बुधवार, 31 अगस्त 2011

ईद और सरहद पार के रिश्ते


हर सरकारी नौकरी के तरह हमरे पिताजी को भी राष्ट्रीय त्यौहार के अलावा कुछ त्यौहार में छुट्टी मिलता था. मगर नौकरी अइसा था कि मजबूरी में काम करना पड़ता था. बहुत सा लोग खुस होकर काम करते थे, काहे कि उस रोज के काम का ओभर-टाइम मिलता था; कुछ लोग मन मारकर काम करते थे काहे कि नहीं चाहते हुए भी ओभर-टाइम करने के लिए मजबूर थे. मगर हमरे पिताजी तीसरा कैटेगरी के आदमी थे. ऊ छुट्टी लेकर पटना आ जाते थे परिबार के बीच. हम लोग भी उनका इंतज़ार करते थे, उनसे बतियाने के लिए बात सोचकर रखते थे. कुल मिलाकर उनका आना हमलोग का त्यौहार होता था.
अब होली, दीवाली, दसहरा, तीज, छठ आदि पर त उनका आना सोभाविक था. मगर ईद पर उनका नहीं आना भी ओतने सोभाविक था हम लोग के लिए. आपलोग सोचियेगा कि हिंदू के इहाँ ईद नहीं मनाया जाता होगा, इसलिए उनका नहीं आना सोभाविक बात है. मगर बात ऊ नहीं था.
बास्तव में तीन गो दोस्त थे हमरे पिताजी के. अंसार अहमद, जुल्फिकार अली सिद्दीकी (उनको लोग भुट्टो साहब कहते थे) और फखरे आलम. अंसार चचा लंबे चौड़े पठान थे. एक बार किसी झगड़े के कारण (हमलोग तब छोटे थे इसलिए बहुत सा बात हमलोग को नहीं बताया जाता था) कोई पिताजी को धमकी दिया था. तब अंसार चचा ने खुलेआम चैलेन्ज देकर कहा था, “वर्मा के ऊपर हमला करने वाले को पहले अंसार अहमद के सीने पर वार करना पडेगा!” और पटना में रहकर भी हमलोग को इत्मिनान था कि उनके होते पिताजी का कोई कुच्छो नहीं बिगाड़ सकता.
सिद्दीकी चाचा बहुत सांत आदमी थे. एकदम संत परकिर्ती के. हमलोग को एकदम देबता लगते थे. पिताजी उनको हमेसा पंडित जी कह दिया करते थे. आलम चाचा एकदम हीरो आदमी थे. सिनेमा के हीरो जइसा. घर पर भी उर्दू कम अंगरेजी जादा बोला जाता था, उनके. आज भी याद आता है जब चाची जी उनको बुलाती थीं तो कहती थीं, “लिसन (Listen!)! अऊर हमलोग समझ नहीं पाते थे कि ई कउन भासा का सब्द है.
बस एही तिर्मूर्ती के कारण पिताजी ईद के छुट्टी में पटना नहीं आते थे अउर नौकरी भी नहीं करते थे. ई तीनों लोग का कहना था कि जबतक वर्मा नहीं हो ईद में तब तक ईद मनाना, न मनाने बराबर है. अउर पिताजी भी बस हाजिर हो जाते थे. हमलोग भी कभी नहीं सिकायत किये कि पटना काहे नहीं आते हैं ईद के छुट्टी में.
बहुत साल बाद जब हम शारजाह गए, तब जाकर हमको असली आनंद समझ में आया कि काहे पिताजी ईद में पटना नहीं आते थे. जावेद भाई पाकिस्तान के रहने वाले थे. ईद के रोज उनकी पत्नी सहजादी भाभी अपना तीनों बच्चा लोग के साथ-साथ हमरी बेटी के लिए भी नया कपड़ा खरीदकर ले आती थी. हम सब लोग नया कपड़ा पहिनकर उनके घर पर उनके मेहमान लोग का स्वागत करते थे. अगर कोई नहीं देखाई दिया तो ओही लोग ताजुब से पूछता था कि तुम्हारी दूसरी बहन नहीं दिखाई दे रही है. अउर हमरी सिरीमती जी को देखकर ऊ लोग को इत्मिनान होता था.
महीना भर से तैयारी. जावेद भाई रात को हम सब लोग को लेकर मेला घुमाने जाते थे. समुंदर के किनारे खिलाना-पिलाना सब करते थे. कभी महसूस नहीं होने दिए कि हम लोगों में हिंदू-मुसलमान, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दी-उर्दू का केतना फरक था.
हमरे इहाँ लौट आने के बाद भी त्यौहार, सालगिरह पर फोन करते रहे अउर सम्बन्ध बना रहा. बाद में एक रोज जब शारजाह फोन किये त कोनों जवाब नहीं मिला. फोन कट गया बुझाता था. एक रोज फोन आया कि जावेद भाई का इलाज चल रहा है इस्लामाबाद में अउर सबलोग पाकिस्तान चला गया है. मेल से पता चला कि उनका तबियत सुधर रहा है. उसके बाद केतना कोसिस किये मगर कोई खबर नहीं. एक दिन उनकी बिटिया साइमा का फोन आया.
“अस्सलाम वालेकुम अंकल!”
“वालेकुम अस्सलाम! बेटा, जावेद भाई कैसे हैं?”
“अंकल ठीक हैं. अम्मी आपसे बात करेंगी.”
उसके बाद फोन कट गया. जब दोबारा फोन नहीं आया त हमही फोन किये. उधर से सहजादी भाभी का आवाज सुनाई दिया, “भाई जान! जावेद का दिसंबर में इंतकाल हो गया!” अउर उनका रोना सुरू, “एक बार रेणु भाभी से बात करवा दीजियेगा.”
“भाबी शाम को घर जाकर आपसे बात करवाता हूँ.” अउर हम फोन रख दिए. दिन भर जावेद का सकल नजर के सामने घूमता रहा. साम को जब सिरीमती जी को बोले तो उनका अफसोस के मारे मुँह से आवाजे नहीं निकल रहा था. बोलीं कि हम नहीं बात कर पाएंगे. पुराना एल्बम, वीडियो देखते रहे अउर बिस्वास नहीं हुआ कि ई जिंदादिल आदमी जो हमरे परिबार का हिस्सा था, नहीं रहा!!
आज साइमा का फेसबुक पर स्टेटस देखकर मन भर आया. ऊ लिखी है कि
“आज जब पापा को ईद मुबारक कहने के लिए फोन की तरफ हाथ बढ़ाया तो याद आया कि वो तो अव्यक्त में समा गए हैं. मिस यू पापा!”

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

डॉक्टर अमर कुमार - एक श्रद्धांजलि!!

तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूँ तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |
                                 - निदा फ़ाज़ली

शनिवार, 20 अगस्त 2011

बुड्ढा होगा तेरा बाप!!


पीछे एतना बिजी रहे कि ब्लॉग पर आने का समय बहुत कम मिला. मगर फेसबुक पर तनी जादा समय बीता. फेसबुक पर जेतना लोग देखाई देता है उसमें बहुत सा लोग हमारे उमर का है अउर बहुत सा नबजुबक है. हमारे लिए ऊ लोग बच्चा है. मगर हमरा इंटरैक्शन बच्चा लोग के साथ बहुत सुखद रहा है. कभी-कभी ई लोग का सोच, बिचार, लेखन देखकर ताज्जुब होता है. ई लोग के साथ मिलकर अपना समय भी याद आता है अउर अपने बड़प्पन का भी एहसास होता है. मन भर जाता है जब कोइ चचा, कोइ चाचू कहता है. कभीकभी त हमरे साथी लोग कह देते हैं हमको कि तुम कहाँ बच्चा सब के बीच फंसे हो, बुड्ढे हो रहे हो, इस सच्चाई को तो समझो. अब साथी को तो नहीं कह सकते कि बुड्ढा होगा तेरा बाप!
अमिताभ बच्चन जी का सिनेमा देखे बुड्ढा होगा तेरा बाप. सिनेमा त जो था सो था. लेकिन अमित जी एकदम सत्तर के दसक वाला बिजय बने हुए थे. कोइ कहेगा कि उमर के ई पड़ाव पर आकर अपने बेटा से मुकाबला कर रहे हैं अउर खाली मुकाबला नहीं जबरदस्त कम्पीटीसन दे रहे हैं. सत्तर साल होने को आया, दिन में फाइटिंग करते हैं अउर रात में कौन बनेगा करोड़पति खेलाते हैं. दुनो रोल में फिट. बहुत प्रेम अउर बड़प्पन के साथ खेलने वाले को बोलाते हैं, उनसे घुलमिलकर बतियाते हैं. लगबे नहीं करता है कि कहाँ इतना बड़ा सुपर-स्टार अउर कहाँ एगो साधारन आदमी. खाली एही नहीं, सत्तर साल का उमर में भी सब जवान लोग दीवाना है उनका. जब फोन लगाकर बोलते हैं जी मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूँ, कौन बनेगा करोड़पति से तो अच्छा-अच्छा लोग घबरा जाता है. अब आप ही बताइये अइसा आदमी को कोइ बुड्ढा बोलेगा त एही जवाब मिलेगा सुनने को कि बुड्ढा होगा तेरा बाप!
एगो अउर बुढऊ हैं, हमारे चचा गुलज़ार. अभी १८ तारीख को पछत्तर साल के हो गए. एगो टाइम था कि हम जवान थे अउर कोनों आदमी इनका कविता को बकवास बोलता था त भिड़ जाते थे उससे. हमरे पिताजी के साथ भी केतना बार बहस हुआ, मगर बाद में ऊ भी फैन हो गए गुलज़ार साहब के. कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर, कमाल का रोमांटिसिज्म, कमाल का बचपना. सबसे बड़ा खासियत त हमको ई लगता था कि कहाँ कहाँ से बिम्ब लेकर आ जाते हैं और सम्बेदना को ऐसा ऊंचाई पर ले जाते हैं कि लगता है कि मोक्ष मिल गया. उनको पढ़ना अउर उनके आवाज़ के गहराई को मन में उतारना कोनो समाधि से कम नहीं है. आजकल फेसबुक अउर ब्लॉग पर नया उम्र का बच्चा लोग को जब लिखते देखते हैं अउर उसपर गुलज़ार साहब का परभाव देखते हैं तो आस्चर्ज होता है. मगर का किया जाए गुलज़ार साहब का रोमांटिसिज्म देखकर हर कोइ को अपना भावना का अभिब्यक्ति मिल जाता है.
आओ तुमको उठा लूं कंधे पर,
तुम उचककर शरीर होठों से,
चूम लेना ये चाँद का माथा.
आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुका-झुक के कुहनियों के बल
चाँद इतना करीब आया है!
अब बताइये भला, ई रोमांस कहीं उम्र का मोहताज है. तीस साल पहिले हम ई पढकर सातवाँ आसमान पर होते थे अउर तीस साल बाद नोएडा के मॉल में एगो जवान लड़का अपनी महबूबा का हाथ अपना हाथ में लेकर एही नज़्म सुना रहा था. अब इसके बाद भी कोइ गुलज़ार साहब को ७५ साल का बुड्ढा बोले तब तो एही जवाब दिया जा सकता है कि बुड्ढा होगा तेरा बाप!!
७४ साल के अन्ना हजारे. बैठ गए हैं अनसन करने. पकड़कर जेल में डाल दिया गया, कोइ बात नहीं, अनसन करना है त ओहीं कर लेंगे. मगर टस-से-मस नहीं होंगे. राजनीति है ई सब, ब्लैकमेल कर रहा है, बरगला रहा है लोग को, खुद भ्रस्टाचार में लिप्त है... बोलने दीजिए. ई बूढ़ा आदमी बस एही बता रहा है कि भ्रस्टाचार को खतम करना है अउर इसके लिए कोनों बिल पास करना जरूरी है. मगर बहस ई है कि ई वाला बिल से भी भ्रस्टाचार नहीं खतम होगा, फलाना को इसके दायरा से बाहर रखो, का गारंटी है कि इसमें भी लोग छेद नहीं करेगा. अरे भाई जब कोनों गारंटी नहीं है तो पास कर दो, काहे झंझट कर रहे हो. मुर्दा पर जैसे आठ मन वैसे दस मन. सैकड़ों साल पहिले का अंग्रेज का बनाया हुआ एक हज़ार क़ानून हइये है त एगो अउर क़ानून सही. मगर एक तरफ बिरोध है दोसरा तरफ नौजवान लोग का जूनून. दिल्ली, नोएडा, चेन्नई, बेंगलुरु, सब जगह नौजवान लोग का जोस देखने वाला है. कोइ सोच भी नहीं सकता है कि नौजवान लोग का सुपर हीरो एगो ७४ साल का बुड्ढा बना हुआ है आजकल. माफी चाहते हैं ई बात कहने के लिए. कहीं सबलोग मिलकर हमरे खिलाफ नारा न लगाने लगे कि बुड्ढा होगा तेरा बाप!!

रविवार, 7 अगस्त 2011

सपनों का महल - हवा महल


आकासबानी पटना का इस्टूडडियो नंबर पाँच. दरवाजा के ऊपर लाल बत्ती जल रहा है, माने अंदर रिकॉर्डिंग चालू है. तब झांककर सीसा से देखते थे कंट्रोल रूम से. पुष्पा दी नाटक रिकॉर्ड कर रही होती थीं अउर उधर सत्या सहगल और सतीस आनंद संबाद बोल रहे होते थे. आस्चर्ज होता था कि कैसे खाली अपना आवाज से पूरा का पूरा दिरिस सुनने वाले के सामने रख देते थे ऊ कलाकार लोग. मन मोताबिक एक्स्प्रेसन नहीं होने पर पुष्पा दी का गुस्सा के आगे सीनियर से सीनियर कलाकार जैसे अखिलेश्वर प्रसाद, प्यारे मोहन सहाय, मनोरमा बावा, भगवान साहू, भगवान प्रसाद, रामेश्वर प्र. वर्मा भी कुछ नहीं कह पाते थे. मगर जब काम सही हो जाता त ओही पुष्पा दी एगो बच्चा के तरह हंसते हुए सबका धन्यवाद करती थीं.

कब हम कंट्रोल रूम से निकलकर इस्टूडडियो में पहुँच गए, पते नहीं चला. पुष्पा दी का स्क्रिप्ट पर मेहनत देखकर लगता था कि उनके लिए नाटक जूनून से कम नहीं है. आज भी याद है कि पूरा स्क्रिप्ट में कलम से निसान बना रहता था, मुँह गोल करके बोलने के लिए के लिए निसान, फुसफुसाकर बोलने के लिए निसान, कुछ एक्सप्रेसन के लिए तो वो प्रस्नबाचक चिह्न लगाने को कहती थीं, जबकि उसमें सवाल नहीं होता था. आज भी उस तरह का बाक्य बोलते समय उनका याद आ जाता है. कुल मिलाकर स्क्रिप्ट में संबाद से जादा नोटेसन होता था.

फिर हम इस्टूडियो से निकलकर डबिंग रूम तक पहुँच गए उनके साथ. नाटक में संगीत, इफेक्ट अउर गलत संबाद को काटकर फाइनल रूप में लाना. पुष्पा दी को हमरे ऊपर बहुत भरोसा था. कहाँ कौन सा म्यूजिक देना है और कहाँ क्या इफेक्ट. इहाँ पर हम कुमार चंद्र गौड़ साहब का नाम भी लेना चाहेंगे. पुष्पा दी को उनके ऊपर भी गजब का भरोसा था डबिंग में. वो स्टाफ आर्टिस्ट थे अउर उनका नाम नाटक के क्रेडिट में देना जरूरी नहीं होता था, मगर पुष्पा दी का बड़प्पन था कि हमेसा उनका नाम देती रहीं.

ई सब फ्लैस बैक का जइसा मन का आँख के सामने से गुजर गया. नाटक छोड़े हुए ज़माना हो गया. आख़िरी नाटक कब किये होंगे याद भी नहीं. अपना आवाज रिकॉर्ड करने का भी कोइ इच्छा नहीं रहा मन में. एक बार आवाज की दुनिया पर पोस्ट लिखे तो अपने प्रिय चैतन्य जी के जिद में पॉडकास्ट किये. मगर झिझक महसूस होता रहता था हमेसा.

अर्चना के रूप में एगो छोटी बहिन मिली. कभी देखे नहीं, कभी मिले नहीं. अर्चना का खासियत है पॉडकास्ट. लोगों का लिखा हुआ केतना पोस्ट अर्चना के आवाज में सुना जा सकता है. समर्पित है एही साधना में, बिना इस लालच के कि परसिद्धि या तारीफ चाहिए, स्वान्तः सुखाय. एक रोज अचानक हमरा पोस्ट उसके आवाज में मेल से मिला, साथ में अनुरोध कि अनुमति दीजिए. हम घबरा गए. पहिला अनुभब था कि कोइ हमरा पोस्ट अपना आवाज में लगाने जा रहा था. आवाज में कमी बहुत था, काहे कि ई बोली के साथ बड़ा नहीं होने वाला के लिए इसमें बतियाना मोसकिल है. हम अपना आवाज में रिकॉर्ड करके भेज दिए कि इसको सुनो अउर अइसा ही बोलने का कोसिस करो. पता चला हमारे आवाज में पोस्ट उसके ब्लॉग पर लगा हुआ है. बाद में अपना आवाज में भी पॉडकास्ट की.

एक रोज फिर हमको बोली कि भैया आप तो रेडियो पर नाटक करते थे, क्यों न हमलोग मिलकर हवा महल जैसा कोइ नाटक करें. कहानी हम सोच लिए हैं. हमरे साथ मोसकिल है कि ना हमरे मुँह से निकलता नहीं है. अउर नाटक के नाम पर तो पहले भी कह चुके हैं कि मृत्यु सय्या पर भी हों अउर कोइ बोले कि ओथेलो करोगे, त हम जमराज से भी घंटा भर का टाइम मांग कर चल देंगे कि अगर अगिला जनम होता हो तो उसमें एक घंटा काट लीजियेगा.

खैर, कहानी को काट-छांट कर नाटक बनाए (ई तो आज पता चला कि अर्चना को संदेह था कि हम ई कर सकते हैं कि नहीं). मगर इसके बाद सुरू हुआ हमरा हाथ का बीमारी, फिर अर्चना बीमार, घर पर कभी बेटे का तो कभी बिटिया का एक्सीडेंट, फिर बच्चों का सगाई, फिर सादी का इंतजाम. हमरे पास भी समय नहीं था. करीब चार महीना लगा इसको पूरा होने में. मगर जब रिकॉर्ड किये त एक्के बार में फाइनल.

कहाँ रेडियो नाटक में कलाकार साथ में बैठकर आमने सामने संबाद बोलते थे, एक्स्प्रेसन समझते थे, अउर कहाँ हमरा नाटक कि एगो आदमी नोएडा में अउर दोसरा इंदौर में. फिर अनुराग शर्मा  जी का मदद से पार्श्व संगीत का सोचे मगर उनके पास समय नहीं था, फिर तारनहार बनाकर आए पदम सिंह जी. उनको भी अर्चना ही राजी की अउर बना “हवा महल.”

कमाल ई है कि जिसका कहानी है उसको नहीं देखे हैं कभी - श्री संजय अनेजा, जिसके साथ मिलकर अभिनय किये उससे भी नहीं मिले हैं कभी- श्रीमती अर्चना चावजी, जो इसका उद्घोसना किये है उनसे खाली एक बार मिले हैं अचानक, नाटक के जैसा- श्री अनुराग शर्मा, अउर संगीत संयोजक से एक बार का परिचय है – श्री पदम सिंह! (उनको त यादो नहीं होगा).

ई सब परिचय के बाद सोचते हैं कि का हम उस आदमी को भी जानते हैं अच्छा तरह से, जो इसमें अभिनय किया है – सलिल वर्मा! इस आदमी के बारे में त बस एही कह सकते हैं कि
पहचान तो थी पहचाना नहीं,
मैंने अपने आप को जाना नहीं! (गुलज़ार)

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

सेलेब्रिटी

बचपन में जब नॉवेल पढते थे, तब दिमाग में कहानी के साथ-साथ एगो अउर बात चलता रहता था. हर उपन्यास के साथ सोचते जाते थे कि बड़ा होकर जब ई उपन्यास पर हम सिनेमा बनाएंगे, तब ई रोल में बिनोद खन्ना को लेंगे, इसके लिए सर्मीला टैगोर को, इसमें प्राण फिट नहीं होंगे, इसलिए जीवन को रखेंगे. गाना कहाँ-कहाँ होगा अउर उसका सूटिंग कहाँ किया जाएगा, सब दिमाग में बैठाते जाते थे. ई वाला गाना गंगा जी में नाव पर अउर ई वाला इलाहाबाद में संगम किनारे, किला वाला साइड पर, ताकि गाना के समय जमुना के पुल से गुजरने वाला गाड़ी भी देखाई दे. फाइट सीन गोलघर के ऊपर, जहाँ से कैमरा का एंगिल अइसा हो कि पूरा पटना देखाई दे अउर लगे कि आसमान में फाईट हो रहा है. जब उपन्यास खतम होता, तब जाकर हमरा सिनेमा भी कम्प्लीट हो जाता.
एगो अउर बिचित्र बिचारा आता था दिमाग में. मने मन अपने फेवरेट कलाकार का इंटरव्यू करते थे. दूगो दोस्त मिलकर सवाल बनाते थे अउर सोचते थे कि कभी मौक़ा मिलेगा त पूछेंगे ई सब सवाल. तब तो ई भी नहीं पता था कि बड़ा लोग का इंटरव्यू भी प्रायोजित होता है कि एही सब सवाल पूछना है अउर ओही सब जवाब मिलना है. कॉलेज में जाने परभी ई बीमारी नहीं छूटा. एही चक्कर में अपना दोस्त प्रमोद के साथ मिलकर पन्द्रह-बीस सवाल का एगो लिस्ट बनाए. फैसला हुआ कि इंटरव्यू करना है फणीश्वरनाथ रेणु जी का. राजेंदर नगर में रहते थे, हमरे घर से जादा दूर नहीं था उनका घर. ऊ आदमी भी बहुत सादा किसिम के थे. सोचे कि उनसे मिलेंगे, बतियाएंगे, मन का सब संदेह दूर करेंगे अउर लौट आयेंगे. दुनो दोस्त तैयार भी हो गए थे. मगर कोनो न कोनो बहाना से बात पेंडिंग होता चला गया. अउर एक दिन पता चला कि सो गया सोने का कलम वाला हीरामन (रेणु जी के मृत्यु पर धर्मयुग में एही सीर्सक से लेख छापा था).  जिन्नगी में सायद पहिला बार बहुत दुःख हुआ था कोनो सपना टूटने पर. कारन ई भी था कि रेणु जी को हम मन से पसंद करते थे.
आज भी केतना बार कोई उपन्यास या कहानी पढते समय अइसने बिचार मन में आ जाता है. केतना बार त लगता है कि फलाना कैरेक्टर त हमसे बढ़िया कोनो करिये नहीं सकता है. मगर जाने दीजिए, अब त दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है.
हमारी बिटिया रानी को तो साहित्य से कोनो लेना-देना नहीं है अउर संगीत भी पाश्चात्य सुनने का बीमारी है. इस्कूल में हिन्दी का प्रोजेक्ट मिल गया कि अपने पसंदीदा व्यक्ति का साक्षात्कार करो. परेसान होकर लगी चिल्लाने, ये भी कोइ प्रोजेक्ट है. मैं नहीं करूंगी. मेरा पसंदीदा व्यक्ति है फुटबाल खिलाड़ी आर्शाविन, तो क्या मैं उसका इंटव्यू लूं जाकर! मैंने कहा, नहीं लिखोगी तो नंबर कट जायेंगे. चलो अपने मन से सवाल बनाकर आर्शाविन से ही या किसी और से पूछ लो और उसके जवाब लिख दो. जवाब तो तुमको पता ही है. बस सवाल-जवाब के रूप में लिखकर टीचर को दिखा दो.
ऊ बोली, जब सब झूठ-मूठ ही करना है तो कुछ और नहीं दे सकती थीं प्रोजेक्ट.
अब टीचर से तो पूछा नहीं जा सकता ना. जब वो खुद चाहती हैं कि तुम मनगढंत इंटरव्यू लिखो, तो लिख दो.
नहीं! मैं झूठ-मूठ नहीं लिखूंगी!! अच्छा डैडी, मैं अपनी पसंद के लेखक का इंटरव्यू तो लिख सकती हूँ ना?
हाँ! पर किसका लिखोगी. हम तो खुद चौंक गए थे कि हमारी बेटी का कोनो पसंदीदा हिन्दी लेखक भी है.
इंटरनेट पर हिन्दी में लिखे जा रहे ब्लॉग में मेरा सबसे पसंदीदा ब्लॉग है चला बिहारी ब्लोगर बनने. इसके लेखक हैं सलिल वर्मा. आज मैं प्रस्तुत करने जा रही हूँ उनके साथ किये गए साक्षात्कार का एक अंश.
हम त हैरान हो गए. न झूठ बोलना पड़ा उसको, न नकली इंटरव्यू छापने का झंझट. माना कि हम कोनो सेलेब्रिटी नहीं हैं, न हमरा अखबार अउर टीवी में इंटरव्यू छपता है, न हमको कोइ जानता है, मगर हमरी बिटिया रानी त आज हमको सच्चो सेलेब्रिटी बना दी.