१९७० के दसक का सुरुआत - पटना:
इस्कूल में पढते थे, पटना का एगो हिन्दी इस्कूल. जासूसी कहानी का चस्का सुरुए से था. माताजी इब्ने सफी, बी.ए. की सौखीन अऊर हम पढते थे हिंद पॉकेट बुक्स से निकलने वाला कर्नल रंजीत का उपन्यास. हमरे साइंस के गुरूजी सिच्छक कम दोस्त जादा थे, बोले कि अगर इतने सौख है थ्रिल्लर पढ़ने का तो जेम्स हेडली चेज़ पढकर देखो. गुरूजी का सुझाव... इनकार नहीं कर सकते थे. मगर दू गो समस्या बिकट था. अंगरेजी उपन्यास पढ़ने से “ब्लैक सिप” बनने का ख़तरा त था ही, साथ में सबसे बड़ा समस्या था जेम्स हेडली चेज का कभर. घरे लेकर गए त पिटाई पक्का था. गुरूजी समझ गए. अपना कलेक्सन से दिए एगो किताब.
बास्तव में जेम्स हेडली चेज का किताब दू गो अलग-अलग प्रकासन से छपता था. पैंथर अऊर कोर्गी प्रकासन. पैंथर प्रकासन के किताब में अपराधी थीम का कभर होता था जबकि कोर्गी के जिल्द पर अधनंगी औरत का फोटो. पहिला किताब पढ़े “स्ट्रिक्टली फॉर कैश”. थ्रिल पराकाष्ठा पर पहुँच गया. उसके बाद रुके नहीं. आज भी पटना में हमरे आलमारी में जेम्स हेडली चेज का लगभग सब उपन्यास भरा हुआ है. उपन्यास का नाम भी बेजोड होता था.. डेड स्टे डम, ले हर अमंग द लिल्लीज़, वेल नाऊ, माई प्रेटी, यू फाइंड हिम, आई’ल फिक्स हिम, लाइक अ होल इन द हेड. जोकर इन द पैक. हिन्दी थ्रिल्लर के मोकाबले जादा थ्रिल्लिंग.
उमर बढ़ने के साथ जब हिन्दी अपराध सिनेमा देखने लगे तब लगा कि सब उसी सब उपन्यास का नक़ल है. पर साल एगो सिनेमा देखे ‘जॉनी गद्दार’. शानदार थ्रिल, मगर सबसे जादा खुसी ई बात से हुआ कि ई फिलिम समर्पित किया गया था “जेम्स हेडली चेज़” को. खुसी हुआ कि कोइ त ईमानदार निकला.
सन २००८ – दिल्ली:
मोटर साइकिल पर सवार हम अऊर चैतन्य ऑफिस से लौट रहे थे. इधर-उधर का बात करते हुए, जिसमें ऑफिस का सिकायत, राजनीति का झूठ, साहित्य का गतिबिधि अऊर कुछ ब्यक्ति़त बातचीत. सिनेमा का भी बात होते रहता था बीच-बीच में. अचानक ऊ बोले, “मेरे नाना जी भी फ़िल्में बनाया करते थे.”
“नाना जी?”
“हाँ! मेरी माँ के चाचा जी!”
फिलिम के नाम पर त हम चर्चा छोडिये नहीं सकते हैं. बात आगे बढाए हम पूरा दिलचस्पी से.
“कौन हैं वो? कौन सी फिल्म बनाई है उन्होंने?”
“मिथुन चक्रबर्ती की सीरीज़ थी न, जी-नाइन वाली! और वो रानी और लालपरी. वही.” उनके आवाज में झिझक भी था अऊर संकोच भी अऊर डाउट भी कि पता नहीं हम उनको पहचान पायेंगे भी कि नहीं.
“अरे कौन! कहीं आप रवि नगाइच की बात तो नहीं कर रहे!!”
“हाँ वही! आप जानते हैं उनको?”
“जानते हैं??? अरे हम तो फैन हैं उनके!”
चैतन्य को लगा होगा कि हम मजाक कर रहे हैं. जबकि उनको हम ई भी नहीं बताए थे कि हमारा फुफेरा भाई राकेस त उनका जबरदस्त फैन है, ऊ का कहते हैं डाई-हार्ड फैन.
“ऐसे कोइ हिट डायरेक्टर तो नहीं हैं वो, फिर आप कैसे जानते हैं?”
“अरे वो तो डायरेक्टर बाद में हैं! पहले तो वो सिनेमैटोग्राफर हैं!”
अब बारी था उनके चौंकने का अऊर खुस भी हुए ऊ हमरे जानकारी पर, इत्मीनान भी हुआ उनको कि जब हम इतना जानते हैं त सचमुच पसंद करते होंगे अऊर कम से कम मुंह देखकर नहीं बोल रहे हैं.
“बिलकुल सही सलिल भाई! मैंने ये बात इसलिए नहीं बताई कि शायद आपको पता हो या नहीं.”
“कैसी बात करते हैं सर! पता नहीं आपको मालूम है या नहीं लेकिन बता दें कि एक्सपेरिमेंटल फोटोग्राफी में उनका कोइ जवाब नहीं. उनकी एक फिल्म आई थी “काला सोना”, मेकेन्नास गोल्ड की नक़ल थी. उसमें आर. डी. बर्मन ने एक गाना कम्पोज किया था जो आशा भोसले की आवाज़ में था. उस गाने को ऐसा रिकार्ड किया गया था कि वो ड्यूएट लगता था. रवि नगाइच साहब की फोटोग्राफी में हीरोइन परदे पर दो-दो दिखाई देती थी और दोनों अलग अलग आशा भोसले की आवाज़ में गा रही होती थीं. हिन्दी फिल्मों में ऐसी फोटोग्राफी नई थी.”
“सलिल भाई! कमाल हो आप! मैं तो किसी को यह बात नहीं बताता था झिझक से. मगर आपने तो मुझे भी चुप करा दिया.”
सन २०१२ – दिल्ली, चंडीगढ़:
दस दिन पहले अचानक एक रोज रात में हम दुनो, हम अऊर चैतन्य, फोन पर बतिया रहे थे कि नाना जी यानि रवि नगाइच साहब का चर्चा निकल गया. बहुत सा बात पता चला. १९३१ में अतरौली, उत्तर परदेस में ब्राह्मण परिबार में पैदा हुए. मगर सौख सिनेमा के तरफ खींच कर ले गया. फोटोग्राफी पहिला सौख था. रंग एकदम काला, इसलिए कोंट्रास्ट में उजला कपड़ा पहिनते थे. फ़िल्मी जिन्नगी का सुरुआत साउथ से किये, धार्मिक फिलिम ‘सीता राम कल्याणम’ (एन.टी.आर. का फिलिम). फोटोग्राफर थे इसलिए धार्मिक फिलिम में ट्रिक फोटोग्राफी अऊर प्रयोग करने का बहुत गुन्जाईस था. अपने जैसा उजला ड्रेस पहिनाकर जीतेंद्र को जेम्स बोंड टाइप बना दिए फिलिम “फ़र्ज़” में. अऊर जीतेन्दर हिट. बाद में एही काम ऊ मिथुन चक्रवर्ती के साथ, फिलिम ‘वारदात’ अऊर ‘सुरक्षा’ में, जी-नाइन एजेंट बनाकर किए. उनके फोटोग्राफी का कमाल एतना जबरदस्त था कि मसहूर अंगरेजी फिलिम “एक्जोर्सिस्ट” पर आधारित फिलिम “जादू-टोना” जब ऊ बनाए, त ऊ फिलिम इतना डरावना बना (उनके फोटोग्राफी के कारन) कि तीन साल तक पर्तिबंध लगा रहा ऊ सिनेमा पर. दोसरा तरफ बच्चा लोग का सिनेमा “रानी और लालपरी” त का मालूम केतना बार देखाया है टीवी पर. फिलिम देखिये के लगता है कि ई आदमी डायरेक्टर कम फोटोग्राफर अधिक है.
उनका आख़िरी सिनेमा हम देखे थे “शपथ”. इसमें स्मिता पाटील का डबल रोल था. कमाल का डबल रोल. दुनो रोल में स्मिता पाटील इतना अंतर पैदा की थी कि दुनो एक्टिंग अऊर चरित्र में समानता खोजना मोसकिल था. ऐक्टर के खूबी के साथ-साथ ई डायरेक्टर का खूबी भी था.
जेम्स हेडली चेज के थ्रिल का कमाल और रविकांत नगाइच जी के फोटोग्राफी का जादू, सुनने में अलग अलग लग सकता है, मगर देह में जो सिहरन पैदा होता है ऊ एक्के है. चैतन्य जी से जब से ई रिस्ता के बारे में पता चला है, तब से हम उनको नाना जी ही कहते हैं. नाना जी ने हमरे थ्रिल के नसा को पर्दा पर साकार किया है. अपने समय से आगे के सिनेमैटोग्राफर और हमसे पूछिए त उनके लिए एक्के सब्द है हमरे पास – जादूगर!