पहिला बार कलकत्ता में मिले थे उससे. बस एही समझिए कि देखते ही एकबार में रीझ गए. उस समय जवान थे, काफी समय उसके साथ बीतने लगा. लगता था कि उसके बिना जीना मोसकिल हो जाएगा. कलकत्ता में रहकर भी राजनीति पर गरम गरम बहस करने का बेमारी हमको नहीं लगा. हमरे घर के आस पास भी ऑफिसे का लोग सब था. अब कहाँ फालतू टाइम बिताएं उनके साथ प्रोमोसन पालिसी, उपरवाले का बुराई, कर्मचारी लोग का आलसीपन के बारे में बहस करके. इसलिए हम ई सब से कट लेते थे अउर उसी के साथ जादा समय बिताते थे.
पहिला बार ओही समय हमको मोमिन के सेर का मतलब बुझाया कि
तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता!
कोई दुराव छिपाव भी नहीं था हम दुनो के बीच काहे कि प्रेम त संदेह के जमीन पर पनपिये नहीं सकता है. हमको जो भी पूछना था उससे पूछ लेते थे साफ़ साफ़ अउर बिना कोई परहेज के, हमरा संदेह दूर भी हो जाता था. मगर उसका भोलापन देखिये, हमरे कोनों बात पर कभी संदेह तक नहीं की. ऐसा नहीं कि ऊ हमसे सवाल नहीं पूछती थी. बहुत कुछ ऊ भी हमसे पूछी, मगर आज करेजा पर हाथ रखकर मानते हैं कि बहुत सा बात उसको हम गलत बताए, बहुत सा बात छिपाए. प्रेम के बीच में ई सब होना चाहिए कि नहीं मालूम नहीं. मगर अनजान जगह में, अनजान ब्यक्ति से सब बात बताने में तनी डर त लगबे करता है. सो हम छुपा गए. बाद में सफाई देने का भी गुंजाइश नहीं रहा. न पूछा गया, न बताए. मगर आझो मन में मलाल है कि हम उसको ई नहीं बताए कि हम सादी सुदा हैं. ऊ पूछी तो थी एक बार. पहिला बार झूठ बोल गए थे हम, मगर दोबारा न ऊ कभी पूछी, न हम कभी बता सके.
कहते हैं कि दूर हो जाने से प्रेम अउर बढ़ जाता है. कलकत्ता छोडने के बाद सुरू सुरू में तो हमको बहुत अजीब लगा. उसके बिना सब सूना सूना लगता था. फिर आदत पड़ गया. हम अपना परिबार में रम गए अउर ऊ भी ठीके ठाक रही होगी. हम भी खोज खबर नहीं लिए.
दिल्ली जब आए तो उसको खोज लिए. इतना बड़ा महानगर में एक बार फिर हमको अपना भुलाया हुआ प्रेम वापस मिल गया था. हाँ इस बार प्रेम का रूप तनी बदल गया था. समय के साथ ऊ भी बदल गई थी. पहिले ऊ हमारे लिए एगो सूखा टहनी थी. मगर अब त एतना फैल गई थी कि का बताएं. उसका महानता देखिए कि हमसे हमरे गैरहाजरी के बारे में कुछ नहीं पूछी. न कोई उलाहना, ना सिकायत. ओही प्रेम अउर ओही खुला हिरदय, जो हम कलकत्ता में छोड़कर गए थे.
अचानक एक हफ्ता पहिले, ऊ हमको बिना बताए चली गई. अगल बगल से पूछे, उसके मकान मालिक को भी बोले, लेकिन सब बेकार. हमको लगा कि कहीं ऊ हमसे बदला तो नहीं ले रही है. एक एक करके हम अपना सब गलती याद किये. उसके मकान मालिक को हम दूनों के सम्बन्ध के बारे में मालूम था. ऊ हमसे केतना सवाल किया, हम सबका सही सही जवाब दिए. इस बार तो हम कुछ छिपाए भी नहीं.
एक दिन, दू दिन करते करते दस दिन बीत गया. मन उदास. किसी से बोलचाल नहीं कर पाए. इहाँ तक कि होली भी ब्लैक एंड वाईट हो गया. सबके बीच अकेला होने का दरद हमको समझ में आ गया था. कल उसका पता चला है, मगर मिल अभी भी नहीं पाए हैं. पता नहीं का हो गया है उसको. कहां चली गई है हमरी प्रिया, हमरी बेब्स नहीं, हमरी वेब दुनिया. दस दिन से ऑक्सीजन (वाई फाई) नहीं है और कल से तो बदन में तार लगाकर (लैन केबुल) ज़िंदा हैं.
चैतन्य भाई ने तो कह दिया कि अउर पंगा लो ऊपरवाले से, अब आप लोग कुछ प्रार्थना कीजिये. गरीबों की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा!