शनिवार, 29 दिसंबर 2012

काला शनिवार


आज इस साल ने जाते जाते,
मुँह पे कालिख सी पोत डाली है.
सर झुकाए हैं, शर्मसार हैं हम!!
  

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

(कु)सभ्यता

दिल्ली कभी हमरे सपना का सहर नहीं था. नौकरी के सिलसिला में दू-एक बार हमसे पूछा भी गया दिल्ली जाने के लिए, त हम मना कर दिए. मगर जब २००५ में हम दिल्ली आये, तब सोचे कि चलो मन मारकर रह लेते हैं. ओही टाइम में जब हम नोएडा में रहते थे, तब निठारी कांड सामने आया. तब हम एगो लंबा नज़्म लिखे थे. आज जब दिल्ली में एतना बड़ा कांड हुआ है त अचानके हमारा नज़्म सामयिक हो गया.
कभी इसको हम ब्लॉग पर प्रकाशित नहीं किये, लेकिन आज रोक नहीं पा रहे हैं!

तुम मुझे दो एक अच्छी माँ, तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूँगा.

बात तो जिसने कही थी सच कही थी
पर भला वो भूल कैसे ये गया कि
पूत कितने ही सुने हैं कपूत लेकिन
माँ कुमाता हो, नहीं इतिहास कहता.

माँ कहा करते थे नदियों को,
और उनको पूजते थे
तब कहीं जाकर जने थे सभ्यता के पूत ऐसे
आज भी है साक्षी इतिहास जिनका.

पुस्तकों में था पढा हमने कि
दुनिया की पुरानी सभ्यताएँ
थीं फली फूली बढीं नदियों के तट पर.
याद कर लें हम
वो चाहे नील की हो सभ्यता या सिंधु घाटी की
गवाह उनके अभी भी हैं चुनौती आज की तकनीक को
चाहे पिरमिड मिस्र के हों
या हड़प्पा की वो गलियाँ, नालियाँ, हम्माम सारे.

माँ तो हम सब आज भी कहते हैं नदियों को
बड़े ही गर्व से जय बोलते हैं गंगा मईया की,
औ’ श्रद्धा से झुकाते सिर हैं अपना
जब गुज़रते हैं कभी जमुना के पुल से.

वक़्त किसके पास होता है मगर
कुछ पल ठहरकर झाँक ले जमुना के पानी में
था जिसको देखकर बिटिया ने मेरी पूछा मुझसे,
“डैड! ये इतना बड़ा नाला यहाँ पर कैसे आया?
कितना गंदा है चलो
 जल्दी यहाँ से!”

कैसे मैं उसको ये बतलाऊँ कि इस नाले का पानी,
हम रखा करते थे पूजा में
छिडककर सिर पे, धोते पाप अपने,

काँप उट्ठा दिल उसी दिन
दुर्दशा को देखकर गंगा की, जमुना की.
आज की इस नस्ल को क्या ये नहीं मालूम,
नदियाँ हों जहाँ नाले से बदतर,
जन्म लेती है निठारी सभ्यता,
जिसमें हैं कत्ले-आम और आतंक के साये.
उजडती आबरू, नरभक्षियों का राज!

मित्रों,
आपको मालूम हो उस शख्स का कोई पता
तो इस नगर का भी पता उसको बताना,
और कहना
आके बस इक बार ये ऐलान कर दे,

तुम मुझे दो एक अच्छी माँ
तुम्हें मैं एक अच्छा राष्ट्र दूंगा! 

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

उलझे धागे



न कभी जन्मे - न कभी विदा हुए 
जो सिर्फ अतिथि रहे इस पृथ्वी-गृह पर 
११ दिसंबर १९३१ एवं १९ जनवरी १९९० के मध्य 

ओशो को पढते हुए अचानक उनके प्रवचन "अथातो भक्ति जिज्ञासा" के अंतर्गत देखा कि गुलज़ार साहब की कुछ नज्में उद्धृत की हैं उन्होंने. प्रेम के भाव से ओत-प्रोत नज्मों का आध्यात्मिक विश्लेषण देखकर चकित रह गया.
आज प्रिय ओशो के जन्म-दिवस पर उनकी उसी प्रवचनमाला का एक मोती प्रस्तुत है:
***


क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ 
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा 
अगरचे एहसास कह रहा है 
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं 
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है 
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा 
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ 
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले 
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 


स्नेह हो या प्रेम या श्रद्धा या भक्ति – प्रीति का कोई भी रूप, प्रीति की कोई भी तरंग – बाधा एक है – अहंकार. क्षुद्रतम प्रेम से विराटतम प्रेम तक बाधाएं अलग-अलग नहीं हैं. एक ही बाधा है सदा – अस्मिता! मैं यदि बहुत मजबूत हो तो प्रेम नहीं फल सकेगा. मैं का अर्थ है, परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना! प्रेमी की तरफ पीठ करके खड़े होना! मैं का अर्थ है – अकड.

परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किये खड़े हो. परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, हाथ बढ़ाओ तो मिल जाए. ज़रा गुनगुनाओ, तो आवाज़ उस तक पहुँच जाए. ज़रा मुडकर देखो, तो दिखाई पड़ जाए. मगर अहंकार कहता है - मुडकर देखना मत. अहंकार कहता है - पुकारना मत. अहंकार अटकाता है और अहंकार के जाल बड़े सूक्ष्म हैं. मनुष्य और परमात्मा के बीच इसके अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं है.

एक आदमी ने ईश्वर की बहुत-बहुत प्रार्थना की. ईश्वर प्रसन्न हुआ और ईश्वर ने उसे एक शंख भेंट कर दिया और कहा, इससे जो तू माँगेगा, मिल जाएगा. वह आदमी क्षण भर में धनी हो गया. जो माँगा, मिलने लगा. जब माँगा, तब मिलने लगा. लाख रुपये कहे तो तत्क्षण छप्पर खुला और बरस गये.
अचानक उसके भाग्य में परिवर्तन देखकर दूर-दूर तक खबरें पहुँच गयीं कि चमत्कार हो रहा है. न वह घर से बाहर जाता है, न कोई व्यवसाय करता है और खज़ाने खुल गये हैं.
एक सन्यासी उसके घर में आकर मेहमान हुआ. सन्यासी सुबह पूजा कर रहा था. गृहस्थ ने उस सन्यासी को पूजा करते देखा. उस सन्यासी के पास एक बड़ा शंख था. सन्यासी ने उस शंख से कहा कि मुझे लाख रुपये चाहिये. वह गृहस्थ पीछे खड़ा होकर सुन रहा था. उसने सोचा अरे! इसके पास भी वैसा ही शंख है और मुझसे भी बड़ा है.
शंख बोला लाख से क्या होगा, दो लाख ले लो!
गृहस्थ के मन में बड़ी लोभ की वृत्ति उठी कि शंख हो तो ऐसा हो. मेरे पास है, लाख माँगता हूँ, लाख दे देता है, जितना माँगो उतना दे देता है यह भी कोई बात हुई! यह है शंख! लाख कहो, दो लाख कह रहा है! माँगने वाला कहता है – लाख, शंख कहता है – दो लाख ले लो! पैरों पर गिर पड़ा सन्यासी के. कहा, “आप सन्यासी हैं! आपके लिए ऐसे शंख की क्या ज़रूरत? मैं गृहस्थ हूँ, फिर मेरे पास भी शंख है, वह आप ले लें! वह उतना ही देता है जितना मांगो. आपको वैसे ही ज़रूरत नहीं है.”
सन्यासी राजी हो गया. शंख बदल लिए गए. सन्यासी उसी सुबह विदा भी हो गया. साँझ पूजा के बाद गृहस्थ ने शंख को कहा, “लाख रुपया.”
शंख ने कहा, “लाख में क्या होगा! दो लाख ले लो!”
गृहस्थ बड़ा प्रसन्न हुआ, कहा, “धन्यवाद! तो दो ही लाख सही!”
शंख ने कहा, “दो में क्या होगा, चार ले लो!”
बस, शंख ऐसे ही कहता चला गया. चार कहा तो कहा- आठ ले लो, और आठ कहा तो कहा-सोलह ले लो!
थोड़ी देर में गृहस्थ की तो छाती काँप गयी. देने लेने की तो कोई बात ही नहीं थी, सिर्फ संख्या दुगुनी हो जाती थी.

अहंकार महाशंख है. तुम मांगो, उससे कई गुना देने को तैयार है - देता कभी नहीं. हाथ कभी कुछ नहीं आता. अहंकार से बड़ा झूठ इस संसार में दूसरा नहीं है. सारी भ्रांतियों का स्रोत है. उससे ही उठती है सारी माया. उससे ही उठाता है सारा संसार. संसार को छोड़कर मत भागना – क्योंकि कहाँ भागोगे, अहंकार तुम्हारे साथ रहेगा. जहाँ अहंकार रहेगा, वहाँ संसार रहेगा. छोड़ना हो कुछ तो अहंकार छोड़ दो. और मज़ा यह है कि छोड़ना कुछ भी नहीं पड़ता.

अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है. सिर्फ मन में पड़ गयी एक गाँठ है. धागे उलझ गए हैं और गाँठ हो गयी है. धागे सुलझा लो और गाँठ खो जायेगी. ऐसा नहीं है कि धागे सुलझने पर गाँठ भी बचेगी, कि जब धागे सुलझ जायेंगे, तब गाँठ भी हाथ आयेगी. गाँठ कुछ है ही नहीं.

तुम्हारे विचार के धागे ही उलझ गए हैं. जितने ज़्यादा उलझ गए हैं, उतनी बड़ी गाँठ हो गयी है. उलझते ही चले जा रहे हैं, सुलझाव का कोई उपाय नहीं दिखता है. यही गाँठ बाधा है. धागे चित्त के सुलझ जाएँ, परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं था. 

रविवार, 25 नवंबर 2012

इबादत: एक नाट्य-रूपांतर


जेफरी आर्चर का एगो कहानी संकलन है जिसका नाम है “ट्विस्ट इन द टेल” माने कहानी में पेंच! ई बात त मुहावरा के तरह इस्तेमाल होने लगा है अऊर खासकर फ़िल्मी दुनिया में त बिना इसके कोनो कहानी बन ही नहीं सकता. कहानी में कोनो न कोनो पेंच होना ही चाहिए, चाहे बचपन का बिछडा हुआ भाई का पेंच, चाहे पैदा होते ही बदला गया बच्चा का पेंच, चाहे पति/पत्नी के मरकर अचानक ज़िंदा सामने आ जाने का पेंच! पेंच नहीं त कहानी नहीं. मगर कोनो घटना को पेंच बनाकर कहानी लिखने वाले कथाकार के बारे में कभी सोचे हैं! ऐसा पेंच जो कहानी के अंत में अचानक आपके सामने आता है अऊर आपको एकदम अबाक कर देता है. आँख से आंसू निकलने लगता है कभी कभी. अइसा कहानी लिखने वाले महान कथाकार हैं ओ. हेनरी! उनका कहानी The last leaf, Gift of Magi, A service of love या Green Door एही बात को साबित करता है.

हमारे बेटा अनुभव प्रिय को ई जिद था कि उनको ओ. हेनरी के एगो कहानी को नाटक में रूपांतरित करना है और उसको अपनी बुआ अर्चना चावजी के साथ नाटक के रूप में पॉडकास्ट करना है. एही नहीं हमको भी गेस्ट अपीयरेंस करना होगा. खैर सबकुछ ओही किया अऊर उसका मेहनत और बुआ-भतीजा के अभिनय से सजा हुआ नाटक को जब ठाकुर पद्म सिंह जी ने पार्श्व-संगीत से सजा दिया त नाटक जीवंत हो उठा.

हम अभी कुछ नहीं कहेंगे, बस एतना कि ई नाटक आप इहाँ पढ़ सकते हैं और “मेरे मन की” पर सुन सकते हैं. मगर सुनिए ज़रूर थोड़ा समय निकालकर. हम वादा करते हैं कि द मेकिंग ऑफ इबादत’ लेकर जल्दिये हाजिर होंगे! तब तक के लिए... मजा लीजिए एगो बेहतरीन कहानी का और चार अलग-अलग सहर में रह रहे लोग के सम्मिलित प्रयास का.



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कथा: ओ. हेनरी की A Service of Love

पटकथा व संवाद: अनुभव प्रिय

संवाद-संपादन: सलिल वर्मा

पार्श्व-संगीत संयोजन: ठाकुर पद्म सिंह

पात्र – परिचय

(जिस क्रम में वे नाटक में प्रकट होते हैं)

मकान मालिक: सलिल वर्मा
नलिनी: अर्चना चावजी
अभिनव: अनुभव प्रिय



(कमरे की चौखट पर गुस्से में चिल्लाता हुआ मकान-मालिक किराए की माँग कर रहा है और नलिनी घर के काम के बीच हाँफती हुई जवाब देती जा रही है, कुछ खीझती और कुछ झल्लाती हुई)

मकानमालिक: (चीखकर) समझी कि नहीं? हम कह देते हैं हाँ? जनाब चित्तरकार हैं और आप मैडम, गायिका हैं ना?!..हँ! बाकी देखिए, एक बात कान खोलकर सुन लीजिए, आपलोग का करते हैं और का नहीं, हमको उससे कोई मतलब नहीं है!! हमको हमारा मकान का किराया पहिला तारीख को मिल जाना चाहिए, समझीं मैडम? (रौब से) हम एकदम साफ़ बात करते हैं- बस! पतिदेव आयें तो बता दीजियेगा उनको भी...चलते हैं| अऊर हाँ, एक बात नोट कर लीजिए, अगिला बार हम इहाँ आएँगे नहीं, आप लोग इहाँ से जाएंगे!! जय राम जी की!!

नलिनी: (खिसियानी हँसी हंसते हुए) जी! मैं समझ गयी. आपको शिकायत का मौक़ा नहीं मिलेगा. (उसे जाते
हुए देखती है और कुछ गुस्से और अफसोस के साथ खुद से कहती है) उफ़!!! ये मकान-मालिक भी सिर पर
सवार हो जाता है| मगर क्या करूँ. कुछ भी सही नहीं हो रहा. (गुनगुनाने लगती है)
       न जाने क्यूँ/होता है ये ज़िंदगी के साथ
      अचानक ये मन/ किसी के जाने के बाद
      करे फिर उसकी याद/छोटी छोटी से बात
(गाने के स्वर गुनगुनाते हुए फेड आउट होते हैं. और तभी अभिनव कमरे में प्रवेश करता है)
अभिनव: नलिनी! नलिनी!! ये क्या, तुमने दरवाज़ा खुला छोड़ रखा है! क्या बात है, कोई आया था क्या?  
(दरवाज़े के बंद होने की आवाज़-खटक!)
नलिनी: (‘सब कुछ ठीक हो जाएगा’ वाला भाव लेकर थोड़ा गर्म जोशी से और हंस कर) और कौन आएगा! वही ‘यमराज’ आया था, किराया मांगने, लगता है यमलोक में भी मंदी छाई है!
अभिनव:  ओह! कल ही तो उससे बात की थी मैंने. हद्द करता है (गंभीर और परेशान होकर) अच्छा, तुम्हारे उस इश्तहार का क्या हुआ? कोई जवाब आया??
नलिनी: (सकपकाती सी) इश्श...इश्तहार? अरे हाँ हुआ ना! एक जगह से बुलावा आया था... और मैं तो हो भी आई वहाँ से|
अभिनव: कहाँ से?
नलिनी: हैं एक कर्नल जे. डब्ल्यू. एन. सिंह. (थोड़े जोश से) यहीं, पास में ही रहते हैं. उनकी बेटी को संगीत सिखाना है.
अभिनव: (थोड़ा गुम-सा होकर) क्या नाम बताया तुमने? कर्नल..
नलिनी: जे-डब्ल्यू-एन सिंह! और उनकी बेटी प्रभा | नीलिमा नाम है वैसे, पर घर में सब उसे प्रभा ही बुलाते हैं. अभी-अभी पन्द्रह की हुई है|... जानते हो, बड़ी ही अच्छी लड़की है| शालीन और सुशील...
अभिनव: (थोड़ी चिंता में) पर नलिनी! मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा कि कि मेरी आर्ट् की पढाई के लिए, तुम अपने म्यूजिक का शौक छोडकर, सौ दो सौ रुपयों की ट्यूशन के लिए भाग-दौड़ करो.. तुम भी तो आगे म्यूजिक जारी रखना चाहती थी ना? और अब मेरे लिए तुम..
अभिनव: (गर्मजोशी से) फिर वही बात, अभि! (पास आकार बैठती है) क्या मैं तुम्हारे लिये इतना भी नहीं कर सकती? पत्नी हूँ तुम्हारी! Your better half! और ये सब मैं तुम्हारे बेटरमेंट के लिए ही कर रही हूँ... एक बार पैसे आने लगें तो फिर सारी मुश्किलें खत्म हो जायेंगी... और जानते हो, कर्नल सा’ब मुझे तीन हज़ार देने को राजी हो गए हैं!
अभिनव: तीन हज़ार!!      
नलिनी: हाँ अभिनव हाँ!.. अब ज़्यादा सोचो मत. फिलहाल तुम शंकर पिल्लै की क्लासेज में अपने आर्ट को निखारने पर ध्यान दो... अच्छा जल्दी से हाथ-मुँह धो लो, मैं खाना लगाती हूँ!

(बैकग्राउंड में बजने वाला संगीत अचानक तेज हो जाता है और धीरे धीरे फेड आउट होता है)
अभिनव: नलिनी! (अचानक खुशी से) एक खुशखबरी दूं तुम्हें!! पता है, शंकर सर को मेरी पार्क-वाली पेंटिंग बहुत अच्छी लगी. उनके कहने पर राजेन ने उसे अपनी दूकान के लिए ले लिया है. कहता है वो पेंटिंग तुरत बिक जायेगी. उसके बिकने पर मुझे ज़रूर मिलेगा.. पैसा भी और मौक़ा भी!
नलिनी: (खुशी से) अरे वाह! ये तो बड़ी अच्छी बात है!! कितनी रोटियां दूं?
अभिनव: दो-तीन दे दो... और हाँ! कल सुबह-सुबह ही निकालना होगा मुझे| शंकर सर ने सनराइज़ की पेंटिंग बनाने को कहा है|
नलिनी: सनराइज़? हाउ रोमांटिक!! वैसे मुझे भी कर्नल सा’ब के बंगले पर जाना होगा, कल से ही. उनका घर जानते हो, कित्ता बडा है? बाप रे! और बंगले के आगे लॉन.. और (बीच ही में टोकता है)
अभिनव: ज़िंदगी नें ये कैसी करवट ली है, नलिनी! हमारे सपनों की नाव जैसे मझधार में ही अटक के रह गयी है.. पता नहीं हम उस पार कैसे जायेंगे?
नलिनी: (शान्ति से) अभि तुम भी ना...!! भूल गए.. ‘जो अपने हुनर को चाहता है, उसे ज़िंदगी में कोई रोक नहीं पाता!’
अभिनव: अरे! ये क्या!! बुरे वक़्त ने तुम्हें भी शेरो-शायरी सिखा दी?(दोनों हंसने लगते हैं) ये भी अच्छी बात है|

(संगीत तेज हो जाता है और आहिस्ता आहिस्ता बंद हो जाता है)

नलिनी: आ-ई-ये मेहर-बां..! बैठिये जाने जाँ! (गाते हुए स्वागत करती है अभिनव का)
अभिनव: इस गाने पर तो रुपये लुटाने का जी चाह रहा है!!
नलिनी: (बड़ी खुशी से) अरे-वाह! हज़ार रूपए?
अभिनव: हाँ! और सुनो, उस यमराज को भैसे के चारे के लिए पैसे दे आया हूँ!
नलिनी: मगर ये पैसे आये कहाँ से?? (मुस्कुराती हुई) ओह्हो!! वो पेंटिंग बिक गयी क्या?
अभिनव: ठीक समझी. और जानती हो खरीददार कौन था? जयपुर के राजघराने के एक राजा साहब.. घूमने आए हैं यहाँ.. बस रीझ गए पेंटिंग पर.
नलिनी: (विस्मय से) ‘जयपुर’ के राजघराने से? यकीन नहीं आ रहा!! हे भगवान, तेरा लाख लाख शुक्र है!
अभिनव: खैर, तुम बताओ, तुम्हारा दिन कैसा रहा?
नलिनी: ठीक ही था वैसे तो... लेकिन प्रभा सीख ही नहीं पाती है आसानी से.. और...और ऊपर से उसे सर्दी भी हो गयी है, ऐसे में ना तो वो गा ही पाती है और ना ही प्रैक्टिस कर पाती है|
अभिनव: कोई बात नहीं! अभी बीमार है.. सीख जायेगी धीरे-धीरे|
नलिनी: (एक छोटे से पौज़ के बाद) हे अभिनव!!! कहाँ खो गए तुम!!
अभिनव: हूँ....जानती हो, राजा सा’ब को एक और पेंटिंग चाहिए और वो भी फिर से वही सनराइज़ वाली| (खीज कर) क्या करूँ अब!!
नलिनी: करना क्या है! सुबह सुबह निकल जाना.
अभिनव: सुबह तो निकालना ही पडेगा... सूरज तो सुबह को ही निकलता है|

(सीन चेंज के लिए एक संगीत)

अभिनव: (विस्मय से) ओफ्फोह नलिनी! आज तो बड़ी देर कर दी तुमने? आज तो मैं तुमसे भी पहले (तभी उसकी नज़र नलिनी के हाथ पर बंधी पट्टी पर पडती है) अरे, ये क्या! ये हाथ पर पट्टी क्यों बांधी रखी है? दिखाओ? (हडबडा कर उठता है. कुर्सी के पीछे खिसकने की आवाज़)
नलिनी: (दर्द में है मगर दिखाना नहीं चाहती, हालाँकि छुपा भी नहीं पा रही)
       ओह! कुछ नहीं बस..ऐसे ही.. ठीक हो जाएगा..
अभिनव: उफ़!! आओ यहाँ बैठो! कोई दवाई लगाई है क्या? कैसे लगी ये चोट!
नलिनी: प्रभा के लिए पानी गर्म कर रही थी... उसे सर्दी लग गयी है ना और उस समय घर पर कोई भी नहीं था तो मैंने सोचा मैं ही गर्म कर देती हूँ.. बस गर्म पानी हाथ पर गिर पड़ा..
अभिनव: ओह्हो! नलिनी!! तुम भी ना...
नलिनी: अभिनव, मैं बिलकुल ठीक हूँ! प्रभा को बहुत अफसोस हो रहा था.. उसने तुरत नीचे से ड्राइवर को आवाज़ लगाई और वो ड्राइवर भी देखो ना... बैंडेज की जगह गाड़ी साफ़ करने वाले डस्टर की पट्टी बाँध दी उसने. (हंसते हुए) भला डस्टर की पट्टी बांधता है कोई..??
अभिनव: हाँ क्यों नहीं बांधता. बशर्ते कि वो तुमसे उतना ही प्यार करता हो, जितना मैं.
नलिनी: मैं समझी नहीं!!
अभिनव: (उसकी बात पर ध्यान दिए बिना) सच सच बताओ! तुम दो हफ़्तों से कर क्या रही हो..??
नलिनी: क्या कर रही हूँ? मतलब??
अभिनव: (इत्मिनान से) हाँ, क्या कर रही हो? प्रभा, कर्नल और म्यूजिक ट्यूशन???
नलिनी: अभिनव! मैं..मैं... अब नहीं छुपाऊँगी तुमसे!! दरअसल मेरे इश्तहार का कोई जवाब नहीं आया और मैं ये भी नहीं चाहती थी कि तुम अपनी क्लासेज छोडो... बस मैंने पास की लौंड्री में कपडे आयरन करने की नौकरी कर ली...
अभिनव: और कर्नल जे.डब्ल्यू.एन सिंह और प्रभा ?
नलिनी: (हंसती हुई) कर्नल जे.डब्ल्यू.एन सिंह को नहीं जानते? फिल्म ‘छोटी सी बात’ में अशोक कुमार के किरदार का नाम था.. तुम्हारे सामने कहानी बनाते वक़्त यही नाम सबसे पहले आया और प्रभा, उसी फिल्म की हिरोइन, विद्या सिन्हा का नाम.. (हंसने लगती है)
अभिनव: ( भाव शून्य) और ये हाथ कैसे जला?
नलिनी: (अनमने ढंग से) आयरन करते वक़्त गलती से... (प्यार जताते हुए) तुम नाराज़ तो नहीं हो ना मुझपर? मैं करती ही क्या? बताओ...ये कहानी ना गढी होती तो क्या तुम जयपुर के महाराजा को अपनी पेंटिंग बेच पाते?
अभिनव: वो जयपुर का था ही नहीं|
नलिनी: जहाँ का भी था!.. (अचानक चौंककर) एक मिनट, एक मिनट!! तुम्हें क्यूँ लगा कि मैं प्रभा को म्यूजिक नहीं सिखा रही?
अभिनव: वो प्यार भरी पट्टी!! बैंडेज की जगह डस्टर की. उसी ने समझाया मुझे!! वरना मैं कहाँ समझा था? और शायद समझ भी ना पाता, अगर खुद मैंने ये डस्टर की पट्टी लौंड्री से ऊपर उस लड़की के लिए नहीं भेजी होती जिसने आयरन से अपना हाथ जला लिया था.  
नलिनी: (अति विस्मय से) क्या! तुमने!! और तुम वहाँ कर क्या रहे थे??
अभिनव: मैं पिछले दो हफ़्तों से उसी लौंड्री में कपडे धो रहा हूँ|
(दोनों खूब जोर जोर से हंसने लगते हैं)
अभिनव: (हंस कर) जयपुर के महाराजा, कर्नल जूलियस विल्फ्रेड नागेन्द्रनाथ सिंह और प्रभा... कितनी अजीब कलाकृतियां हैं|
नलिनी: (हंसते हुए) पर ये कला, ना तो संगीत है और ना ही चित्रकारी..
(दोनों मिलकर हँसते हैं)
अभिनव: सच है ना, जब कोई अपने हुनर को चाहता है...
नलिनी: ( हंस कर) अ-अ! यूं कहो कि जब कोई किसी को शिद्दत से चाहता है...


(दोनों की हँसी एक मधुर संगीत में फेड आउट हो जाती है)