श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ का परिचय उनकी
कवितायें, लघुकथायें, संस्मरण, उपन्यास और कहानियाँ हैं. उनकी रचनायें चाहे जिस भी विधा में हों,
अपनी एक अलग ही पहचान रखती हैं. उनकी समस्त रचनाओं में सामाजिक सरोकार को इतनी
कोमलता से दर्शाया गया है कि वे कहीं से भी चीखती-चिल्लाती हुई ध्यानाकर्षण की
मांग नहीं करतीं. बल्कि पाठक के हृदय को आन्दोलित करती हैं. उनकी रचनाओं में
सम्वेदनाओं का पुट इतना संतुलित होता है कि बस आपके मन को छूता है, सहलाता है और
धीरे से आपके मस्तिष्क को चिंतन के लिये व्यथित करता है, विवश नहीं.
इनसे भी परे गिरिजा जी का एक और
साहित्य-संसार है. जहाँ वे कहानियों, कविताओं और चित्र-कथाओं का सृजन करती हैं एक
वर्ग-विशेष के लिये; वह पाठक वर्ग है बच्चे और शिक्षा से दूर प्रौढ. प्रौढ शिक्षा
के क्षेत्र में इनकी लिखी कहानियाँ कार्यशालाओं में पठन-सामग्री के रूप में उपयोग
में लाई जाती रही हैं. बच्चों के लिये इनका साहित्यिक योगदान अद्भुत है. बच्चों और
बड़ों के लिये समान रूप से जो काम इन्होंने किया है वह गुलज़ार साहब के काम में
देखने में आता है, जहाँ एक ओर वो बच्चों के लिये बच्चे बनकर कवितायें लिखते हैं, वहीं बड़ों के लिये
बड़े होकर नज़्में. यह विस्तार ही किसी भी साहित्यकार की रचनाओं को विस्तार प्रदान
करता है. गिरिजा जी की रचनाओं में यह विस्तार सहज ही देखने को मिलता है.
“ध्रुव-गाथा” बालक ध्रुव की कहानी है, जो अपनी माता के साथ पिता द्वारा निर्वासन का दुःख भोग रहा था, एक अन्य स्त्री के कारण. राजमहल के सुख से वंचित ध्रुव, एक दिवस अपने पिता के
महल में पहुँचकर पिता की गोद में बैठ अद्भुत आनन्द की अनुभूति पाता है. किंतु तभी
विमाता द्वारा अपमानित कर उसे महल से निकाल दिया जाता है. बालक ध्रुव अपनी माता से
इस व्यथा का वर्णन करते हैं. माता उन्हें फुसलाने के लिये कहती हैं कि तुम्हारा तो
भगवान हरि की गोद में स्थान है जो सम्पूर्ण जगत के पिता हैं. और ऐसे में बालक
ध्रुव एक रात्रि हरि मिलन के लिये निकल पड़ते हैं तथा अनेक कष्टों का सामना करते
हुये प्रभु से मिलते हैं. प्रभु के आशीर्वाद से उन्हें ब्रह्माण्ड में एक अटल स्थान
प्राप्त होता है और उन्हें दृढता का प्रतीक माना जाता है.
जैसा कि परिचय से ही स्पष्ट है, ध्रुव-गाथा
एक खंड काव्य है और इसकी रचना उन्होंने बाल-पाठकों को ध्यान में रखकर की है अतः
इसे उन्होंने बाल खंड-काव्य की संज्ञा दी है. इस काव्य का रचना काल 1982-86 के
मध्य का है और यदि गिरिजा जी के शब्दों में कहें तो उन्हें यह रचना भारतेन्दु-काल
की लगी, अत: उनके मन में स्वयम एक सकुचाहट थी कि यह काव्य प्राचीन शैली में लिखा
गया है, आज के पाठक वर्ग को पसंद आएगा या नहीं. और यह रचना संदूक में दबी रही.
२००१ में इसे किसी “पाठक” को सुनाया गया और प्रकाशन के बाद, यह २०१२ में हमारे
सामने है. सृजन की इतनी लंबी यात्रा और कवयित्री द्वारा स्वयं अपनी रचना का आकलन (पिताश्री की शाबाशी से भी संतुष्ट न हो पाना), इस बात का प्रमाण है कि इनकी
रचनाधर्मिता में कितनी ईमानदारी है.
खंड काव्य चूँकि एक पात्र के चारों ओर
बुना जाता है अतः यहाँ केन्द्रीय चरित्र बालक ध्रुव हैं. घटनाक्रम, जिसे फिल्म की
भाषा में पटकथा कहते हैं, इतना चुस्त कि अगली कड़ी की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती है
और वहाँ पहुंचकर आगे की. घटनाओं के वर्णन में सभी सह-चरित्रों के साथ न्याय किया
गया है और उन्हें उनके स्वाभाविक रूप में दर्शाया गया है. प्रत्येक घटना के साथ
बालक ध्रुव के मन में उठते विचारों और मनोभावों का चित्रण इतना सहज है मानो
बाल-मनोविज्ञान की गहन समझ रखने वाला कोई व्यक्ति उनका वर्णन कर रहा है. माता,
पिता, विमाता, मित्रों और प्रभु के संवाद इतने स्वतः अभिव्यक्त हैं कि लगता है एक
एक शब्द अपनी पूरी प्रतिष्ठा के साथ उनकी जिह्वा पर सुशोभित हो रहा है. एक बानगी-
ध्रुव को अपने समक्ष पाकर महाराज:
कैसी हैं महारानी,
वह धरती की अरुणा,
पीड़ित के प्रति
न्यौछावर है जिसकी करुणा.
तेरी माँ तो वत्स
भुवन की दिव्य प्रभा है,
अंधियारे में भटके
को ज्यों दीपशिखा है!
ध्रुव अपने पिता से:
गोद आपकी कितनी
अच्छी-कितनी प्यारी,
लेकिन माँ की बात
निराली प्यारी-प्यारी,
आप यहाँ हैं लीन सुखों
में, वहाँ विपिन में,
वनवासी ऋषि मुनियों
के शुचि-आराधन में.
विमाता ध्रुव से:
राजकुंवर तो सिर्फ
एक, जो मेरा सुत है,
दुस्साहस मत कर बालक
यह मेरा मत है,
जहाँ जमा है तू,
उसका उत्तम अधिकारी,
राजपुत्र जिसका सुत,
केवल मैं वह नारी!
इसी प्रकार, जहाँ भी कवयित्री ने स्वयं को
सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत किया है, वहाँ भी उनका शब्द-कौशल अपने चरमोत्कर्ष पर
दिखाई देता है. शब्द-कौशल को आप शब्द-साधन भी कह सकते हैं.
नयनों में था
अहंकार, पद की गरिमा थी,
सुन्दर भी थी, पर
जैसे प्रस्तर प्रतिमा थी.
एक खंड काव्य में चूँकि एक चरित्र विशेष
के जीवन क्रम को चित्रित किया जाता है, अतः पाठक का आकर्षण बनाए रखने के लिए यह
आवश्यक है कि शब्दों का चयन घटनाक्रम के अनुरूप हों, क्योंकि काव्य की लयात्मकता
लगभग सुनिश्चित होती है. अतः घटनाक्रम के उतार चढ़ाव, चरित्रों के कथोपकथन और
पृष्ठभूमि के सृजन में उचित शब्द-समूह का चुनाव, काव्य में उनको बुना जाना और
नाटकीयता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है. इस कसौटी पर देखें तो गिरिजा
जी कहीं भी पिछडती नहीं प्रतीत होती हैं.
स्वयं महिला होने के नाते और ध्रुव की
माता तथा विमाता जैसे दो सशक्त चरित्रों का निर्वाह करने में जहाँ भी उन्हें सुयोग
प्राप्त हुआ है, उन्होंने नारी को व्याख्यायित करने का अवसर नहीं गंवाया है:
नारी को नर यूं ही
अब तक छलता आया,
नेह मान के झूठे
जालों में उलझाया,
स्वयं प्रकृति ने ही
नारी का भाग्य रचाया,
प्रणय और वात्सल्य
जाल में यों उलझाया.
इनमें पुलक किलक कर
निज संसार बसाती
इन पर तन-मन –धन वह
दोनों हाथ लुटाती.
काव्य की प्रांजलता सर्वाधिक प्रभावित
करती है. पढते हुए लगता है जैसे आप इसे पढ़ नहीं रहे “पाठ कर रहे” हैं. लगभग यही
अनुभव मुझे दिनकर जी की “रश्मिरथी” का पाठ करते हुए आता था. सम्पूर्ण खंड-काव्य को
पढ़ने का एकमात्र तरीका इसका सस्वर पाठ करना ही है. प्रांजलता इतनी तरलता से अनुभूत
है कि शब्दों के उतार चढ़ाव भावनाओं के साथ प्रवाहित होते प्रतीत होते हैं.
श्रीमती गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी के परिचय
में मैंने कहा था कि उनके अंदर एक बच्चा आज भी बचा है, जो उनसे इन रचनाओं का सृजन
करवाता है. इसका प्रमाण स्वयं उन्होंने इस पुस्तक के विमोचन समारोह में दिया.
पुस्तक के अनावरण के लिए जब सारा इंतज़ाम हो गया तब इन्हें किसी ने बताया कि पुस्तक
की सारी प्रतियां तो पहले से ही अनावृत रखी हैं. ऐसे में उन्होंने मासूमियत से कहा
कि क्या ऐसा होता है और तब पुस्तकों को पैक किया गया.
पुस्तक हार्ड-बाउंड में है और मूल्य है
मात्र १५०.०० रुपये. प्रकाशक का नाम मैं जानबूझकर नहीं दे रहा हूँ, क्योंकि प्रकाशक
ने पुस्तक के आवरण को अपना विज्ञापन-पट्ट बना रखा है. छपाई बहुत अच्छी नहीं है और
बहुत सारी त्रुटियाँ हैं मुद्रण की. मुझे जो प्रति प्राप्त हुई उसमें हाथ से काटकर
शब्दों को शुद्ध किया गया है. इस प्रकार की भूल पाठन में व्यवधान उत्पन्न करती है.
पुस्तक के परिचय में डॉ. अन्नपूर्णा भदौरिया,
विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर; डॉ. पूनम चंद
तिवारी, पूर्व विभागाध्यक्ष (हिन्दी विभाग), जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर तथा
कवि प्रकाश मिश्र ने अपनी बात कही है, जो इस खंड-काव्य को प्रामाणिकता की मुहर
लगाता है.
अंत में यही कहना चाहूँगा कि यह पुस्तक,
स्वयं कवयित्री को भारतेंदु काल की रचना लगती हो, और ऐसा लगता हो कि इसे पढने वाले
विरले ही मिलते हैं, वास्तव में अपनी प्रासंगिकता के स्तर पर कभी भी पुरातन नहीं
होने वाली. यह पुस्तक भले ही बाल मनोविज्ञान की आधारशिला पर रचित है, किन्तु इसमें
नारी, पर्यावरण, सामाजिक विसंगतियों आदि का इतना सजीव चित्रण है कि पाठक मुग्ध हो
जाता है.
यदि मुक्तछंद की कविताओं को पढते हुए एक
सलिल प्रवाह से खंड काव्य को पढ़ने का शीतल अनुभव प्राप्त करना चाहें तो यह काव्य-पाठ एक सुखद अनुभूति है.