“कविता मेरे लिये रिक्त घट भर देने वाला जल है, ज़मीन फोड़कर निकला हुआ अंकुर है, अन्धेरे कमरे में जलता हुआ दिया है, बेरोज़गार के लिये रोज़गार है या कि बेघर भटकते मन का ऐसा एकमात्र आश्रय है जहाँ बैठकर कुछ राहत मिल जाती है. कविता मेरी अंतरंग मित्र है, भीड़ में भी मेरे अकेलेपन की संगिनी. कविता के कन्धों का सहारा लेकर मैंने अब तक का ऊबड़ खाबड़ रास्ता सरलता से तय कर लिया. मैं कविता की ऋणी हूँ क्योंकि मेरी कुछ अनुभूतियाँ कविता की ममतामय गोद में जाकर रचना की संज्ञा पा लेती हैं.”
और ऐसी ही कुछ
रचनाओं का संग्रह है – “कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी.” जैसा कि शीर्षक से
विदित है यह पंक्ति किसी नज़्म की पंक्ति सी प्रतीत होती है या फिर किसी गीत सी. तो
यह है श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ के कुछ चुने हुए गीतों का संग्रह. उनकी अब
तक प्रकाशित चौथी पुस्तक, जिसमें समाहित हैं उनके लगभग सत्तर गीत. इन गीतों में
कुछ ग़ज़लें हैं और कुछ दोहे भी हैं. चुँकि दोनों विधाओं की रचानाएँ गायी जाती रही
हैं, इसलिये उन्हें गीतों के मध्य गीत मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.
(बड़ी बहु सुलक्षणा कुलश्रेष्ठ)
कविता को लेकर कवयित्री
के ऊपर दिये गये विचार उन्होंने आत्मकथ्य में स्पष्ट किए है और जिस रचनाकार के
लिये कविता का अर्थ इतना विस्तार लिये हो, उसके लिये तो सम्पूर्ण प्रकृति ही एक
कविता है. और स्वयम को इस प्रकृति का एक अंश स्वीकारते हुये अपनी रचनाधर्मिता निभाना
उनके लिये उस परमपिता की स्तुति से कम नहीं. गिरिजा जी का परिचय हमारे लिये उनके ब्लॉग
“ये मेरा जहाँ” से है. किंतु उनका यह परिचय एक अत्यंत संकोची और अपनी
रचनाओं को सुदामा के चावल की तरह छिपाने वाले व्यक्तित्व सा ही रहा है. उनके इस
संग्रह में जितने भी गीत हैं, उन्हें पढने के बाद कोई उनके इस वक्तव्य से सहमत
नहीं हो सकता कि जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी मैं ख़ुद को पहली कक्षा में
पाती हूँ.
इन गीतों की सबसे
बड़ी विशेषता यह है कि प्रत्येक गीत की संरचना भिन्न है अर्थात यदि उन गीतों की स्वरलिपि
लिखी जाए तो वह अनिवार्य रूप से हर गीत के लिये अलग होगी. यह बात इसलिये भी महत्वपूर्ण
हो जाती है कि कुछ ऐसे गीतकार भी देखे गए हैं जिनके लगभग समस्त गीतों की रचना एक
ही धुन को आधार बनाकर की गई होती है. गिरिजा जी ने हर गीतों में स्थायी और अंतरे
का विभाजन इतने सहज ढंग से किया है कि यदि उन्हें गाया जाए तो दोनों भागों के मध्य
विभेद करने में असुविधा की कोई सम्भावना नहीं रह जाती. आधुनिक गीतों में इस तरह की
व्यवस्था गीत/ काव्य संरचना में नहीं होती है (कविता और गीत दोनों को समान विधा
मान लिये जाने के कारण), अत: इस आधार पर सारे गीतों को हम क्लासिकल कह सकते हैं.
गीतों में लयात्मकता है और सभी गेय हैं.
गीतों के विषय इतनी
विविधता लिये हैं कि पाठक एकरसता का शिकार नहीं होता जैसे – प्रकृति, ऋतुएँ,
नववर्ष, पर्व त्यौहार आदि. साथ ही कुछ रचनाएँ नितांत व्यक्तिगत हैं जैसे अपने पुत्र
के लिये, दूसरे पुत्र के जन्म दिवस पर, भाई के लिये बहन के उद्गार आदि. किंतु अपने
पुत्र को केन्द्र में रखकर लिखा हुआ गीत भी जब आप पढते हैं तो आपको उसमें अपने
पुत्र की झलक दिखाई देती है. मन्नू के जन्मदिन पर वो क्या कहती हैं देखिये
हर पल से तू हाथ
मिलाना/खुलकर गले लगाना
रूठे हुये समय को भी/
देकर आवाज़ बुलाना
लक्ष्य नए कुछ तय
करना/ संकल्पों का सन्धान
और भीड़ में खो मत
देना/ अपनी तू पहचान.
इनकी कविताओं में
व्यर्थ की घोषणाएँ, नारे और भाषणों का स्थान नहीं होता. इनके सन्देश इतने मुखर हैं
कि उसके लिये किसी शोर का वातावरण दरकार नहीं.
अंग्रेज़ी की आदत
क्यूँ हो/ इण्डिया माने भारत क्यूँ हो,
हृदय न समझे मतलब
जिनका/ ऐसी जटिल इबारत क्यूँ हो
सरल भाव हों, सरल
छन्द हों/ अपनी लय अपना स्वर हो
ऐसा नव-सम्वत्सर हो!
किसी भी रचनाकार के शब्दकोष
का अनुमान उसकी दस पन्द्रह रचनाओं को पढकर लग जाता है. लेकिन गिरिजा जी की सत्तर
रचनाओं को पढने के बाद भी बहुत कम शब्द पुनरावृत्त होते हुये दिखाई दिये. यह इनकी
कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है. शब्दों का भण्डार, उचित शब्दों का चयन, शब्दों
द्वारा भावों की अभिव्यक्ति, इतनी सुगठित है कि किसी एक शब्द को उठाकर आप कोई दूसरा
शब्द बिठाना चाहें तो पूरी कविता काँच के बर्तन की तरह चकनाचूर हो जाती है.
कलुष विषाद बहाते/ भारवहन
में हैं ये कच्चे
कोई कितना भी झूठा हो/
आँसू होते सच्चे
सूने-सूने आँगन में/
ये भावों का अमंत्रण हैं
आँसू मन का दर्पण
हैं!
दोहे जितने भी हैं
सब अपने क्लासिकल रूप में दो पंक्तियों में अपनी बात सीधा कह जाते हैं. यहाँ एक सुन्दर
प्रयोग का उल्लेख करना चाहूँगा:
हर वन-उपवन बन गया,
ब्यूटी-पार्लर आज,
सबकी सज्जा कर रही,
सृष्टि हुई शहनाज़!
जब से इन्हें पढना आरम्भ किया है तब से मेरे अंतर्मन में यह प्रश्न हमेशा सिर
उठाता था कि श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ की कविताओं पर महादेवी वर्मा जी का प्रभाव
दिखता है. इस संग्रह में एक गीत उन्होंने महादेवी वर्मा जी को समर्पित किया है, जो
परोक्ष रूप से मेरे सन्देह की पुष्टि करता है.
इतनी ख़ूबियों
के साथ ही कुछ कमियाँ भी रही हैं, जिनकी चर्चा के बिना यह प्रतिक्रिया संतुलित
नहीं कही जा सकती.
गीतों के साथ प्रणय
का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है. जहाँ हम सब जानते हैं कि हैं सबसे मधुर वो गीत
जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं, वहीं हम सब यह मानते हैं कि प्रेम में हर व्यक्ति कवि बन जाता है. गिरिजा जी
के गीतों में दर्द का एक सुर , व्यवस्था से नाराज़गी, पर्यावरण नष्ट करने वालों के
प्रति आक्रोश तो दिखता है, किंतु प्रणय-गीत की अनुपस्थिति एक प्रश्न करती है उनसे,
भले ही उनकी क्षमताओं पर प्रश्न चिह्न न लगाये. कालिमा, गरल, रुद्ध, हुँकार, रक्तरंजित,
पीड़ा, धूमिल, विगलित, करुणा – इन शब्दों का चयन उनके अन्दर के अवसाद को प्रकट करता
है. दूसरी ओर जहाँ उनके दोहे चकित कर देते हैं, वहीं ग़ज़लों में मूलभूत भूल दिखाई
दे रही है. उन्होंने स्वयम स्वीकार किया है कि गज़ल की विधा से वे पूर्णत: परिचित
नहीं हैं.
गुलज़ार साहब की एक
पुस्तक है – पन्द्रह पाँच पचहत्तर. प्रथम दृष्टि में यह कोई दिनाँक प्रतीत होता है.
परंतु उस संग्रह में पन्द्रह विभागों के अंतर्गत उनकी चुनी हुई पाँच-पाँच नज़्में
हैं. गिरिजा जी को भी चाहिये था कि वे रचनाएँ जो इस संग्रह में बिखरी हुई हैं, एक
मुख्य विषय (प्रकृति, रिश्ते, ऋतुएँ, सरोकार आदि) के अंतर्गत विभक्त कर संकलित की
जानी चाहिए थीं.
यह संग्रह श्री अरुण
चन्द्र राय के ज्योतिपर्व प्रकाशन, इन्दिरापुरम द्वारा प्रकाशित हुआ है. पुस्तक सजिल्द
आवरण के साथ है और कवर बहुत ही आकर्षक है. छपाई की गुणवत्ता किसी भी स्थापित
प्रकाशक से कमतर नहीं है. पुस्तक को देखते ही हाथ में उठाने की तबियत होती है और
हाथ में लेते ही पढने की जिज्ञासा जागृत होती है.