शनिवार, 10 मई 2014

कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी


“कविता मेरे लिये रिक्त घट भर देने वाला जल है, ज़मीन फोड़कर निकला हुआ अंकुर है, अन्धेरे कमरे में जलता हुआ दिया है, बेरोज़गार के लिये रोज़गार है या कि बेघर भटकते मन का ऐसा एकमात्र आश्रय है जहाँ बैठकर कुछ राहत मिल जाती है. कविता मेरी अंतरंग मित्र है, भीड़ में भी मेरे अकेलेपन की संगिनी. कविता के कन्धों का सहारा लेकर मैंने अब तक का ऊबड़ खाबड़ रास्ता सरलता से तय कर लिया. मैं कविता की ऋणी हूँ क्योंकि मेरी कुछ अनुभूतियाँ कविता की ममतामय गोद में जाकर रचना की संज्ञा पा लेती हैं.”
और ऐसी ही कुछ रचनाओं का संग्रह है – “कुछ ठहर ले और मेरी ज़िन्दगी.” जैसा कि  शीर्षक से विदित है यह पंक्ति किसी नज़्म की पंक्ति सी प्रतीत होती है या फिर किसी गीत सी. तो यह है श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ के कुछ चुने हुए गीतों का संग्रह. उनकी अब तक प्रकाशित चौथी पुस्तक, जिसमें समाहित हैं उनके लगभग सत्तर गीत. इन गीतों में कुछ ग़ज़लें हैं और कुछ दोहे भी हैं. चुँकि दोनों विधाओं की रचानाएँ गायी जाती रही हैं, इसलिये उन्हें गीतों के मध्य गीत मान लेने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए.


(बड़ी बहु सुलक्षणा कुलश्रेष्ठ) 

कविता को लेकर कवयित्री के ऊपर दिये गये विचार उन्होंने आत्मकथ्य में स्पष्ट किए है और जिस रचनाकार के लिये कविता का अर्थ इतना विस्तार लिये हो, उसके लिये तो सम्पूर्ण प्रकृति ही एक कविता है. और स्वयम को इस प्रकृति का एक अंश स्वीकारते हुये अपनी रचनाधर्मिता निभाना उनके लिये उस परमपिता की स्तुति से कम नहीं. गिरिजा जी का परिचय हमारे लिये उनके ब्लॉग “ये मेरा जहाँ” से है. किंतु उनका यह परिचय एक अत्यंत संकोची और अपनी रचनाओं को सुदामा के चावल की तरह छिपाने वाले व्यक्तित्व सा ही रहा है. उनके इस संग्रह में जितने भी गीत हैं, उन्हें पढने के बाद कोई उनके इस वक्तव्य से सहमत नहीं हो सकता कि जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी मैं ख़ुद को पहली कक्षा में पाती हूँ.

इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि प्रत्येक गीत की संरचना भिन्न है अर्थात यदि उन गीतों की स्वरलिपि लिखी जाए तो वह अनिवार्य रूप से हर गीत के लिये अलग होगी. यह बात इसलिये भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि कुछ ऐसे गीतकार भी देखे गए हैं जिनके लगभग समस्त गीतों की रचना एक ही धुन को आधार बनाकर की गई होती है. गिरिजा जी ने हर गीतों में स्थायी और अंतरे का विभाजन इतने सहज ढंग से किया है कि यदि उन्हें गाया जाए तो दोनों भागों के मध्य विभेद करने में असुविधा की कोई सम्भावना नहीं रह जाती. आधुनिक गीतों में इस तरह की व्यवस्था गीत/ काव्य संरचना में नहीं होती है (कविता और गीत दोनों को समान विधा मान लिये जाने के कारण), अत: इस आधार पर सारे गीतों को हम क्लासिकल कह सकते हैं. गीतों में लयात्मकता है और सभी गेय हैं.

गीतों के विषय इतनी विविधता लिये हैं कि पाठक एकरसता का शिकार नहीं होता जैसे – प्रकृति, ऋतुएँ, नववर्ष, पर्व त्यौहार आदि. साथ ही कुछ रचनाएँ नितांत व्यक्तिगत हैं जैसे अपने पुत्र के लिये, दूसरे पुत्र के जन्म दिवस पर, भाई के लिये बहन के उद्गार आदि. किंतु अपने पुत्र को केन्द्र में रखकर लिखा हुआ गीत भी जब आप पढते हैं तो आपको उसमें अपने पुत्र की झलक दिखाई देती है. मन्नू के जन्मदिन पर वो क्या कहती हैं देखिये

हर पल से तू हाथ मिलाना/खुलकर गले लगाना
रूठे हुये समय को भी/ देकर आवाज़ बुलाना
लक्ष्य नए कुछ तय करना/ संकल्पों का सन्धान
और भीड़ में खो मत देना/ अपनी तू पहचान.

इनकी कविताओं में व्यर्थ की घोषणाएँ, नारे और भाषणों का स्थान नहीं होता. इनके सन्देश इतने मुखर हैं कि उसके लिये किसी शोर का वातावरण दरकार नहीं.

अंग्रेज़ी की आदत क्यूँ हो/ इण्डिया माने भारत क्यूँ हो,
हृदय न समझे मतलब जिनका/ ऐसी जटिल इबारत क्यूँ हो
सरल भाव हों, सरल छन्द हों/ अपनी लय अपना स्वर हो
ऐसा नव-सम्वत्सर हो!

किसी भी रचनाकार के शब्दकोष का अनुमान उसकी दस पन्द्रह रचनाओं को पढकर लग जाता है. लेकिन गिरिजा जी की सत्तर रचनाओं को पढने के बाद भी बहुत कम शब्द पुनरावृत्त होते हुये दिखाई दिये. यह इनकी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है. शब्दों का भण्डार, उचित शब्दों का चयन, शब्दों द्वारा भावों की अभिव्यक्ति, इतनी सुगठित है कि किसी एक शब्द को उठाकर आप कोई दूसरा शब्द बिठाना चाहें तो पूरी कविता काँच के बर्तन की तरह चकनाचूर हो जाती है.

कलुष विषाद बहाते/ भारवहन में हैं ये कच्चे
कोई कितना भी झूठा हो/ आँसू होते सच्चे
सूने-सूने आँगन में/ ये भावों का अमंत्रण हैं
आँसू मन का दर्पण हैं!

दोहे जितने भी हैं सब अपने क्लासिकल रूप में दो पंक्तियों में अपनी बात सीधा कह जाते हैं. यहाँ एक सुन्दर प्रयोग का उल्लेख करना चाहूँगा:

हर वन-उपवन बन गया, ब्यूटी-पार्लर आज,
सबकी सज्जा कर रही, सृष्टि हुई शहनाज़!

जब से इन्हें पढना आरम्भ किया है तब से मेरे अंतर्मन में यह प्रश्न हमेशा सिर उठाता था कि श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ की कविताओं पर महादेवी वर्मा जी का प्रभाव दिखता है. इस संग्रह में एक गीत उन्होंने महादेवी वर्मा जी को समर्पित किया है, जो परोक्ष रूप से मेरे सन्देह की पुष्टि करता है.

इतनी ख़ूबियों के साथ ही कुछ कमियाँ भी रही हैं, जिनकी चर्चा के बिना यह प्रतिक्रिया संतुलित नहीं कही जा सकती.

गीतों के साथ प्रणय का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है. जहाँ हम सब जानते हैं कि हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं, वहीं हम सब यह मानते हैं कि प्रेम में हर व्यक्ति कवि बन जाता है. गिरिजा जी के गीतों में दर्द का एक सुर , व्यवस्था से नाराज़गी, पर्यावरण नष्ट करने वालों के प्रति आक्रोश तो दिखता है, किंतु प्रणय-गीत की अनुपस्थिति एक प्रश्न करती है उनसे, भले ही उनकी क्षमताओं पर प्रश्न चिह्न न लगाये. कालिमा, गरल, रुद्ध, हुँकार, रक्तरंजित, पीड़ा, धूमिल, विगलित, करुणा – इन शब्दों का चयन उनके अन्दर के अवसाद को प्रकट करता है. दूसरी ओर जहाँ उनके दोहे चकित कर देते हैं, वहीं ग़ज़लों में मूलभूत भूल दिखाई दे रही है. उन्होंने स्वयम स्वीकार किया है कि गज़ल की विधा से वे पूर्णत: परिचित नहीं हैं.

गुलज़ार साहब की एक पुस्तक है – पन्द्रह पाँच पचहत्तर. प्रथम दृष्टि में यह कोई दिनाँक प्रतीत होता है. परंतु उस संग्रह में पन्द्रह विभागों के अंतर्गत उनकी चुनी हुई पाँच-पाँच नज़्में हैं. गिरिजा जी को भी चाहिये था कि वे रचनाएँ जो इस संग्रह में बिखरी हुई हैं, एक मुख्य विषय (प्रकृति, रिश्ते, ऋतुएँ, सरोकार आदि) के अंतर्गत विभक्त कर संकलित की जानी चाहिए थीं.

यह संग्रह श्री अरुण चन्द्र राय के ज्योतिपर्व प्रकाशन, इन्दिरापुरम द्वारा प्रकाशित हुआ है. पुस्तक सजिल्द आवरण के साथ है और कवर बहुत ही आकर्षक है. छपाई की गुणवत्ता किसी भी स्थापित प्रकाशक से कमतर नहीं है. पुस्तक को देखते ही हाथ में उठाने की तबियत होती है और हाथ में लेते ही पढने की जिज्ञासा जागृत होती है.

इस संग्रह के गीतों को पढते हुये मुझे जो अनुभव हुआ, उसे इस गीत के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है: जैसे सूरज की गर्मी से तपते हुये तन को मिल जाए तरुवर की छाया!

रविवार, 4 मई 2014

वर्मा फ़िल्म्स


एगो बहुत पुराना कहावत है कि काठ का हाण्डी दोबारा नहीं चढता है. अऊर एगो बहुत बड़ा अदमी का कहा हुआ बात है कि आप एक टाइम में ढेर सा लोग को अपना झूठ से फुसला सकते हैं, चाहे एगो अदमी को ढेर देर तक बहला सकते हैं, लेकिन ढेर सारा लोग को ढेर देरी तक झूठ बोलकर नहीं फँसा सकते हैं. अब आप कहियेगा कि इसमें कऊन अइसन बिसेस बात है, सब लोग पढा-लिखा है अऊर सबको ई मालूम है. त हम माफी चाहते हैं, बतवा एतने सिम्पुल होता त हम एहाँ नहीं कहते.

आज सौ साल से बहुत सा लोग का गुट आप सब लोग को झूठ-मूठ का कहानी सुनाकर फुसला रहा है अऊर आप, ऊ लोग का कहानी सुनकर कभी खुस होते हैं अऊर कभी आँसू बहाते हैं. अरे जब सबलोग समझदार हैं, त काहे नहीं झूठ धर लेते हैं. एक्के झूठ सिचुएसन बदल-बदल कर सामने आता है अऊर आप लोग तारीफ करते नहीं थकते.  

तीन घण्टा रुपहला पर्दा पर चलने वाला रोसनी अऊर परछाईं का खेला हम लोग सौ साल से देखते आ रहे हैं. सब नकली है जानते बूझते हुए भी आझो ऊ खेला हँसाता है, रोलाता है, डराता है, बहलाता है, फुसलाता है, प्यार जताता है, भक्ति जगाता है, जोस भर देता है, नफरत देखाता है. एतना नकली होता है कि देखने के बाद रोने वाला अदमी चुपचाप रुमाल से अन्धेरा में आँसू पोंछ लेता है अऊर देखता है कि कोई देख त नहीं न रहा है.

अब त हमको कहने का जरूरत नहीं है कि हम सिनेमा के बारे में बतिया रहे हैं. सिनेमा का आकर्सन कहियो कम नहीं हुआ, देविका रानी से लेकर दीपिका पदुकोन तक अऊर पृथ्वीराज कपूर से लेकर रनबीर कपूर तक. हमको तो नसा है सिनेमा का. बाकी अपने आप को सिनेमा के पर्दा (टीवी के पर्दा) पर देखने का खाहिस अपना सादी का वीडियो से आगे नहीं बढ पाया. ऐक्टिंग करने के बाबजूद भी सिनेमा वाला बात मन में फाँस के तरह लगले रह गया. एही नहीं,  बेटा के अन्दर भी सिनेमा बनाने बीमारी समा जाएगा कभी सोचे नहीं थे. माने हमको ऐक्टिंग करने का अऊर बेटा को सिनेमा बनाने का. बस हो गया घोड़ा को कुँआ के पास ले जाने का इंतजाम.

कहानी का कोई चिंता नहीं था, लेकिन कलाकार का समस्या था. हम दुनो बाप-बेटा के अलावा घर में कोई ऐक्टर नहीं, सब के सब समिक्छक हैं. बेटी कैमरा उठाने से आगे तैयार नहीं. एही से श्री सत्यजीत राय का एगो कहानी “टेलिफ़ोन” चुना गया जिसमें खाली दू गो चरित्र था. बेटा का कहना था कि ऊ सिनेमा खाली हमारे ऐक्टिंग के लिये है, काहे कि ऊ लोग हमारा ऐक्टिंग कभी देखा नहीं था. कहानी में दू आदमी का टेलिफोन पर बातचीत था. कैमरा हमारे ऊपर था अऊर हमारे साथ टेलिफोन के दोसरा ओर का सम्बाद बोल रहा था हमारा बेटा, हमको साथ देने के लिये!

जब पूरा फिलिम सूट हो गया त हमको लगा कि बेटा का आवाज़ है त उसको अन्धेरा में रखकर उससे भी ऐक्टिंग करवाया जाए त मोनोटॉनी खतम हो जाएगा. बस उसका सारा सम्बाद दोबारा बोलाया गया अऊर उसका सीन सूट हो गया. बाद में एडिटिंग के बाद एतना बढिया फिलिम बना कि का बताएँ. कम से कम साधन में अच्छा सिनेमा. एडिटिंग, संगीत अऊर टाइटिल के बाद सिनेमा बहुत अच्छा बन गया. बाद में बहुत सा गलती भी देखाई दिया, लेकिन पहलौठी का संतान पाने का सुख परसव का तकलीफ कहाँ महसूस होने देता है.

दूसरा फिलिम के लिये हमको अपने गुरु के. पी. सक्सेना साहब का ध्यान आया. लेकिन समस्या एही था कि उनका लेख में व्यंग त होता है, मगर कहानी नहीं. तइयो एगो लेख निकाले, उसको दोबारा पटकथा अऊर सम्बाद के साथ लिखे अऊर तब लगा कि कुछ बात बन गया है – “आत्महत्या की पहली किताब”. हमारे लिये गुरू जी को दिया जाने वाला गुरु-दच्छिना के समान था. लेकिन सिनेमा का पूरा काम होने के रोज  उनका निधन का समाचार मिला. गुरु-दच्छिना, सर्धांजलि में बदल गया.

ई बार जब जनवरी में पटना गये त फिर हम दुनो बाप-बेटा बइठकर सोचने लगे कि अबकी का किया जाए. ई बार अच्छा बात ई हुआ कि घर के सब सदस्य के अन्दर ऐक्टिंग का कीड़ा कुलबुलाने लगा था. सत्यजीत राय के कहानी “मानपत्र” का पटकथा अऊर सम्बाद लिखा गया. पूरा घर इस बार जुट गया. दू गो छोटा भाई, बहु सबलोग. मगर एगो सबसे बड़ा समस्या ई था कि उसमें एगो दिरिस था जिसमें बहुत बड़ा जलसा होता हुआ दिखाना था अऊर ऊ कहानी का जरूरी हिस्सा था. बहुत सोचने के बाद हम बोले कि हमारा सादी के रजत जयंती का वीडियो में से जलसा वाला सीन निकालकर एडिट कर के इसमें डाला जा सकता है.

ई सिनेमा में घर का कलाकार होने से जादा महत्वपूर्ण बात ई था कि बहुत सा लोग के लिये ऐक्टिंग का पहिला अबसर था. मगर सबसे बड़ा बात था फिलिम में हमारे स्वर्गीय पिता जी के फोटो का इस्तेमाल. सूटिंग के टाइम में हमारे दिमाग में आया बात अऊर बस पिता जी भी फिट हो गये सिनेमा में अऊर एगो बहुत महत्वपूर्ण किरदार के रूप में.

आज आपके सामने “वर्मा फ़िल्म्स” का तीसरा सिनेमा पेस कर रहे हैं. सिनेमा में बहुत सा कमी है, मगर सुबिधा के अभाव अऊर बहुत सा मोस्किल (हमारे पास टाइम कम होना और बेटा का पढाई) के साथ कलाकार का कमी. मगर 16-17 साल के बच्चा के एडिटिंग का कमाल अऊर बैकग्राउण्ड संगीत का इस्तेमाल अऊर 16-17 साल की हमरी बेटी का कैमरा संचालन आपको वाह कहने पर मजबूर कर देगा.


(आसमान के तरफ हाथ उठाकर) पापा जी! देख रहे हैं ना, मम्मी हमेसा गुसियाती थीं कि आप हमलोग से खाली सिनेमा का बात बतियाते हैं, पढाई का बात नहीं. आज सिनेमा का रोग आपसे चलते हुए तीसरा पीढी तक पहुँच गया है! आसीर्बाद दीजिये कि बुढापा में हम अऊर किसोर अवस्था में आपका पोता-पोती आपको एगो फिलिम डेडिकेट कर रहे हैं! वी रियली मिस यू डैड!!