बुधवार, 1 मई 2013

Ray of Ray


(यह आलेख मेरे भाई शशि प्रिय वर्मा के अंग्रेज़ी लेख का अनुवाद है. यह आलेख उसके पुत्र अनुभव प्रिय की स्कूल पत्रिका के लिए अभिभावकों की श्रेणी में प्रकाशित हुआ था. आज सत्यजीत राय की जयन्ती के अवसर पर उस लेख का हिन्दी अनुवाद श्री शिवम मिश्र के विशेष आग्रह पर!)

गांधी”, सिनेमा के इतिहास में एक महानतम फिल्म है. इसने ग्यारह ऑस्कर के लिए नामांकित होकर आठ ऑस्कर जीते, जिसमें भारतीय कौस्च्यूम डिजाइनर भानुमति अथय्या ने संयुक्त रूप से यह पुरस्कार प्राप्त किया और वो भारत की पहली ऑस्कर विजेता बनीं.
लेकिन मैं न तो ऑस्कर की बातें करने जा रहा हूँ, न भानु अथय्या की!

सर रिचर्ड एटेनबरो ने उस फिल्म का निदेशन किया था, जो स्वयं एक बेहतरीन अदाकार हैं और जिन्होंने अभिनय की शिक्षा RADA (Royal Academy of Dramatic Arts) से ग्रहण की. उन्हें भी इस फिल्म के लिए ऑस्कर मिला था. उनकी अदाकारी जुरासिक पार्क (१९९३) में देखने को मिली थी, वो भी वर्ष १९७७ में उनके द्वारा अभिनीत एक फिल्म के बाद.
लेकिन मैं एटेनबरो की बात भी नहीं करने जा रहा. मैं तो उस फिल्मकार की बात करने जा रहा हूँ जिसके लिए उन्होंने वर्ष १९७७ में काम किया था.

इसके पहले कि मैं उनका नाम लूँ, उनका एक छोटा सा परिचय ज़रूरी हो जाता है. वह अपनी पहली फिल्म से ही एक चुनौती बन गए थे, दुनिया भर के फिल्मकारों के लिए. उन्होंने दुनिया भर के लगभग तमाम फिल्म-पुरस्कार हासिल किये और साल दर साल सारे पुरस्कारों को एक से ज़्यादा बार हासिल किया, सिवा ऑस्कर के. आखिरकार, ऑस्कर भी उनके पास आया, फ़िल्म-जगत को उनके योगदान के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्डके रूप में. बीमारी के कारण वो पुरस्कार प्राप्त करने नहीं जा सके इसलिए ऑस्कर कमिटी ने खुद उन तक जाकर उन्हें वो पुरस्कार प्रदान किया. उन्हें फ्रांस का सर्वोच्च नागरिक सम्मान और भारतवर्ष का भारत रत्नसम्मान प्रदान किया गया. जी हाँ, वो एक भारतीय था, जिसने हिन्दी में सिर्फ दो फ़िल्में ही बनाईं, बाकी अपनी मातृभाषा बांग्ला में. वर्ष 1977 में सर रिचर्ड एटेनबरो ने उनकी ही फिल्म शतरंज के खिलाड़ी में काम किया, जो उनकी पहली हिन्दी फिल्म थी. वे फिल्मकार और कोई नहीं सत्यजित राय थे!

उनके जीवन काल के विषय में बहुत कुछ उपलब्ध है. उन्हें मैं दोहराने नहीं जा रहा. सत्यजीत राय की चर्चा अधिकतर उनकी फिल्मों को लेकर ही हुई है. यह बात भी सही है कि वो भारतीय सिनेमा के महानतम फिल्मकार थे. लेकिन जैसे खोटा सिक्का दोनों तरफ से ही खोटा होता है, वैसे ही खरे सिक्के के दोनों ओर कोई नहीं देखता. मुझे उनके दूसरे पहलू का तब पता चला जब मेरा उनके साहित्य से सामना हुआ. तब मैंने जाना कि वे भले ही एक महान फिल्मकार थे, किंतु दिल से बच्चे ही थे. वर्ष 1961 में उन्होंने अपने दादा जी के प्रकाशन का काम सम्भाल लिया, जो दादा जी ने बीच में ही छोड़ दिया था. राय ने बाल-पत्रिका सन्देश का पुन: प्रकाशन प्रारम्भ किया. उनकी कहानियाँ रहस्य-रोमांच से भरपूर और सामान्य जानकारियों से बुनी हुई होती थीं. उन्होंने अपनी कहानियों में गणित, भूगोल, इतिहास, मनोविज्ञान, संगीत तथा पुरातत्व के तथ्यों का भरपूर इस्तेमाल किया. उनकी कहानी कहने की कला रोमांचक और कई बार रोंगटे खड़े कर देने वाली होती थी. यही नहीं उनकी कहानियों में हर उम्र के व्यक्ति के लिये कुछ न कुछ अवश्य होता है.

मैंने उनकी पहली पुस्तक जो खरीदी वो थी प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की हंसने वाला कुत्ता. मैं शुरू में इस किताब को खरीदने के प्रति उदासीन था और इसे मैने तब जाकर खरीदा जब ये 50% की छूट पर बिकने को आई. एक कुत्ता जो इंसान की तरह हंसता है और एक आदमी उसे किसी भी कीमत पर खरीदना चाह्ता है. चेक बुक निकालकर जब वो उसकी कीमत देना चाहता है तो वह कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगता है. कुत्ते के मालिक ने बताया कि उसके हंसने का कारण सिर्फ इतना है कि उस कुत्ते को पता है कि दुनिया में हर चीज़ पैसे से नहीं खरीदी जा सकती!

इस पुस्तक की सारी कहानियाँ पढने के बाद अगले ही दिन मेरे हाथ में सत्यजीत राय की पाँच और किताबें थीं. सोने का किला (राजकमल प्रकाशन), बादशाही अंगूठी (राधाकृष्ण प्रकाशन), सत्यजीत राय की कहानियाँ (राजपाल), जहाँगीर की स्वर्णमुद्रा (राजकमल) और मुल्ला नसरुद्दीन की कहानियाँ (राजकमल).

उनकी सारी कहानियों में सबसे उल्लेखनीय बात है उनके गढे हुए चरित्र, उनका नैरेशन और उनकी कल्पना की उड़ान. फेलु दा जैसा ज़हीन, जटायु जैसा थ्रिलर लेखक, प्रो. शंकु जैसा वैज्ञानिक (जिसने कम लागत में बड़े आविष्कार किये), प्रो. हिजबिजबिज जैसा सर्जन (जो मोमबत्ती की रोशनी में भी ऑपरेशन कर सकता है) सिर्फ उनकी सोच से ही जन्म ले सकते है. कहानियों का वर्णन इतना स्पष्ट कि वास्तविकता का आभास होता है. उनकी कहानियों को पढने के बाद आप फ्रांस, बेंगलुरु, जर्मनी, राजस्थान घूमने जायें तो आपको लगेगा कि आप यहाँ पहले भी आ चुके हैं. और उनकी कल्पनाशीलता तो कल्पना से भी परे है.

उनकी कल्पनाशक्ति की तुलना महान शेक्सपियेर से की जा सकती है जिन्होंने कॉमेडी ऑफ एरर में दो जोड़े जुड़वाँ की कल्पना की थी या फिर ‘मैकबेथ’ में उसकी मृत्यु का क्लाइमेक्स लिखा था.

मेरा अनुरोध है सभी बच्चों से और उनके अभिभावकों से कि अगर वे सत्यजीत राय को केवल एक फिल्मकार मानते हैं, तो एक बार उनकी कहानियाँ अवश्य पढें. मेरा अनुरोध उन सभी सिने-प्रेमियों से भी है जो उन्हें केवल एक प्रादेशिक या आंचलिक फिल्मकार मानते हैं कि वे उनकी फिल्में एक बार अवश्य देखें. उनकी फिल्मों का इतिहास और उनके द्वारा प्राप्त सम्मान/पुरस्कार इस बात के प्रमाण हैं कि कम्युनिकेशन गैप को भरने के लिये कम्युनिकेशन से बेहतर कोई रास्ता नहीं.

उनकी कहानी की पुस्तक के हर दूसरे तीसरे पृष्ठ पर उस कहानी से जुड़ा कोई रेखाचित्र आपको मिलेगा जिसे स्वयम सत्यजीत राय ने बनाया है. वे थीम के अनुसार स्केच बनाते थे और स्केच के अनुसार दृश्य को विज़ुअलाइज़ करते थे. फिल्मों की पटकथा लिखते समय उन्हें इससे काफी मदद मिलती थी. यही नहीं, उनके विस्तार का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपनी शुरुआती तीन फिल्मों को छोड़कर उन्होंने सभी फिल्मों का संगीत निर्देशन किया और हर पात्र के ड्रेस डिज़ाइन करने से लेकर फिल्म के पोस्टर तक डिज़ाइन किये. 

आज कई फिल्मकार अपने नाम से पहले ड्रीम मर्चेण्ट या शो-मैन जैसी उपाधि लगाते फिरते हैं, सत्यजीत राय ने कभी इन शब्दों की ओर ध्यान भी नहीं दिया. वे स्वयम लफ्ज़ों के शाहंशाह थे.

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि 2 मई 1921 को जन्मा, यह एक बहुत ही दुर्लभ प्रजाति का प्राणि था, जो 23 अप्रैल 1992 को इस जगत से विलुप्त हो गया.