सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

हे मातृ रूप! हे विश्व-प्राण की प्रवाहिका!! हे नियामिका...!!!

आसमान में बनते हैं रिश्ते सारे
या पिछले जन्मों का कोई सम्बन्ध कभी होता होगा
ये सब कहने की बातें हैं
इक रोज़ मगर जाने कैसे मैं घूम रहा था आवारा
इक कविता की ठण्डी सी छाँव के नीचे थककर बैठ गया
एक बिटिया की रुख़सती की बातें थीं शायद
वो छाँव मुझे आँसू की छाँव लगी लगने
बस याद रहा कि मैं भी बाप हूँ बेटी का
उस दर्द से इक रिश्ता पनपा
जिस रिश्ते ने ना जाने कितना प्यार दिया


जिनको देखा भी नहीं
पढा भर है जिनको
जिनके ख़त हाल मेरा पूछा करते हरदम
जो डाँट लगाती हैं मुझको ख़त में लिखकर
विदुषी हैं, फिर भी मान मेरा करतीं हरदम
मेरी बातों पर ध्यान सदा देतीं बढ़कर

विद्वान बड़े, बहुतेरे देखे दुनिया में  
सम्मान सभी का करे वही विद्वान है सच्चा
उनकी सराहना पाकर दिल खुश हो जाता
उनकी रचनाएं सदा नया कुछ सिखलातीं
उनकी स्नेहिल छाया में सीख रहा हूँ मैं
लेकिन इक बात है गहरे पैठ गई मन में
रिश्ते बनते हैं आसमान पर बात ग़लत है
धरती पर मैंने ये रिश्ता पाया है
उनका परिचय - उनकी कथा कहानी है
उनका परिचय - कविता की वो रवानी है
उनका परिचय है वृहत साहित्य सम्पदा
मैं तो बस उनको प्रणाम कर सकता हूँ

जन्मदिवस है माँ प्रतिभा सक्सेना का
यही प्रार्थना है प्रभु से
दीर्घायु हों और स्वस्थ वो रहें सदा-सर्वदा
सिर पर मेरे बना रहे आशीष-छत्र
                                  प्रतिभा अम्मा का!


इस पोस्ट का शीर्षक डॉ. प्रतिभा सक्सेना की कविता की पंक्तियों से उद्धृत है!