अपने सोसाईटी में कोनो बच्चा का जनमदिन था, तो उसके लिये गिफ्ट खरीदने बाजार गए अपनी बेटी के साथ. दोकान में एतना खिलौना देखकर माथा घूम जाता है. एगो पसंद आया तो बेटी बोली, “डैडी! ये तो पाँच साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों के लिये है. सक्षम तो अभी तीन साल का है.” हमको समझे में नहीं आया ई बात कि खिलौना खिलौना होता है अऊर बच्चा बच्चा होता है, अब तीन साल का अऊर पाँच साल का बच्चा में हमको तो कोनो फरक नहीं बुझाता है. ई भी जाने दीजिये, खिलौना के डिब्बा के ऊपर लिखा हुआ है “ख़तरा… चोकिंग हाज़ार्ड्स!” भाई जब एतने खतरा है तो बेच काहे रहे हो. खिलौना न हो गया, दवाई हो गया कि नोटिस लगा दिये हैं “बच्चों के पहुँच से दूर रखिये.” अब घर में अगर अलग अलग उमर का बच्चा हो, तो तीन साल वाला बच्चा को पाँच साल वाला के खिलौना से दूर रखना होगा! कमाल है!!
हम लोग का टाईम अच्छा था. खिलौना, खिलौना होता था. खिलौना में उमर का कोनो भेद नहीं होता था. बस एक्के भेद था कि लड़का अऊर लड़की का खिलौना अलग अलग होता था. लड़की लोग मट्टी का बर्तन चौका के खिलौना से खेलती थी. चाहे गुड़िया गुड्डा से, जो माँ, फुआ, मौसी, चाची पुराना कपड़ा से बना देती थीं. उधर लड़का लोग के पास गंगा किनारे लगने वाला सावनी मेला से लाया हुआ लकड़ी का गाड़ी, ट्रक, मट्टी का बना हुआ सीटी, लट्टू , चरखी. सबसे अच्छा बात ई था कि खेलता सब लोग मिलकर था. अऊर कभी चोकिंग हैज़ार्ड्स का चेतावनी लिखा हुआ नहीं देखे.
ई सब खिलौना के बीच में एगो अऊर चीज था. जिसको खिलौना नहीं कह सकते हैं, लेकिन बचपन से अलग भी नहीं कर सकते हैं. लड़का लड़की का भेद के बिना ई दूनो में पाया जाता था. बस ई समझिये कि होस सम्भालने के साथ ई खिलौना बच्चा लोग से जुट जाता था. पकाया हुआ मट्टी से बना , एगो अण्डाकार खोखला बर्तन जिसमें बस एगो छोटा सा पतला छेद बना होता था. हई देखिये, एक्साईटमेण्ट में हम ई बताना भी भुला गये कि उसको गुल्लक बोलते हैं.
करीब करीब हर बच्चा के पास गुल्लक होता था. कमाल का चीज होता था ई गुल्लक भी. इसमें बना हुआ छेद से खुदरा पईसा इसमें डाल दिया जाता था, जो आसानी से निकलता नहीं था. जब भर जाता, तो इसको फोड़कर जमा पईसा निकाल लिया जाता था. बचपन से फिजूलखर्ची रोकने, छोटा छोटा बचत करने, जरूरत के समय उस पईसा से माँ बाप का मदद करना अऊर ई जमा पूँजी से कोई बहुत जरूरी काम करने, छोटे बचत से बड़ा सपना पूरा करने, एही गुल्लक के माध्यम से सीख जाता था. अऊर ओही बचत का कमाल है कि आज भी हम अपना याद के गुल्लक से ई सब संसमरन निकालकर आपको सुना पा रहे हैं.
इस्कूल में पॉकेट खर्च के नाम पर तो हमलोग को पाँच पईसा से सुरू होकर आठ आना तक मिलता था. बीच में दस, बीस,चार आना भी आता था. अब इस्कूल में बेकार का चूरन, फुचका, चाट खाने से अच्छा एही था कि ऊ पईसा गुल्लक में जमा कर दें. पिता जी के पॉकेट में जब रेजगारी बजने लगता, तो ऊ निकालकर हम लोग को दे देते थे, गुल्लक में डालने के लिये. त एही सब रास्ता से पईसा चलकर गुल्लक के अंदर पहुँचता था. ऊ जमा पूँजी में केतना इजाफा हो गया, इसका पता उसका आवाज़ से लगता था. अधजल गगरी के तरह, कम पूँजी वाला गुल्लक जादा आवाज करता था अऊर भरा हुआ रहता था चुपचाप, सांत. मगर प्रकीर्ती का नियम देखिये, फल से लदा हुआ पेड़ पर जईसे सबसे जादा पत्थर फेंका जाता है, ओईसहिं भरा हुआ सांत गुल्लक सबसे पहिले कुरबान होता था.
अब गुल्लक के जगह पिग्गी बैंक आ गया है. उसमें सिक्का के जगह नोट डाला जाता है. सिक्का सब भी तो खतम हो गया धीरे धीरे. पाँच, दस, बीस पईसा तो इतिहास का बात हो गया. बैंको में चेक काटते समय पईसा नदारद, फोन का बिल, अखबार का बिल, रासन का बिल, तरकारी वाला का बिल सब में से पईसा गायब. लोग आजकल नोट कमाने के फेर में लगा हुआ है, पईसा जमा करना बहुत टाईम टेकिंग जॉब है. इसीलिये उनका याद का गुल्लक में भी कोई कीमती सिक्का नहीं मिलता है.
दू चार महीना में चवन्नी भी गायब हो जाएगा. अब ऊ चवन्न्नी के साथ जुड़ा हुआ चवन्नी छाप आसिक, या महबूबा का चवनिया मुस्कान कहाँ जाएगा. बचपन से सुन रहे हैं किसोर दा का गाना “पाँच रुपईया बारा आना”.. इसका मतलब किसको समझा पाईयेगा. अऊर गुरु देव गुलज़ार साहब का नज़्म तो साहित्त से इतिहास हो जाएगाः
एक दफ़ा वो याद है तुमको
बिन बत्ती जब साइकिल का चालान हुआ था
हमने कैसे भूखे प्यासे बेचारों सी ऐक्टिंग की थी
हवलदार ने उल्टा एक अठन्नी देकर भेज दिया था.
एक चवन्नी मेरी थी, वो भिजवा दो!
बेटी अऊर बेटा का परीच्छा हो, चाहे किसी का तबियत खराब हो, हमरी माता जी भगवान से बतिया रही हैं कि अच्छा नम्बर से पास हो गया या तबियत ठीक हो गया तो सवा रुपया का परसाद चढ़ाएँगे. सोचते हैं माता जी को बता दें कि अब भगवान का फीस बढ़ा दीजिये अऊर अपना प्रार्थना में सुधार कर लीजिये!