हर सरकारी नौकरी के तरह हमरे पिताजी को भी राष्ट्रीय त्यौहार के अलावा कुछ त्यौहार में छुट्टी मिलता था. मगर नौकरी अइसा था कि मजबूरी में काम करना पड़ता था. बहुत सा लोग खुस होकर काम करते थे, काहे कि उस रोज के काम का ओभर-टाइम मिलता था; कुछ लोग मन मारकर काम करते थे काहे कि नहीं चाहते हुए भी ओभर-टाइम करने के लिए मजबूर थे. मगर हमरे पिताजी तीसरा कैटेगरी के आदमी थे. ऊ छुट्टी लेकर पटना आ जाते थे परिबार के बीच. हम लोग भी उनका इंतज़ार करते थे, उनसे बतियाने के लिए बात सोचकर रखते थे. कुल मिलाकर उनका आना हमलोग का त्यौहार होता था.
अब होली, दीवाली, दसहरा, तीज, छठ आदि पर त उनका आना सोभाविक था. मगर ईद पर उनका नहीं आना भी ओतने सोभाविक था हम लोग के लिए. आपलोग सोचियेगा कि हिंदू के इहाँ ईद नहीं मनाया जाता होगा, इसलिए उनका नहीं आना सोभाविक बात है. मगर बात ऊ नहीं था.
बास्तव में तीन गो दोस्त थे हमरे पिताजी के. अंसार अहमद, जुल्फिकार अली सिद्दीकी (उनको लोग भुट्टो साहब कहते थे) और फखरे आलम. अंसार चचा लंबे चौड़े पठान थे. एक बार किसी झगड़े के कारण (हमलोग तब छोटे थे इसलिए बहुत सा बात हमलोग को नहीं बताया जाता था) कोई पिताजी को धमकी दिया था. तब अंसार चचा ने खुलेआम चैलेन्ज देकर कहा था, “वर्मा के ऊपर हमला करने वाले को पहले अंसार अहमद के सीने पर वार करना पडेगा!” और पटना में रहकर भी हमलोग को इत्मिनान था कि उनके होते पिताजी का कोई कुच्छो नहीं बिगाड़ सकता.
सिद्दीकी चाचा बहुत सांत आदमी थे. एकदम संत परकिर्ती के. हमलोग को एकदम देबता लगते थे. पिताजी उनको हमेसा पंडित जी कह दिया करते थे. आलम चाचा एकदम हीरो आदमी थे. सिनेमा के हीरो जइसा. घर पर भी उर्दू कम अंगरेजी जादा बोला जाता था, उनके. आज भी याद आता है जब चाची जी उनको बुलाती थीं तो कहती थीं, “लिसन (Listen!)!” अऊर हमलोग समझ नहीं पाते थे कि ई कउन भासा का सब्द है.
बस एही तिर्मूर्ती के कारण पिताजी ईद के छुट्टी में पटना नहीं आते थे अउर नौकरी भी नहीं करते थे. ई तीनों लोग का कहना था कि जबतक वर्मा नहीं हो ईद में तब तक ईद मनाना, न मनाने बराबर है. अउर पिताजी भी बस हाजिर हो जाते थे. हमलोग भी कभी नहीं सिकायत किये कि पटना काहे नहीं आते हैं ईद के छुट्टी में.
बहुत साल बाद जब हम शारजाह गए, तब जाकर हमको असली आनंद समझ में आया कि काहे पिताजी ईद में पटना नहीं आते थे. जावेद भाई पाकिस्तान के रहने वाले थे. ईद के रोज उनकी पत्नी सहजादी भाभी अपना तीनों बच्चा लोग के साथ-साथ हमरी बेटी के लिए भी नया कपड़ा खरीदकर ले आती थी. हम सब लोग नया कपड़ा पहिनकर उनके घर पर उनके मेहमान लोग का स्वागत करते थे. अगर कोई नहीं देखाई दिया तो ओही लोग ताजुब से पूछता था कि तुम्हारी दूसरी बहन नहीं दिखाई दे रही है. अउर हमरी सिरीमती जी को देखकर ऊ लोग को इत्मिनान होता था.
महीना भर से तैयारी. जावेद भाई रात को हम सब लोग को लेकर मेला घुमाने जाते थे. समुंदर के किनारे खिलाना-पिलाना सब करते थे. कभी महसूस नहीं होने दिए कि हम लोगों में हिंदू-मुसलमान, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, हिन्दी-उर्दू का केतना फरक था.
हमरे इहाँ लौट आने के बाद भी त्यौहार, सालगिरह पर फोन करते रहे अउर सम्बन्ध बना रहा. बाद में एक रोज जब शारजाह फोन किये त कोनों जवाब नहीं मिला. फोन कट गया बुझाता था. एक रोज फोन आया कि जावेद भाई का इलाज चल रहा है इस्लामाबाद में अउर सबलोग पाकिस्तान चला गया है. मेल से पता चला कि उनका तबियत सुधर रहा है. उसके बाद केतना कोसिस किये मगर कोई खबर नहीं. एक दिन उनकी बिटिया साइमा का फोन आया.
“अस्सलाम वालेकुम अंकल!”
“वालेकुम अस्सलाम! बेटा, जावेद भाई कैसे हैं?”
“अंकल ठीक हैं. अम्मी आपसे बात करेंगी.”
उसके बाद फोन कट गया. जब दोबारा फोन नहीं आया त हमही फोन किये. उधर से सहजादी भाभी का आवाज सुनाई दिया, “भाई जान! जावेद का दिसंबर में इंतकाल हो गया!” अउर उनका रोना सुरू, “एक बार रेणु भाभी से बात करवा दीजियेगा.”
“भाबी शाम को घर जाकर आपसे बात करवाता हूँ.” अउर हम फोन रख दिए. दिन भर जावेद का सकल नजर के सामने घूमता रहा. साम को जब सिरीमती जी को बोले तो उनका अफसोस के मारे मुँह से आवाजे नहीं निकल रहा था. बोलीं कि हम नहीं बात कर पाएंगे. पुराना एल्बम, वीडियो देखते रहे अउर बिस्वास नहीं हुआ कि ई जिंदादिल आदमी जो हमरे परिबार का हिस्सा था, नहीं रहा!!
आज साइमा का फेसबुक पर स्टेटस देखकर मन भर आया. ऊ लिखी है कि
“आज जब पापा को ईद मुबारक कहने के लिए फोन की तरफ हाथ बढ़ाया तो याद आया कि वो तो अव्यक्त में समा गए हैं. मिस यू पापा!”