शनिवार, 30 अप्रैल 2011

समीर लाल + चैतन्य आलोक = चला बिहारी ब्लॉगर बनने


बहुत साल पहले एगो सिनेमा देखे थे इस रात की सुबह नहीं. हीरो अपना परेशानी में घिरा होता है और क्लब में दोस्त लोग उसको समझाने का कोसिस कर रहे होते हैं. ऊ नहीं मानता है अउर उठकर जाने लगता है. ओही समय कोइ पीछे से उसके कंधा पर हाथ रखता है अउर हीरो गुस्सा में उसको थप्पड़ मार देता है. जिसको थप्पड़ लगा ऊ सहर का मसहूर गुंडा था अउर ऊ भी बहुत परेसान हालत में था. पूरा पब्लिक के बीच में थप्पड़ लगने से ऊ गोस्सा में आग बबूला हो गया अउर हीरो को खतम करने के लिए तत्पर हो गया. सिनेमा एही भाग दौड का कहानी था. गुंडा को थप्पड़ लगने का गुस्सा ओतना नहीं था, जेतना पब्लिकली थप्पड़ लगने का था.
ब्लॉग जगत में तब हमलोग नया नया आए थे... बहुत अरमान, बहुत सपना, बहुत आसा लेकर. सायद एतना सपना कोइ दुल्हिन भी नया-नया ससुराल में पहिला कदम धरते समय नहीं देखती होगी. सबकुछ चकाचौंध कर देने वाला. मन लगाकर लिखना अउर छोटा से छोटा कमेन्ट पर भी फूला नहीं समाना. ऐसा में मनोज कुमार जी का विचारोत्तेजक अउर समीर लाल जी का अच्छी प्रस्तुति भी मन को आनंद पहुंचाता था. समीर लाल जी का नाम कुछ दिन के अंदर हमारे लिए ए हाउसहोल्ड नेम बन गया.
तब एतना भी समझ नहीं था कि ब्लॉग लिखने वाला बड़ा लोग लिखता कुछ है, उसका मतलब कुछ अउर होता है, निशाना कहीं अउर होता है. हमको लगता था कि भावार्थ हमारे समझ में नहीं आ सकता है, मगर उसका पूरा का पूरा माने हमरे समझ में नहीं आए इतना तो बेबकूफ नहिंये हैं हम. अइसहीं एक दिन समीर लाल जी के उड़न तश्तरी पर एगो पोस्ट देखाई दिया. उसका भाबार्थ जो हम समझे (आज सर्मिन्दा होते हैं अपना सोच पर) ऊ हमको बहुत चोट पहुंचाने वाला लगा. ऊ कहते हैं न कि मन में बसा हुआ मूर्ति खंडित होने जईसा तकलीफ हुआ (अतिशयोक्ति नहीं है).
हम बोले कि हम जाकर लिखेंगे कि ई गलत बात है समीर बाबू. तब लगा कि हमरा नया-नया सम्बेदना के स्वर का गला न दब जाए कहीं. इतना बड़ा आदमी से ओझराने का मतलब खल्लास!! सोचे बेनामी टिप्पणी करते हैं. मगर तब तक बेनामी का मतलब बुझाने लगा था. बिचार हुआ अउर फैसला लिया गया कि एगो ब्लॉग बनाकर उसी से कमेन्ट करके अपना बिरोध दर्ज किया जाए. काहे से कि सबलोग उनका लिखा का तारीफ छोड़कर कुछ कहा नहीं था. चैतन्य बाबू सलाह दिए कि आप अपना बिहारी बोली में काहे नहीं कमेन्ट करते हैं (पाहिले तो ऊ मना किये थे कमेन्ट करने के लिए, मगर हमरे जिद को टाल नहीं पाए). हमको भी ई आइडिया जंच गया.
हम जब भी कुछ लिखते हैं, त उसका सीर्सक चैतन्य बाबू देते हैं. हम कहते भी हैं कि हमारे दिमाग में जब प्रसब पीड़ा होता है अउर रचना का जन्म होता है, तो उसका नामकरण आपके ही हाथ से होता है. बस ऊ बेनामी ब्लॉग का नाम चैतन्य जी रख दिए चला बिहारी ब्लोगर बनने. समीर जी के साथ कमेन्ट को लेकर बहस हुआ. गुरुदेव सतीस सक्सेना जी उनके बचाव में खड़े हो गए. समीर जी पता लगा लिए कि हम कौन हैं अउर हमरा माथा हल्का हो गया कि बेनामी को नाम मिल गया अउर ऊ भी ब्लॉग जगत के डॉन के मार्फ़त. अच्छा सम्बन्ध रहा समीर जी के साथ. जब दिल्ली आए तो ऊ अपने एगो कोमन दोस्त के मार्फ़त अपना प्रोग्राम बताए. हम बोले, उनसे मिलने वालों की कतार लगी होगी, पता नहीं मेरा नंबर कब आएगा. समीर जी का जवाब था, उनको कहना, उनका नंबर पहला होगा. मिले उनसे, बहुत जिंदादिली से. अउर उसी दिन उनको अपने मन का बात बताए कि जो कहिये हमरे ब्लॉग के जनक आप ही हैं.
सुरू में तो काफी दिन बेनामी बने रहे. फिर लगा कि बेनामी बने रहने में कोनों फायदा नहीं है. अउर खाली टिप्पणी करने के लिए ब्लॉग सुरू किया तो धिक्कार है हमरे की बोर्ड पर! चैतन्य जी का सुझाव आया कि ब्यक्तिगत अनुभव लिखो. हम भी सोचे कि संवेदना के स्वर से अलग लगना चाहिए. अउर तब हम सुरू किये अपना याद का गठरी खोलना. अईसा अनुभव, जो हमरा होने पर भी सबका मालूम पड़े. हमरे बात से लोग को अपना बात याद आये. मजा आने लगा. बहुत अच्छा लगा कि कब ब्लॉग के माध्यम से दुनिया से जुड़े, दुनिया से नया नया रिश्ता बना, दुःख तकलीफ भी बांटे अउर दोस्ती प्यार भी फैलाने का कोसिस किये. हमरे घर का लोग भी हैरान. बच्चा लोग को नया-नया घटना का पता चला अउर पुराना लोग का याद ताजा हो गया. माताजी, भाई-बहन का कहना था कि सब घटना जाना हुआ है, मगर तुम जब कहते हो तो लगता है कि बस कल का बात है.
फिलिम आँधी में संजीव कुमार टेलीफोन पर सुचित्रा सेन को एगो नज़्म सुनाते हैं तो उनके बीच का बातचीत सुनिए:
वंडरफुल! ब्यूटीफुल!
एक बात बताऊँ, तुम जब अच्छा कहती हो ना, तो सचमुच बहुत अच्छा लगता है!
बस एही कहना चाहते है हम भी आप लोग से कि जब आप लोग हमरे बात से अपना कोइ बात याद करके अच्छा कहते हैं ना, तो सच्चो हमको बहुत अच्छा लगता है. कम से कम पिछला एक साल से तो एही देख रहे हैं. बिस्वास कीजिये आज हमरे ब्लॉग का एक साल पूरा हो गया है!!

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

प्रशंसक या प्रशंसिका ?

हाथ गोड़ का दरद से पहिलहीं परेसान थे, उसपर से माथा का दरद बन गया ई मोबाइल पर आने वाला एस.एम्.एस. कोई मकान खरीद लेने का जिद किये जा रहा है, कोई एकदम सस्ता कम्प्युटर खरीदने का सलाह दे रहा है, पंडित जी भबिस बांच रहे हैं, कोनो कोनों तो हमरे घर से दीमक अउर तिलचट्टा साफ़ करने पर तुला हुआ है. अरे भाई, एतने सौख है दीमक अउर तिलचट्टा मारने का तो देस से काहे नहीं सफाई करते हो दीमक का जो एतना साल से चाटे जा रहा देस को! हमको बख्स दो भाई, हमरी घरवाली बहुत सफाई पसंद है.

ई सब एस.एम्.एस. के चक्कर में केतना ऑफिस का जरूरी संदेस अउर बहुत सा दोस्त लोग का प्रेरक जीवन सूत्र भी ओही सब २ बीएचके/३ बीएचके में दब जाता है. एगो दोस्त तो एतना प्रेरणादायक हैं कि भोरे गुड मोर्निंग से लेकर, गुड आफ्टरनून, गुड ईभनिंग अउर रात को गुड नाईट के लिए भी मेसेज भेजते हैं. ऊ का कहते हैं डेल कार्नेगी अउर सिव खेडा के बाद हमरे ऊ दोस्त का नंबर आता है. इन फैक्ट उनका मेसेज पढ़ने के बाद हमको लगा कि हमरा तो सारा जिन्नगी ब्यर्थ हो गया अउर हमरे हर असफलता का कारण एही है कि उनका एस.एम्.एस. हमको बचपन से प्राप्त नहीं हुआ. नहीं तो हम भी पार्लियामेंट में बईठकर अंगूठा लगा रहे होते.

खैर, डॉक्टर बोला है कि ऊंगली अउर कलाई का ब्यायाम कीजिये, फायदा होगा. सो हम बइठ गए, ब्यायाम करने, मोबाइल हाथ में लेकर १७५ मेसेज डिलीट करने, इन्क्लूडिंग दोज ऑफ माई फ्रेंड’स. सायद इससे अच्छा ब्यायाम कोनों हो भी नहीं सकता था. फालतू का मेसेज मिटाते हुए एतना खुसी महसूस हो रहा था कि अगर पौराणिक सिनेमा के दैत्य होते, चाहे हिन्दी सिनेमा के खलनायक, तो अट्टहास लगा रहे होते, एक एक मेसेज के खतम होने पर.

अचानके एगो मेसेज पर नजर पड़ा. भेजने वाले का नाम के जगह नंबर था, मतलब हमरे लिस्ट से बाहर का कोइ अदमी था. लिखा था, “आपका ब्लॉग आपकी तरह क्यूट है – सुमन शर्मा.” हमरा हाथ रुक गया. तुरते हमरा नजर कमरा में लगा हुआ आदमकद आईना पर गया. हम अउर क्यूट! ऊ भी बुढापा में!! हाथ अपने आप बाल में फेरकर आईना के तरफ से नजर फेर लिए. अउर तब हमरे अंदर का एसीपी प्रद्युमन सोचने लगा कि इसको हमरा नंबर कहाँ से मिला, अगर इसको तारीफ़ करना था तो हमरे पोस्ट के ऊपर काहे नहीं किया, कमेन्ट में कोनों पोस्ट के बारे में कुछ काहे नहीं लिखा.

हम तुरत फोन लगाए सीनियर इन्स्पेक्टर अभिजीत को.. अपने चैतन्य बाबू. ऊ भी हैरान. हंसकर बोले, “आपके चाहने वाले बढते जा रहे हैं.” हम बोले, “मगर पता तो चले कि हैं कौन.” लीजिए, इन्स्पेक्टर साहब अउर एगो सक का कीड़ा डाल दिए दिमाग में, बोले, “कहीं कोई महिला तो नहीं.” हमरा तो मिजाजे सन्न हो गया. ई तो हम सोचबे नहीं किये थे. एक बार अउर आईना में मुंह देखे कि कोइ महिला हमको क्यूट काहे बोलेगी भाई, ऊ भी हमारा ब्लॉग का प्रोफाइल फोटो देखने के बाद. हम बोले, “हो सकता है. शशि दोनों के नाम होते हैं, सुमन भी कोमन नाम है. चलो फोन करके संदेह दूर करते हैं.”

फोन किये, घंटी बजता रहा, कोई जवाब नहीं. मोबाइल से किये, लैंडलाइन से किये. मगर उधर से कोनों जवाब नहीं. अब सस्पेंस बढ़ने लगा. एतना सस्पेंस तो हम ब्लॉग पर अपने प्रियजन के धारावाहिक कहानी में भी नहीं झेल पाते हैं. ओहाँ तो कम से कम क्रमशः लिखा होता है, इहाँ तो कुच्छो नहीं. हम मेसेज का जवाब मेसेज से दे दिए कि आप जो भी हैं ज़रा सामने तो आओ छलिये. अउर फोन तो उठा लिया करें.

दोसरा दिन फिर हम फोन करते रहे, घंटी बजता रहा अउर जवाब नहीं. मोबाइल में देखे कि एगो मेसेज आया हुआ था, “अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखिये.” हमको लगा कि हम पगला जाएंगे. भाई मेरे अगर तुम पुरुस हो तो हमरे पोस्ट पर कमेन्ट करो कि स्वास्थ्य का ख्याल रखें. अउर महिला हैं तो काहे मेसेज कर रही हैं जब बात से परहेज है.

कल ऑफिस से लौटते टाइम मेट्रो में अचानक फिर से दिमाग में ओही सवाल परेसान करने लगा. फोन मिलाए. घंटी बजता रहा अउर अचानक उधर से मरदाना आवाज सुनाई दिया. हम एकदम से खीझ गए अपने ऊपर, काहे कि ऊ चैतन्य जी का आवाज था. जल्दी में उनका नंबर मिला दिए. ऊ बोले, “घबरा क्यों रहे हैं सर! मैं सुमन शर्मा ही बोल रहा हूँ. आपने सही नंबर मिलाया है.”

“लेकिन ये नंबर...”

“आपको बताया था कि नया फोन लिया है मैंने, लेकिन उसके साथ नया कनेक्शन मिला है, ये नहीं बताया आपको. जब एक्टिवेट हुआ तो सोचा मजाक कर लूं आपके साथ.”

हम दोनों हँस दिए. हमरा माथा हल्का हुआ.

(आभार: इस पोस्ट को टाइप करने के लिए मैं आभारी हूँ अपने मित्र सुधीर जी का)

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

खेल खेल में!

किरकेट का वर्ल्ड कप जीतने के बाद पूरा देस में किरकेट का हवा बह रहा है. फाइनल वाले रोज, हम पटना से चल दिए थे दिल्ली के लिए अऊर गाडी में बईठकर अपने मोबाइल पर मैच का मजा ले रहे थे. बाकी कसर चंडीगढ़ से चैतन्य जी अऊर दिल्ली से हमारी सुपुत्री पूरा कर रही थी. किरकेट का नसा हइयो है अजीब. जब भारत जीता तब हमारा गाडी इलाहबाद से पाहिले जमुना जी के पुल पर से गुजर रहा था. जैसहीं धोनी का छक्का लगा अऊर भारत जीता, पूरा गाडी में इतना जोर का हल्ला हुआ कि पूछिये मत. हमको बुझाया कि केतना सुतल आदमी डरे गिर गया होगा अपना बर्थ पर से. हमरा गाडी जमुना पार करके दारागंज इलाका से गुजर रहा था. देखकर लगा कि कोनो त्यौहार मनाया जा रहा है. सच्चो कहता है लोग कि आज देस में किरकेट धर्म बन गया है. फेसबुक पर भी ओही हंगामा था. मोबाइल से जेतना लिख सकते थे लिखे.

किरकेट का खेल के बारे में ई कहना कि हम दीवाना हैं ई खेल के, ओइसहीं है जईसे कहना कि लता मंगेशकर का आवाज़ बहुत मधुर है, सचिन बहुत अच्छा किरकेटर है, धोनी बेजोड़ कप्तान है, महाभारत कालजयी महाकाब्य है, अमिताभ बच्चन के आवाज में जादू है अऊर सेक्सपियर बहुत बड़ा नाटककार थे. मगर ई सच है कि खेल से दूर रहने के बावजूद भी किरकेट हम खेलते, देखते अऊर समझते थे. पिताजी फुटबाल के सौखीन थे अऊर ओही गुण उनकी पोती में समाया है. आर्सेनल का मैच देखते देखते इतना पगला जाती है कि लगता है कि टीवी में घुसकर खेलने लगेगी. देर रात अकेले मैच देखते हुए जोर जोर से चिल्लाते हुए गलती पर गुस्साती है. गुरुदेव के. पी. सक्सेना के इस्टाईल में हम बोल भी देते हैं कि टीवी के पीछे जाकर कान में काहे नहीं बोलती हो फाबरेगास को कि ठीक से गोल करे. हमको तो बुझाता है कि हमरे स्वर्गीय पिताजी का आत्मा उसके अन्दर परवेस कर गया है फुटबाल के मामला में.

खैर, खेल से तनी परहेज रहा है हमको. मगर खेल में केतना मौक़ा ऐसा आया है जो हमरे दिमाग में आज भी फोटो का जइसा बस गया है. १५ मार्च १९७५ का दिन था. मैट्रिक का आखरी पर्चा था हमारा, सब्जेक्ट याद नहीं. पिताजी इम्तिहान दिलवाने ले जाते थे अऊर दिन भर इस्कूल के मैदान में बैठकर किताब पढ़ते रहते थे, ट्रांजिस्टर पर गाना सुनते अऊर बाकी लोग से बातचीत करते रहते थे. उस दिन ऊ कमेंट्री सुन रहे थे. हम इम्तिहान देकर निकले तो असोक राजपथ पर टी.के. घोष एकेडेमी से पैदल चल दिए. पिताजी कान से ट्रांजिस्टर सटाए हुए कमेंटरी सुन रहे थे. कुआलालम्पुर में हॉकी का बिस्व कप फाइनल मैच चल रहा था, भारत अऊर पाकिस्तान के बीच. घमासान मचा हुआ था. अऊर जब हमलोग एलिफिसटन सिनेमा के पास पहुंचे, तो भारत पाकिस्तान को २-१ से हराकर विश्वविजयी बन गया. आझो तक अजित पाल सिंह, असोक कुमार, सुरजीत सिंह, असलम सेर खान, फिलिप्स का नाम याद है हमको. पिताजी के चेहरा पर जो खुसी हम देखे ऊ आज भी हमको याद है. मगर अफ़सोस एही बात का है कि उसके बाद भारत अऊर पाकिस्तान हॉकी के दुनिया से धीरे धीरे गायब हो गए.

एगो पत्रिका आता था “स्पोर्ट्सवीक”. इसलिए भी पसंद था कि इसका बिग्यापन हमरे हीरो फारुक इंजीनियर करते थे रेडियो पर. "एंड द बॉल इज ब्रिलियंटली हिट बाय फारुक इंजिनियर.' अऊर तब उनका आवाज आता था. 'वेल! आय एम् फारुख इंजिनियर. आय रीड स्पोर्ट्सवीक. डु यू?" जेतना हम उनके स्मार्टनेस के दीवाने थे, ओतने उनके खेल अऊर विकेट कीपिंग के. बस आने लगा घर पर स्पोर्ट्सवीक. अऊर हमरा परिचय हुआ खेल के दुनिया से. ओही साल विम्बलडन टूर्नामेंट में भी दिलचस्पी सुरू हुआ. १९७५ में आर्थर ऐश पुरुषों के अऊर बिली-जीन किंग महिलाओं के सिंगल्स की चैम्पियन बनी. जैसे वर्ल्ड कप हॉकी जीतने के बाद मैदान पर बेहोश होकर गिरने वाले वी. जे. फिलिप्स का फोटो हमारे दिमाग में बसा है, ओइसहीं आर्थर ऐश अऊर बिली-जीन किंग का ट्रॉफी लिए हुए फोटो आज भी याद है.

कलकत्ता में हमारे ऑफिस के बगल में टेनिस का मशहूर “साउथ क्लब” था. रईस लोग का खेल कहा जाने वाला टेनिस खेलने के लिए प्रैक्टिस करने रोज हम बहुत सा साधारण घर का बच्चा लोग को देखते थे. एही मैदान पर प्रेमजीत लाल , जोयदीप मुकर्जी, रामनाथन कृष्णन, अमृतराज बन्धु, लेंडर पेस, महेश भूपति खेलते रहे अऊर केतना डेविस कप का टूर्नामेंट आयोजित हुआ. टेनिस खेलने वाला हर बच्चा एही सपना लिए खेलता कि एक दिन ऊ भी विजय अमृतराज या लेंडर पेस बनेगा. भगवान ऊ सपना पूरा करे.

आज भी जहां नोएडा में हम रहते हैं, हमारे घर के पीछे क्लब में लोग को टेनिस खेलते हुए देखते हैं. लेकिन कभी हाथ आजमाने का मौक़ा नहीं मिला. मगर पिछ्ला एक महीना से टेनिस ऐसा लगा है हमरे हाथ से कि जाने का नाम नहीं ले रहा है. डॉक्टर का कहना है कि “टेनिस एल्बो” हो गया है. इस बीमारी से तो हमरा परिचय सचिन के माध्यम से था, अपना सचिन तेंदुलकर. मगर कहाँ ऊ, कहाँ हम. दर्द जब बर्दास्त से बाहर हो जाता है तो हम सोचते हैं कि ई कस्ट हमको काहे दिए भगवान्. अऊर जवाब में आर्थर ऐश याद आते है. जिनको एच.आई.वी. संक्रमित खून दिए जाने के कारण एड्स का बीमारी हो गया था और उनका मौत हो गया. कोई उनसे चिट्ठी लिखकर पूछा कि भगवान् आपको ही इस बीमारी के लिए क्यों चुने तो उनका जवाब था-

"दुनिया में ५० मिलियन बच्चे टेनिस खेलना शुरू करते हैं. उनमें से सिर्फ ५ मिलियन खेलना सीख पाते हैं. केवल ५ लाख प्रोफेशनल टेनिस के स्तर तक पहुँचते हैं और ५० हज़ार सर्किट में आते हैं. ५००० खिलाड़ियों को ग्रैंड स्लैम खेलने ला मौक़ा मिलता है और सिर्फ ५० विम्बलडन तक पहुंचते हैं. आठ क्वार्टर फाइनल, चार सेमी फाइनल और सिर्फ २ फाइनल तक पहुंचते हैं. जब मैंने हाथ में विबल्दन ट्रॉफी उठा राखी थी तब कभी नहीं पूछा कि भगवान सिर्फ मैं ही क्यों!! तो फिर आज इस असहनीय तकलीफ में क्यों पूछूं कि मैं ही क्यों!!”