मंगलवार, 31 अगस्त 2010

ऊँचाई का डर!

बिहार राज्य पथ परिवहन निगम का हालत पहिले एतना खराब नहीं था. पटना के आस पास के बाहरी इलाका के लिए कॉलेज, युनिवर्सिटी के छात्र अऊर राज्य सरकार के कर्मचारी के लिए इस्पेसल बस सेवा हुआ करता था. एकदम समय का पाबंदी के साथ. टाइम का खयाल बस का ड्राइवर अऊर कण्डक्टर साहब रखते थे, अऊर उनका ‘खयाल’ यात्री लोग.

ई बात तब का है जब हम दानापुर में पोस्टेड थे. पटना से दसेक किलोमीटर पच्छिम. एगो बस रोज सबेरे ऑफिस टाइम में लेकर जाता था अऊर साम को ले आता था हम लोग को. यात्री लोग थे ओहाँ के राज्य सरकार के ऑफिस के लोग अऊर केंद्र सरकार में रक्षा बिभाग का लोग. बहुत दोस्ताना माहौल था. 60 लोग का बस, सुबह साढे नौ बजे गाँधी मैदान डिपो से निकलता था अऊर साम को ठीक साढे पाँच बजे दानापुर से छूटता.

सब ठीके चल रहा था कि केंद्र सरकार के ऑफिस का टाइम बदल गया, सुबह 10 बजे से साम 6 बजे तक. ऊ लोग जाकर बस डिपो में टाइम कीपर को बता दिया कि बस अब से सुबह 9 बजे निकलेगा अऊर साम को साढे छौ बजे. टाइम बदलने से सबको असुबिधा हुआ, काहे कि उसमें बहुत सा गृहिनी लोग थी जिनको घरे जाकर भी काम करना होता था. लेकिन जो बात सबको खराब लगा ऊ ई था कि बस में इस बारे में कोनो चर्चा नहीं हुआ, जइसा कि होता था. बस के सेक्रेटरी का चुनाव या अऊर कोनो फैसला सब लोग चलते बस में चाहे एक जगह मैदान में रोक कर कर लेते थे. लेकिन ई परिबर्तन किसी के राय से नहीं हुआ था, बस मनमाना था.

अब केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कर्मचारी लोग के बीच ठन गया. तत्काल चुनाव किया गया अऊर हमको नया सचिब चुन लिया गया. बस पुराना टाइम से चलने लगा. लेकिन दोसरा दिन से घेराओ चालू. दोसरा दल का लोग सुबह टाइम कीपर को धमका कर बस को अपना टाइम पर ले गया. हम भी उधर से लौटने के टाइम पर ऊ लोग को छोड़कर अपना आदमी के साथ चले आए.

अगिला दिन फिर ऊ लोग जबर्दस्ती ड्राइवर को घेर कर बईठ गया कि बस उनका टाइम से चलेगा. हम भी जोस में थे ही, रोड पर सो गए बस के आगे कि अब बस हमरे देह के ऊपर से जाएगा त जाएगा, नहीं त नहीं जाएगा. हम लेटे रहे रोड पर, अऊर बस को रात आठ बजे तक नहीं चलने दिए.

अगिला दिन राज्य परिवहन निगम के अध्यक्ष श्री जिया लाल आर्य, आई.ए.एस. के पास सिकायत गया अऊर दुनो दल का पेसी हुआ. बात होता रहा अऊर हम अपना पक्ष पर अडिग रहे. हम बोले, “सर! इन लोगों ने अपने मन से सारा टाइम बदल दिया है. और यही हमारा विरोध है.”

“अरे भाई! आप लोग सबको साथ लेकर चलिए. ऐसा क्यों करते हैं कि किसी को असुविधा हो.”

“सर! ये बस राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए है और उनके समय में कोई बदलाव नहीं हुआ है. इसलिए ये केंद्र सरकार के लोग अपने मन से कैसे बदल सकते हैं समय!”

“लेकिन इनके बिना तो आपकी संख्या भी पूरी नहीं होती. इन्हें हटाने से तो आपकी बस ही बंद हो जाएगी.”

“सर! लोग यहाँ टिकट के दुगुने पैसे देने को तैयार हैं. हम एक एक आदमी को दो दो टिकट दे देंगे. आपको तो बस पास की ही गिनती करनी है.”

“क्या मिलेगा आपको इससे?”

“सर! वही तो मैं कहता हूँ. क्या मिलेगा हमें यह करके! मैं अपना समय बर्बाद करके लोगों से पैसे इकट्ठा करता हूँ, उनके टिकट बनवाता हूँ, सुबह टाइम कीपर से मिलकर अच्छी बस का इंतज़ाम करताहूँ, अपने जानने वाले ड्राइवर की ड्यूटी लगवाता हूँ. इतनी परेशानियों के बीच मुझे क्या मिल रहा है, जो मैं ये सब करता फिरूँ. इतनी मुश्किलें अलग और पैसे कभी कम पड़ जाएँ तो अपनी जेब से भरना. क्या फ़ायदा है मुझे?”

वे मुस्कुराए. बोले, “आपकी उम्र कितनी है?”

“चौबीस साल.”

“और आपके बस में चलने वाले लोगों की औसत उम्र क्या होगी?”

“जी, चालीस से पैंतालीस के बीच.”

“वर्मा जी! चौबीस साल की उम्र में, ख़ुद से दुगुने उम्र के लोगों की जमात पर हुक़ूमत या लीडरी करने का नशा क्या कम नज़र आता है आपको! ये बहुत बड़ा नशा है. इंसान को ज़रा सा शिखर पर पहुँचा दो, बस उस पर बने रहने का जुनून उससे बहुत कुछ करवाता रहता है. आप जवान हैं, सोचिए जब ये जज़्बा है आपके अंदर, तो बाँटते क्यों हैं. जोड़कर चलने का नशा, बाँटने से भी ज़्यादा होता है.”

हमको लगा कि हमरे गाल पर एक जबर्दस्त तमाचा लगा है. एक बहुत सीनियर आई.ए.एस. के मुँह से ई बात सुनकर हम अबाक रह गए. बाद में पता चला कि ऊ बहुत अच्छा साहित्तकार भी थे. अगिला दिन से बस नया टाइम से चलने लगा. तनी ऊ लोग ऐड्जस्ट किया तनी हम लोग किए. किसी को कोई तकलीफ नहीं हुआ.

लेकिन उनका बात हमरे मन पर गोदना का जइसा गोदा गया. जब किसी को टॉप पर होने का नसा में देखते हैं, त एही सोचते हैं कि केतना अकेला है ई आदमी. कभी नीचे देखता होगा त डर नहीं लगता होगा उसको! बकौल मुनव्वर रानाः

बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है.
बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है.

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

एक अनमोल तोहफा

पहली बार जब आई थी वो गोद में मेरी
मुझको लगा
भगवान का ये भी होगा कोई मज़ाक
जो मुझसे अक्सर वो करता रहता है.
यकीं नहीं था,
‘उसपर’ भी
और किस्मत पर अपनी
जिसमें थे
छेद न जाने कितने
जिनको सिलने की कोशिश भी मैंने
शायद की हो.

छूकर देखा,
खुलती और झपकती पलकों को भी देखा
गालों और गुलाबी होठों को महसूस किया मैंने
और रोते रोते मुँह बिचकाते उसको देखा.
गोद में लेते डरता था
पर लेकर देखा,
तब जाकर महसूस हुआ कि वो सब सच था.

इंतज़ार कितना लम्बा था पूछे कोई.
बरसों की तो बात ही क्या थी
जन्मों जैसा लगता था हर एक बरस
जब देखता था सूनी सी गोद
उस औरत की
और पूछता था
उस आसमान पे रहने वाले
भगवन से
क्या दोष है उसका.

जब माँगा तब नहीं दिया उसने
और पाया तब,
जब छोड़ दिया था उससे भीख मांगना.
चौदह साल गुज़रने के भी बाद
वो दिन है आज भी ताज़ा ज़हन में मेरे

आज याद तो और भी आता है वो मुझको
आज मेरी झूमा बिटिया की सालगिरह है!!

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

राखी पर कुछ प्रेमपत्र - बहनों के

सबेरे से माथा में अजीब सा दरद हो रहा था.समझे में नहीं आ रहा था का लिखें.एतना असमर्थ कभी नहीं पाए हम अपने आप को, खास कर लिखने का मामला में. मामला राखी का था अऊर भाई बहिन का,  त तनी होसियारी से लिखना पड़ता है. काहे कि दुनिया में एकबार भगवान भी गुसिया जाए त हम मना लेंगे (हालाँकि उनके साथ त बहुत दिने से लड़ाई चल रहा है) लेकिन अपना एकलौती बहिन को समझाना बहुत मोस्किल है.

पिछला का मालूम केतना साल से राखी बहिन के हाथ से नहीं बँधवाए हैं. कभी ई सहर, कभी ऊ सहर, कभी देस, कभी बिदेस... खानाबदोस का जिन्नगी जी रहे हैं. ई हालत में राखी हमको कोरियर से मिलता है. अऊर राखी के साथ उसका चिट्ठी. बातचीत त होता रहता है, लेकिन बाकायदा चिट्ठी, साल में एक्के बार. अबकी साल का आप भी देखिए,

आदरणीय भईया,
 सादर चरण स्पर्श.

बच्चे जब स्कूल में पत्र लिखते हैं, तो पूछते हैं कि औपचारिक लिखना है या अनौपचारिक लिखना है, क्योंकि दोनों के फॉर्मेट अलग होते हैं. ठीक उसी तरह, चिट्ठी लिखने की आदत ख़त्म होने से समझ में नहीं आता कि कैसे लिखूँ. तब मैं पत्र लेखन की पारम्परिक विधि अपना रही हूँ:

मैं यहाँ ठीक से हूँ और आशा करती हूँ कि तुम लोग भी कुशल पूर्वक होगे. आगे यहाँ का समाचार सब ठीक है. राखी भेज रही हूँ, टीका लगाकर बाँध लेना. भाभी को प्रणाम और झूमा को आशीर्वाद. बच्चों तथा इनके तरफ से प्रणाम.

तुम्हारी

विनी

चार भाई में अकेली बहिन. एकदम पागल, खानदानी बीमारी है.

हमको फोन करके एक बार पूछी, “कैसे हो?”
“ज़िंदा हैं.” ई हमरा तकिया कलाम है, लगभग सब लोग जानता है. बाकी ऊ रोने लगी तुरत. हम पूछे भी कि का हुआ, मगर काहे चुप होये.
बोली, “दूर रहते हो तो ई सब बात काहे बोलते हो.”

अब हमरा बारी था चुप होने का.माता जी भी कहती हैं कि भरली साँझ मुँह से खराब बात नहीं निकालना चाहिए. जीने मरने का बात. मगर हम आदत से बाज नहीं आने वाले थे. इसलिए ऊ अपना सवाल बदल दी. अब पूछती है कि सब ठीक है ना.

जब पढाई करती थी एम.ए. में त हमको बोली कि छुट्टी लेकर हमको पढा दो. अब बताइए, ई त मजाके न हो गया. हम ठहरे एम.एस-सी. केमिस्ट्री अऊर बहिन जी का सब्जेक्ट मनोबिज्ञान. हमको त ई हो नहीं बुझाता था कि ससुरा साइकोलॉजी P से लिखाता है कि S से. मगर बोले कौन. कह दिए कि नहीं पढाएंगे त टप टप लोर चूने लगेगा. छुट्टी लिए, पढे पहिले, फिर पढाए. पता चला कि फस्ट क्लास में पास हो गईं, बहुत बढिया नम्बर से.

हम त अबाक रह गए.मगर उसका कॉन्फिडेंस देखकर लगा कि बहिन का भरोसा भाई का सही साइकोलॉजी समझता है.

दूगो बड़ा बड़ा बच्चा है उसको,मगर हमको इस्टेसन पर,चाहे एयरपोर्ट पर छोड़ने आएगी त बिना बच्चा ऐसन रोले बिदाईये नहीं हो सकता है. बच्चा थी त घर में माता जी के नहीं रहने पर, इस्कूल से आने पर हम उसको खाना निकाल कर देते थे, उसका इस्कूल का युनिफॉर्म प्रेस करते थे. कभी लड़ाई किए होंगे, याद नहीं.

आज भी फोन पर बतियाते बतियाते हम उसका खुसी, दुःख, तकलीफ, उदासी, उमंग सब महसूस कर सकते हैं. बहिन लोग होबे करती हैं अईसने.

आइए अब दू गो अऊर बहिन से मिलिए. पहली हैं बड़की दीदी, सरिता दी. अभी लंदन में हैं. नानी बनने गई थीं, मगर बचिया बहुत इंतजार कराई. नौ तारीख का बोलकर, 20 तारीख को पैदा हुई. उनका मेल हमको मिला. आप भी देखिए. एतना दूर रहकर भी उनका प्यार अऊर स्नेह दिल को छू गया. सरिता दी, प्रणाम है आपको!!

प्रिय सलिल,

मैं भी ना..(चार्ल्स डिकेंस की ग्रेट एक्स्पेक्टेशंस पढते हुए) सोच रही हूँ कि सलिल ने ये किताब पढी होगी या नहीं...? वो भी हस्पताल में… तीन दिन बड़े ख़राब गए...पर बुरा समय भी टिकता थोड़े ही है... अब सब ठीक है. नन्ही परी आ गई एक लम्बे इंतज़ार के बाद..हम एक स्पेशियालिटी हस्पताल में थे, इसलिए कॉम्प्लीकेशंस को दूर कर लिया गया.. अब मैं नन्ही सी जान के साथ प्यारा सा समय बिताना चाह्ती हूँ.

परिवार के लोगों के अतिरिक्त तुम वो पहले व्यक्ति हो जिसको यह ख़बर दी है मैंने...लेकिन तुम भी परिवार ही तो हो..

शुभकामनाओं सहित
सरिता दी.

दूसरी बहन हैं डॉ. दिव्या श्रीवास्तव. बिना बताए बैंकॉक से लखनऊ चली आईं. अऊर हम सारा दुनिया में लोग से पूछते फिर रहे हैं कि ए, भाई!! ए भाई!!! किसी ने देखा है मेरी बहन को. कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया. एगो पता मिला.. ऊ भी डॉक्टर थी, दिव्या भी थी अऊर श्रीवास्तव भी थी. मगर हमरी बहिन वाली दिव्या नहीं थी.

आज अचानक प्रकट हो गई. बोली ज़िंदा हूँ मैं. हवाई जहाज त कोनो कसर नहीं छोड़ा था. लेकिन बच गई. देखिए जरा इनका चिट्ठीः

सलिल भाई ,

रिश्ते या तो बनाती नहीं , बनाती हूँ तो निभाती भी हूँ ! आप जैसे भाई का मिलना , मेरा सौभाग्य है ! इज्ज़त करती हूँ आपकी, प्यार करती हूँ आपसे बेहद।

विमान हादसे में शायद इसीलिए बच गए , क्यूंकि एक भाई की शुभकामनाएं , और प्यार मेरे साथ था ।

माँ को मेरा नमस्ते कहियेगा !

रक्षा- बंधन के इस पावन पर्व पर मेरी तरफ से शुभकामनाएं और मिठाइयाँ ।

मगर असली बात बताएँ... राखी त ई बाद में बाँधेंगी अऊर मिठाई खिलाएँगी, रक्षा हमसे पहिले करवा लीं. बिमान हादसा ई भाई का कारन टल गया.

अब बताइए. राखी का त्यौहार भी गजब का त्यौहार है न! अऊर ई बहिन लोग भी अजीब होती हैं. एगो विनी, जो चिट्ठी लिखने के लिए आज भी पारम्परिक फॉर्मेट ब्यवहार करती है, एगो सरिता दी, लंदन के हस्पताल में चार्ल्स डिकेंस का नॉवल पढकर याद करती हैं कि हम ऊ नॉवल पढे होंगे कि नहीं अऊर एगो दिव्या, जो हमरे हिसाब से दिल का डॉक्टर है, डॉक्टरी चाहे कोनो डिपार्ट्मेंट में करे.

पुनश्चः परिवार का सभी बहनों को राखी के दिन लिए हमारा सुभकामना, आसीस, स्नेह अऊर प्यार... ई पोस्ट कुछ चिट्ठी, जो पिछला दू दिन में हमको मिला, अऊर दिल को छू गया बस उसके लिए था.. अईसा नहीं कि हम अपने बहनों को भुला गए हैं.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

हरि मेहता - दीवानगी नाटक की

केतना उमर होगा हमरा उस समय... एही करीब सोलह सतरह साल. इससे जादा त नहिंए रहा होगा. पुस्पा दी, हमको अपने पास बुलाईं अऊर हमरे सामने टाइप किया हुआ एगो नाटक का स्क्रिप्ट रख दीं. हम पूछे, “दीदी क्या करना है इसका.”
“लिखना है.”
“लिखा तो हुआ है. किनका है.”
“मेहता साहब का.”
“तो फिर क्या लिखना है.”
“पढकर देखो. उनको ना भी नहीं कहा जा सकता और इस स्क्रिप्ट पर रेडियो के लिए नाटक बहुत मुश्किल है.”

अऊर जब पुस्पा दी मोस्किल बोल दीं, तब असम्भवे समझिए. गजब का विजुअलाइजेशन था उनका. स्क्रिप्ट देखते ही बता देतीं थीं कि ई नाटक किया जा सकता है कि नहीं अऊर कऊन कऊन लोग का का रोल करेगा. लेकिन इसको लेकर परेसान देखकर हम पूछे, “जब करना है तो करना है. बोलिए क्या करूँ.”
“तुम लिखो, इसको दुबारा.”
“क्या बात करती हैं. मुझसे नहीं होगा.”
“तो मैं ना कह देती हूँ मेहता साहब को.”

उनको भरोसा था हमरे ऊपर. कभी ई नहीं सोचीं कि कहाँ हम, कहाँ मेहता साहब. खैर, पूरा नाटक हमको दोबारा लिखना पड़ा. सीन ओही, सिक्वेंस ओही, लेकिन समूचा सम्बाद बदलना पड़ा. लिखते टाईम हमको बस एही ख्याल रखना पड़ा कि डायलॉग अईसा लिखा जाए कि मेहता साहब के लिखने का वजन कम नहीं हो.

असली परीक्षा अभी बाकी था. मेहता साहब, हर दिन रिहर्सल देखने आते थे, बीच में गलत बोलने वाले को दुरुस्त करते थे और सीन समझाते थे. पहिला दिन ऊ रिहर्सल पर आए, पुस्पा दी के साथ बईठ गए. पुस्पा दी सीन, डायलॉग समझाती रहीं अऊर मेहता साहब स्क्रिप्ट देखते रहे. रिहर्सल खतम, मगर ऊ कुछ नहीं बोले, चुपचाप देखते रहे. रिहर्सल के बाद हम तीन आदमी रह गए. तब पुस्पा दी बोलीं, “कैसा लगा.”
“एक बात बताओ, ये मेरा प्ले है?”
“आपका ही तो है. शक़ क्योंहो रहा है आपको.”
“शक़ नहीं, लगता तो मेरे जैसा ही है, पर जाने क्यों मेरा है नहीं.”
पुस्पा दी समझ गईं. बोलीं, “ठीक है कि बुरा है ये बताइए?”
“किसने किया है ये सब.”

पुस्पा दी खाली हाथ से हमरे तरफ इसारा कर दीं. मेहता साहब हमरे पास आए अऊर गले लगाकर बोले, “आज से मैं तुम्हें दोस्त कहूँगा.”

मेहता साहब यानि हरि मेहता.बहुत सीनियर आई.एफ.एस.,लालबहादुर शास्त्री प्रशासनिक महाविद्यालय में प्राध्यापक रहे,विदेस में रहे और जब हमसे मिले,तब पटना में सीडीए थे.उनके पिता जी नाटककार थे, बस इसीलिए नाटक का कीड़ा नस नस में था. देस भर में जहाँ भी रहे, वहाँ रेडियो नाटक लिखे, दूरदर्शन अऊर स्टेज के लिए लिखते रहे. सत्येंद्र सरत्, डॉ. बच्चन वगैरह के साथ इनका सम्बंध नाटक को लेकर बना रहा.

अपने पईसा से किताब छपवाते थे नाटक का, अऊर दोस्त लोगों को ऑटोग्राफ करके बाँट देते थे. न प्रसिद्धि का नसा, न पैसा कमाने का. एक बार सिनेमा में अपना गाड़ी सूटिंग के लिए दिए अऊर खुद डम्मी लास बनकर नदी में फेंके जाने का सीन भी करने के लिए तईयार हो गए, काहे कि ऐक्टिंग से लगाव था और ऐक्टिंग के लिए ई भी करना मंजूर था उनको. अब का कहिएगा इसको, पागलपन या जुनून.

सायद पागल थे, काहे कि जेतना सामाजिक आदमी थे मेहता साहब, ओतने अकेला आदमी भी थे. बंधन बिलकुल पसंद नहीं था उनको  किसी भी तरह का. जूता कभी फीता वाला नहीं पहनते थे, हाथ में घड़ी नहीं बाँधते थे, बनियान नहीं पहनते थे और टाई नहीं लगाते थे. कहते थे टाई जब बिलकुल जरूरी हो जाए तबे पहनते थे. और सादी भी नहीं किए. सारा जीबन अबिबाहित रहे.

पाकिट में हमेसा एगो छोटा सा नोटबुक रखते थे. किसी का बात गौर से सुनकर उसको लिख लेते थे, रिक्सा वाला, चाय वाला, बाबू, साहेब सबका का बात करने का ढंग़ नोट करते थे. इसीलिए उनका नाटक का किरदार जिंदगी से उठाया हुआ, पड़ोसी जईसा लगता था. सायरी दिल से करते थे अऊर उसमें उनका दर्द भी झलकता थाः

     कट गई इसलिए दुआ के बग़ैर
     दर्द अल्लाह के बस की बात नहीं.

न मंदिर, न मस्जिद, न पूजा, न पाठ… बस जिंदगी को सही माने में स्टेज समझकर अपना रोल अदा करते गए मेहता साहब.पटना से चले जाने के बाद उनसे बस पुस्पा दी के मार्फत खबर मिलता रहता था अऊर ऊ भी हमरे बारे में पूछते रहते थे.एक दिन पुस्पा दी का फोन आया कि मेहता साहब नहीं रहे.

बहुत गहरा सदमा लगा.नाटक बहुत किए हम जिन्नगी में अऊर हम तो आज भी कहते हैं कि हमको मरने के टाईम भी अगर कोई बोले कि एगो रोल करना है,तो जमराज से छुट्टी माँग के चले जाएँगे. लेकिन मेहता साहब तो बस नाटक को जीते रहे, सोते जागते, उमर भर!

बस कोई दर्द था अंदर जो किसी को नहीं बताए, सायद कोई हमदर्द नहीं मिला. तभी सारे दर्द से मुक्ति पा गए हरि मेहता साहब अऊर यही कहते रहे कि

       दर्द ही दर्द है दुनिया में जहाँ भी देखा
       कोई हमदर्द कहीं, कोई मसीहा मिलता.

बुधवार, 18 अगस्त 2010

मेरी आवाज़ ही पहचान है!!

आज गुलज़ार साहब का जनमदिन है. उनके हज़ारों चाहने वालों के लिए तो त्यौहार सा दिन होता है, हमरे लिए भी है. पहले एक नज़्म लिखे थे उनके लिए “सम्वेदना के स्वर” पर. बस आज ओही दोबारा आपके समने लाने का मन कर रहा है.

गुलज़ार साहब कबिता का नया ब्याकरन लिखने वाले शख्स हैं. पंचम दा, यानि स्व. आर. डी. बर्मन, एक बार उनके कबिता से तंग आकर बोले कि यार तुम किसी दिन टाइम्स ऑफ इण्डिया का कोई हेडलाइन लाकर दोगे और कहोगे इसकी भी धुन बना दो. हालाँकि ऊ पंचम दा का प्यार था. अब कोई उनके कबिता को टाइम्स ऑफ इण्डिया का हेडलाइन बोले या कुछ भी, हमरे लिए त ओही साहित्त है अऊर ओही कबीर का साखी.

न कबिता लिखने का कूबत है हममें,न नज़्म लिखने का. लेकिन गुरुदेव को जियो हज़ारों साल कहने का तो जज़्बा हईये है. तो बस एक नज़्म..दिल से!!

कब सोचा था दादी नानी के सारे अफसाने बिल्कुल झूटे होंगे,
चाँद पे कोई बुढिया रहती है, ये सब बस कोरी गप्प थी.
आज ही मैंने जाना है ये
चाँद पे रहता है एक शख्स, सफेद पजामे कुर्ते
और तिल्लेवाली एक जूती पहने,
बुढिया की अफवाह उसी ने फैलाई थी सदियों पहले.
आज ही मैंने जाना है
इक नाम भला सा है उसका
और भरी हुई है सिर से लेकर पाँव तलक
भरपूर मोहब्बत, गहरा प्यार
ज़ुबाँ पे क्यों आता ही नहीं... सम्पूरन सिंह गुलज़ार.

तुम सलामत रहो हज़ार बरस!!

सोमवार, 16 अगस्त 2010

अरे, हम भी सम्बेदनसील हो गए!

आज सबेरे सबेरे ऑफिस के लिए घर से निकलबे किए थे कि गेट पर नयनसुख जी भेंटा गए. अब उनका नाम का है, ई त हम कभी पूछबे नहीं किए, लेकिन हम उनको नयनसुख कहते हैं. काहे कि एकदम ओही टाइप के आदमी हैं. आसमान खुला देखेंगे त कहेंगे, लगता है आज धूप निकलेगी. अभी देखिएगा, हम ऑफिस जा रहे हैं त पूछेंगे कि कहाँ चल दिए.

हम सोचिए रहे थे कि हमरे बिचार पर उनका सवाल का ढेला गिरा, “और वर्मा जी! कहाँ चल दिए?”

“भाई साहब! मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक.”

एतना बोलना था कि बाबू नयनसुख परसाद एक दम हत्थे से कबड़ गए, “यही खराबी है आप बुद्धिजीवी लोगों में. खुद को प्रगतिशील बताने के लिए साम्प्रदायिक एकता के नाम पर मुसलमानों की हिमायत शुरू कर देते हैं. आप को कोई और बात नहीं मिली थी कहने को?”

“अजीब बात करते हैं आप. खादी का कुर्ता, पजामा, झोला लटकाए आप घूमिए. बाल बिखराकर, बिना पावर का काला फ्रेम का मोटा चश्मा लगाकर आप घूमिए. झोला में दिन भर पुराना अखबार लिए आप टहलिए और बुद्धिजीवी हम! अऊर हम अईसा का जुलुम बात बोल दिए हैं, जो आप एतना अलबला रहे हैं.”

“ये तो हमारा काम है. आप कौन होते हैं इस भाईचारे पर बोलने वाले.”

“ठीक है आप ही बोलिए न भाई. एहाँ लड़ कऊन रहा है, जो आप भाई चारा पर भासन देने के लिए परेसान हैं. हम त एगो मोहावरा बोले थे, आप ओकरो अंदर धार्मिक भावना अऊर एकता खोज लिए त हम का करें. पूछिए जऊन आदमी बोलिस था ई मोहावरा उससे कि काहे नहीं बोला कि पंडित की दौड़ मंदिर तक.”

अब ऊ तनी नरमा गए. बोले “वर्मा जी! मैं सम्वेदनशील आदमी हूँ. इन बातों से मेरे अंदर की सम्वेदनाएँ सुगबुगाने लगती हैं. मुझे पता है कि आप भी मेरी तरह सम्वेदनशील हैं. इसलिए आप ऐसा सोच लेते हैं.”

हमरे पास बहस का टाइम नहीं था..काहे कि अगर 9:24 का मेट्रो छूट गया त ऑफिस देरी से पहुँचेंगे अऊर तब बॉस हमरे सम्वेदना को भर दिन का वेदना में बदल देगा.

ऑफिस में हमरे अगवानी में एगो कनसल्टेंट साहब बईठे हुए थे. हमको देखते उठ कर खड़ा हो गए. हम बोले, “अरे बइठे रहिए अमित जी! हम आपका कुर्सी पर नहिंए न बईठेंगे, जो आप उठ गए. हमरा त कुर्सिया खालिए है.”

“सर ! आप भी बहुत अच्छा मजाक कर लेते हैं.”

“आप भी का मतलब का हुआ अमित जी. अभी त खाली हम ही मजाक किए हैं.”

“सर जी! आप मजाक करेंगे तो हमारे प्रोपोजल का क्या होगा.”

“ऊ सब त होइए जाएगा. बाकी आप हमरा बत को एतना सीरियसली काहे ले लिए. हम त बस आपका रिऐक्सन देख रहे थे.”

“वर्मा जी! मैं बड़ा इमोशनल आदमी हूँ. और मुझे पता है कि आप भी मेरी तरह सम्बेदनसील आदमी हैं.”

“ओफ्फोह!! अमित जी, आप के साथ हमरा सम्बंध तनी बढिया बन गया है, इसलिए बोलने में नहीं बन रहा है. नहीं तइसका हम दोसरा जवाब देते. बाकी समझ में नहीं आ रहा है, आज सबेरे से आप दूसरा आदमी मिले हैं, जो हमको बोला है कि हम उसके जइसा सम्बेदनसील हैं. अरे भाई, हम पैदाइसी सम्बेदनसील हैं, हमरे पिता जी, दादा जी तक एमोसनल थे.”

“वर्मा जी! एक बात कहूँ. इतना एमोशनल होना ठीक नहीं. बहुत तकलीफ होती है.”

“अमित बाबू! हमरे दादा जी पोस्ट ऑफिस गए थे कोनो काम से अऊर ओहीं उनका हार्ट फेल हो गया. हमरे पिता जी भी कोनो तकलीफ झेलकर नहीं मरे थे. अऊर हमरा उमर भी पचास हो गया, कोनो तकलीफ त नहिंए बुझाता है, ई सम्बेदना के कारन.”

खैर बात खतम हो गया या कहिए हम लोग घुमा दिए, लेकिन हमरे मन में सम्बेदना का खेला चल रहा था. हमरा सम्बेदना जरूर छोटा मोटा टाइप का होगा तबे तकलीफ नहीं होता है हमको. नहीं त बड़ा सम्बेदना वाला आदमी जब कहता है कि दुःख होता है इसके कारन, त होबे करता होगा. एतना लोग झूठ त नहिंए बोलेगा.

सोचे उधार माँग कर दू चार रोज के लिए देखें, होता का है ई बड़ा सम्बेदना अऊर केतना दुःख देता है. पाइरेटेड मिल जाता त नेहरू प्लेस से चाहे गफ्फार मार्केट से ले आते. कट, कॉपी भी त नहीं होता है… होता त जहाँ कोनो बहुत सम्बेदनसील आदमी मिलता, उससे कॉपी कर लेते,चाहे उसका कट करके पेस्ट कर लेते. एही बहाने उसका दुःख तनी हल्का हो जाता उसका सॉफ़्ट दिल का हार्ड डिस्क से. अमित जी चले गए, नहीं त पूछ लेते कि ब्लू टुथ से डाऊनलोड कर सकते हैं कि नहीं.

हमरा मन हमको धिक्कारा. साले सम्बेदना चाहिए त ओरिजिनल नहीं रख सकता है. जरूरी है कि एहाँ ओहाँ से कॉपी करो. एही सब पहचान है छोटा आदमी का. देखो केतना बड़ा बड़ा लोग हैं तुमरे आस पास जो अपना ओरिजिनल सम्बेदना लिए घूम रहे हैं. एही से तुमको दुःख नहीं बुझाता है.

रे मन! हम त खरीदने के लिए तैयार हैं. कोई रोता बच्चा वाला सम्बेदना मिल जाए त हँसाकर नमाज अदा कर लेंगे. एक टिकट में दू खेल, धार्मिक सद्भावना भी अऊर फ्रेस सम्बेदना भी. नहीं त गरीबी वाला दिला दो, आजकल त ई बहुत पॉपुलर भी है... मगर ठहरो,पॉपुलर है इसलिए सब बोलेगा भला मेरी सम्बेदना उसकी सम्बेदना से छोटी कैसे.

कम्बख्त सम्बेदना के चक्कर में त बर्बाद हो गए हम. साम को घर पहुँचे, त दरवाजे पर चैतन्य जी का फोन आ गया, “सलिल भाई! जालंधर से अभी अभी लौटा हूँ. आते ही सबसे पहले आपसे बात करने को फोन मिला दिया.”

“काहे भाई! कोनो आइडिया कुलबुला रहा था गर्भ में?”

“नहीं सर! आपसे बात न हो सारे दिन, तो गूँगा महसूस करने लगता हूँ.”

“चैतन्य भाई! आप भी न, बहुत सम्बेदनसील होते जा रहे हो. किसी दिन आपको भी बहुत तकलीफ होने वाली है.”

“सलिल बाबू! प्यार अपने बच्चे से और फटकार पड़ोसी के बच्चे को. सम्बेदना ने जो ओरिजिनल लिखना सिखाया है, उसका क्रेडिट हम ले रहे हैं, तो उससे मिलने वाले दुःखों को गले क्या आपके पड़ोसी लगाएंगे. कभी ख़ुद का SWOT analysis करके देखो… स्ट्रेंथः सम्बेदना, वीकनेसः सम्बेदना, ऑपोर्चुनिटीज़ः अच्छा मार्केट भविष्य और थ्रेटः बड़ी सम्वेदनाओं वालों से.”

हम दुनो जोर जोर से हँसने लगे. उनका त पता नहीं चला, बाकी हँसते हँसते हमरे आँख में आँसू आने लगा.

बतियाते बतियाते साला हम भी सम्बेदनसील हो गए. मगर दुःख काहे नहीं हुआ!!

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

न न रहने दो, मत मिटाओ इन्हें!

न न रहने दो मत मिटाओ इन्हें
इन लकीरों को यूँ ही रहने दो
नन्हे नन्हे गुलाबी हाथों से
मेरे मासूम नन्हे बच्चे ने
टेढी मेढी लकीरें खींची हैं
क्या हुआ शक्ल बन सकी न अगर
मेरे बच्चे के हाथ हैं इनमें
मेरी पहचान है लकीरों में.

गुलजार साहब का ई नज़्म का मालूम केतना साल पहिले पढे थे. तब ना तो सादी बिआह हुआ था न बाल बच्चा का बात सोच सकते थे. लेकिन ई नज़्म में कुछ अईसा था कि बाँध लेता था. गुलज़ार साहब का कुछ नज़्म जो आज भी हमको मुँहजबानी याद है, उसमें से ई सबसे ऊपर है. काहे कि रोज इससे गाहे बगाहे मुलाकात होइए जाता है.

अब कोनो दोस्त के यहाँ गए, जिसके यहाँ छोटा बच्चा है, त कहने का बाते नहीं है कि देवाल पर खींचा हुआ अईसा टेढा मेढा लकीर देखाई देगा. बचवा त ड्राईंग रूम का मतलबे समझता है कि जहाँ ड्राईंग किया जाए. अऊर जब एतना बड़ा कनवास मिल जाए त फिर ऊ बच्चा को रोक सके त रोक ले कोई.

एगो प्लास्टिक पेंट का बिज्ञापन आता था टीवी में कि ई पेंट लगाने से इसके ऊपर कोनो लिखा हुआ आसानी से पोंछा जाता है. ऊ बिज्ञापन लिखने वाला को ई नज़्म का मर्म पते नहीं होगा. नहीं त एतना सम्बेदनहीन कॉपीराइटिंग नहीं करता.

हमरे बिचार से त बच्चा को डाँटने से अच्छा है कि ई सब फोटोखींचकर रखिए, बड़ा होगा त देखाइएगा.

एही नहीं, तनी सोचिए कि अगर कहीं गलती से आपका बचवा पेंटर बन गया, चाहे कोनो पेंटिंग का प्रतिजोगिता में पहिला प्राइज ले आया, त आपहीं सबसे पहिले माइक पर बोलिएगा कि बचपने से इसका अंदर पेंटर बनने का लच्छन था. देवाल पर पेंटिंग करता रहता था.

अईसने एगो पेंटर हैं अनुभव प्रिय. उमर 14 साल. पेन चाहे पेंसिल का स्ट्रोक देखकर लगता है कि उमर से आगे का काम है. शेड्स पर कमाल का कंट्रोल है. एक बार खुद से एगो कहानी लिखकर,काला सफेद में उस कहानी के सब चरित्र के कोलॉज से किताब का जिल्द भी बना डाले.
इनके आदर्श हैं स्व. सत्यजीत रे. जैसे सत्यजीत रे उपन्यास के अलावा, अपने सिनेमा का कहानी, पटकथा अऊर सम्बाद त लिखबे करते थे, साथ ही सब चरित्र का स्केच बनाकर उसका कॉस्च्यूम तक डिजाइन करते थे. फिल्म के स्क्रिप्ट के साथ साथ उनका स्केच बुक जिसमें सेट का चित्र, लोगों के खड़े होने का जगह सब बना रहता था. फिल्म का संगीत त बाद में जाकर खुद देने लगे थे. सही माने में जीनियस.

बस अनुभव बाबू बना लिए अपना आदर्स सत्यजीत बाबू को. पेंटिंग सुरू किए, स्केच बनाने में, ड्राइंग में मुख्य मंत्री के हाथ से पुरस्कार मिला. चौथा पाँचवाँ क्लास से इस्कूल का फंक्सन में कार्जक्रम संचालन करना, नाटक में भाग लेना, कहानी लिखना, कबिता लिखना अऊर अपने से बड़ा साइज का सिंथेसाइजर बजाना. सत्यजीत रे का सारा सिनेमा देख गए, कुछ समझे कुछ समझाना पड़ा.

भासा प्रेम अईसा कि बंगला लिखना पढना सीखे अऊर जब पूरा तरह सीख गए, त अपने इस्कूल में एगो मुसलमान दोस्त को सिखाना सुरू कर दिए. ऊ दोस्त को मौलवी घर पर उर्दू पढाने आता था. बंगला सिखाने का फीस एही था कि ऊ अनुभव को उर्दू सिखाए. देखते देखते साल भर में उर्दू लिखना पढना आ गया.

अभी उसका चौदहवाँ जनम दिन, मई महीना में था. नानी पूछीं कि क्या चाहिए? उसका जवाब था, “हिंदी उर्दू डिक्सनरी.”

हम उसको तोहफा में दिए गुलज़ार साहब का “पुखराज”.

अनुभव हमरा बेटा है, ई पुस्त में एकलौता बेटा. उसके पिता से त आप पहिले ही मिल चुके हैं.

गुलज़ार साहब एक बार टीवी ईण्टर्व्यू में बोल रहे थे कि उनका एगो कबिता (साँप और रस्सी) का सब्द आज भी ओही है, लेकिन मतलब हर उमर के साथ बदलता गया है. पढने वाला के साथ कबिता भी बड़ा होता गया है.

लेकिन हम त आज भी ओही नज़्म का उँगली थामकर बैठे हैं,अऊर सोचते हैं कि हमरा बेटा पहिला बार देवाल पर, चाहे हमरा डायरी के पन्ना पर पेंसिल से कुछ लाईन खींच दिया था, अगर हम ओही टाईम उसको डाँट कर मना कर देते त आज फख्र से ई पोस्ट नहीं लिख रहे होते.


सोमवार, 9 अगस्त 2010

कार्टून का दर्द

ईमानदरी से कहें त हम कभी सोचबो नहीं किए थे कि कोनो आदमी के ब्यक्तिगत याद में किसी को दिलचस्पी हो सकता है. लेकिन जब एतना सारा लोग परिबार के जईसा भेंटा गया त लगा कि हर आदमी का याद में से लोग अपना कहानी खोज लेता है अऊर ओही आदमी को आदमी से जोड़ता है. इसीलिए हमरे गुरू डॉ.राही मासूम रज़ा कहते हैं कि याद बादलों की तरह कोई हल्की फुल्की चीज़ नहीं कि आहिस्ता से गुज़र जाए. याद एक पूरा ज़माना होती है और ज़माना कभी हल्का नहीं होता.

अब जमाना त दुइये तरह का याद रहता है सबको, चाहे त गुलाम अली के तरह आसिकी का वो जमाना हो, चाहे कॉलेज में मस्ती का जमाना. कॉलेज में पढाई के टाइम पर पढाई त ठीक है, लेकिन मस्ती का कोनो टाइम नहीं.खाली क्लास में गंगा किनारे अंताक्षरी,चाहे क्लास के अंदर प्रोफेसर बनकर उनका केरिकेचर करना.सदियों से ई परम्परा चला आ रहा है मस्ती का, त हम कोनो अपबाद त नहिंए थे.

बोर्ड पर कार्टून बनाने में हमरा कोनो जवाब नहीं था. लेकिन एक बात था कि हम कभी सालीनता के सीमा से बाहर नहीं गए. बाकी कार्टून त कार्टून होता है. कभी कभी प्रोफेसर को बुरा भी लगता था, लेकिन उनके लिए ई पता लगाना कि बोर्ड पर कार्टून कौन बनाया है, मोस्किल ही नहीं, नामुमकिन होता था. सच पूछिए त हमरे क्लास में हर नया प्रोफेसर का स्वागत उनका कार्टून से किया जाता था. अगर उस समय मोबाइल कैमेरा से भी फोटो खींच कर रखे होते त का मालूम केतना प्रोफेसर का पोर्टरेट बन गया होता अऊर आज उनको ऊ कार्टून भेंट करके आसिर्बाद ले लेते.

एक रोज पता चला कि अल्जेब्रा पढाने के लिए नया प्रोफेसर असित दासगुप्ता आने वाले हैं.बस हमरा डिऊटी लग गया. दरवाजा बंद करके, जल्दी से चॉक उठाए अऊर एगो सानदार कार्टून तैयार. चस्मा लगाए हुए, प्रोफेसर साहब,एक हाथ में डस्टर लिए दोसरा हाथ में चॉक से पूरा बाइनोमिअल थ्योरम लिख रहे थे. कार्टून पूरा हुआ, दरवाजा खोल दिया गया अऊर प्रोफेसर साहब का इंतजार सुरू.

बंगाली भद्रलोक चाहे केतना भी ऊपर चले जाएँ, अपना जड़ नहीं भूलते हैं. अमर्त्य सेन साइकिल चलाते हैं अऊर ज्योति बाबू को बंगाल क्लब में घुसने से मना कर दिया जाता है (तब ऊ मुख्य मंत्री थे), खाली इसीलिए कि ऊ धोती पहिने थे और क्लब का ड्रेस कोड के खिलाफ था ई बात. खैर, हमरे दासगुप्ता साहब भी आए, जाड़ा का दिन था इसलिए शॉल ओढे हुए (सूट पहिनते उनको कभी नहीं देखे हम).

क्लास एकदम सांत. दासगुप्ता सर हाथ में डस्टर उठाकर, जईसे बोर्ड साफ करने चले कि उनका नजर कार्टून पर पड़ गया. ऊ तुरत मुड़े अऊर क्लास से बोले, “ किसने बनाया है ये चित्र?”

पूरा क्लास खामोस, एक दम मँजा हुआ खिलाड़ी था सब लोग. ऊ दू बार पूछे, मगर जवाब नहीं मिलने पर क्लास से बोले, “ इन फैक्ट, इसमें छोटा सा मिस्टेक है. कौन बनाया है बताने से हम उसको पर्सनली बता सकते थे.”

क्लास फिर चुप्पे रहा. अबकि ऊ डस्टर लेकर बोर्ड के तरफ बढे और बोले, “चलिए, जो कोई भी है वो तो क्लास में ही है न. इसलिए गलती बता देते हैं.” एतना बोलने के बाद ऊ डस्टर से कार्टून में बना हुआ डस्टर वाला हाथ आधा मिटा दिए.

“ये गलत बनाया है जिसने भी बनाया है.” ऊ बोले अऊर फिर पूरा क्लास के सामने शॉल हटाकर ऊ देखाए कि उनका एक हाथ आधा कटा हुआ था.

क्लास अभी भी सांत था. मगर सांति जरूरत से ज्यादा हो गया था. हमरे अंदर भयंकर सोर मचा हुआ था. जईसे पचास मिनट का क्लास खतम हुआ, हम अपने दोस्त लोग से भी नजर नहीं मिला पाए, सीधा टीचर्स रूम जाकर दासगुप्ता सर के सामने खड़े हो गए. हमको बताने का जरूरत भी नहीं पड़ा हम काहे आए हैं. ऊ हमरे आँख में आँसू देखे अऊर हमरे कंधा पर हाथ रखकर बोले, “कोई बात नहीं.”

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला !!

कभी कभी बहुत पुराना बात याद करने में डर लगने लगता है. लगता है हमरा उमर बहुत तेजी से भागता जा रहा है. केतना पुराना है ई बात, इसका अंदाजा त एही से लगा सकते हैं कि देवी स्थान में जो पुराना पीपल का पेड़ है, ऊ टाईम में जवान देखाई देता था. जवान माने एकदम कच्चा कच्चा डाली, मोलायम मोलायम पत्ता अऊर हरा हरा छाल. अब त बहुत सा डाली सूख गया है, अऊर नया पत्ता भी पहिले जईसा नहीं लगता है. सबसे बड़ा बात त ई है कि हमसे उमर में बहुते बड़ा है ऊ पीपल का पेड़.
ओही पीपल तर एगो कच्चा मकान था, बहुत बड़ा. दू गो छोटा छोटा बच्चा ऊ घर में रहता था. दुनो भाई के उमर में डेढ दू साल का अंतर था. एक रोज, छोटका भाई फिसल कर घर के ओसारा (बरामदा) में गिर गया. न ओहाँ पानी था, न गड्ढा. जब ऊ फिसल कर गिरा, त फुआ दौड़कर उठाई, दुलार की, अऊर पूछी, “कईसे गिर गइला बऊआ. एहाँ त न पानी है, न गड्ढा.” जवाब सुनकर आपको हँसी आएगा. ऊ बच्चा बोला, “थोड़ा देर पहिले भईया एहीं पर गिर गया था.इसलिए हम भी गिर गए” बात हँसी का जरूर था, लेकिन ई बात का पीछे अद्भुत प्यार था. हमलोग के समाज में त तुरते लोग राम लछमन जईसन भाई का तुलना कर देगा, लेकिन सायद रामायनो में कोनो अईसा उदाहरन नहीं देखाई देता है.
घर में लोग बड़का भाई को बहुत प्यार करता था. प्यार त दुनो को मिलता था, लेकिन बड़का पढने में अच्छा था, इसलिए उसका कदर तनी ज्यादा था. एही चक्कर में छोटका को लोग भुला भी जाता था. ऊ गुसियाता बहुत जल्दी था, अऊर जिद्दी भी था. नहीं पढ़ने का जिद पकड‌ लिया, त नहींए पढेगा, चाहे दुनिया एन्ने का ओन्ने हो जाए. लेकिन कभी भईया से चिढ नहीं किया.
लोग पूछता था कि नहीं पढोगे त का करोगे. जवाब मिलता , “कण्डे बेचेंगे”. बच्चा के मुँह से अईसा बात सुनकर लोग हँसने लगता. सब लोग उसको चिढाता कि बड़का भाई का चपरासी बनेगा. देखिए त बड़का भाई वाला कोनो गुन नहीं था छोटका में. कोनो नाता नहीं पढाई से, चाहे कोर्स का किताब हो चाहे कहानी का. लेकिन समय के साथ सब बदल गया. ऊ पढ भी गया, अच्छा नम्बर से पास भी हो गया, एम. ए. का डिग्री भी लिया.
आज त कहला से बिस्वासो नहीं होगा कि जऊन भाई का चपरासी बनना उसका सपना था, वैसा केतना साहेब आज उसका ऑफिस के बाहर इंतजार करते रहता है. बड़ा भाई का सब पढाई बेकार हो गया अऊर सब साहित्त भुला गया. लेकिन आज छोटका भाई का कहानी अऊर कबिता पढकर त बिस्वासे नहीं होता है कि ई ओही बच्चा है जो जमीन पर खाली इसीलिए गिर जाता था कि ओहाँ उसका बड़का भाई गिरा था थोड़ा देर पहिले.
आज उसका आलमारी में हिंदी अंगरेजी का सबसे अच्छा साहित्त मिलेगा, बिमल मित्र, सत्यजीत रे, मण्टो, राही मासूम, निदा फाज़ली, मुनव्वर राना, बशीर बदर, राजेश रेडडी अऊर वीडियो कलेक्सन में सत्यजीत रे से लेकर चार्ली चैप्लिन अऊर हिंदी क्लासिक सिनेमा का खजाना तक.
लीजिए अभी तक त हम नाम बतएबे नहीं किए ऊ बच्चा का… बच्चा कहाँ, अब त बाप हो गया है. लेकिन नाम से का फरक पड़ेगा. नाम चाहे रनछोड़दास छाँछड़ हो या रैंचो हो या फ़ुंशुक वाँगड़ू. बड़ा भाई का बिशाल ब्यक्तित्व के ग्रहन से बाहर निकल कर, आज जो अलग पहचान बनाया है, ऊ अपने आप में एक मिसाल है. उसका बचपन का छबि से एकदम बिपरीत.
उसका नाम है शशि प्रिय. हमरा छोटा भाई, सरकारी पदाधिकारी, जिम्मेदार बेटा, भाई, अंदर से कबि अऊर लेखक, अऊर कला को समझने वाला कलाकार. भाई साहब कादम्बिनी, वनिता अऊर दुसरा पत्रिका में छप चुके हैं, जो सौभाग्य हमको नहीं प्राप्त हुआ. ऊ साबित कर दिया कि पूत का पाँव हमेसा पालना में देखाई दे,जरूरी नहीं है.

आज अचानक उसका एगो गज़ल हाथ लग गया,जो ऊ हमको बहर ठीक करने के लिए दिया था (अभियो ऊ समझता है कि हम उससे अच्छा समझ रखते हैं, इस मामला में). आप लोग के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं.
इसमें हो सकता है कि उसका बचपन का एही बेदना छिपा हुआ हो,काहे कि हमलोग जिसको लकड़ी चाहे पत्थर समझ कर फेंक देते हैं ओही बाँसुरी अऊर भगवान का मूरत बनकर हमरे सामने जाता है.हमरा बात त चलते रहेगा, आप गजल का आनंद उठाइएः

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कल तक ऐसी बात नहीं थी, फिर जाने क्या आज हुआ
कल जो था रस्ते का पत्थर, आज वो सिर का ताज हुआ.
इंसाँ की तक़दीर है कैसी, कितने उलझे इसके तार
जितना सुलझाने की कोशिश, उतना गहरा राज़ हुआ.
बहती नदिया, बदले मौसम, किस्मत ने भी करवट ली
कल जो था टुकड़ा लकड़ी का, आज सुरीला साज़ हुआ.
कोई कहे हथियार है पत्थर, कोई कहे मूरत भगवन की
इस मसले को कौन करे हल, वो खुद बे-आवाज़ हुआ.

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

दिगम्बर नासवा जी को भ्रातृ शोक

हम सोच रहे थे कि हमरे परिवार के सब सदस्य आकर हमको अपना संदेस दिए,लेकिन हमरे मन से जुड़े हुए दिगम्बर नासवा जी का अभी तक कोनो संदेस नहीं आया है. आम तौर पर हमको मेल भेजकर टिप्पणी देने के लिए कहने का आदत पसंद नहीं है. लेकिन जब दिगम्बर जी नहीं आए , त खैरियत लेने के लिए उनको मेल कर दिए.
अभी अभी उनका जवाब आया है जो आपके सामने प्रस्तुत हैः

नमस्कार सलिल जी

आज बहुत समय बाद मेल खोला तो आपका मिल देखा .....
दरअसल २८ जुलाई को मेरे बड़े भाई का फरीदाबाद में अचानक ह्रदय गति रुक जाने से देहांत हो गया इस वजह से कुछ भी करने का मन नहीं कर रहा था, मन उचाट सा हो गया है ....... धीरे धीरे रोज़मर्रा के जीवन में वापस आने का प्रयास कर रहा हूँ .... अभी तो १२ तक फरीदाबाद में ही हूँ ....
आपके याद रखने का आभारी हूँ ....


दिगम्बर

दिगम्बर नासवा जी हमारे लिए परिवार के तरह हैं. इसलिए हमने सोचा कि आप लोगों को भी इस बात से अवगत करा दें.
हमने इस पीड़ा के छन में उनका हिम्मत बँधाया है!! जो उनसे व्यक्तिगत रूप से जुड़े होंगे, हो सकता है उनको खबर भी होगा. उनके इस सोक में हम बराबर के सरीक हैं!!


 

सोमवार, 2 अगस्त 2010

हमरा ब्लॉग परिवार – अंतिम भाग

पिछला दू एपिसोड के बाद त हमहीं एतना सेंटीमेंटल हो गए कि पहिला बार लगा कि केतना बड़ा परिवार बना लिए हैं हम. अऊर सीरियसली, ई फैमिली में से कोनो एगो आदमी दू चारो दिन के लिए लापता होता है त हमको खबर लग जाता है. दिव्या बहिनअऊर सुलभ सतरंगी गायबे हैं. सुलभ बाबू त बता दिए कि ब्यस्त हैं, लेकिन दिव्या बहिन लगता है सास के सेवा में लगी है. केतना भुलायल लोग भेंटा गए, अजय झा जी, अबिनास बाचस्पति जी अऊर सानु सुक्ला जी. एही असली बात है, परिवार का लोग केतनो दूर चला जाए, प्यार से बोलाइएगा त खिंचाएल चला आता है. आइए मिलते है कुछ अऊर फैमिली मेम्बर सेः

अभिसेक पटना का बुतरू है. घरेलू, सुसील अऊर गृहकार्य में दक्ष लड़िका है. लिखता है त सब ग्रामर भुला जाता है, काहे कि ऊ प्यार का ग्रामर पढकर लिखता है... दिल से, बिना बनावट के. गाना का सौखीन है अऊर कबिता का भी. क़ैफी आज़मी, गुलज़ार साहब जनाब के फेवरेट हैं. रफ्तार के प्यार में अंगरेजी गाड़ी सब के पीछे लगा रहता है. दोस्ती किसको कहते हैं इसका साच्छात प्रमान. बेंगलुरू में रहने पर भी पटना जिंदा है, इसके मन में अऊर मित्र मण्डली में. तनी मनी पागल है हमरे जईसन.

शैलेंद्र झा हमसे अभी हाल से जुड़े हैं. चंडीगढ में रहा रहे हैं. फोन किए त अईसे बतिया रहे हों जईसे हमरे साईड से आवाज आ रहा हो कि जी मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूँ कौन बनेगा करोड़पति से. जब बात उनके मुँह से निकला त बताए कि ऊ हमरा सभे पोस्ट पढ गए हैं सुरू से अंत तक. झा जी, एतना पेसेंस कहाँ से ले आए भाई.

नीलेस माथुर रेगिस्तान में कबिता का फूल खिलाते हैं.मन में गहरा दर्द छिपाए हैं अऊर ई दर्द को रहस्य में लपेटकर रखे हैं. कुछ है जिसको सबके सात बाँटना नहीं चाहते हैं, बस कबिता के माध्यम से निकल जाने देते हैं. हमको बड़ा भाई मानते हैं अऊर एक बार हमरा किया हुआ टिप्पणी को अपने ब्लॉग का सर्वश्रेष्ठ टिप्पणी बता दिए. इनका प्रेम है, नहीं त अईसा कोई बात नहीं लिखेथे हम.

पंकज मिश्र पत्रकार हैं. खबर के अंदर से खबर निकाल कर सजाते हैं. घाट घाट का पानी पिए हैं,मगर अब सुस्ता रहे हैं, एक जगह रुककर आरम से लेखन को स्मय दे रहे हैं.

त्यागी जी वरिष्ठ है हमरे. सिक्षक हैं अऊर भारत का दिल कहे जाने वाले मध्य प्रदेस से हैं. इनके ब्यंग लेखन का धार गजब का है. दिन भर का थकान इनका एगो पोस्ट पढकर दूर हो जाता है. आजकल देखाई नहीं दे रहे हैं.

मुकेस कुमार सिन्हा बैजनाथधाम के बासिंदा हैं… फिलहाल दिल्ली में अपना परिवार अऊर दूगो बच्चा के साथ रहते हैं. दिल्ली को हादसा का सहर बोलते हैं. कबिता बहुत समझदारी का करते हैं... बीच बीच में गायब हो जाते हैं.

अनामिका जी का सदा त पूरा ब्लॉग दुनिया में गूँज रहा है. दिल्ली के पास फरीदाबाद से हैं. इनको हमसे सिकायतहै अऊर हमको इनसे. लेकिन मजबूरी है कि हम दूनो भाई बहन एक दूसरा का सिकायत दूर नहीं कर सकते हैं. इनका उदास कबिता हमको कस्ट पहुँचाता है अऊर हमरा बोली से ई तबाह रहती हैं. न ई खुसी वाला कबिता लिखती हैं, न हम अपना बोली बदल सकते हैं. का करें,एही बोलिए त आत्मा है ई ब्लॉग का, इसके बिना त सरीर चोला माटी का रे!

जय कुमार झा जी का नाम त ऑनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी हो गया है. बहुत ऊँचा ऊँचा पद पर काम किए हैं. फिर भी लोकतंत्र का असली मूल्य के लिए समर्पित हैं. जब ई गायब हो जाएँ त समझ लीजिए कि कोनो मिसन पर हैं. सभे ब्लॉग पढते हैं अऊर टिप्पणी देते हैं. बहुत सुलझा हुआ इंसान हैं.

बबली का नाम सुनते के साथ मिष्टि दोई याद आ जाता है. ऊर्मि चक्रबॉर्ती, ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में रहती है. इसका कबिता चाहे सायरी पढने के बाद हमको बचपन का याद आ जाता है. जेतना निश्छल लिखती है, ओतने गहरा भाव छिपा रहता है.

भोले बाबा के नगरी कासी के सदस्य हैं हमरे देवेंद्र जी. बेचैन आत्मा के नाम से जादा मसहूर हैं. इनका कबिता में अनुभव झलकता है. बहुत सांत सोभाव के आदमी हैं.

दिगम्बर नासवा जी के साथ त अजीब लुका छिपी वाला रिस्ता बन गया. जब तक हम दुबई में थे, तब तक उनसे भेंटे नहीं था अऊर जब परिचय हुआ त हमरा दुबई छूट गया. लेकिन बिदेस में बसे हुए ई कबि के मन में भी बहुत कोमल सम्बेदना छिपा है.

राज कुमार सोनी पत्रकार हैं. जबर्दस्त लिखते हैं, चाहे पद हो चाहे गद्य. बहुत पारखी नजर है इनका. आस पास फैला हुआ कोई भी घटना इनका नज़र से नहीं बच सकता है. जो भी बोलते हैं बिगुल बजाकर. आजकल अपना पुस्तक का बिमोचन के सिलसिला में राजधानी में ब्यस्त हैं, इसिलिए एहाँ पर लिखना बंद है.

करण समस्तीपुरी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. कबि हैं, समीक्षक हैं, साहित्यकार हैं अऊर इनका कलम का अऊर सब्द जाल का लोहा भले दुनिया मानता हो, हम त सोना मानते हैं. इनका देसिल बयना पढने के बाद त हम इनका जबर्दस्त ए.सी. हो गए (दुनिया फैन हो जाता है). सबसे बड़ा खासियत त एही है कि इनका एक बिधा का असर दोसरा बिधा पर देखाई नहीं पड़ता है.

अविनास चंद्र बहुत सच्चा कबि हैं. इनका एक एक सब्द माणिक के तरह कबिता में जड़ा रहता है. कबिता का अर्थ का गहराई समाधि का अनुभव कराता है. बाबा भोले के तिर्सूल पर बसे हैं कासी नगरिया में. अपने बारे में कहते हैं कि पूरी तरह से बासी हैं लेकिन फिर भी ताजा हैं. भीड़ में से एक चेहरा है, लेकिन अभिमान है कि इनका चेहरा अपना है.

डॉ. दिव्या... बिदेस में डॉक्टरी कर रही हैं. हमरी बहन हैं. एतना गहरा गहरा बात लिखती है कि कह नहीं सकते कुछ. हमरा ज्ञान चुक जाता है. एही से हम कमेंट नहीं करते थे. पट से सिकायत कर दीं कि खाली राखी बाँधने से भाई बहन का रिस्ता होता है. बहन के ब्लॉग पर कमेंटकाहे नहीं करते हो. अब दोसर कोई हो तो बर्दास्त कर लीजिए, बहिन का गोस्सा बर्दास्त करना असम्भव.

अब लगता है कि बसुधैव कुटुम्बकम का मंत्र पूरा हुआ. एसिया से युरोप तक अऊर ऑस्ट्रेलिया से अमेरिका तक फैल गया है परिवार. ई परिवार में अऊर भी केतना लोग हैं. लोकेन्द्र सिंह राजपूत, सुज्ञ यानि एच. राज जी, राधा रमण, मनीश छाबड़ा, देवेश प्रताप, वाणीगीत, डॉ. अमर, मृदुला जी, अहमद खान अकेला जी  अऊर भी बहुत सा लोग. हमरा कोसिस रहा है कि ई पूरा परिवार को समेटकर एक साथ एक जगह लोग से मिलवाएँ. लेकिन जहाँ दू गो बरतन होता है ओहाँ सोर त होबे करता है. हमरा गलती से अगर किसी को भुला गए हों, त जोर से चिल्ला कर याद करा दीजिएगा. हम माफी माँग लेंगे. परिवार को बनाए रहिए, तबे एगो संजुक्त परिवार बन पाएगा.

अब जाकर लग रहा है कि मन हल्का हुआ है. बड़ा लोग से एक बार फिर से आसिर्बाद माँगते हैं चरन स्पर्स करके. हमहूँ अजीबे एमोसनल फूल हैं… आप का समझे अंगरेजी वाला फूल माने बुड़बक..दुर! एमोसनल फूल माने ऊ फूल जिसका इमोसन का महँक सारा दुनिया में फैलता है.
(क्रमशः)