रविवार, 29 जनवरी 2012

जादूगर


१९७० के दसक का सुरुआत - पटना:
इस्कूल में पढते थे, पटना का एगो हिन्दी इस्कूल. जासूसी कहानी का चस्का सुरुए से था. माताजी इब्ने सफी, बी.ए. की सौखीन अऊर हम पढते थे हिंद पॉकेट बुक्स से निकलने वाला कर्नल रंजीत का उपन्यास. हमरे साइंस के गुरूजी सिच्छक कम दोस्त जादा थे, बोले कि अगर इतने सौख है थ्रिल्लर पढ़ने का तो जेम्स हेडली चेज़ पढकर देखो. गुरूजी का सुझाव... इनकार नहीं कर सकते थे. मगर दू गो समस्या बिकट था. अंगरेजी उपन्यास पढ़ने से “ब्लैक सिप” बनने का ख़तरा त था ही, साथ में सबसे बड़ा समस्या था जेम्स हेडली चेज का कभर. घरे लेकर गए त पिटाई पक्का था. गुरूजी समझ गए. अपना कलेक्सन से दिए एगो किताब.
बास्तव में जेम्स हेडली चेज का किताब दू गो अलग-अलग प्रकासन से छपता था. पैंथर अऊर कोर्गी प्रकासन. पैंथर प्रकासन के किताब में अपराधी थीम का कभर होता था जबकि कोर्गी के जिल्द पर अधनंगी औरत का फोटो. पहिला किताब पढ़े “स्ट्रिक्टली फॉर कैश”. थ्रिल पराकाष्ठा पर पहुँच गया. उसके बाद रुके नहीं. आज भी पटना में हमरे आलमारी में जेम्स हेडली चेज का लगभग सब उपन्यास भरा हुआ है. उपन्यास का नाम भी बेजोड होता था.. डेड स्टे डम, ले हर अमंग द लिल्लीज़, वेल नाऊ, माई प्रेटी, यू फाइंड हिम, आई’ल फिक्स हिम, लाइक अ होल इन द हेड. जोकर इन द पैक. हिन्दी थ्रिल्लर के मोकाबले जादा थ्रिल्लिंग.
उमर बढ़ने के साथ जब हिन्दी अपराध सिनेमा देखने लगे तब लगा कि सब उसी सब उपन्यास का नक़ल है. पर साल एगो सिनेमा देखे ‘जॉनी गद्दार’. शानदार थ्रिल, मगर सबसे जादा खुसी ई बात से हुआ कि ई फिलिम समर्पित किया गया था “जेम्स हेडली चेज़” को. खुसी हुआ कि कोइ त ईमानदार निकला.

सन २००८ – दिल्ली:
मोटर साइकिल पर सवार हम अऊर चैतन्य ऑफिस से लौट रहे थे. इधर-उधर का बात करते हुए, जिसमें ऑफिस का सिकायत, राजनीति का झूठ, साहित्य का गतिबिधि अऊर कुछ ब्यक्ति़त बातचीत. सिनेमा का भी बात होते रहता था बीच-बीच में. अचानक ऊ बोले, “मेरे नाना जी भी फ़िल्में बनाया करते थे.”
“नाना जी?”
“हाँ! मेरी माँ के चाचा जी!”
फिलिम के नाम पर त हम चर्चा छोडिये नहीं सकते हैं. बात आगे बढाए हम पूरा दिलचस्पी से.
“कौन हैं वो? कौन सी फिल्म बनाई है उन्होंने?”
“मिथुन चक्रबर्ती की सीरीज़ थी न, जी-नाइन वाली! और वो रानी और लालपरी. वही.” उनके आवाज में झिझक भी था अऊर संकोच भी अऊर डाउट भी कि पता नहीं हम उनको पहचान पायेंगे भी कि नहीं. 
“अरे कौन! कहीं आप रवि नगाइच की बात तो नहीं कर रहे!!”
“हाँ वही! आप जानते हैं उनको?”
“जानते हैं??? अरे हम तो फैन हैं उनके!”
चैतन्य को लगा होगा कि हम मजाक कर रहे हैं. जबकि उनको हम ई भी नहीं बताए थे कि हमारा फुफेरा भाई राकेस त उनका जबरदस्त फैन है, ऊ का कहते हैं डाई-हार्ड फैन.
“ऐसे कोइ हिट डायरेक्टर तो नहीं हैं वो, फिर आप कैसे जानते हैं?”
“अरे वो तो डायरेक्टर बाद में हैं! पहले तो वो सिनेमैटोग्राफर हैं!”
अब बारी था उनके चौंकने का अऊर खुस भी हुए ऊ हमरे जानकारी पर, इत्मीनान भी हुआ उनको कि जब हम इतना जानते हैं त सचमुच पसंद करते होंगे अऊर कम से कम मुंह देखकर नहीं बोल रहे हैं.
“बिलकुल सही सलिल भाई! मैंने ये बात इसलिए नहीं बताई कि शायद आपको पता हो या नहीं.”
“कैसी बात करते हैं सर! पता नहीं आपको मालूम है या नहीं लेकिन बता दें कि एक्सपेरिमेंटल फोटोग्राफी में उनका कोइ जवाब नहीं. उनकी एक फिल्म आई थी “काला सोना”, मेकेन्नास गोल्ड की नक़ल थी. उसमें आर. डी. बर्मन ने एक गाना कम्पोज किया था जो आशा भोसले की आवाज़ में था. उस गाने को ऐसा रिकार्ड किया गया था कि वो ड्यूएट लगता था. रवि नगाइच साहब की फोटोग्राफी में हीरोइन परदे पर दो-दो दिखाई देती थी और दोनों अलग अलग आशा भोसले की आवाज़ में गा रही होती थीं. हिन्दी फिल्मों में ऐसी फोटोग्राफी नई थी.”
“सलिल भाई! कमाल हो आप! मैं तो किसी को यह बात नहीं बताता था झिझक से. मगर आपने तो मुझे भी चुप करा दिया.”

सन २०१२ – दिल्ली, चंडीगढ़:
दस दिन पहले अचानक एक रोज रात में हम दुनो, हम अऊर चैतन्य, फोन पर बतिया रहे थे कि नाना जी यानि रवि नगाइच साहब का चर्चा निकल गया. बहुत सा बात पता चला. १९३१ में अतरौली, उत्तर परदेस में ब्राह्मण परिबार में पैदा हुए. मगर सौख सिनेमा के तरफ खींच कर ले गया. फोटोग्राफी पहिला सौख था. रंग एकदम काला, इसलिए कोंट्रास्ट में उजला कपड़ा पहिनते थे. फ़िल्मी जिन्नगी का सुरुआत साउथ से किये, धार्मिक फिलिम ‘सीता राम कल्याणम’ (एन.टी.आर. का फिलिम). फोटोग्राफर थे इसलिए धार्मिक फिलिम में ट्रिक फोटोग्राफी अऊर प्रयोग करने का बहुत गुन्जाईस था. अपने जैसा उजला ड्रेस पहिनाकर जीतेंद्र को जेम्स बोंड टाइप बना दिए फिलिम “फ़र्ज़” में. अऊर जीतेन्दर हिट. बाद में एही काम ऊ मिथुन चक्रवर्ती के साथ, फिलिम ‘वारदात’ अऊर ‘सुरक्षा’ में, जी-नाइन एजेंट बनाकर किए. उनके फोटोग्राफी का कमाल एतना जबरदस्त था कि मसहूर अंगरेजी फिलिम “एक्जोर्सिस्ट” पर आधारित फिलिम “जादू-टोना” जब ऊ बनाए, त ऊ फिलिम इतना डरावना बना (उनके फोटोग्राफी के कारन) कि तीन साल तक पर्तिबंध लगा रहा ऊ सिनेमा पर. दोसरा तरफ बच्चा लोग का सिनेमा “रानी और लालपरी” त का मालूम केतना बार देखाया है टीवी पर. फिलिम देखिये के लगता है कि ई आदमी डायरेक्टर कम फोटोग्राफर अधिक है.
उनका आख़िरी सिनेमा हम देखे थे “शपथ”. इसमें स्मिता पाटील का डबल रोल था. कमाल का डबल रोल. दुनो रोल में स्मिता पाटील इतना अंतर पैदा की थी कि दुनो एक्टिंग अऊर चरित्र में समानता खोजना मोसकिल था. ऐक्टर के खूबी के साथ-साथ ई डायरेक्टर का खूबी भी था.
 
जेम्स हेडली चेज के थ्रिल का कमाल और रविकांत नगाइच जी के फोटोग्राफी का जादू, सुनने में अलग अलग लग सकता है, मगर देह में जो सिहरन पैदा होता है ऊ एक्के है. चैतन्य जी से जब से ई रिस्ता के बारे में पता चला है, तब से हम उनको नाना जी ही कहते हैं. नाना जी ने हमरे थ्रिल के नसा को पर्दा पर साकार किया है. अपने समय से आगे के सिनेमैटोग्राफर और हमसे पूछिए त उनके लिए एक्के सब्द है हमरे पास – जादूगर!

बुधवार, 25 जनवरी 2012

एक अकेला उस शहर में!


हर सहर का अपना बिसेसता होता है. एही बिसेसता ऊ सहर का पहचान बन जाता है. आगरा का ताजमहल, दिल्ली का क़ुतुब मीनार, मुम्बई का चौपाटी, कोलकाता का हावड़ा ब्रिज, लखनऊ का भूल-भुलैया, चंडीगढ का पत्थर-बाग (रॉक-गार्डन) आदि. इसके पीछे कुछ इतिहास अऊर कुछ पर्यटन का भी जोगदान है. मगर, हमरे लिए सहर का अलग पहचान है. हमरे लिए कोलकाता का मतलब मनोज कुमार, मुम्बई का मतलब रश्मि रविजा, अंशुमाला रस्तोगी, स्वप्निल और वर्तिका, इंदौर का मतलब अर्चना, जबलपुर का मतलब अनूप सुकुल, लखनऊ का मतलब गिरिजेस राव, बनारस का अर्थ पंडित जी अरविन्द मिसिर और देवेंदर पांडे, कानपुर का मतलब आचार्य परशुराम राय अऊर हरीश गुप्त, पुणे का मतलब क्षमा, चंडीगढ का मतलब चैतन्य आलोक अऊर मनोज भारती, चेन्नई का मतलब प्रसांत, मैनपुरी माने सिवम बाबू अऊर नोएडा माने सतीस सक्सेना होता है. एही नहीं, बिदेस में भी लन्दन का मतलब शिखा अऊर पीट्सबर्ग का मतलब इस्पात नगरी नहीं, अनुराग नगरी है.

पिछला हफ्ता ऑफिस के काम से बेंगलुरु जाने का मौक़ा मिला. जाने के पहिलहीं हमरा दिमाग में एक साथ तीन चार गो नाम घूम गया. हमरी सरिता दीदी अऊर बड़े भाई राजेस उत्साही, प्रिय भतीजा करण समस्तीपुरी अऊर भारतीय रेल के बहुत बड़ा अफसर, मगर सालीनता से भरपूर प्रवीण पांडे जी. अभिसेक हमरे जाने के पहिलहीं दिल्ली आ गया था. खैर, जाना फाइनल होते ही हम पहिला काम ई किये कि सब लोग को मेल करके अपने आने का इत्तिला कर दिए. सब लोग का जवाब भी आ गया. समस्या एही था कि हमरा कार्जक्रम ओहाँ जाकर कैसा रहता है. इसीलिये सनीबार को प्रोग्राम समाप्त होने के बावजूद भी हम इतवार के साम का फ्लाईट बुक किए थे, ताकि ई डेढ़ दिन हमरे हाथ में रहे अऊर हम ई लोग से मिल सकें.

पूरा हफ्ता एतना काम का ब्यस्तता रहा कि कहा नहीं जा सकता है. अऊर दू दिन के बाद घर का इयाद सताने लगा सो अलग. मन को समझाए. सरिता दीदी को फोन लगाए. उनके साथ सबसे बड़ा समस्या उनके स्वास्थ को लेकर है, इसी कारन हम उनको परेशानी में नहीं डालना चाहते थे. उनके प्यार के बारे में त कोनो संदेह नहीं किया जा सकता था. जेतना दिन रहे, लगभग हर रोज उनका फोन आता रहा. दिक्कत एही था कि हमरा फोन दिन भर बंद रहता था अऊर रात में देर से लौटने के कारन बात रात में ही हो पाता था.

करण जी अऊर राजेस जी दुनो आदमी का पाँच दिन हफ्ता वाला ऑफिस है, इसलिए सनीचर अऊर एतवार से ई लोग को कोनो परहेज नहीं था. सरिता दी को मना करके (उनका ड्राइवर नहीं था अऊर अकेले बाहर निकालना वर्टिगो के कारन ऊ हमेसा टालती हैं) हम तनी निश्चिंत हुए. अऊर सनीचर को भी देर से लौटने के बावजूद भी राजेस जी अऊर करण जी को फोन करके प्रोग्राम फाइनल किये कि बस अभिये हमलोग लाल-बाग में मिलेंगे. करण जी बताए कि उनको आधा घंटा लगेगा अऊर उत्साही जी को एक घंटा.

इसी बीच दू दिन पहले अभिसेक को दिल्ली फोन करके प्रवीण जी का नंबर मांगे, मगर ऊ नंबर गलत निकला (नंबर सही था, मगर उधर से कोइ गरज कर बोला, रौंग नंबर). प्रवीण जी को मेल किये कि या तो हमको फोन करें या अपना नंबर दें. जवाब नहीं आया त लगा कि मेल उनके नजर से छूट गया होगा. बाद में एसेमेस से ऊ खबर किये अपना नंबर. फोन से बतियाए, प्रोइग्राम बताए, त उनका ऑफिसियल ब्यास्तता के कारन ऊ भी असमर्थता जता दिए, मगर ब्रेक-फास्ट पर एतवार को आने का न्यौता जरूर दिए. ऊ हमको नकार देना पड़ा, काहे कि एतवार हमरे बेटी-दामाद के लिए रिजर्भ था.

लाल बाग पहुंचे त गणतंत्र दिबस के फ्लावर-सो के कारन टिकट का बिक्री पहिलहीं बंद कर दिया गया था. मगर जनता-राज में दरबान बोला कि दस रुपया का टिकट के बदला में तीस  रुपया देकर आप जा सकते हैं. उत्साही जी से मिलना हो अऊर हम भ्रष्टाचार का रास्ता अपनाएँ, ई भला कैसे हो सकता है! तुरते करण जी सामने आ गए. ब्लॉग पर देखाई देने वाला फोटो से जादा मासूम चेहरा अऊर सालीनता. हमरा पैर छुए अऊर फिर बात सुरू. साहित्य, ब्लॉग अऊर नाटक का बात. ई नाटक करने वाला लोग के मन में नाटक का ऐसा भायरस समा जाता है कि का कहें. करण जी के नाटक का जो अनुभव सुने, त सुनकर मजा आ गया. भबिस में पोस्ट लिखायेगा जरूर इसपर.

उत्साही जी का कोइ पता नहीं था अऊर हमलोग को सांझ के अन्धेरा में हर आने वाला आदमी राजेश उत्साही नजर आ रहा था. पता करना मोसकिल था कि हम सावन के अंधा थे कि परमात्मा के खोजी जिसको हर प्राणी में राजेस उत्साही का छबि देखाई दे रहा था. खैर ऊ आये. देर के लिए माफी भी मांगे. मगर हमको अंदर से अफ़सोस लग रहा था कि उनको परेसान होना पड़ा. मगर उनके चेहरा पर न थकान का कोनो निसान था, न परेशानी का. ब्लोगर-मीट के जगह, सड़क पर सुरू हुआ ब्लोगर मार्च. कभी रास्ता भुला गए, कभी भोजनालय में भीड़ के मारे भागे. मगर इस बीच बहुत सा बात हुआ. चिंता एक्के बात को लेकर था कि आजकल लिखना कम होता जा रहा है या कम हो चुका है. कविता पर भी बात हुआ अऊर आहिस्ते से बड़े भाई ने बताया कि उनका भी किताब छापने का तैयारी में है अरुण चंद्र राय जी के सौजन्य से.

करण जी इस बीच एकदम खामोस रहे. संस्कार से बंधे थे सायद कि जब दू गो बड़ा आदमी बात करे, तो बीच में नहीं बोलना चाहिए. उनका चुप्पी देखकर भरोसा ही नहीं हो रहा था कि एही आदमी ‘देसिल बयना’ लिखता होगा या ‘स्मृति शिखर से’. खाना खाए, मगर करण जी सेल्फ सर्भिस वाले होटल में हमको अपने हाथ से थाली लाकर दिए. बड़प्पन का एहसास हुआ. अऊर अपना संस्कार के प्रति अभिमान.

उत्साही जी के चेहरा से थकान लापता था अऊर खुसी बरस रहा था. कोइ बनावट नहीं. समय (जो बेंगलुरु के ट्रैफिक का भेंट चढ गया था) के अभाव में लगा जैसे मन नहीं भरा है. करण ने आग्रह किया कि चाचा जी हमारे घर चलिए. मगर बेटी को का जवाब देते इसलिए माफी मांग लिए. रात काफी हो गया था. बेंगलुरु का सड़क ऐसे भी सुनसान होने लगता है जल्दिये. हम ऑटो लेकर अपने होटल चले गए. करण जी अऊर राजेस उत्साही जी अपने घर के तरफ. होटल में करीब घंटा भर बाद फोन आया उत्साही जी का कि ऊ घर पहुँच गए अऊर हमको सूचित कर रहे थे. एकदम अपनापन.

एतवार बेटी अऊर दामाद के नाम रहा. सात साल बाद मिल रहे थे हम लोग. पूरा दिन उन लोग के साथ गाड़ी में घूमे-फिरे, शॉपिंग किये अऊर साम को वापस दिल्ली. आधा रात में जब घर पहुंचे त बेटी खुस. एक हफ्ता बाद परिबार से मिले. मगर मनेमन लग रहा था कि एगो परिबार पीछे छोड़ आये हैं.

रविवार, 15 जनवरी 2012

मगध का रंगयात्री


नाम के बारे में त का मालूम केतना लोग केतना तरह का बात कह गया है. मगर हम त एक्के बात जानते हैं कि नाम का असर इतना जबरदस्त होता है कि उसको सुनने के साथ ही दिमाग में फोटो खींच जाता है. हमरे साथ एक बार अइसहीं हुआ कि निम्मो दी (श्रीमती निर्मला कपिला) से मुलाक़ात हुआ, हम उनका पैर छुए अऊर ऊ हमको आसिरबाद भी दीं. पहिला बार मिले थे इसलिए नाम भी बताए,” सलिल!” मगर उनके चेहरा पर कोनो अपनापन नहीं देखाई दिया. बाद में हम सिकायत किये तब ऊ बोलीं कि हम तो चला बिहारी के नाम से जानते थे इसलिए भूल हुआ! अब बताइये नाम धरा का धरा रह गया अऊर पहचान बना बिहारी से!

फ्लैस – बैक
आठ-नौ साल के उम्र में जब आकासबानी पटना से बतौर बाल-कलाकार जुड़े, तब बहुत से कलाकार से परिचय हुआ. हर नाम के साथ पूरा ब्यक्तित्व जुड़ा हुआ. रोमांटिक हीरो प्यारे मोहन, अखिलेस्वर प्रसाद अऊर सतीस आनंद, अभिनेत्री सत्या सहगल अऊर पुष्पा दी, कोमेडी माने सिराज दनापुरी अऊर निर्देसक तथा बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार भगवान साहू. ई सब के साथ-साथ एगो नाम जो हमरे दिमाग में बचपन से लेकर आज तक बना हुआ है ऊ नाम है श्री चतुर्भुज. खाली एक सब्द का नाम.

आकासबानी के गलियारा में एगो कमरा के सामने लकड़ी के तख्ती पर सफ़ेद पेंट से लिखा हुआ नाम “चतुर्भुज”. बिहार परदेस, जहाँ नाम से जादा महत्व जाति-सूचक नाम का होता है, ओहाँ खाली एक सब्द का नाम. आकर्षित हो गए हम ई नाम से. एगो मामूली से आदमी, पाँच फीट से बस तनी सा अधिक ऊंचाई, एकदम गोल चेहरा, मोटा फ्रेम का चश्मा, माथा पर बाल कम, मुस्कुराते हुए जब बात करते मुँह के अंदर छोटा-छोटा दाँत का कतार साफ़ देखाई देता था अऊर पान खाए हुए मुँह से उनका मुस्कराहट का रिफ्लेक्सन, उनके आँख में नजर आता था. आप कह सकते हैं कि ऊ पूरा चेहरा से मुस्कुराते थे.

अब सस्पेंस के साथ बात करना हमरा इस्टाइल है. इसलिए आप पूछियेगा कि जब हम ऊपर सब कलाकार का नाम बताए त इनका नाम काहे नहीं बोले. असल में इनका पहचान सबसे अलग है. इनका नाम सुनते ही आज भी बुद्ध, अशोक, मीरजाफर, शकुंतला, रावण, झांसी की रानी, बहादुर साह जफ़र सब याद आ जाते हैं. दरअसल चतुर्भुज जी अकेले अइसे नाटककार थे जो ऐतिहासिक नाटक के लिए जाने जाते थे. आकासबानी पटना, रांची, भागलपुर, दरभंगा कहीं भी अगर कोनो ऐतिहासिक नाटक का बात हो, त समझ जाइए कि बात इन्हीं से सुरू होकर, इन्हीं पर खतम हो जाने वाला है. रेडियो अऊर मंच पर अगर कोई भी इतिहास के पन्ना से निकलकर आपके बीच में चलता अऊर बोलता नजर आ रहा हो, त समझ जाइए कि उसके हाथ में चतुर्भुज जी का स्क्रिप्ट होगा. बिहार में रंगमंच पर अगर कोई ब्यक्ति इतिहास को दोबारा ज़िंदा करने का साहस कर सका है त ऊ केवल अऊर केवल चतुर्भुज जी रहे हैं. सही माने में उनके नहीं रहने पर ही इतिहास, इतिहास हुआ; नहीं तो ऊ इतिहास को कभी बर्तमान से पीछे जाने ही नहीं दिए.

अपने बारे में उनका सोच अऊर नाटक के प्रति लगाव कइसा था इसका अंदाज़ आप उनका कहा हुआ बक्तब्य से लगा सकते हैं:
“मेरी रंगयात्रा वैसी जीवनयात्रा से कुछ अलग है। मैं बचपन से ही रंगमंच से जुड़ा रहा। आज तक जुड़ा हॅूं। मैंने यह अनुभव किया कि मुझे जीवन में जो कुछ भी मिला, वह रंगसेवा की बदौलत। मैं मघ्यम वर्गीय परिवार से आता हॅूं। जीवन में सुख कम देखा, दुख-दारिद्र्य-अभाव अधिक देखा और भोगा। कई तरह की नौकरी की। एक नौकरी से अलग होता, दूसरी का दामन थामता। परिवार को भूखे रहने की भी नौबत आई।
इन सब के बीच एक बात जो बराबर बनी रही। एक सूत्र जो बराबर मेरे साथ रहा, वह है नाटक। नाटक की दुनिया अद्भुत है। नाटक ने मुझमें बराबर ऊर्जा दी, बराबर उत्साह दिया। ग़म को भूलने की शक्ति दी.”
स्वयं पाली भाषा में स्नातकोत्तर, नाट्य-शास्त्र में पी.एच-डी. तथा नाट्यशास्त्र के प्राध्यापक तक रहे. बहुत समय तक आकासबानी में रहे, ओहीं से रिटायर हुए. उनके बारे में एगो अऊर बात जो हमरे लिए आदर्स के जैसा रहा ऊ था उनका चरित्र. उनका लम्बाई-चौड़ाई लाल बहादुर शास्त्री जी के जैसा था अऊर चरित्र भी. आकासबानी में रहते हुए उनके साथ के केतना लोग अपने सपूत लोग को ओहीं के नौकरी में एडजस्ट करते चले गए. मगर चतुर्भुज जी कभी इसका सहारा नहीं लिए. उनका सब बच्चा लोग आज भी अपना बदौलत उच्चाधिकारी है.

फ्लैस-बैक समाप्त:
आज चतुर्भुज जी हमारे बीच नहीं हैं, मगर हमरे लिए आज भी लिजेंड से कम नहीं हैं. पारसी थियेटर से लेकर आधुनिक रंगमंच तक, नाटक लिखना, नाटक का निर्देसन करना अऊर अदाकारी करना. जो रोल बिधाता उनके लिए लिखता गया ऊ अदा करते गए. कभी भगवान से कुछ नहीं मांगे, मांगने के लिए कुछ था भी नहीं. जिन्नगी रंगमंच है अऊर हम लोग केवल कलाकार है जो अपना-अपना रोल निभाकर चले जाते हैं – ई बात सबके लिए त सेक्सपियेर का डायलोग होगा, मगर चतुर्भुज जी के लिए हकीकत था. उनका जीवन सचमुच रंगमंच था, जिसपर उनका जीवंत अभिनय देखने का मौक़ा मिलना हमरा सौभाग्य था.
आज पन्द्रह जनवरी को उनका जन्मदिन है!! हैप्पी बर्थ डे, बाबूजी!

पुनश्च:
चतुर्भुज जी के लिखे नाटक, उनका जीवन परिचय और उनके जीवन की झलकियां इस वेबसाईट पर उपलब्ध हैwww.chaturbhujdrama.com

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

कन्फ्यूज़न


तब हमरी बेटी छोटी थी. कलकत्ता में पैंटालून के स्टोर में उसको लेकर हम लोग गए. ओहाँ जाकर खेलौना देखकर उसका खुसी का ठिकाना नहीं रहता था. लगता था कि पूरा दोकान खरीद लेगी. मगर बच्चा का मन. एगो खेलौना उठाकर आगे जाती, त दोसरका लेने का मन करता अऊर उसके आगे कोनो अऊर. फाइनली जो हमलोग ले देते उसी से खुस. ऊ रोज हमलोग कपड़ा देखते हुए आगे बढ़ गए अऊर बेटी खेलौना वाला सेक्सन में पीछे रह गयी. ओहाँ पर जो कर्मचारी था ऊ देखा कि बच्चा अकेला रह गया है त उसके पास जाकर बोला, “तुम्हारे पापा उधर चले गए हैं!” हमरी बेटी अपना धुन में मगन थी, जवाब दी, “वो मेरे डैडी हैं, पापा पटना में रहते हैं!” हमलोग ई बात सुनकर अपना हंसी नहीं रोक पाए अऊर बेटी को लेकर आगे बढ़ गए. ऊ कर्मचारी बेचारा हैरान माथा पर प्रश्न चिह्न लिए हमलोग को देखते रह गया.

हमारे परिबार में बच्चा सब अपने बाप को परगतिसील अंगरेजी में डैडी बोलता है अऊर चाचा लोग को पापा. हम लोग भी भतीजा-भतीजी नहीं, बेटा-बेटी कहते हैं, जब कभी अन्य पुरुस में संबोधित करना होता है तब. मगर मामला इतने सिम्पुल होता, त हम ई पोस्ट नहीं लिख रहे होते. हमारा बेटा (एकलौता है खानदान में) हमको अऊर हमरी पत्नी को भैया-भाभी कहता है. का है कि बचपने से सबको एही बोलते सुना त ओही बोलने लगा. बच्चा लोग का त सोभाव होता है. हमरी बेटी अपनी माँ को सुरू सुरू में हमरा देखा-देखी नाम से बोलाती थी. एक दिन सिरीमती जी सिकायत की हमसे कि आपको देखकर ऊ हमको नाम लेकर बोलाती है. हम बोले कि समझाओ उसको, सुधर जाएगी. अब उसको समझाने के लिए हम तुमको मम्मी कहकर त नहिंये बोला सकते हैं.

बचपन में अईसा बात बहुत साधारण होता था. करीब-करीब हर घर में. हमरी छोटी फुआ हमरी माता जी को भाभी कहती थी, त हमरा फुफेरा भाई भी उनको भाभी कहने लगा था मामी कहने के बदले. हमरा एगो दोस्त अपनी दादी को अम्मा कहता था, काहे कि उसके माँ-बाबूजी दादी को अम्मा कहते थे.

मगर हमलोग के घर पीछे के पीछे रहने वाला दोस्त सिव कुमार के घर का रिवाज त अऊर अनोखा था. ऊ लोग अपनी दादी को “दादा” कहकर पुकारता था. अब इसका कारन त साधारण तौर पर समझ से बाहर था. त एक दिन हमलोग उसको पूछ लिए. ऊ जो कारन बताया ऊ त अऊर अनोखा था. ऊ लोग दादी को पहले दादी कहता था, मगर उसके दादा के देहांत के बाद उसकी दादी अपना सब पोता-पोती को बोलीं कि तुमलोग के सामने त हम जीवित हैं, मगर तुम लोग हमको दादा कहकर पुकारोगे त तुम्हारे दादा भी हमारे साथ जीवित रहेंगे. कमाल का प्रेम था अऊर कमाल का तरीका याद को ज़िंदा रखने का.

ई त था आदमी लोग का खिस्सा. हमरे यहाँ एगो तोता था. उमर में हमसे बड़ा. ऊ हमरी फुआ को बुच्ची, हमरी माता जी को दुल्हिन अऊर हमको बेटू कहकर बोलाता था. कमाल का तोता, ठेठ मगही भासा में बतियाता था. १९७५ के बाढ़ में गलती से डूबकर उसका स्वर्गवास हो गया. अगर ऊ आज ज़िंदा होता त हमरा सब पोस्ट का पोडकास्ट बहुत सफाई से कर सकता था. खैर, हमरे दादा जी से सबलोग को पुकारना सीखकर जइसे दादाजी बोलाते थे, वइसहीं ऊ भी बोलाता था.

अब सेक्सपियेर साहब भले बोल गए हों कि नाम में का रखा है. मगर रिस्ता का भी त नाम होता है. इन फैक्ट, रिस्ता का नाम से ही रिस्ता समझ में आता है. भाभी माने भाई की पत्नी, साला मतलब पत्नी का भाई, देवर मतलब पति का भाई. मगर इस तरह अगर रिस्ता का नाम में गुलमफेंट हो गया हो, त कैसे समझाया जा सकता है रिस्ता. उधर गुलजार साहब कहते हैं कि
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो,
प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो!
बात सही है, देवर-भाभी के रिस्ता के नाम के साथ जो मिठास है, भैया-दीदी के नाम के साथ जो स्नेह का खुसबू है, सब रूह से महसूस त किया जा सकता है, मगर ई रिस्ता का नाम सुनते ही, रिस्ता के साथ रिस्ता कायम होता है!

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

दस्तखत

बैंक में कस्टमर का पहचान दू तरह से होता है. पहिला, आपसी सम्बन्ध अऊर दोसरा हस्ताक्षर यानि सिग्नेचर से. आपसी सम्बन्ध त आदमी के ब्यौहार पर निर्भर करता है. मगर सिग्नेचर असली पहचान होता है. इसमें कोनों तरह के हेर-फेर का गुन्जाइस नहीं होता. हेर-फेर मतलब अंतर होने से पैसा नहीं निकल सकता है. अगर निकला, त उसको फ्रॉड यानि धोखा-धड़ी माना जाएगा. लेकिन कमाल का बात ई है कि बैंक में एगो प्रचलित मान्यता है कि समय के साथ-साथ सिग्नेचर बदल जाता है. इसलिए थोड़ा बहुत अंतर होने पर, बैंक के साथ सम्बन्ध या लोग से पहचान होने पर उसको सही मान लिया जाता है. हस्ताक्षर बदल जाने के हालत में नया सिग्नेचर जमा करने का भी प्रावधान है, ताकि आइन्दा कोइ दिक्कत नहीं हो.

एक बार हमारी बहन का डाक-घर में एगो फिक्स्ड डिपोजिट सात साल बाद पूरा हुआ. जब ऊ पैसा लेने गयी, त उसको पैसा देने से खाली इसलिए मना कर दिया गया कि उसका दस्तखत एकदम हू-ब-हू मिलता था. डाक-बाबू का कहना था कि अईसा कइसे हो सकता है कि सात साल में  दस्तखत नहीं बदला. ऊ दिन समझ में आया कि एगो ई भी मान्यता है कि अगर दस्तखत ओरिजिनल से एकदम मेल खाता हो, तो नकली है. ज़माना खराब है. नकली चीज असली से भी असली लगता है. आज अगर मुहम्मद रफ़ी को श्रद्धांजलि देने के लिए गाना का प्रतिजोगिता रखा जाए अऊर उसमें खुद मुहम्मद रफ़ी साहब गाना गाने चले जाएँ, त सायद टॉप थ्री में भी नहीं आ पायेंगे!

हस्ताक्षर में अंतर होने का कारन अलग-अलग होता है. कभी आदमी के बीमारी के कारन, कभी भूल जाने के कारन, कभी छोटा साइन के जगह पूरा साइन करने के कारन. मगर अपना तजुर्बा से कह सकते हैं कि कुछ बैंक के अधिकारी लोग के कारन भी सिग्नेचर में अंतर आ जाता है. ई अंतर अधिकतर महिला ग्राहक के साथ होता है. तनी एक्सप्लेन कर दें, नहीं त लोग हमको कहेंगे कि हम महिला का सम्मान नहीं करते हैं. अगर सुधेंदु बाबू जैसा आदमी दस्तखत मिलाने वाला अधिकारी हो, तब तो महिला ग्राहक का हस्ताक्षर में अंतर होना निश्चित है. खास करके ३० वर्ष से ४५ वर्ष तक उम्र वाली महिलाओं का तो पक्का है कि अंतर होगा. सारा दिन ऑफिस में उनका आवाज सुनाई देता रहता है ,”फलाँ देवी! आपका साइन में अंतर है. आइये आकर दुबारा साइन कीजिये!”
“सर! पिछला बार भी आप ऐसे ही कहे थे अऊर दोबारा हम ओही साइन किये त आप चेक पास कर दिए.”
“अब हमको भी तो नौकरी करना है!”
कभी-कभी कोइ कड़क आदमी, अगर महिला के साथ रहा तब तो हंगामा होते होते बचा है केतना बार.

हमारे ब्रांच के सामने एगो सिनेमा हॉल था, जिसके मालिक का पत्नी का अकाउंट हमारे इहाँ था. पत्नी जुबती थीं अऊर वहाँ के लिहाज से सुन्दर भी. मगर सबसे खतरनाक बात ई था कि ऊ औरत का देवर पहलवान टाइप आदमी था. सुधेंदु जी एकाध बार ऊ औरत को तंग कर चुके थे, तब ऊ पहलवान धमका भी गया था उनको.

एक दिन जीवन बीमा का एक चेक आया उस औरत के अकाउंट का. अऊर चेक देखते ही सुधेंदु जी उछल पड़े, “सिग्नेचर नहीं मिलता है!”
पूरा ब्रांच का लोग हंसने लगा, त ऊ बेचारे लजा गए. एगो स्टाफ पूछने लगा, “किस कुमारी या देवी का चेक है?”
“तुम लोग हमेशा ऐसे ही करते हो. शालिनी कुमारी का चेक है!”
“सोच लो! उसके देवर को पता चला तो..!”
“हम क्या डरते हैं उससे!!!” कहते हुए ऊ सिग्नेचर कार्ड वाला फोल्डर लेकर सबको देखाने लगे. संजोग से सारा ब्रांच इस बार उनसे सहमत था कि सिग्नेचर नहीं मिलता था और स्पेसिमेन से बहुत अंतर था. एक आदमी फोन किया उनके घर पर अऊर सब बात बताया. ईहो कहा कि आप आ जाइए, नहीं त बीमा का चेक वापस कर दिया जाएगा.

थोड़ा देर में ब्रांच के सामने फिएट गाड़ी रुका. शालिनी जी उसमें बैठी रहीं अऊर उनके देवर गोस्सा में अंदर दाखिल हुए. सीधा सुधेंदु जी के सामने जाकर खड़े हो गए अऊर बोले, “आपका लच्छन खराब है. अगर एही लच्छन रहा त पिटा जाइयेगा कोनो दिन! देखाइए कहाँ अंतर है साइन में?”
सुधेंदु जी तैस में जैसहीं सिग्नेचर वाला फोल्डर खोलकर देखाए, ऊ आदमी गोस्सा में लगभग कॉलर पकड़ लिया सुधेंदु जी का. बीच-बचाव के बाद देखा गया कि सिग्नेचर हू-ब-हू मिलता था. पूरा ब्रांच सन्न!! ई हुआ कैसे!! खैर, माफी मांगकर ऊ लोग को बिदा किया गया. तब सारा स्टाफ कुदरत का करिश्मा देखने भागा कि आखिर दू मिनट में सिग्नेचर बदल कैसे गया.

अऊर तब समझ में आया कि शालिनी जी पिछला बार नया साइन करके जमा की थीं. अऊर फोल्डर में ऊ गलत साइन के ऊपर नत्थी होने से रह गया था. जब सुधेंदु बाबू पहले साइन देखने गए अऊर सबको देखाए त गलत वाला सिग्नेचर सामने था. सब लोग बोल दिया कि अंतर है. मगर जब ऊ आदमी आया त फोल्डर में सही अऊर नया वाला साइन उसके सामने खुल गया.
 
फोल्डर का खुला, उनका भेद खुल गया अऊर ऊ दिन के बाद ऊ सीख गए कि महिला का इज्जत कैसे किया जाता है!