यस्तित्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेsर्जुन।
कर्मेन्द्रियै
कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते॥ (गीता 3/7)
परंतु हे अर्जुन!
जो मनुष्य मन से इन्द्रियों पर नियंत्रण करके आसक्तिरहित होकर कर्मेन्द्रियों के
द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।
आदत, ब्यसन,
वासना या इच्छा के साथ एगो बात है कि अच्छा लगता नहीं है अऊर बुरा छूटता नहीं।
उनको भी ऐसने एगो आदत सायद इस्कूल के टाइम से लगा था... सिगरेट पीने का। ऐसहिं
देखा-देखी सुरू होने वाला मजा के लिये मजाक में किया गया प्रैक्टिस धीरे-धीरे आदत
बनता गया। ई आदत आदमी का दोसरा बेक्तित्व बन जाता है अऊर एतना सहज होता है कि उसको
पते नहीं चलता है कि उसके अन्दर एगो दोसरा आदमी भी जनम ले चुका है। उनके मामू एक
रोज उनसे पूछे कि बेटा आजकल सिगरेट पीने लगे हो का, त ऊ एकदम कॉनफिडेंस के साथ
बोले, “नहीं तो!” तब मामू उनके कान पर खोंसा हुआ आधा जला सिगरेट देखाकर पूछे कि ई
का है बबुआ! अऊर उनको काटो त खून नहीं।
धुँआधार धूम्रपान
करने वाला परिवार था उनका। उनके पिताजी बीड़ी पीते थे, उनके भाई थे एगो जो पहिले लुका
छिपाकर अऊर बाद में सामने सिगरेट पीने लगे थे, उनके ममेरा भाई जो उनसे छौ महीना
बड़ा थे (ओही मामू के सुपुत्र) उनको भी सिगरेट का लत था। अब जब अइसा माहौल हो त हर फिकिर
को उड़ाने का एक्के तरीका होता था – धुँआ में। बस जिन्नगी का साथ निभाते चलिये अऊर
हर फिकिर को धुँआ में उड़ाते चलिये।
मगर आदमी थे ऊ
गजब के इस्मार्ट। जब सादी बियाह हो गया, नौकरी-चाकरी लग गया, बाल-बच्चा हो गया, तब
ई सिगरेट का आदत भी साथे-साथ बढता गया अऊर उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी भी
जवान होता गया। जबसे हमको इयाद आता है, हम उनको सिगरेट बनाकर पीते हुये ही देखे।
बनाकर माने – टोबैको-पाउच से तम्बाकू निकालना अऊर सिगरेट का कागज में लपेटकर
बनाना।
उनका पसन्दीदा
ब्राण्ड होता था कैप्स्टन – नेवी कट अऊर बाद में विल्स। पटना में ई
वाला तम्बाकू खाली दू दुकान में मिलता था – जे. जी. कार एण्ड संस अऊर डी. लाल एण्ड
संस। जब ऊ तम्बाकू पाउच से निकालकर, सिगरेट-पेपर में लपेटते थे अऊर जीभ पर ऊ कागज
में लगा हुआ गोंद को गीला करके सिगरेट बनाते थे, त हमरे भी मुँह से निकल जाता था
कि क्या इस्टाइल है! सिगरेट चीज केतनो बुरा हो, मगर इस्टाइल के मामले में प्राण से
लेकर असोक कुमार तक अऊर रहमान से सतरुघन
सिन्हा तक एही सिगरेट चार चाँद लगा देता था।
ओइसहिं उनका भी
अन्दाज था, हाथ से बनाकर सिगरेट पीने का। एक रोज अचानक उनको महसूस हुआ कि एक आँख
से उनको देखने में दिक्कत हो रहा है। जब भी कोनो चीज को देखते थे, त ऊ चीज
टुकड़ा-टुकड़ा में देखाई देता था। डॉक्टर से सलाह लिया गया त पता चला कि ब्लड-प्रेसर
बढने के कारन आँख में हेमरेज हो गया है। लम्बा ईलाज चला अऊर सब नॉर्मल हो गया,
सिगरेट पीना भी।
दवाई चलता रहा
अऊर तबियत बीच-बीच में ऊपर नीचे होता रहता था। एक रोज ऐसहिं जब डॉक्टर डी. के.
स्रीवास्तव को देखाने गये, त ऊ दवाई के साथ एक्के बात बोले, “वर्मा जी! आप
सिगरेट छोड़ दीजिये। ये आपके लिये सुसाइड जैसा है!” कमाल ई था कि ऊ डॉक्टर साहब
खुद धुँआधार सिगरेट पीते थे।
डॉक्टर के
किलीनिक से निकलते हुये ऊ सिगरेट बनाए अऊर हाथ में बिना सिगरेट जलाए पैदल चलने लगे,
कुछ सोचते हुए। रास्ता में एगो कचरा का डिब्बा देखाई दिया। ऊ हाथ का बिना जलाया
हुआ सिगरेट कचरा में फेंक दिये अऊर कुछ सोचते हुये तम्बाकू का पूरा नया पाउच भी कचरा
में डाल दिये। ऊ दिन अऊर उनका अंतिम दिन, सिगरेट को कभी हाथ नहीं लगाए। असल में
उनके अन्दर का सिगरेट पीने वाला आदमी एतना ताकतवर हो गया था कि ऊ आदमी जो सिगरेट
छोड़ना चाहता था (जिसका उमर जाहिर है बहुत कम रहा होगा) उसको डराकर भगा देता था।
ओशो कहते हैं कि
हम उम्र भर, जन्म से लेकर मृत्यु तक, इन्द्रियों से पूछते चले जाते हैं कि हम क्या
करें। इन्द्रियाँ बताए चली जाती हैं और हम करते चले जाते हैं। इसलिये हम शरीर से
ज़्यादा कोई अनुभव नहीं कर पाते हैं। आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है और मनुष्य
की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है।
जिनके एक पल में
घटित होने वाला संकल्प सक्ति का हम आपको खिस्सा अभी सुनाए ऊ थे हमरे पिताजी। ऊ
हमेसा कहते थे हमसे कि अगर कभी सिगरेट पीना सुरू करो त हमको जरूर बता देना, ताकि ऊ
बात कोई बाहर का लोग हमको बताए त हमको अफसोस नहीं हो कि तुमसे पता नहीं चला। हम
इस्मार्ट जरूर हैं, लेकिन एतना इस्मार्ट नहीं कि जाकर अपने पिताजी से कहें कि डैड,
हम सिगरेट पीने लगे हैं! बस, कभी पीबे नहीं किए! आज भी ऊ तम्बाकू का खुसबू हमारे
मन में बसा हुआ है।