती के रूप में ही निखारता है जो वंदना जी की शानदार किस्सागोई की कला का प्रमाण है।

पूरे उपन्यास में कुंती के प्रपंच और षड़यंत्रों की बहुतायत है, लेकिन ग़ौर से देखा जाए तो संयुक्त परिवार के मध्य इस प्रकार चार बर्तनों के बीच ख़ड़कने की आवाज़ें होती रहने से अधिक नहीं... हाँ कभी-कभी इन बर्तनों का टकराना कुछ ज़्यादा ही तेज़ हो जाता है जो काँच के टूटकर बिखरने और चुभने सा लगने लगता है और खड़कना शोर की तरह तीखा और कर्कश भी लगने लगता है। लेकिन यही तो संयुक्त परिवार के बीच की मिर्ची और शक्कर का संगम है।

“अटकन चटकन” की भाषा में बुंदेलखण्ड की चाशनी घुली हुई है, इसलिये कुंती के सम्वाद भी कानों में मिस्री घोलते हैं। हर किरदार अपनी ज़ुबान में बात करता है, जिसपर उपन्यासकार की भाषा का कोई भी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। लेखन शैली में एक ऐसा बहाव है कि पढ़ना शुरू करते ही पाठक उपन्यास के साथ बहता चला जाता है और बिना अंत तक पहुँचे थमता नहीं। वर्णन इतना जीवंत है कि घटनाएँ काग़ज़ पर लिखे हरफों में नहीं, आँखों के सामने घटती हुई “दिखाई” पड़ती हैं... कोई व्यर्थ का वर्णन नहीं और कोई बनावटी घटनाक्रम नहीं।

“अटकन चटकन” उपन्यास श्रीमती वंदना अवस्थी दुबे के लेखन कौशल का अद्भुत नमूना है। वे अपने परिचय में कहती हैं कि उन्हें विषय के रूप में विज्ञान ही पढ़ना अच्छा लगता था, सो विज्ञान की छात्रा रहीं, स्नातक तक। एक हवेली के अंदर की दुनिया का इतना सूक्ष्म निरीक्षण इसी बात का प्रमाण है। एक विज्ञान की छात्रा का एक सामाजिक दस्तावेज़ जो परिवार के हर मनोवैज्ञानिक पहलू को उजागर करता है और जिसका नाम है – अटकन चटकन!

35 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर समीक्षा। किताब के प्रति रुचि जगाती।

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  2. क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया....!
    सलिल, मुझे मालूम था कि पुस्तक तुमने मंगवा ली है। मंगवाई है तो पड़ोगे ज़रूर ये मालूम था लेकिन तुम्हारी व्यस्तताओं से भी वाक़िफ़ हूँ, सो चुप लगा गयी। लेकिन मन ही मन इंतज़ार तो था...!
    इंतज़ार का फल कितना मीठा निकला, ये देवेंद्र भाई बताएंगे क्योंकि उनका कमेंट आ चुका है 😊
    उपन्यास को जो नज़रिया तुमने दिया, अभी तक वो नहीं मिला था। सच कहूं तो अपना ही लिखा, फिर से पढ़ने का मन कर रहा। बहुत खुश हैं आज हम। खूब आशीर्वाद ।

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    1. जिज्जी, मुझसे यूँ ही मुँहदेखी बात लिखी कही नहीं जाती! लिखो तो ईमानदारी से, नहीं तो मत लिखो! बस जैसा अनुभव किया, वैसा ही अभिव्यक्त किया। आशीर्वाद है आपका!

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  3. इतनी समीक्षाएँ पढ़ीं। शुरू की चार पंक्तियाँ और सीधे अंतिम। क्योंकि समझ आ जाता है कि ये समीक्षा नहीं मक्खन की बट्टी है जो अमूल के पैकेट से खोलकर तैरा दी गई है। लेकिन इस समीक्षा को पढ़ने लगी तो लगा जैसे दही का मंथन करके मक्खन तो मक्खन छाछ भी अलग कर दिया गया है। बाबू मोशाय हम पुस्तक छपवाइब तो समीक्षा आपही से करवाइब।

    वंदना जी को बहुत बहुत बधाई।

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    1. हम त प्रस्तावना लिखने का उम्मीद में हैं अऊर आप समिच्छा का बात कर रही हैं।

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    2. ऊ तो बुक हो ही गया है, आज समीक्षा की भी बुकिंग करवा ले रहे हैं।

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  4. आहा ,'अटकन चटकन',के बहाने ही सही आपने ब्लाग की लम्बे समय की खामोशी को तोड दिया .स्वागत है आपका . तमाम पाठकों की प्रतीक्षा का अन्त हुआ .आप समीक्षा तह तक जाकर करते हैं इसलिये हर रचनाकार की चाह होती है कि आप उसे देखें . अब उन रचनाओं की उम्मीद भी जाग गयी है जो पहले से ही इन्तज़ार में हैं .

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    1. अगली बारी आपकी है दीदी... मेरी परेशानी आप समझती हैं!

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    2. जानती हूँ और मुझे इन्तज़ार करने की आदत भी है क्योंकि उसका परिणाम आनन्दमय होता है क्योंकि आपकी समीक्षा किसी भी रचना का सौभाग्य है . सबसे बड़ी खुशी आपकी रुकी कलम चल पड़ने की है .बस अब रुकें नहीं .

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  5. अच्छा लगा इसी बहाने आपके चिट्ठे के द्वार खुले। आते रहिये।

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  6. सहज शब्द प्रवाह,पाठक को पढ़ने के लिए आकर्षित करनेवाली चुंबकीय भाषाशैली
    सलिल भाई के लेखन की यही ख़ासियत है ! ज़ाहिर है उनके द्वारा की गई यह समीक्षा प्रमाण है वंदना जी का लिखा यह उपन्यास पठननिय एवं रुचिपूर्ण होने का !

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    1. भगिनी सुमन! यह आप जैसे सुधि-पाठकों का स्नेह है जो मुझसे लिखवा लेता है ऐसा कुछ जो सभी को अच्छा लगता है! धन्यवाद!!

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  7. अरसे बाद आए मगर क्या ख़ूब आए! इतने दिन ब्रेक पर रहे मगर कलम में वही रवानगी, वही धार नज़र आती है! अपने चिर परिचित अंदाज़ में आपने एक ईमानदार और जानदार समीक्षा लिखी है! वंदना जी को बहुत-बहुत बधाई!!

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    1. गुरुदेव! मैं ब्रेक पर था, लेकिन मन-मस्तिष्क उन्हीं गलियों में भटकता था। चिंता का कोहरा छाया था और एक हल्की सी धूप से कोहरा छँट गया!

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  8. इसी नाम से एक और किताब है। आपकी समीक्षा पढ़ने के बाद अमेज़न पर खोजा तो पता चला। इसे मंगाने की सूची में डाल दिया है। आजकल बिटिया के लिए इतनी किताबें आर्डर करनी पड़ती हैं, कि बीच में अपनी भी एक-आध डाल देते हैं कभी-कभी 

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    1. बहुत अच्छा लगेगा पढ़कर, वो लोग जो शायद हमारे बीच नहीं रहे या गिने चुने ही बचे हैं, उनसे मिलना हो जाएगा!

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  9. समीक्षा के माध्यम से उपन्यास पढ़ने की उत्सुकता बन गयी है ।अच्छी बात कही है समीक्षक ने । उपन्यास पढ़कर रचनाकार को जानूँगी ।बधाई आप दोनों को 💐

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  10. हम त कुछु कहे के मनोस्थिति में ही नहीं हो पाते.. छोटे भाई आपकी लेखनी जीवित होने का एहसास देती है..

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  11. बहुत ही शानदार समीक्षा .. अटकन चटकन से होते हुए बातों वाली गली तक पहुंचना सिर्फ आप ही कर सकते थे ... वंदना दी को बहुत बहुत बहुत बधाई ... बड़ा ही सुखद रहा ब्लॉग पर आपको पढ़ना ... शुभकामनाओं सहित सादर ...

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  12. इतने अर्से बाद ब्लॉग के भाग्य जगे, चलो सब इस किताब के सहारे खेल लें, अटकन चटकन दही चटकन, ...
    पीठ पीछे कहो तो सुनता कौन है, सामने कहो तो लगता है कि बस यूं ही कह रहे ! अब यूँ ही कह लीजिए या स्वीकार कर लीजिए, आपकी कलम को विदुर का आशीर्वाद है, जो उतना ही लिखता,कहता है - जिसे पढ़कर लगे गागर में सागर

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    1. मेरे लिए तो आपका स्नेह और आशीर्वाद ही बहुत है, जो सदा लिखते रहने को प्रेरित करता है! प्रणाम दीदी!

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  13. अटकन चटकन की खूब चटक समीक्षा रही . वंदना और आपको बधाई .

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  14. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  15. बहुत सुन्दर समीक्षा की है आपने. उपन्यास को पढने की उत्कंठा बढ़ाएगी. बधाई.

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